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कहो देबी, कथा कहो – 18

नई उड़ान

खैर, दिल्ली पहुंचे और सीधे इंद्रपुरी के अपने वनरूम सेट में जाकर दम लिया. साथी कैलाश इंद्रपुरी में ही कहीं और रहने लगा था. मेरा पड़ोसी मक्का रिसर्च स्कीम का ही नया साथी एस.बी. सिंह हो गया. उसने भी बगल के वनरूम सेट में अपनी गृहस्थी जमा ली और हम दोनों अच्छे पड़ोसियों की तरह रहने लगे. खाना बनाने के लिए अपने पुराने, मरियल बत्ती के स्टोव की जगह में नया पंप वाला स्टोव ले आया.

नववधू को हिदायत दी कि लाल मिर्च से पूरा परहेज करना है बल्कि वह घर में लानी ही नहीं है. बिल्कुल सादा भोजन बनाना है. तब मैं एक वैद्य जी की सलाह पर प्रायः लवण-भास्कर चूर्ण और ट्रेन में मिले सफर के साथी की राय मान कर चारकोल के चूर्ण और नींबू की चाय का सेवन किया करता था. कमरे के सामने मैदान में ही भैंस का ताजा दूध मिलता था. पहले दिन मैं ले आया और दूसरे दिन से मुझे उठाने की जहमत के बजाय नववधू खुद ही लाने लगी. उसी ने पास की ही एक छोटी किराने की दूकान से राशन लाने की जिम्मेदारी भी संभाल ली.

तभी एक दिन कैलाश (साह) दाज्यू ने शाम के खाने पर बुला लिया. उन दिनों पूसा गेट से ऑटो लेकर पूसा इंस्टिट्यूट के भीतर से ही इंद्रपुरी के सामने तक पहुंच जाते थे. वहां से पैदल कालोनी के भीतर कमरे में पहुंच जाते. हम उस दिन शाम को राजेंद्र नगर में कैलाश दाज्यू के घर पर पहुंच गए. खाना खाते, बातें करते साढ़े आठ-नौ बज गया. हम दोनों उनके घर से निकले और पैदल पूसा गेट पर पहुंचे. आसपास कोई ऑटोरिक्शा नहीं था. थोड़ी देर इंतजार करने पर एक ऑटो आया जिसमें एक आदमी पहले से बैठा था. मैंने ऑटो वाले से पूछा, “इंद्रपुरी जाना है, चलोगे?”

“हां जी, चलूंगा.”

“इंस्टिट्यूट के भीतर से चलना है?”

“ठीक है.”

“लेकिन, एक सवारी तो है इसमें. हम दो कैसे बैठेंगे.”

“सब हो जाएगा. थोड़ा सिमट कर बैठ जाओ, तीनों आ जावोगे,” उसने कहा.

मुझे कैलाश दाज्यू ने ही बातों-बातों में कई बार राय दी थी कि ऑटो में कोई सवारी पहले से बैठी हो तो उसमें नहीं बैठना चाहिए. वह ऑटो वाले का ही साथी भी हो सकता है. मुझे उनकी बात याद आई.

मैंने कहा, “नहीं तीन सवारी में नहीं चलेंगे हम.”

वह बोला, “इन्हें भी इंद्रपुरी ही जाना है. मैं भी वहीं रहता हूं. कोई दिक्कत नहीं होगी. फिर इस समय आपको कोई ऑटो मिलेगा भी नहीं. रात का समय है, मिलेगा भी तो इंद्रपुरी नहीं जाएगा. बैठ जाइए.”

पहले से बैठा आदमी बोला, “डरने की कोई बात नहीं, मैं भी तो वहीं जा रहा हूं.”

चार आना किराया सुन कर मैं चौंका. इतना कम? फिर भी और कोई चारा न देखकर मैंने पत्नी से कहा, “चलो बैठ जाते हैं. इंस्टिट्यूट के भीतर से ही चल रहे हैं.”

मैं बीच में बैठा, पत्नी बाहर की ओर और ऑटो वाला ऑटो पूसा इंस्टिट्यूट के गेट से भीतर ले गया. मैंने देखा, वह हिल साइड रोड पर जा रहा है. वह रोड भी आगे दाहिनी ओर मुड़ कर इंद्रपुरी वाले रास्ते में मिल जाती थी. वहां इंस्टिट्यूट की पुलिस चैकी भी थी. निश्चिंत होकर चल ही रहे थे कि उसने ऑटो आगे चल कर हिलसाइड रोड से बाईं ओर पूसा पॉलीटैक्निक की ओर मोड़ लिया. आगे अंधेरा था और वह रोड सुनसान पहाड़ी की ओर से, टोडापुर गांव होकर इंद्रपुरी की ओर जाती थी. वहां लूट की कुछ वारदातों के बारे में भी सुना था. मेरे रोंगटे तो खड़े हो गए लेकिन जवानी के जोश में यह भी सोच लिया कि अगर कुछ परेशानी हुई तो निबट लूंगा. इन दोनों के लिए तो मैं अकेला ही काफी हूं.

पत्नी ने कान में पूछा, “कहीं यह वह रोड तो नहीं जो तुम एक दिन बता रहे थे कि बहुत सुनसान इलाके से जाती है?”

मैंने कहा, “हां, है तो वही लेकिन जो होगा देखा जाएगा. निबट लूंगा मैं.”

पत्नी ने कहा, “रुकवाओ इसे, इसमें नहीं जाएंगे.”

मैंने ऑटो वाले से कहा, “ऑटो रोको जरा.”

उसने जैसे सुना ही नहीं, चलाता रहा. तब मैंने और जोर से कहा, “सुना नहीं, ऑटो रोक दो.”

वह ऑटो को तेज चलाने लगा और पहाड़ी की तरफ से इंद्रपुरी जाने वाली रोड के चैराहे पर पहुंच गया. वहां भी अंधेरा था लेकिन छोटी-छोटी कुछ दूकानें थीं जिनमें बल्बों की हल्की पीली रोशनी फैली हुई थी.

चौराहे पर पहुंचते ही पत्नी ने ऑटो से पैर बाहर निकाल दिए और चिल्ला कर कहा, “रोको, ऑटो रोको. मुझे नहीं जाना है इसमें. मैं बाहर कूद रही हूं.” यह सुन कर ऑटो थोड़ा धीमा हुआ. पत्नी कूद कर बाहर निकली और उसके पीछे मैं भी उतर गया.

ऑटो वाला बोला, “आप लोग बेकार ही डर रहे हैं. हमें भी तो इंद्रपुरी ही जाना है. तभी तो सिर्फ चार आने ले रहा हूं.”

मैं चौंका, सिफ चार आने? पत्नी ने चार-चार आने निकाले और कहा, “ये लो तुम्हारा किराया. हमें नहीं जाना है तुम्हारे ऑटो में.”

तब मेरा ध्यान पत्नी की ओर गया. उसने गले में सोने का चमकता मंगलसूत्र, कानों में बालियां और हाथ में अंगूठी पहनी हुई थी. मेरी अंगुली में भी शादी की अंगूठी थी. हमने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा और बातें करते-करते पूसा पॉलीटैक्निक वाली उसी रोड से पैदल पूसा इंस्टिट्यूट के भीतर आए और फिर पैदल ही इंद्रपुरी के लिए चल पड़े. इंद्रपुरी की तरफ के गेट को पार करके देर रात अपने कमरे में पहुंच गए. कई दिनों तक बातें करते रहे कि उस दिन अगर उस ऑटो में चले गए होते तो न जाने क्या होता.

शादी हुए अभी माह भर ही बीता था कि एक दिन पूसा इंस्टिट्यूट की लाइब्रेरी के बाहर अग्रज विज्ञान लेखक रमेश दत्त शर्मा मिले. पता लगा वे दिल्ली से पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में जा चुके हैं. वहां अनुवाद एवं प्रकाशन निदेशालय में सह निदेशक हैं. कुछ दिन बाद उनके पत्र के साथ उस विश्वविद्यालय की अंग्रेजी मासिक पत्रिका ‘इंडियन फार्मर्स डाइजेस्ट’ का हिंदी अनुवाद के लिए एक अंक मिला. मैं हर लेख का अनुवाद करता जाता और पत्नी लक्ष्मी उसे अपने सुलेख में लिखती जाती. उन दिनों मैं सी एस आई आर के महत्वपूर्ण शब्दकोश ‘भारत की सम्पदा’ के अनुवाद में भी सहयोग दे रहा था. कृषि पत्रिका का अनुवाद पूरा हो जाने पर मैंने उसे पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय को भेज दिया.

तभी क्या हुआ कि जुलाई माह में मुझे डाक से पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति का एक पत्र मिला. उसमें लिखा था, ‘हमने पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में कृषि और पशु-चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा हिंदी में देने का निर्णय लिया है. हिंदी पाठ्यपुस्तकों के अनुवाद और मौलिक लेखन के लिए हमने अनुवाद एवं प्रकाशन निदेशालय की स्थापना की है. इस महत्वपूर्ण कार्य में योगदान के लिए हमें आप जैसे हिंदी के विज्ञान लेखकों की आवश्यकता है. सहायक प्राध्यापक वेतनमान के कुछ पद रिक्त हैं. यदि आप इस पद पर आने के इच्छुक हैं तो सूचित करें.’ उन दिनों धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवनीत, दिनमान, रविवार आदि हिंदी की अग्रणी पत्रिकाओं में मेरे वैज्ञानिक लेख प्रकाशित हो रहे थे. धर्मयुग में डा. गिरिराज सिंह सिरोही पर मेरा प्रमुख लेख ‘दक्षिणी ध्रुव में एक भारतीय वैज्ञानिक’ प्रकाशित हो चुका था तो धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान तथा दैनिक हिंदुस्तान जैसी पत्र-पत्रिकाओं में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता डा. नार्मन बोरलाग पर सबसे पहले मेरे लेख छपे.

पंतनगर में मेरे लिए करियर का एक नया द्वार खुल रहा था. साथ ही यह निर्णय की कठिन घड़ी भी थी कि मुझे वैज्ञानिक बनना है या लेखक? पूसा इंस्टिट्यूट की पेंशन सुविधा वाली रिसर्च की स्थाई नौकरी में तीन साल हो चुके थे. क्या वह नौकरी छोड़ कर नया करियर अपनाना ठीक रहेगा? अंततः मैंने पंतनगर जाने का निश्चय किया और उन्हें सूचित कर दिया. कुछ दिन बाद मुझे मेरा नियुक्ति पत्र मिल गया और मैंने पूसा इंस्टिट्यूट की नौकरी से इस्तीफा दे दिया.

इस बारे में मैंने जब अपने एक साथी से बात की तो उसने कहा- बहुत अच्छा है कि तुम वहां जा रहे हो. यार मैं भी वहां चलना चाहता हूं. दोनों साथ चलेंगे. उसने उन्हीं दिनों कुछ पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया था. मैंने उसके बारे में विश्वविद्यालय को पत्र लिखा कि मेरा एक और विज्ञान लेखक मित्र भी वहां आना चाहता है जिसका बायोडाटा भेज रहा हूं. और, माह भर बाद उसका भी नियुक्ति पत्र आ गया. मैं उसके पत्र के इंतजार में महीने भर रुका रहा. उसका पत्र आने के बाद उसने भी नौकरी से इस्तीफा दे दिया. दोनों मित्र गुड़गांव गए और वहां के चीफ मेडिकल आफिसर से चिकित्सा प्रमाणपत्र बनवा लिया.

और, सितंबर की पहली तारीख को हम अलसुबह मय बोरिया-बिस्तर टैक्सी से पंतनगर के लिए रवाना हो गए. पंतनगर पहुंचे तो रिमझिम बारिश हो रही थी. नई जगह और हमें कुछ पता नहीं. जाएं तो जाएं कहां? पत्र कुलपति से आया था, इसलिए केवल उनका ही पता था. तभी चैराहे पर एक आदमी दिखा. उससे पूछा कि यहां कोई गेस्ट हाउस वगैरह है? वह बोला, यहां से सीधे आगे तराई भवन के सामने ओल्ड गेस्ट हाउस है, वहां पूछ लीजिए. हम वहां पहुंचे. केयर टेकर से पूछा तो वह बोला, “यहां तो कोई कमरा खाली नहीं है. कहीं और पता कर लो.”

मैंने कहा, “और कहां? हम नए आए हैं. यहां के बारे में कुछ पता नहीं है. कुलपति का फोन नंबर है तुम्हारे पास?”

वह अचानक चौंक गया और पूछा, “कौन? वी.सी. साहब? उन्होंने बुलाया है आपको?”

मैंने कहा, “हां.”

यह सुनते ही उसने फटाफट भीतर जाकर नंबर खोजा और फोन मिला कर मुझे दे दिया.

उधर से भारी आवाज आई, “यस.”

मैंने कहा, “नमस्कार सर, मैं देवेंद्र मेवाड़ी बोल रहा हूं. हम अभी यूनिवर्सिटी में पहुंचे हैं. पता नहीं है कि कहां जाना है. फेमली भी साथ है. बाहर बारिश हो रही है.”

“ठीक है. कहां से फोन कर रहे हैं?”

“ओल्ड गेस्ट हाउस बता रहे हैं इसे.”

“वहां कोई कर्मचारी होगा, उसे फोन दें.”

मैंने केयरटेकर को फोन दिया. उसने सुनते हुए दो-एक बार ‘जी, जी, ‘जी हां’ बोला और फिर तुरंत हरकत में आ गया. हमने वहीं आफिस वाले कमरे में हाथ-मुंह धोया और अनुवाद एवं प्रकाशन निदेशालय में जाकर नौकरी ज्वाइन कर ली.

वहां ज्यों ही साथियों को बताया कि कुलपति महोदय से फोन पर मैंने बात की और बोरिया-बिस्तर ओल्ड गेस्ट हाउस के बरामदे में रखा है, पत्नी भी वहीं है, तो उन्होंने मुझे हैरानी से देखा और बोले, “क्या?” सीधे कुलपति से बात कर ली?”

मैंने कहा, “हां, तो क्या हुआ?”

“क्या हुआ? अरे आप तो शेर की मांद में पहुंच गए. आपको वी.सी. साहब के बारे में पता नहीं है. वे बहुत ही सख्त आदमी हैं. उनसे बहुत कम लोग सीधे बात कर पाते हैं. और, आपने कमरे के बारे में बात कर ली?”

उनकी बात सुन कर आश्चर्य हो रहा था क्योंकि जिस पूसा इंस्टिट्यूट से मैं आया था, वहां तो मैंने ऐसी सख्ती और भय का जैसा माहौल नहीं देखा था. हम सीनियर से सीनियर वैज्ञानिक के साथ बात कर सकते थे. कुछ दिनों के भीतर ही कुलपति से जुड़े कई और किस्से भी सुनने को मिले जिन्हें सुन कर आश्चर्य भी होता था और कड़े अनुशासन का पता भी लगता था. साथियों ने बताया कि बिना कुलपति की आज्ञा के तो पंतनगर में पत्ता भी नहीं हिलता है. और, यह भी कि अच्छा काम करने वाले के लिए यहां कोई परेशानी नहीं है, सख्ती कामचोरों के लिए है. यह सुन कर राहत मिली.

कुलपति के बारे में कहे जाने वाले किस्सों में एक किस्सा यह था कि वह रोज अपने निवास तराई भवन से दो-तीन किलोमीटर दूर नगला तक अल सुबह पैदल घूमते हैं, वह भी अकेले. साथ में उनका छोटा-सा, सफेद रंग का पोमेरियन कुत्ता होता है, बस. तो, शुरू-शुरू में जब वे आए तो उन्हें पता लगा, नगला के बीज भंडारों से चोरी से बीज बाहर वालों को बेच दिया जाता है. कुलपति एक दिन सुबह-सुबह कुरता-धोती और पगड़ी पहन कर बीज भंडार में गए. वहां चौकीदारों से बात की कि भाई बीज लेना है. मेरे कुछ और साथी भी खरीदेंगे. थोड़ा सस्ता दे दो तो काम बन जाएगा. चौकीदार राजी हो गए, लेकिन बोले- भाई यहां एक नया वी.सी. आ गया है. वह बहुत ही टेढ़ा और सख्त आदमी है. चुपचाप बीज लेकर चले जाना, किसी को कानों-कान खबर न हो. रात को आ जावो, बीज मिल जाएगा. वी.सी. ने रात को ही सिक्योरिटी गार्डों से उसे बीज बेचते रंगे हाथ पकड़वा दिया और आगे से बीजों की चोरी बंद गई.

देश का पहला कृषि विश्वविद्यालय था, नया बना था. इसलिए सुविधाएं अभी कम थीं. कैम्पस में केवल एक छोटा-सा बाज़ार था और आने-जाने का साधन केवल रिक्शा. नए क्वार्टर और हॉस्टल बन रहे थे.

ऐसे माहौल में, लोग कहते थे, एक दिन सुबह की सैर पर नगला से लौटते समय कुलपति को कैंपस की ओर जाने वाला एक युवक मिला. उसने उन्हें रोक कर पूछा, “यहां से यूनिवर्सिटी कितनी दूर है?”

“यह यूनिवर्सिटी का ही एरिया है. आपको कहां जाना है?”

“मुझे नौकरी के लिए इंटरव्यू देना है. प्रशासनिक भवन तक जाना है.” उसने कहा.

“मेरे साथ चलो. बहुत दूर नहीं है, मैं वहां पहुंचा दूंगा.”

वह साथ चल पड़ा. चलते-चलते बोला, “यहां तो बिल्कुल जंगल है. टैक्सी, ऑटो वगैरह भी नहीं. यहां लोग कैसे आते-जाते हैं?”

“पैदल, साइकिल या रिक्शे से. लेकिन यूनिवर्सिटी में कालेज, हास्टल और क्वार्टर बहुत दूर नहीं है. सभी आराम से आते-जाते हैं.”

फिर बाजार की, सिनेमा की, घूमने की जगहों की बातें हुईं. सब कुछ सुन कर वह बोला, “मेरे लिए तो यहां रहना मुश्किल हो जाएगा. मेरा मन लग ही नहीं सकता ऐसी जगह.” इस बीच उसने अपने बारे में भी सब कुछ बता दिया. अनुभवी और बुद्धिमान व्यक्ति था. प्रशासनिक भवन के पास उसे पहुंचा कर वी.सी. आगे चले गए.

इंटरव्यू कमेटी में सुबह मिले उस आदमी को देख कर वह युवक चौंक गया…

“अच्छा तो दिल्ली से पंतनगर पहुंच गए?”

“हां, पहुंच ही गए फिर.”

“लेकिन, वहां तो बिल्कुल ही दूसरी तरह का काम रहा होगा?”

“काम भी और अनुभव भी. बताऊं वहां के बारे में?”

“ओं”

(जारी है)

पिछली कड़ी शादी की झर-फर

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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