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इल्म-ओ-अदब का शहर लखनऊ

कहो देबी, कथा कहो – 32

पिछले कड़ी कहो देबी, कथा कहो –31

काम भी खाना-खज़ाना भी, यह सब तो ठीक मगर इल्म-ओ-अदब के गलियारों में भी तो पहुंचना था, जहां बातें हों, मुलाकातें हों और मेरी कलम चलती रहे. तो, मिलूं तो किससे मिलूं? इतने बड़े शहर में सिर्फ एक साथी को जानता था, मगर उससे कभी मिला न था. मैं जब ‘नैनीताल समाचार’ में ‘पाटी-दवात’ के बहाने अपने बचपन के दिनों को याद कर रहा था तब वह साथी इसी शहर लखनऊ से उसी अखबार में ‘प्रवासी की डायरी’ के पन्नों पर पहाड़ से प्रवास का दर्द बयां कर रहा था. उसकी कहानियां भी मैंने पढ़ी थीं. दिल में यह ख्वाहिश लेकर आया था कि लखनऊ जाऊंगा तो उस साथी नवीन जोशी से जरूर मिलूंगा. तो, मिला उससे. एक दिन विधानसभा मार्ग पर हुसेनगंज से पहले पायनियर-स्वतंत्र भारत अखबारों के कॉम्प्लैक्स में पहुंचा और साथी नवीन का नाम पूछते-पूछते ‘स्वतंत्र भारत’ में उसकी मेज तक पहुंच गया. दुआ-सलाम हुई और आधे घंटे बाद हम इस तरह बातें कर रहे थे, गोया सदियों से एक-दूसरे को जानते हों. दुबले-पतले, ऊर्जा से भरे नवीन ने उस मुलाकात में इल्म-ओ-अदब से जुड़े शहर लखनऊ के तमाम लोगों के बारे में बताया- अखबारों से जुड़े लोग, रेडियो-टेलीविजन और रंगमंच से जुड़े लोग. तभी खुद नवीन के बारे में पता लगा कि वे विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं और बी.एस.सी. फाइनल की परीक्षा दी ही थी कि अशोक जी ने एक लेख पढ़ कर पत्रकार बना दिया.

“अशोक जी ने?”

“हां, वे तब ‘स्वतंत्र भारत’ जाने-माने संपादक थे. हुआ यह कि मैंने मेरी टाइलर की किताब ‘माइ इयर्स इन एन इंडियन प्रिजन’ पढ़ी. उसमें हजारीबाग जेल में बिताए दिनों की कहानी कही गई थी. उस किताब ने मेरे भीतर खलबली मचा दी. मैंने उस पर एक लेख लिखा और सोचा उसे ‘स्वतंत्र भारत’ में दे दूं. यह पता तो था नहीं कि लेख किसे कहां देना है, इसलिए जाकर समाचार संपादक की मेज पर रख आया और यूनिवर्सिटी चला गया. मैंने बी.एस.सी. के बाद एम.ए. अर्थशास्त्र में एडमिशन ले लिया था. शाम को लेख के बारे में पूछने गया तो वहां भीतर से मेरी टाइलर, मेरी टाइलर आवाजें आ रही थीं. चंद्रोदय दीक्षित जी, कमरे में आए तो मेरा हाथ पकड़ कर अशोक जी के कमरे में ले गए और बोले, “यह रहा नवीन जोशी.”

अशोक जी देख कर हैरान भी हुए और खुश भी. बोले, “हमारे साथ काम करोगे? पत्रकार बनोगे?”

मैंने कहा, “अभी तो मैं पढ़ ही रहा हूं. एम.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षाएं होने वाली हैं.”

नवीन जोशी

“कोई बात नहीं, परीक्षा दे दो, फिर चले आना,” अशोक जी ने कहा. लेकिन, उस साल हालात इतने खराब थे कि परीक्षाएं हुई ही नहीं. तब मैं अशोक जी की शरण में चला गया. और, इस तरह उनके कहने पर मैं पत्रकार बन गया.

‘स्वतंत्र भारत’ में नवीन जोशी तब रविवारीय पत्रिका का संपादन कर रहे थे. सन् 1978 में विश्व की पहली परखनली शिशु का जन्म हो चुका था और परखनली शिशुओं के भविष्य पर गर्मागर्म बहस जारी थी. तो, साथी नवीन ने मुझसे परखनलियों के भविष्य पर एक लेख लिखने को कहा. मैंने वह लेख लिखा- ‘आने वाले कल के बच्चे कैसे होंगे?’ जो ‘स्वत्रंत भारत’ की रविवारीय पत्रिका में रविवार, 12 दिसंबर 1982 को प्रकाशित हुआ. नवीन ने लेख के हाइलाइट में लिखा था, “आपको कैसा बच्चा चाहिए? अपनी पसंद के बच्चे का आर्डर दीजिए, वह तैयार मिलेगा! जी हां, कल के बच्चे बेबी फैक्ट्रियों में आर्डर पर तैयार हो रहे होंगे!”

पंतनगर में था तो वहां के गोलीकांड पर ‘अमृत प्रभात’ के साथी मंगलेश डबराल ने मेरा लेख ‘चौराहे पर चांदमारी’ अपने अखबार में छापा था. लिहाजा, कुछ तो परिचय था. इसलिए एक दिन ‘अमृत प्रभात’ के दफ्तर पहुंचा और मंगलेश जी से मिला. मिल कर वे बहुत खुश हुए और ‘अमृत प्रभात’ के रविवारीय परिशिष्ट के लिए विज्ञान के लेख लिखने को कहा. वे उन संपादकों में से एक थे, जिनका कहा टाला नहीं जा सकता. मैंने तब अमृत प्रभात में कई लेख लिखे. उन्होंने साथी शैलेश से परिचय कराया जिनके साथ दोस्ती गहराती गई. एक दिन पंतनगर में पढ़ा, एक इंजीनियर दोस्त घर पर मिलने आया. लौटते समय देखा कि उसका स्कूटर गायब है. मैं न्यू हैदराबाद में शैलेश के पास भागा हुआ गया. वहां शैलेश और उन दिनों लखनऊ के नामी फोटो पत्रकार संजीव प्रेमी रसरंजन का आनंद उठा रहे थे. मुझे देख कर खुश हुए. जब मैंने उन्हें स्कूटर गायब होने की बात बताई तो साथी संजीव ने पुलिस महकमे को खड़खड़ाना शुरू किया. कोई मिला, कोई नहीं मिला लेकिन संजीव ने कहा कि यह हो क्या रहा है? महानगर वायरलैस चौराहे से एक स्कूटर चोरी हो गया है. उसे तुरंत पकड़ें. बहरहाल पुलिस हरकत में आई और चोर को इटौज़ा के पास पकड़ लिया गया. रात भर में परिचित साथी को वह नया स्कूटर वापस मिल गया.

मंगलेश डबराल

मंगलेश जी और शैलेश के साथ की बहुत सारी यादें मन में हैं. मुझे विज्ञान लेखक बनाने में मंगलेश जी का बड़ा योगदान है. बाद में ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ भी लखनऊ से प्रकाशित होने लगे. मैंने ‘नवभारत टाइम्स’ के ‘खेत-खलिहान’ परिशिष्ट के लिए भी लेख लिखे. मैं अक्सर नवभारत टाइम्स के साथियों की मंडली में उनके दफ्तर के पास एक ढाबे में बैठा करता था जहां हम आदर के साथ उसी अखबार के वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र शर्मा जी की जै-जै बोला करते थे.

नवीन से परिचय हो गया तो एक दिन आकाशवाणी के ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम के बंशीधर जिज्ञासु जी मिलने घर पर आ गए. उन्होंने वार्ता का विषय देकर बताया कि रिकार्डिंग के लिए कब आना है. वहां गया तो उसी कार्यक्रम के जीत सिंह जरधारी जी से परिचय हो गया. वे बोले, आपकी अगली वार्ता का विषय होगा, ‘धार में पेड़’. एक छोटी-सी पहाड़ी पर खड़े अकेले पेड़ को देख कर आपने पूरे पर्यावरण की बात करनी है. बाद में उन्होंने एक बार कहा, “जुलाई आने वाला है. आपने ‘वे पहले क़दम’ विषय पर वार्ता देनी है. चांद पर पड़े उन पहले क़दमों पर.” मैंने वार्ता दी. उत्तरायण में जिज्ञासु जी के कहने पर मेरी पत्नी लक्ष्मी ने भी कुमाउंनी भाषा में कई वार्ताएं दीं.

रेडियो में आवाजाही शुरू हुई तो ‘विज्ञान जगत’ कार्यक्रम से जुड़े मुक्ता शुक्ल जी ने एक वार्तालाप के लिए बुला लिया. विषय था, ‘धूमकेतु’. वर्ष 1982 में प्रसिद्ध हेली धूमकेतु हमारे आकाश में था. इसलिए धूमकेतु के बारे में लोगों के मन में बहुत जिज्ञासा थी. वहां प्रोग्राम एक्जिक्यूटिव वी.एस.श्रीवास्तव जी से मुलाकात हुई तो वे बोले कि आप विज्ञान लेखक हैं, इसलिए आपको हमारे ‘विज्ञान जगत’ कार्यक्रम में आते रहना चाहिए. हम बुलाएंगे आपको. फिर तो विज्ञान वार्ताओं का सिलसिला ही शुरू हो गया. आकाशवाणी, लखनऊ केन्द्र से मेरी विज्ञान वार्ताएं प्रसारित होने लगीं. उसी बीच साथी नवीन जोशी ने ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में प्रकाशित मेरी विज्ञान उपन्यासिका ‘सभ्यता की खोज’ का नाट्य रूपांतर किया और उसे वरिष्ठ प्रोड्यूसर कमल जी को दे दिया. कमल जी ने बड़े मन से वह रेडियो नाटक प्रोड्यूस किया जो आकाशवाणी, लखनऊ केंद्र से प्रसारित हुआ. उस वर्ष रेडियो नाटकों की वार्षिक प्रतियोगिता के लिए आकाशवाणी लखनऊ से वही नाटक ‘सभ्यता की खोज’ भेजा गया था.

वहां का एक और अद्भुत यादगार अनुभव है. दिन था, 5 अप्रैल 1984. सोवियत संघ के बायकानूर अंतरिक्ष केन्द्र से 3 अप्रैल 1984 को सायंकाल ठीक 6 बज कर 38 मिनट पर सोवियत संघ से ‘सोयूज टी-11’ अंतरिक्षयान सितारों की दुनिया की ओर रवाना हो चुका था. उस भारत-सोवियत संयुक्त उड़ान में प्रथम भारतीय अंतरिक्ष यात्री स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा भी मौजूद थे. मैं उस दिन आकाशवाणी, लखनऊ से ‘अंतरिक्ष में मानव’ विषय पर सजीव वार्ता दे रहा था. वार्ता का समय संयोग से उन ऐतिहासिक क्षणों से ठीक पहले था अब प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को अंतरिक्ष में राकेश शर्मा से बात करनी थी. मेरी वार्ता के अंतिम वाक्य थे, “आज से तेईस वर्ष पूर्व 12 अप्रैल 1964 को विश्व के प्रथम अंतरिक्ष यात्री मेजर यूरी गगारिन ने वोस्तोक-1 अंतरिक्षयान में बैठ कर तारों की छांव में अपने पांव रखे थे. और, तेईस वर्ष बाद सोयूज टी-11 में विकासशील तीसरी दुनिया के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा ने अंतरिक्ष की यात्रा की है. अंतरिक्ष में उन्होंने अपने प्रयोग शुरू कर दिए हैं और अभी कुछ मिनट बाद ही वे अंतरिक्ष प्रयोगशाला सैल्युत-7 से सीधे प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से बात करेंगे.”

तभी, स्टूडियो में धीरे से मुझे एक स्लिप दी गई. उस पर लिखा था- क्षण भर रुक कर यह उद्घोषणा कर दें: श्रोताओ, प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी कुछ ही क्षणों में प्रथम अंतरिक्ष यात्री स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा से बात करेंगीं. कृपया प्रतीक्षा करें.

और, तभी अंतरिक्ष में राकेश शर्मा से संपर्क जुड़ गया और श्रीमती गांधी ने उनसे पूछा, “ऊपर से भारत कैसा दिखता है आपको?”

“यह मैं बगैर किसी हिचक के कह सकता हूं- सारे जहां से अच्छा!”

मेरे लिए आकाशवाणी में वे ऐतिहासिक क्षण थे. उसके बाद आकाशवाणी में परिचय बढ़ता गया. समाचार प्रभाग में श्री रामजी त्रिपाठी और उर्मिल कुमार थपलियाल जी से भेंट हुई. मैं अक्सर अपने बैंक की प्रेस रिलीज देने के लिए उनसे मिलता रहता था. उर्मिल जी ‘दर्पण’ नाट्य संस्था से जुड़े हुए थे और लोक नाट्य शैली ‘नौटंकी’ के विशेषज्ञ माने जाते थे.

आकाशवाणी के निदेशक थे के.के. नैय्यर साहब. कहा जाता था, अगर कोई भी साहित्यकार, कलाकार या रंगकर्मी शहर लखनऊ में आए तो वे उसे आकाशवाणी में ले आते थे. वे प्रयोगधर्मी निदेशक थे और तरह-तरह के प्रयोग करते रहते थे. उन्हीं के दौर में शामे-ग़ज़ल की महफिलें गुलज़ार होती थीं जिनमें देश के नामचीन गज़ल गायक शिरकत करते थे. मैंने अहमद हुसेन तथा मोहम्मद हुसेन और बदायूं के मशहूर कव्वालों को कव्वाली में गज़ल गाते हुए सुना.

एक बार मैं अपने बैंक के महाप्रबंधक दयाकृष्ण गुप्त जी को रेडियो वार्ता के लिए आकाशवाणी केन्द्र ले गया. उससे पहले नैय्यर साहब से मिला और बताया कि मैं उन्हें आपसे मिलाना चाहता हूं. वे शायद मेरे हाव-भाव देख कर समझ गए और मुस्करा कर बोले, “आप बेफिक्र रहें. जब वह आएं तो मुझे बता दें.”

मैंने वही किया. वे पहुंचने ही वाले थे कि मैंने जाकर यह सोचकर उन्हें बताया कि अगर वे कहीं जा भी रहे हों तो थोड़ा रुक जाएंगे. लेकिन, यह क्या, वे कमरे से निकल कर नीचे गेट पर आ गए. मैंने महाप्रबंधक से उनका परिचय कराया. गुप्त जी ने पूछा, “कहां जाना है? स्टूडियो में?”

नैय्यर साहब बोले, “हुजूर पहले हमारे साथ चलना है, हमारे कमरे में. आप हमारे यहां आए हैं. पहले एक-एक प्याली चाय पीएंगे, फिर रिकार्डिंग हो जाएगी.”

तो, उनके कमरे में गए. वहां उनकी बातचीत शुरू हुई. नैय्यर साहब ने पूछा, “आप कहां थे? पढ़ाई-लिखाई कहां हुई?”

“पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में,” गुप्त जी बोले.

“वाह! मैंने भी वहीं पढ़ा.”

“कौन से वर्ष में?”

गुप्त जी ने बताया तो नैय्यर साहब खुश होकर बोले, “आपको उस लड़के की याद है जो उन दिनों सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता था? मुझे वह किताबी कीड़ा याद है जो पढ़ाई में डूबा रहता था. आज वह मेरे सामने है और जनाब वह सांस्कृतिक कार्यक्रमों में डूबा रहने वाला लड़का आपके सामने बैठा है.” वे दोनों पंजाब विश्वविद्यालय के सहपाठी निकले. इस परिचय का लाभ यह हुआ कि आगे चल कर हमने आकाशवाणी के साथ मिल कर कई आयोजन किए जिनमें से एक था हरदोई, उत्तर प्रदेश में कृषि मंत्री और कृषि विभाग के आला अफसरों के अलावा बैंक अधिकारियों के साथ किसानों की सीधी बातचीत का सजीव आउटडोर प्रसारण.

रिकार्डिंग के बाद में उन्हें धन्यवाद देने गया तो वे मुस्करा कर बोले, “क्यों, तो ठीक रही मुलाकात?” यह मेरे प्रति उनका स्नेह था. मैं आत्मीय रिश्तों से जुड़े ऐसे ही ‘पीआर’ यानी जनसम्पर्क का सपना देखा करता था.

लेकिन, केन्द्र निदेशक, दूरदर्शन से मिलने का पहला अनुभव ऐसा नहीं रहा. मैं उनसे मिलने गया. कार्ड भीतर भेज कर लंबा इंतजार किया. सोचा, जरूरी काम में व्यस्त होंगे. जब भीतर बुलाया गया तो बड़े रूखेपन के साथ एक-दो बातें हुईं और बस. उनके कमरे से निकल कर मैंने तय किया कि कभी दुबारा उनसे नहीं मिलूंगा. लेकिन, मैं ग़लत था. धीरे-धीरे पता लगा, शिलाओं के भीतर से भी निर्मल जलस्रोत फूटते हैं. वे मेरे काम को अहमियत देने लगे. मैं दूरदर्शन के समाचार प्रभाग में प्रेस विज्ञप्ति देने जाता था. वहां कुछ लोगों से परिचय हो गया. फिर चौपाल कार्यक्रम के साथियों से जान पहचान बढ़ी. दूरदर्शन की कैमरा टीम के साथ आसपास के गांवों में बैंकों के 20-सूत्री कार्यक्रम के तहत किए गए काम पर प्रोग्राम बनाने में मदद की. गणतंत्र दिवस परेड की झांकी के कवरेज के लिए भी उनसे निकट संपर्क बनाए रखता.

दिल्ली दूरदर्शन से वरिष्ठ प्रोग्राम एक्ज़िक्यूटिव तारादत्त सती लखनऊ दूरदर्शन केन्द्र में आए तो उन्होंने ‘चौपाल’ कृषि कार्यक्रम की आउटडोर शूटिंग भी शुरू की. तब चौपाल में मेरा भी एक प्रोग्राम शुरू हुआ- नई बात, नया चलन. उसमें मैं किसानों को फसलों के बारे में नई रोचक बातें बताया करता था. एक बार ऐसी ही एक आउटडोर शूटिंग में मैंने मोहनलालगंज में किसान परिवारों को सोयाबीन के पोषक गुणों के बारे में बताया और उन्हें सोयाबीन का दूध बना कर दिखाया. मैंने ‘मज़दूर मंडल’ प्रोग्राम में एंकरिंग भी की और मज़दूरों के स्वास्थ्य, कीटनाशकों आदि के बारे में जानकारी दी. मीडिया के साथ मीडिया का हिस्सा बन कर मैं धीरे-धीरे आत्मीय संबंध बना रहा था.

उन्हीं दिनों की बात है. एक दिन हजरतगंज में घूम रहा था कि एक बड़े मियां सामने आकर खड़े हो गए. बोले, “आप देवेंद्र मेवाड़ी हैं?”

मैंने आदाब किया और कहा, “जी, मैं ही हूं.”

वे बोले, “खुशी हुई आपसे मिलकर दो-एक दिन पहले शाम को दूरदर्शन पर आपका प्रोग्राम देखा था. इस वजह से आपकी शक्ल पहचान गया. आप आलू के बाबत बता रहे थे. हमारा आलू का कोल्ड स्टोरेज है. हमें तो खबर ही नहीं थी जनाब कि हम इतना बड़ा काम कर रहे हैं. तारीख में इस आलू ने दुनिया की तस्वीर बदली, यह हमें कहां पता था. अब तो आलू हमें भी बेशकीमती लगने लगा है. आप अपनी कही हुई बातों को लिख कर दे देंगे तो हम उसे फ्रेम करके अपने कोल्ड स्टोरेज में लगाना चाहेंगे. बहुत शुक्रिया आपका.”

“शुक्रिया आपका बड़े मियां कि आपने मेरा वह प्रोग्राम देखा,” मैंने संकोच और अदब के साथ कहा.

दूरदर्शन में भी धीरे-धीरे लोगों से परिचय हो गया. एक दिन एक न्यूज रीडर साथी ने मुझे पास बुला कर पूछा, “आप बच्चों के लिए भी विज्ञान लिखते हैं?”

मैंने कहा, “जी हां, लिखता हूं.”

वे बोले, “मेरे पास एक आइडिया है. अगर आप सरल-सहज भाषा में कुछ विषयों पर बच्चों के लिए विज्ञान की स्क्रिप्ट लिखें तो उसे हम स्टूडियो में रिकार्ड करके कैसेट तैयार कर सकते हैं. वे कैसेट काफी पॉपुलर हो सकते हैं.”

मैं ध्यान से सुनता रहा. उन्होंने पास आकर भेद भरे अंदाज में कहा, “हमारे पास स्टूडियो है.”

मैंने कहा, “साउंड रिकार्डिंग स्टूडियो तो बर्लिंगटन होटल में है- जायसवाल स्टूडियो.”

“नहीं, नहीं, उससे बेहतर स्टूडियो है हमारे पास, पेपरकालोनी में. अगर आप परसों शाम को वहां आ जाएं, छह बजे के आसपास, तो हम इस प्रोजेक्ट पर आगे बातें कर सकते हैं. आपको इस काम का बाकायदा मेहनताना भी मिलेगा और कैसेटों पर रायल्टी भी. आ जाइए परसों.”

मैंने कहा, “ठीक है, आवूंगा.” बाद में सोचता रहा, न जाने कैसा और किसका स्टूडियो है. स्टूडियो में तो काफी पैसा लगा होगा. किसने लगाया होगा वह पैसा? लेकिन, यह सब तो वहां जाकर ही पता लगना था.

तो, तीसरे दिन शाम को मोटर साइकिल से पहुंचा पेपरमिल कालोनी. जो पता बताया था, उसे खोजता रहा. स्टूडियो के बारे में कोई नहीं जानता था. अंधेरा घिर आया. दूर-दूर खड़े बिजली के खंभों के नीचे हलकी रोशनी पड़ रही थी. एक खंभे के नीचे मोटर साइकिल रोक कर, जेब से पते की पर्ची निकाली. तभी अंधेरे में एक साया सा दिखा. मैंने कहा, “सुनिए, भाई साहब.”

वह रूका. धुंधलके में खड़ा था, इसलिए चेहरा साफ नहीं दिख रहा था. उसने कहा, “हां.”

मैंने मकान का नंबर देखकर पूछा, “इस पते पर जाना है. बता सकते हैं, यह कहां मिलेगा?”

“भूतों वाली कोठी में?” उसने हाथ से आगे की ओर इशारा करके कहा, “सीधे चले जाइए सौ कदम, फिर बाईं ओर. वहीं है वह कोठी.”

मैं सिहर उठा. अंधेरे में यह कहां चला आया मैं? उससे भी पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि आप कौन? खैर आगे बढ़ा. बाईं ओर एक कोठी थी. उसके बाहर मोटर साइकिल खड़ी की और दरवाजे के पास जाकर उसे खटखटाया. कोई जवाब नहीं आया. थोड़ा धक्का देने पर दरवाजा खुल गया. सन्नाटा था. भीतर की ओर मुंह करके मैंने आवाज़ दी, “कोई है?”

एक आवाज आई, “आ जाइए.”

डरता-डरता भीतर गया. तभी न जाने कहां से न्यूज रीडर साहब नमूदार हुए और बोले, “आइए, आइए.” एक-दो कमरे पार करने के बाद उन्होंने एक दरवाजा खींचा और भीतर ले गए. वहां भी कहीं कोई आवाज नहीं.

एक मेज, चार कुर्सियां. बोले, “बैठिए.”

मैं बैठा. सोचा, स्टूडियो है, साउंड प्रूफ है, शायद इसलिए कोई आवाज नहीं आ रही है. सच पूछिए तो सभी कुछ भुतहा-सा लग रहा था. बातें शुरू ही हुई थीं कि अचानक दरवाज़ा खुला और एक दुबले-पतले सज्जन भीतर आए. न्यूज रीडर साहब ने कहा, “ये हैं इस स्टूडियो के मालिक और हमारे दोस्त.” फिर बातें आगे बढ़ीं. शायद रस-रंजन भी हुआ. पूरी बातचीत में सब्ज बाग़ दिखे और हां-हूं करते-करते मैंने कहा, “मैं चलता हूं.” डर भी रहा था कि इस माहौल में अगर कोई गला दबा दे तो चीख तक सुनने वाला कोई नहीं है. बहरहाल, उन्होंने एक-दो दरवाजे खोल कर स्टूडियो भी दिखाया और बताया कि जल्दी ही जोर-शोर से रिकार्डिंग का काम शुरू होने जा रहा है.

मैं चला आया. रिकार्डिंग का तो पता नहीं मगर जल्दी ही अखबार में खबर पढ़ी कि किसी बैंक से कर्ज़ का फर्जीवाड़ा करके एक महाशय ने यह काम शुरू करके लाखों के वारे-न्यारे करने का ख्वाब देखा था जो पुलिस के छापे से चकनाचूर हो गया. आवारा खयाल रहा होगा, जैसे आया था, वैसे ही खत्म हो गया.

□□

“गज्जब ही बात हुई ये तो.”

“हां, हुआ ही ठैरा फिर ऐसा. क्या कहूं?”

“कहो, कहो, और क्या हुआ लखनऊ में?”

“बताऊं? ओं क”

“ओं”

(जारी)

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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