समाज

बाराती बनने के लिये पहाड़ी बच्चों के संघर्ष का किस्सा

शालिग मामा जी की शादी (26 अक्टूबर 1967 तारीख मामी जी ने बतायी है) की याद है. बरात तल्ली चामी से नैल गांव (लगभग 10 किमी पैदल) जानी थी. रॉकी (मौसी का लड़का) अर मैंने बरात में जाने का गुपचुप प्लान बनाया. पता था बड़े हमको ले नहीं जायेगें. दोपहर बाद भात खा के बरात पैटेगी, ये बात बड़े लोग कह रहे थे. इसलिए बरात से पहले ही जहां तक नैल जाने का रास्ता मालूम था चोरी-छिपे पहुंच गये.
(Marriages in Uttarakhand Childhood Memoir)

बलिणगांव के रौल (गधेरा) की पल्ली धार में किसी ऊचें पत्थर पर बैठकर हम बरात आने का इंतजार करने लगे. बरात सामने रौल पार की उतराई से आते दिखाई दे रही थी. बरात में दण-मण दण-मण, दण-मण दमौ की निरन्तर बजती आवाज के बीच में ढोल भी अपनी गब्बर आवाज को कभी-कभी बुलन्द कर रहा था. मशकबीन ने गधेरा पार करने के बाद ही अपनी तान छेड़ी. बरात जैसे-जैसे हमारे हमारे पास आ रही थी, हमारा डर भी बड़ रहा था. एक-दो भताक खानी तो मामूली बात ठैरी. इसके लिए हम पहले से तैयार होने वाले हुए.

हमने बरात में चलने के लिए अपने हिसाब से नयी निकर और कमीज पहनी थी. पर आदतन नंगे पैर थे. नये लाल जूते पहनने ध्यान ही नहीं आया. बरातियों ने हमको देखा तो ‘ले सुताई पर सुताई’. ‘मार पड़ेगी पर इतनी, खैर और क्या कर लेंगें ये लोग. अब शाम भी होने को थी. वापस हमको घर भेज भी न पाये. क्या करते? नाना जी की सिफारिश पर मजबूरन हमें भी बरात में शामिल कर लिया गया. बरातियों का तगमा लगते ही हम फन्नेखां हो गये.

कभी बरात से आगे तो कभी उसके दायें-बायें. हम अनचाहे दोनों बरातियों पर बडों का कान उमठने और धौल जमाने जैसा जुल्म सारे रस्ते भर चलता रहा. पहले मिरचोडा गांव की चढाई, फिर नगर गांव से आगे का लम्बा रास्ता तय करने में हम पस्त से हो गये. बड़े ताने कसते ‘और आंदी बरात मा.’ नगें पैरों पर छाले ही छाले. बरात का उत्साह हम में अब कहीं दुबक गया था. फुरकी (पतले कपड़े) पहनकर आये थे.
(Marriages in Uttarakhand Childhood Memoir)

शाम होने को आई तो अक्टूबर की ठंडी ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था. रुमक (शाम का झुरपुट अंधेरा) पड़ गयी और नैल गांव पहुंचने की कोई बात तक नहीं. ठंड, थक और डर से हमारा रोने का ऐ! डाट (चिल्लाना) शुरू हुआ तो एक-दो चपत पड़ने के बाद जगदीश मामा के कंधों पर बैठने के बाद ही चुप्प हो पाया. नैल गांव में बरात के साथ पंहुचते ही दूल्हे की दान वाली चारपाई पर लमलेट हो गये हम. पर पौणें की पिठाई मिलेगी ये लालच नींद पर हावी था.

पिठाई लगाने वाले सज्जन जैसे ही पास आये हमने चम्म से खड़े होकर अपना माथा लगभग पिठाई की थाली में घुसा ही दिया था. पिठाई लेने की जल्दी और उनींद में जो थे हम. आस-पास के लोग हंसे पर नाना जी ने यह कह कर कि ये दोनों ब्योले के भांजे हैं, इस कारण सबसे बड़े मेहमान के हकदार हैं. हमें लगा हमारी इज्जत बड़ गयी है. एक-एक रुपये की पिठाई हमें मिली. चव्वनी की उम्मीद में एक रुपया ‘हे ! ब्ई’.

हमको लगा हम दान की चारपाई समेत आसमान में उड़ गये हैं. बाद के ठाठ् देखिए. हमें खाना वहीं पर परोस दिया गया. बाइज्जत उसी चारपाई में हमें दुल्हे की नई रजाई में घुसा दिया गया. अचानक बरातियों को दी जाने वाली मांगलिक रस्मी गालियों में हमारा नाम भी आया तब शरम तो आई पर अपने बड़ते कद का गुमान भी हुआ. नींद को अब कौन पूछे वो कोसों दूर.
(Marriages in Uttarakhand Childhood Memoir)

दूसरे दिन बरात की विदाई से पहले पिठाई के वक्त हम फिर मुस्तैद थे. उस दौर में पिठाई नाम पुकारकर दी जाती थी. जब हमारा नाम नहीं आया और पिठाई की रस्म खत्म होने को थी तो तुरन्त दादा जी के पास अपनी गुहार लगाई. और दादा जी के कहने पर पडिंत हृदय राम खुगशाल के पोत्र हरी हर वर्मा (दादा जी का दिया नाम) का नाम आया तो बांछे खिल गयी अपनी. दो-दो रुपये मिले थे हमको. तब अपनी दुनिया की सभी ख्वाइशों को खरीदने की हिम्मत आ गयी थी हममें. पर खो न जाये इसलिए मेरे दो रुपये दादा जी की जेब रूपी गुल्लक में जो गये वो वहीं समाये रहे. मेरे कभी हाथ नहीं आये. पर जब तक मेरी मुठ्ठी में थे तब तक की बादशाही अमीरी की गरमाहट अब भी दिल में महसूस होती है.
(Marriages in Uttarakhand Childhood Memoir)

अगली कड़ी :
पहाड़ी बारात में एक धार से दूसरे धार बाजों से बातें होती हैं

– डॉ. अरुण कुकसाल

वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.
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