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कहो देबी, कथा कहो – 4

पिछली कड़ी

नवीन और मैंने एन सी सी भी ले ली.

एन सी सी की अपनी प्लाटून की परेड के दौरान एक दिन सावधान!…विश्राम! के बाद सुस्ताते समय एक कैडेट ने धीरे से पूछा, “तुम देवेन एकाकी हो?”

मैंने उसकी ओर अपरिचय से देख कर कहा, “हां”.

वह बोला, “तुम कहानियां लिखते हो?”

“हां” मैंने सकुचा कर कहा.

“मैं बटरोही हूं, लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही. मैं भी कहानियां लिखता हूं. फिर मिलना.”

परेड विसर्जन के बाद हम मिले. उसने बताया, वह बी.ए. में है और कालेज पत्रिका का छात्र संपादक है. मेरी कहानी को हिंदी परिषद् की कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कार मिला था. मैं विज्ञान वर्ग का विद्यार्थी था. उसे उत्सुकता थी कि कहानी लिखने वाला विज्ञान का विद्यार्थी कौन है. हमारी थोड़ी देर ही बातचीत हुई जिसमें उसने बताया कि एन सी सी में उसकी कोई रुचि नहीं है. यों ही नाम लिखा दिया था और जल्दी छोड़ देगा. उसकी रुचि केवल कहानियां लिखने में है और उसकी कुछ कहानियां छप भी चुकी हैं. उसे प्रेमचंद की कहानियां सबसे अच्छी लगती हैं. “मिलते रहना,” कह कर वह बूट खटखटाता चला गया.

मैं बहुत खुश हुआ कि कालेज में कहानियां लिखने वाला एक साथी मिल गया. सोचा, उसके साथ कहानियां पढ़ूंगा और उन पर चर्चा करूंगा. विज्ञान वर्ग में यह वर्जित क्षेत्र था. बटरोही के साथ मिलते-मिलाते परिचय बढ़ता गया और हम कुछ कर दिखाने के मंसूबे बांधने लगे. मैं स्वभाव से जितना ही संकोची था, बटरोही उतना ही मुखर. इसलिए उसका परिचय भी काफी था. उसके कारण कई सहपाठियों से मेरा भी परिचय हो गया.

एक बार बातों-बातों में विचार आया कि क्यों न विभिन्न रुचियों के सहपाठियों का पता लगा कर उन्हें एक मंच पर लाया जाए? हमने देखा, विद्यार्थियों में से किसी को लिखने का शौक है, कोई चित्रकार है, किसी की रुचि संगीत में है, किसी की अभिनय में, किसी की खेलकूद में, तो कोई वाद-विवाद में आगे रहता है. इस विचार ने हमें उत्साह से भर दिया. हमने विभिन्न रुचियों के विद्यार्थियों की खोज शुरु कर दी. ऐसे विद्यार्थी, जो चलती-फिरती खुराफातों के बजाय जागरूक खुराफातें करते हों. साथ ही, अपनी इस नई एसोसिएशन का नाम भी सोचने लगे. लेकिन, एसोसिएशन क्यों? यह तो घिसी-पिटी चीज हो जाएगी. इसमें नयापन नहीं है. हम कुछ करेंगे तो हट कर करेंगे. मिल-बैठ कर चर्चा कीः बटरोही, मैं, डी एस लायल, वेदश्रवा, सुबोध दुबे, मिताली गांगुली, बसंती बोरा और पुष्पेश पंत. नाम रखा ‘द क्रैंक्स’. अध्यक्ष यानी सुपरक्रैंक बनाए कालेज के प्रिंसिपल और भौतिक विज्ञानी डा. देवीदत्त पंत. साथ में डा. विश्वंभर नाथ उपाध्याय, डा. मोहनलाल, डा. बांबवाल, डा. मायाराम और प्रो. निरंकारस्वरूप श्रीवास्तव. विभिन्न रुचियों के विद्यार्थी जुटते गए. उद्घाटन के लिए आचार्य कृपलानी को बुला लाए. हमने द क्रैंक्स की ओर से कई गतिविधियां आयोजित कीं: एक सफल कला प्रदर्शनी जिसमें सईद, कुसुम स्याल, रघुनंदन सिंह तोलिया, अजित कुंवर, ई एन खान, देवेन मेवाड़ी, मिताली गांगुली, नवीन भट्ट के चित्र और रमेश थपलियाल के व्यंग्य चित्र प्रदर्शित किए गए. आइंस्टाइन के आपेक्षिकता वाद और नीर्लीकर-हायल सिद्धांत पर व्याख्यान, कहानी और विकासवाद पर सेमीनार, प्रेम विवाह की सफलता-असफलता पर वाद-विवाद आदि.

द क्रैंक्स ने कालेज में एक रचनात्मक सुगबुगाहट पैदा की और विभिन्न रुचियों के विद्यार्थी पढ़ाई के साथ-साथ अपनी-अपनी रुचि के क्षेत्र में काम करने के लिए प्रेरित हुए. बटरोही, मैं, मिलाती गांगुली, महेश जोशी, ओम प्रकाश कहानियां लिखने लगे. वीरेन डंगवाल, एम. सईद, मिताली, श्याम टंडन कविताएं रच रहे थे. एम. सईद, आर.एस.तोलिया व कुछ अन्य साथी चित्रकला में प्रयोग कर रहे थे.

तब हमारे कालेज के विद्यार्थियों में प्रतियोगी परीक्षाएं देने का एक अलग जोश होता था. चलते-फिरते, उठते-बैठते और माल रोड में घूमते समय आपस में जनरल नालिज के सवाल दुहराए जाते थे. नगरपालिका पुस्तकालय में रोज अखबारों के पन्ने पलटे जाते थे. किसी की रुचि आइ.ए.एस. या पी.सी.एस. में होती थी तो कोई आइ.पी.एस. या पी. एफ. एस. की तैयारी करता. पी. एफ.एस. यानी प्रांतीय वन सेवा. वन सेवा? मैंने पहली बार सुना और मेरी आंखों में चमक जाग गई. यही तो था मेरी पसंद का क्षेत्र! मुझे पेड़-पौधों से प्यार है और वनस्पति विज्ञान में ही एम.एस.सी. भी कर रहा हूं. मैंने तय किया किया, मैं भी वन सेवा की परीक्षा दूंगा. और, बी.एस-सी. करने के बाद इलाहाबाद जाकर लोक सेवा आयोग की परीक्षा दे आया. पास भी हो गया. मैरिट सूची में भी नाम आ गया. 25 रिक्तियां थीं और मेरा तेईसवां स्थान था. बस, कुछ और सफल हुए साथियों के साथ मैं भी ताल के चारों ओर सुबह-सुबह लंबी दौड़ लगाने लगा.

घुड़सवारी और तैराकी का भी अभ्यास चलता रहा. कुछ साथियों का बुलावा आ जाने के बाद दिल की धुकधुकी बढ़ गई. मैं अपने बुलावे का बेसब्री से इंतजार करने लगा. लौट कर साथियों ने बताया कि दो-चार प्रतियोगी मेडिकल में पास नहीं हुए. अब तैयार रहो, तुम्हारा बुलावा आता ही होगा.

लेकिन, मुझे बुलावे की चिट्ठी नहीं मिली, कहां गई कुछ पता नहीं. बाद में सुनने में आया कि रिक्तियां भर ली गई हैं. मैं हपकपाल रह गया. मेरा क्या दोष था? क्या वे नहीं जानते, मुझ जैसे विद्यार्थी दूर-दराज गांवों से कितना संघर्ष करके यहां तक पहुंचते हैं? वनों में ही पले-बढ़े, वनस्पति विज्ञान पढ़ रहे और कड़ी मेहनत से परीक्षा में पास हुए मुझ जैसे विद्यार्थी उन्हें नहीं चाहिए? बहुत निराशा हुई. लेकिन, हार नहीं मानी. निश्चय किया, अगले वर्ष फिर परीक्षा दूंगा.

परीक्षा दी. परीक्षा देने के लिए इलाहाबाद जाने से ठीक पहले अपनी छोटी-सी डायरी में लिखाः ‘कल जा रहा हूं, फिर अपना भविष्य बनाने. मेरा जीवन वनस्पतियों के बीच है. मेरे सर्वाधिक परिचित केवल पेड़-पौधे हैं. केवल पेड़-पौधे…..मैं चाहूंगा कि मुझे सौ लोगों के बीच से हटा कर केवल चंद पेड़ों तले छोड़ दिया जाए. मैं वहीं जीने की इच्छा रखूंगा…’ (22 जुलाई 1965). हां, तो गया. नैनीताल से काठगोदाम, काठगोदाम से बरेली सिटी, फिर तांगे से बरेली जंक्शन. दोनों ट्रेनें छूट गईं. रात 3 बजे तक स्टेशन पर प्रतीक्षा. 3.20 बजे अपार भीड़ में घुस कर ट्रेन से लखनऊ के लिए रवाना. प्रातः लखनऊ. भीषण वर्षा. फिर स्टेशन. कोई ट्रेन नहीं. अगली सुबह भीषण वर्षा में बस से प्रतापगढ़. वहां से फिर बस से रात 9 बजे इलाहाबाद. सिंध-बांबे होटल, कमरा नं.7.

लिखित परीक्षा में फिर पास. साक्षात्कार का बुलावा आया. सभी साथी खुश. पुष्पेश पंत लंघम छात्रावास ले गया. वहां प्रफुल्ल यानी पी आर एस बरार से मिलाया. वह आइ पी एस में पास हो गया था. प्रफुल्ल और मैं एन सी सी में साथ थे. वह मेरे दाईं ओर खड़ा होता था. पुष्पेश ने मुझसे कहा, “इस बार तुम प्रमुल्ल का सूट पहन कर इंटरव्यू दोगे. तुम्हारी कद-काठी एक-सी है. सूट फिट आएगा.” मुझे प्रफुल्ल का ट्वीड का भूरा कोट, वोस्टेड की पेंट, टेरेलीन की मुलायम सफेद कमीज और भूरी टाई पहनाई गई. कपड़े फिट आ गए और मुझे दे दिए गए. मैंने वे कपड़े पहन कर 11 नवंबर 1965 को लोक सेवा आयोग, इलाहाबाद में साक्षात्कार दिया जो संतोषप्रद रहा. परिणाम घोषित हुआ और इस बार 30 रिक्तियों के लिए मेरा नाम मैरिट में 18 वें स्थान पर था. यानी, इस बार शर्तिया चुन लिया जावूंगा.

लेकिन, नहीं. ऐसा हुआ नहीं. सुनने में आया कि केवल 15 रिक्तियां भरी जा रही हैं. हताशा में मुख्य अरण्यपाल, उत्तर प्रदेश को एक लंबा भावुक पत्र लिखा. लिखा कि मेरी क्या गलती है? दो बार मैरिट में पास होकर भी मुझे क्यों नहीं बुलाया गया है? उत्तर प्रदेश के मुख्य अरण्यपाल कोई सोनी जी थे. उन्होंने उत्तर दिया, ‘वन विभाग में मुझे आप जैसे ही युवक चाहिए. आपकी फाइल मैं पुनः शासन को भेज रहा हूं.’ मुझ गांव के बच्चे की इतनी पहुंच-पहचान थी नहीं कि कुछ और पता लग पाता. आक्रोश में भर कर उस समय की चर्चित पत्रिका ‘दिनमान’ को पत्र लिख भेजा. ‘दिनमान’ ने उसे प्रकाशित कर दिया. इसके साथ ही मेरी आशा-निराशा और आक्रोश का तूफान शांत हो गया. मैं और कर भी क्या सकता था?

मैं तो कुछ नहीं कर सकता था, लेकिन वन सेवा में पास हो जाने और ए सी एफ यानी उप-अरण्यपाल पद के लिए चुने जाने की उड़ती खबर मुझे जीवन के कुछ रंग जरूर दिखा गई….उन्हीं दिनों एक दिन घर जाते समय धानाचुली मोड़ पर हमारी बस रुकी. लोग उतरे, मैं भी उतरा. बस बदलनी थी. सामने दो-चार छोटी-छोटी चाय की दूकानें थीं. एक दूकान में से अचानक एक आदमी भागा हुआ आया और उसने मेरा नाम-धाम पूछा. शक दूर होते ही उसने मेरे कंधे पर लटका हलका-फुलका बैग झपट लिया. मैंने बहुत मना किया मगर वह नहीं माना. बोला, “नहीं, नहीं, इसमें क्या बात है. मैं पकड़ूंगा. आप तो अपने ही हुए. आप ओखलकांडा दीवान सिंह मास्साब के भाई हैं ना?”

मेरी “हां” सुन कर बोले, “वही तो, मैं तो कही रहा था.” दूकान में ले जाकर बोले, “मैंने आपको पहचान लिया था.” बातें करते-करते उन्होंने चाय बना दी. आलू के गुटकों के साथ चाय देकर बोले, “लीजिए चाय पीजिए.”

मैं सकुचाया, “नहीं, नहीं, रहने दीजिए. अभी मन नहीं है.”

“अरे नहीं साब, चाय ही तो है- एक घुटुक. पी लीजिए.”

मुझे चाय पीनी पड़ी. अभी पी ही रहा था कि उन्होंने धीरे से पूछा, “हमने कुछ सुना जैसा कि आप ए सी एफ के इम्तहान में पास हो गए हैं?”

“होई, पास तो हो गया हूं. अब देखिए ट्रेनिंग के लिए कब बुलाते हैं, ” मैंने कहा.

वे चहक कर बोले, “पास हो गए हैं, ये बड़ी बात है. ट्रेनिंग के लिए तो बुला ही लेंगे.“ फिर जोर देने लगे, “थोड़ी-सी चाय और ले लीजिए, आलू दूं?”

मैं डर रहा था कि चाय-गुटकों के पूरे पैसे जेब में हैं भी कि नहीं.

तभी उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा, “मेरा भी बच्चा ओखलकांडा में ही पढ़ता है. मास्साब उसे अच्छी तरह जानते हैं. वहां से पास हो जाएगा तो फिर आगे….आप ही लोगों से आशा हुई. ठीक है कि नहीं? अब भगवान ने सुन ली है. आप ए सी एफ हो रहे हैं. वन विभाग में कहीं उसके लिए भी आप पैर टिकाने की जगह बना ही देंगे. क्यों? अब, अपनों से ही तो कह सकने वाले ठैरे, है कि नहीं?”
वे फिर झोला पकड़ कर मुझे बस में बैठाने के लिए चलने लगे तो मैंने हाथ जोड़ कर कहा, “आप बैठिए. मैं चला जाऊंगा.”

“अच्छा, फिर याद रखिएगा, हां?”

मैंने कहा, “जी हां” और उन्हें नमस्कार करके बस में आकर चुपचाप बैठ गया.

जब मेरे अन्य चुने गए साथी बुला लिए गए और आगे बुलावे की कोई उम्मीद नहीं रही तो ‘रह गया, इस बार भी रह गया बेचारा’ जैसी खबर उड़नी ही थी. उड़ी.

‘द क्रैंक्स’ – बाएं से: श्याम टंडन, ओमप्रकाश, सईद, बटरोही, देवेंद्र मेवाड़ी, रमेश थपलियाल और जमीन पर नटखट वीरेन डंगवाल (रेखांकन: रमेश थपलियाल). 1965

कुछ समय बाद एक दिन मैं फिर घर जा रहा था. इस बार मेरे पास चीनी का कट्टा था. धानाचूली बैंड पर उतर कर ओखलकांडा के लिए फिर बस बदलनी थी. उतरने लगा तो देखा बूंदा-बांदी होने लगी है. चीनी का कट्टा भारी था. अकेले उतारने में मुश्किल हो रही थी. चीनी भीगने का डर भी था. मैंने परेशान होकर इधर-उधर देखा. उस दूकान की ओर आशा से देख कर हाथ हिलाया. चाय वाले ने देखा भी, लेकिन अनदेखा कर दिया. मैंने उनके पास जाकर कहा- थोड़ा हाथ लगा दीजिए. उन्होंने इधर-उधर करके बहाना बना दिया. मैं रुंआसा हो गया. आखिर, कट्टे का सिरा पकड़ कर खिसकाते हुए पीठ पर लादा और पास की एक और दूकान के भीतर रखा. बस आने पर दूकान में काम करने वाले लड़के की मदद से कट्टा बस के भीतर रखवाया. नौकरी लगने से भी पहले उस दिन वक्त ने मुझे ओहदे और बिना ओहदे का फर्क अच्छी तरह समझा दिया.

खैर, जो हुआ सो हुआ. लेकिन, अब क्या करूंगा? दो बार धोखा खा चुका था. कुछ लोगों ने अफसोस जताते हुए कहा भी- आज कोई नेता या ऊंचा अधिकारी पहचान का होता तो काम बन जाता. लेकिन, न ऐसा कुछ था, न हमें इस रास्ते पर जाना था. अपनी मेहनत और अपने बलबूते पर कुछ बनने का ही सपना देखता रहा था. सोचा, अब कौन-सा सपना देखा जाए?

हमें नहीं पता होता है कि कल क्या होने वाला है. और, यह भी नहीं कि ज़िदगी कहां और क्या मोड़ लेने वाली है. मैंने वन सेवा का सपना टूटने के बाद मार्च के अंतिम सप्ताह में एम.एस-सी. की परीक्षा दी और भविष्य के बारे में सोचने लगा. परीक्षा दिए हुए अभी अठारह दिन ही बीते थे कि एक दिन अखबार में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (पूसा इंस्टीट्यूट) का विज्ञापन देखा. शोध सहायक के पदों को भरा जाना था. मैंने विज्ञापन पढ़ा और सोचा ‘मत चूके चौहान’. लेकिन, ‘चौहान’ का तो अभी रिजल्ट भी नहीं निकला था. वह अभी एम.एस-सी. हुआ ही नहीं था. तो क्या किया जाए? निश्चय किया, आवेदन पत्र में ही साफ लिख दूंगा कि प्रथम या अच्छी द्वितीय श्रेणी में पास हो जावूंगा और इंटरव्यू के समय मार्कशीट दिखा दूंगा. यही किया. रोज़गार दफ्तर में नाम लिखा कर फार्म भरा और भेज दिया. अन्य साथियों ने यह खतरा मोल नहीं लिया क्योंकि एम.एस-सी. की न्यूनतम योग्यता अभी हासिल नहीं हुई थी. मुझसे भी बोले- सब कुछ जानते हुए भी बस तुक्का मार रहे हैं. ऐसा तुक्का लगता है कहीं?

लेकिन, तुक्का लग गया. 20 जून को पूसा इंस्टीट्यूट से इंटरव्यू के लिए बुलावा आ गया. 30 मई को रिजल्ट निकल चुका था और मैं अच्छी द्वितीय श्रेणी में एम.एस-सी. पास हो चुका था. मेरे दो सीनियर सहपाठियों- कैलाश पंत और बी डी जोशी को भी बुलाया गया था.
दिल्ली शहर हमारे लिए हौव्वा था. वहां कभी गए नहीं थे. सुनते थे, वहां अपार भीड़ होती है, सड़कें पार करना मुश्किल हो जाता है, पता-ठिकाना खोजना आसान नहीं है और आटो-टैक्सी वाले ठग लेते हैं. हम तीनों साथी परेशान हो उठे लेकिन सोचा नौकरी खोजने के लिए जाना तो पड़ेगा ही. इसलिए गए. तारीख थी 28 जून 1966. दिल्ली स्टेशन से बाहर निकल कर किसी होटल में जाने की बात सोच ही रहे थे कि एक टैक्सी वाले ने पास आकर पूछा, “कहां जाओगे?”

“होटल. आसपास है कोई होटल?”

“हां, आइए. छोड़ देता हूं.”

हम टैक्सी में बैठे. काफी देर घुमाने के बाद उसने कहा, “यहां पूछ लीजिए. यह होटल है.”

हमने देखा, चारों ओर बड़ी-बड़ी इमारतें. हम एक गली में खड़े थे. सामने लिखा था- ‘जीवन लाज’. हमने पूछा, “ये कौन-सी जगह है?”

“कनाट प्लेस. दिल्ली में सबसे अच्छी जगह यही है.”

दिल्ली में सबसे अच्छी और सबसे महंगी जगह, हमने भी सुना था. दिल धक्क से रह गया. सोचा, यहां तो हम लुट जाएंगे. हमने उससे कहा, “इतनी महंगी जगह क्यों लाए? कोई और होटल नहीं है क्या?”

हम उससे बहस कर ही रहे थे कि एक आदमी पास आया. थोड़ी देर हमारी बातें सुनता रहा. फिर बोला, “ठीक है, ठीक है. अपने पैसे लो और जाओ. कितने पैसे हुए?”

हमने चौंक कर उसकी ओर देखा कि अब यह कौन आ गया बीच में? इसका क्या मतलब? उसने हमारी ओर हाथ से इशारा किया कि जरा रुकिए अभी बताता हूं. बहरहाल, टैक्सी वाले ने पैसे बताए तो उस आदमी ने उसे डपटा, “सामने स्टेशन से इतने पैसे?” थोड़ी बहस के बाद हमने उसे पैसे दे दिए और वहां खड़े आदमी से सशंकित होकर पूछा, “भाई साब, यहां आसपास कोई सस्ता होटल मिल जाएगा?”

वह मुस्कुरा कर बोला, “यह तो कनाट प्लेस है. यहां बहुत महंगा कमरा मिलेगा. लेकिन, आप आइए तो मैं आपके लिए कुछ इंतजाम करता हूं.” वह हमें ‘जीवन लाज’ में ले गया.

हमने फिर पूछा, “आप जानते हैं यहां किसी को?”

उसने ‘हां’ कहते हुए एक लड़के से कमरा खुलवाया. हमें बिठाया और बोला, “मेरा नाम सरदार सिंह है. अल्मोड़ा से हूं. नैनीताल की लंदन हाउस दूकान में काफी समय काम किया था. यहां मैनेजर समझ लीजिए.”

सुन कर हमारी जान में जान आई. कहा, “भाई साहब, आप तो घर के ही हैं.”

सरदार सिंह ने कहा, “मैं टैक्सी वाले के साथ आप लोगों की बातचीत सुन कर ही समझ गया था कि आप लोग पहाड़ से आ रहे हैं. ऐसा करते हैं, यह सिंगिल रूम है. इसी में गद्दे बिछा कर तीनों रह लीजिए. सिंगिल रूम के ही किराए में काम चल जाएगा. बाकी, हमसे जो हो सकेगा, वह हम करेंगे. ठीक है?”

हमने कृतज्ञता से हाथ जोड़ दिए. उस अनजान शहर में हमें मदद करने वाला आदमी मिल गया था. शाम हो गई थी. सरदार सिंह ने दो-तीन बार चाय पिला दी. फिर कमरे में ही रात का खाना भिजवा दिया. खाना खाकर हम फटाफट सो गए. सुबह इंटरव्यू देना था.
इंटरव्यू में दो दिन लग गए. इंटरव्यू कमेटी के चेयरमैन थे डा. एम.एस. स्वामिनाथन. वहां लोगों ने बताया वे पूसा इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर हो गए हैं और डा. बी.पी. पाल जो अब तक डायरेक्टर थे, वे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक बन गए है. खैर, इंटरव्यू दिया. एम.एस-सी. की मार्कशीट दिखा कर जमा कर दी. उधर होटल में सरदार सिंह ने पूरी मदद की. लौटने के लिए लड़का भेज कर ट्रेन के टिकट मंगवाए. इतना ही नहीं, ट्रेन में बैठा भी गए. अनजान शहर में उनकी आत्मीयता ने हमें भीतर तक छू लिया. नैनीताल लौट कर मैंने सरदार सिंह को पत्र भेजा.

20 जुलाई को पूसा इंस्टीट्यूट के रजिस्ट्रार की ओर से नियुक्ति पत्र मिल गया. मैं बहुत खुश हुआ. मुझे देश के एक जाने-माने संस्थान में शोध कार्य करने का मौका मिल गया था. मेरी नियुक्ति पादप प्रजनन एवं आनुवंशिकी विभाग में की गई थी. यानी, मेरा आबो-दाना पहाड़ों से दूर दिल्ली में लिखा था. मेरे दोनों साथी भी चुन लिए गए.

“तो क्या फिर दिल्ली चले गए?”

“बिल्कुल. लेकिन, नैनीताल ने मुझे बहुत कुछ दिया. यही मेरी साहित्य की प्रयोगशाला थी. वहीं मेरी कलम ने लिखना सीखा.”

“कैसे?”

“बताता हूं.”

(जारी)

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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