कला साहित्य

मैमूद: शैलेश मटियानी की कालजयी कहानी

महमूद फिर ज़ोर बाँधने लगा, तो जद्दन ने दायाँ कान ऐंठते हुए, उसका मुँह अपनी ओर घुमा लिया. ठीक थूथने पर थप्पड़ मारती हुई बोली, “बहुत मुल्ला दोपियाजा की-सी दाढ़ी क्या हिलाता है, स्साले! दूँगी एक कनटाप, तो सब शेखी निकल जाएगी. न पिद्दी, न पिद्दी के शोरबे, साले बहुत साँड बने घूमते हैं. ऐ सुलेमान की अम्मा, अब मेरा मुँह क्या देखती है, रोटी-बोटी कुछ ला. तेरा काम तो बन ही गया? देख लेना, कैसे शानदार पठिये देती है. इसके तो सारे पठिये रंग पर भी इसी के जाते हैं.”
(Maimud Shailesh Matiyani Story)

अपनी बात पूरी करते-करते, जद्दन ने कान ऐंठना छोड़कर, उसकी गरदन पर हाथ फेरना शुरू कर दिया. अब महमूद भी धीरे-से पलटा, और सिर ऊँचा करके जद्दन का कान मुँह में भर लिया, तो वह चिल्ला पड़ी, “अरी ओ सुलेमान की अम्मी, देख तो साले इस शैतान की करतूत जरा अपनी आँखों से! चुगद कान ऐंठने का बदला ले रहा है. ए मैमूद, स्साले, दाँत न लगाना, नहीं तो तेरी खैर नहीं| अच्छा, ले आयी तू रोटियाँ? अरी, ये तो राशन के गेहूँ की नहीं, देसी की दिखती हैं. ला इधर. देखा तूने, हरामी कैसे मेरा कान मुँह में भरे था? अब तुझे यकीन नहीं आएगा, रहीमन! ये साला तो बिलकुल इंसानों की तरह जज़्बाती है!”

“जानवर तो गूँगा होता है, शराफ़त की अम्मा! अलबत्ता इंसान उसमें जज़्बातों का अक्स ज़रूर ढूँढ़ता है. तुम तो इस नामुराद बकरे का इतना ख़याल रखती हो, माँ अपनी औलाद का क्या रखती होगी.”

रहीमन ने दोनों रोटियाँ जद्दन को पकड़ा दी थीं और बकरा अब रोटी के टुकड़े चबाने में व्यस्त हो गया था. एक टुकड़ा वह जब पूरी तरह निगल लेता, तो सिर से जद्दन को अपने सींगों से ठेलने लगता था. “सब्र नाम की चीज़ तो खुदा ने तुझे किसी भी बात में बख्शी ही नहीं.” कहते हुए जद्दन ने फिर अपना रूख रहीमन की ओर कर लिया, “इंसान जब बूढ़ा हो जाता है, तब कोई ऐसा उसे चाहिए, जो उसके ‘आ’ कहने से आए और ‘जा’ कहने से जाए. दुनिया वालों की दुनिया जाने, सुलेमान की अम्मा! मेरा तो एक यह नामुराद मैमूद ही है, जिस साले को इस खुल्दाबाद की नबी वाली गली से आवाज़ लगाऊँ कि –‘मैमूद! मैमूद! मैमूद!’ तो चुगद नखासकोने के कूड़ेखाने पर पहुँचा हुआ पीछे पलटता है और ‘बें-बें’ करता वो दौड़ के आता है मेरी तरफ़ कि तू जान, सगी औलाद क्या आएगी! बस, साला जब कुनबापरस्ती पे निकलता है, तो मेरी क्या खुदा की भी नहीं सुनेगा. फिर भी आवाज़ लगा दूँ, तो एक बार पलट के ज़रूर ‘बे’ कर लेगा, भले ही बाद में अपनी अम्माओं की तरफ़ट दूनी रफ्तार से दौड़ पड़े.”

अपनी बात पूरी करके जद्दन हँस पड़ी, तो उसके छिदरे और कत्थई रंग के भद्दे दाँतों में एक चमक-सी दिखाई दे गई. जर्जर, टल्ले लगे और बदरंग बुरके में से बुढ़ापे का मारा हुआ चेहरा उघाड़े रहती है जद्दन, तो चुड़ैलों की-सी सूरत निकल आती है.
(Maimud Shailesh Matiyani Story)

“जब इस कसाइयों के निवाले का किस्सा बखानने लगती हो तुम, शराफ़त की अम्मा, मीरगंज वालियों की-सी चमक आ जाती है तुम में!” –अपनी काफी दूर निकल चुकी बकरी को एक नज़र टोह लेने के बाद, रहीमन ने मज़ाक किया और खुद भी हँस पड़ी.

“तुम खुद अब कौन-सी जवान रह गई हो, रहीमन? आखिर तजुर्बेकार औरत हो! तुम जानो, एक ये बेजुबान जानवर और दूसरे मासूम बच्चे — बस, ये दो हैं, जो इंसान की उम्र, उसके जिस्म और उसकी खूबसूरती-बदसूरती पे नहीं जाते, बल्कि सिर्फ़ नेकी-बदी और नफ़रत-मुहब्बत को पहचानते हैं. हमारे शराफ़त की बन्नो तो तुम्हारी हज़ार बार की देखी हुई है. खूबसूरती और नूर में उसके मुकाबले की हाजी लाल मुहम्मद बीड़ी वालों या शेरवानियों के हियाँ भी मुश्किल से मिलेगी, रहीमन! मगर तू ये जान कि मेरा मैमूद उसकी शकल देखते ही मुँह फेर के, पिछाड़ी घुमा देता है. बदगुमान कैती है, नाकाबिले बर्दाश्त बू मारता है और ये कि ‘अम्मा हमारे बच्चों का छोड़ देंगी, लेकिन ये बकरा नहीं छूटेगा.’ मैं कैती हूँ, तेरी कमसिनी और खूबसूरती पे लानत है. लाख पौडर-इत्र छिड़के तू, मेरा मैमूद तेरे कहे पे थूक के नहीं देगा. जानवर और बच्चे तो इंसान की चमड़ी नहीं, नियत देखते हैं, नियत! मजाल है कि नवाबजादी के हाथों से एक गस्सा मेरे मैमूद के मुँह की तरफ़ चला जाए! तुझ पे खुदा रहम करेगा, रहीमन! देखना, पहले तो तीन, नहीं दो पठिये तो कहीं गए ही ना! खुदा कसम, ये रोटियाँ तूने इस नामुराद के नहीं, मेरे पेट में डाल दी हैं. मुहल्ले वाले तो, बस, सरकारी मवेशी समझकर चले आते हैं. ये नहीं होता कमनियतों से कि दो रोटियाँ या मुट्ठी-भर दाना भी साथ लेते आएँ. अरे भई, मैमूद जो धूप में खेल के वापस आने वाले मासूम बच्चों की तरे मुरझा जाता है, ये तो सिर्फ़ जद्दन को ही दिखायी देता है, या ऊपर वाले खुदा को. तू जान, पिछले बरस की बकरीद के आस-पास पैदा हुआ था| अब याददाश्त कमज़ोर पड़ चुकी, लेकिन शायद, ये ही जुम्मे या जुमेरात के रोज़ पैदा हुआ होगा और अब साल ऊपर साढ़े तीन महीने का हो लिया.”

जद्दन महमूद की पीठ पर हाथ फेरते हुए खटोले पर से उठ खड़ी हुई थी कि “अच्छा, सुलेमान की अम्मा, चलूँगी. शराफ़त के अब्बा की दुपेर की नमाज़ का वक्त हो रहा है. सुना है, आज शहनाज़ के अब्बा लोग भी आने वाले हैं रायबरेली से.” तभी रहीमन ने कहा कि “तुम सवा-डेढ़ साल का बताती हो, मगर इसके रान-पुट्ठे देख के कोई तीन से नीचे का नहीं कहेगा! बीस-पच्चीस सेर से कम गोश्त नहीं निकलेगा इस बकरे में. लगता है, तुमने रोटी-दाने के अलावा घास से परवरिश की ही नहीं”

हालाँकि रहीमन ने सारी बातें महमूद की प्रशंसा में कही थीं, लेकिन जद्दन का पूरा चेहरा त्यौरियों की तरह चढ़ गया, “अरी ओ रहीमन, आग लगे तेरे मूँ में. मतलब निकल गया तेरा, तो मेरे मैमूद का गोश्त तौलने बैठ गई? तेरा खाबिन्द तो बढ़ई है, री, ये कसाइयों की घरवालियों की-सी बातें कहाँ से सीखी हो? या खुदा, हया और रहम नाम की चीज इंसानों में रही ही ना! गोश्तखोरों की नज़र और कसाई की छुरी में कोई फर्क थोड़े ना होता है. अरी रहीमन, कहे देती हूँ – आगे से ऐसी बेहूदी बातें न करना और आइंदे से अपनी बकरी कहीं दूसरी जगे ले जाना. कोई सुसरा पूरे खुल्दाबाद में मेरा एक मैमूद ही थोड़े ठीका लिए बैठा है.”

“अरी जद्दन, अब बड़े घरानों की बेगमों के-से तेवर बहुत न दिखाओ! बकरा न हो गया, सुसरा हातिमताई हो गया तुम्हारे वास्ते!” रहीमन ने भी झिड़क दिया और व्यंग-भरी आवाज़ में बोली — “वो जो एक मुहावरा है, तुमने भी सुना होगा — बकरे की अम्मा आखिर कब तक दुआएँ करेगी? और जद्दन, सुनाने वाले को सुनना भी सीखना ही चाहिए. हमसे पूछो, तो हकीकत ये है कि तुम्हारे तो औलाद हुई नहीं. सौतेले को न तुमने कलेजे के करीब आने दिया और न उन नामुरादों से तुम्हारे सीने में दूध उतारा गया. बस, ये ही वजह है कि तुम इस दाढ़ीजार बकरे को ‘मेरा मैमूद, मेरा मैमूद!’ पुकार के अपनी जलन बुझाती हो.”
(Maimud Shailesh Matiyani Story)

जद्दन आगे बढ़ती हुई, ऐसे रूक गई, जैसे बिच्छू ने काट लिया हो. उसका चेहरा गुस्से में तमतमाने के बाद, लाचारगी से स्याह पड़ गया, “रहीमन, जो जी तूने मेरा दुखाया है, खुदा तुझे समझेगा. और रै गया ‘बकरे की अम्मा’ वाला मुहावरा, तो इंसान की अम्मा की ही दुआ कहाँ बहुत लम्बे तक असर करती है? करती होती, तो तेरा बड़ा बेटा सुलेमान आज जवान हो चुका होता और तू सिर्फ़ नाम की ‘सुलेमान की अम्मा’ न रह जाती!” एक लमहा चुप कर, “रहीमन! खुदा मुझे माफ़ करे, मैं तेरे ऊपर बीते का मज़ाक उड़ाना नहीं चाहती थी — सिर्फ़ इतना कैना चाहती हूँ, दर्द इंसान को अपने जज़्बातों का होता है. जिससे जज़्बाती रिश्ता न हो, उसका काहे का स्यापा? सूलेमान की अम्मा, इतना मैं भी जानती हूँ कि बकरे ने आखिर कटना-ही-कटना है. कसाइयों से कौन-सा बकरा बचा आज तलक? मगर मेरी इतनी इल्तजा ज़रूर है परवर-दिगार से, मेरी नजरों के सामने ना कटे. शराफत के अब्बा से कै भी चुकी हूँ, इस नामुराद को जब बेचने लगो, तो पहले तो शहर का — कम-से-कम मोहल्ले का फासला ज़रूर रखना. और वो तेरी बात मैं ज़रूर माने लेती हूँ कि खुदा के यहाँ बकरे की अम्मा की दुआ बहरे के कानों में अजान हैं. यह भी ठीक है, सौतेले ने मुझे सगी अम्मा की-सी इज़्ज़त नहीं बख्शी, यह कैना सरासर झूठ बोल के दोजख में जाना होगा मगर मुहब्बत जो मुझे इस जानवर ने दी, अम्मा-अब्बा ने दी होगी, तो दी होगी.”

रहीमन से कोई उत्तर बन नहीं पाया. वह सिर्फ़ यह देखती रह गई कि जद्दन ने बुर्के के पल्लू से अपनी आँखें पोछीं और बकरे की पीठ थपथपाती हुई, अपने घर की तरफ़ बढ़ गई.

जद्दन जब तक घर पहुँची, अशरफ नमाज़ पर बैठ चुके थे.

पाखाने की बगल की संकरी कोठरी में बकरे को बंद करते हुए, जद्दन बोली, “शराफत के अब्बा दूपेर की नमाज पर बैठ चुके. अब तू कहाँ मारा-मारा फिरेगा. शाम के वक्त निकालूँगी. इस साल अभी से लू चलने लगी.”
(Maimud Shailesh Matiyani Story)

खाने पर बैठे, तो अशरफ बोले, “शराफत की अम्मा, रायबरेली वालों का संदेशा आया था, तुम्हें मालूम ही होगा. हम लोग तो तंगदस्ती मे चल रहे हैं, मगर मेहमानों के सामने तो अपना रोना रोया नहीं जाता, इज़्ज़त देखनी पड़ती है. शराफत और जहीर से बात हुई थी. लड़के ठीक ही कह रहे थे कि अब्बा, बाज़ार में दस रुपए किलो का भाव है. पाँच-छँ जने शहनाज की पीहर से रहेंगे और भले-बुरे में दस-पाँच अपनी आपसवालों के लोगों को बुलाना ज़रूरी-सा होता है. दूसरों की दावत खाते हैं, तो अपनी शर्म रखनी ही पड़ेगी. शराफत तो यही कहता था कि अम्मा से पूछ के देख लें. तुम्हारे बकरे को कटवा लेते तो घर की ठुकेगी नहीं. खाली रोगनजोश उबाल देने से तो काम चलेगा नहीं. कबाब और कोफ्ते बड़ी बहुत अच्छे बनाती हैं. पिछले बरस जब हम लोग रायबरेली गए थे शहनाज के अब्बा ने दो तो बकरे ही कटवा दिए थे और मुर्गियों की गिनती कौन करे. चार-पाँच दिन कुल जमा रहे होंगे, गोश्त खा-खाकर अफारा हो गया. गरीब हम लोग उनके मुकाबले में ज़रूर हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं कि अपनी कमनियती का सबूत भी दें.”

अशरफ भूमिका बाँधते जा रहे थे और जद्दन का चेहरा खिंचता जा रहा था. घर के सभी लोग जानते थे कि अम्मा से बकरे को निकालना इतना आसान नहीं होगा. अशरफ जब बातें कर रहे थे, शहनाज चुपके-चुपके अपने बच्चे को पुलाव खिला रही थी और सहम रही थी कि कहीं अम्मा आसमान की तरह न फट पड़ें. मुँह उसका दूसरी ओर था, लेकिन कान जद्दन की ओर लगे हुए थे. ज्योंही जद्दन धीमी लेकिन क़ड़वी आवाज़ में कहा कि “शराफत की लैला तो मेरे मैमूद की जान को आ गई है.” शहनाज दबे स्वर में बोली, “अम्मा, ये तोहमत हमें ना दीजिये. ये बैठे हैं सामने, पूछ लीजिए, हम तो लगातार मने करते रहे हैं कि अम्मा बहुत जज़्बाती है, उनकी कोई न छेड़े. खुराफातें ये करेंगे और अम्मा का गुस्सा अपने बेटों की जगह, हम बेकसूरों पर गिरेगा.”

शहनाज के कहने में कुछ ऐसी विनम्रता और सम्मान की भावना थी कि जद्दन का रूख बदल गया, “शराफत के अब्बा, बकरे को मैंने कोई छाती पे बाँध के थोड़े ले जाना है? रहीमन ठीक ही तो कैती थी कि जद्दन आपा, बकरे की माँ कहाँ तक खैर मना सकती है! मेरी ख्वाहिश तो सिर्फ़ इतनी हैं कि इस साले नामुराद जानवर के उठने-बैठने, हगने-मूतने की बातें भी मेरी याददाश्त का हिस्सा बन गई हैं. छोटा मेमना था, तब तुम लोगों ने ही खुद देखा और हज़ार बार टोका कि अम्मा बकरे की औलाद की तरह साथ सुलाती है. क्या करती, सर्दी इतनी पड़ती थी और बिना माँ का ये बच्चा था! खैर, मेरी तो इतनी-सी सलाह है कि मेहमान आएँ, तो उनकी इज़्ज़त हमारी इज़्ज़त है. जहीर से कहिए, कहीं उधर कटरे-कंडेलगंज की तरफ़ के कसाइयों के हाथ बेच आए और इसके पैसों से चाहे फिर गोश्त ले आए, या दूसरा बकरा खरीद लाए. इसका तो गोश्त भी बू मारेगा. और, खुदा जानता है, मैंने तो अपना जी अब खुद ही कसाइयों-सा बना लिया कि इस हरामजादे को तो कटना ही है. मैं ही उल्लू की पठ्ठी थीं, जो इसको खुराक देकर गोश्तखोरों के लिए मोटा करती रही.”
(Maimud Shailesh Matiyani Story)

हालाँकि सारी बातें जद्दन ने काफी ठंडे स्वर में और उदासीनता बरतते हुए कहीं थीं, लेकिन सभी जानते थे कि क्रुद्धता उसके जिस्म में इस समय खून की तरह दौड़ रही होगी.

अपनी हताशा और उदासीनता को कमरे में पतझर के पत्तों की तरह गिराती हुई-सी जद्दन उठ खड़ी हुई, तो शहनाज बोली, “बकरे का गोश्त बू देगा, यह कहने के पीछे अम्मा का खास मकसद है. आप इन दोनों से कह दीजिएगा कि अम्मा से जिद न करें.”

अशरफ मियाँ ने एक लम्बी सांस ली और बोले, “इसको देखता हूँ, तो बीते हुए दिन याद आने लगते हैं. शराफत और जहीर जब छोटे थे, तभी बड़ी चली गई थी. इसमें हम लोगों को कभी इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि बूढ़े की बीवी मर गई है या बच्चों की अम्मा! तुम लोग तो अब देख रही हो, जब न इसमें आब रही, न ताब! बकरा कट ही जाए, तो अच्छा है. मार पागलों की तरह धूप में मारी-मारी फिरती है. वह सुसरा कभी ठिकाने तो रहता नहीं. कटे, तो थोड़े दिन हाय-तौबा कर लेगी, और क्या! रोज़-रोज़ की फजीहत तो दूर होगी. देखना मेहमानों के सामने अम्मा यों टल्ले लगा बुरका पहने न चली आएँ! वक्त की मार भी क्या मार है. देखती हो, अधसाया करके उठ गईं. जब तुम लोगों की उम्र की थीं, तब बारामती की किस्में देखी जाती थीं कि जर्दा पुलाव के लिए बारिक वाली बासमती हो. अब यह राशन के चावलों को पीला करना तो हल्दी की बेइज़्ज़ती करना है.”
(Maimud Shailesh Matiyani Story)

इसी वक्त बड़ा बेटा जहीर आ गया, तो उसको सारी स्थिति बताई गई. वह लापरवाही के साथ बोला, “आप लोग बेकार में बात बढ़ाये जाते हैं. अम्मा को मैं समझा दूँगा. अब यह कोई उनकी बकरे के पीछे दौड़ने की उम्र हैं? सड़क पर भागती दिखती हैं, तो शर्मसार होके रह जाते हैं हम लोग. भूखी-प्यासी और फटेहाल दौड़ी चली जाएँगी. मेरी मानिये, तो सलीम कसाई को बुलवा लें और मेहमानों के आने से पहले खाल उतारकर, कीमा कूटने रख दे. राने पुलाव में डलवा दीजिए और इस वक़्त के मीट में सीना-चाप-गरदन की बोटियाँ ठीक रहेंगी. जो खातिर घर की चीज़ से हो सकती है, बाज़ार से दो-ढ़ाई सौ में भी नहीं होंगी.”

“जुबेदा की अम्मा भी यही कहती थीं कि सोला रुपए वो देंगी, तीस-बत्तीस रुपए, शायद, ये शहनाज भी देने वाली थीं कि ‘अम्मा अपने बेटों को तो बख्श देंगी, हमें नहीं.’ अब इन बेवकूफों को कौन समझाये कि दो किलो घासलेट और तेल-मसाला करते-करते सौ रुपए निकल जाएँगे. राशन का चावल तो मेहमानों के लिए पुलाव में इस्तेमाल होगा नहीं और ढंग की बासमती साढ़े चार-पाँच से कमती का सेर नहीं. इंसान को अपना वक्त और सहूलियत देख के चलना चाहिए, जज़्बातों पर चलने के दिन लद गए. कहते ठीक हो, बेटे! मेरी भी राय यही है. ज़रा तुम अम्मा से मिलकर, ऊँच-नीच समझा दो. ज़िद्दी ज़रूर हैं, लेकिन नासमझ नहीं.” आवाज़ साफ़-साफ़ सुनायी दे गई. जहीर की घरवाली यह कहते हुए उठ खड़ी हुई कि “तुम लोग शुरू करो, मैं जरा अब्बा हुजूर के हाथ धुलवा दूँ.”

खाना खा चुकने पर जहीर सीधे भीतर के कमरे में गया कि अम्मा सोई होगी, लेकिन शहनाज ने बताया, “यों कहकर निकल गई हैं कि जरा रिजवी साहब के घर तक जाएँगी. उनके घर पिछले हफ्ते गमी हो गई थी. कहकर गई है कि शायद शाम हो जाए, देर से लौटेंगे. मेरा ख़याल है, अम्मा ने समझ लिया है कि अब बकरा बचता नहीं. गमी में शरीक होना तो एक बहाना है. घर से दूर जाना चाहती होंगी.”

शहनाज धीमे से हँसना चाहती थी, लेकिन सिर्फ़ उदास होकर रह गई.

जहीर ने बाहर निकलकर, अपने ग्यारह-बारह साल के बड़े लड़के से कहा, “जुबैद, ज़रा सलीम को बुलाकर लाइयो. मेहमानों के आने तक में सफ़ाई हो जाए, तो ही ठीक है. जुबेद की अम्मा, भई, तुम लोग ज़रा बाहर वाला कमरा मेहमानों के लिए ठीक-ठाक कर देना.”
(Maimud Shailesh Matiyani Story)

“शहनाज के अब्बा लोगों को किसी तरह की कमी की शिकायत न हो. बेचारे हर फसल पर चले आते हैं और हर बात का लिहाज रखते हैं. खुद तुम्हारे साथ अपनी सगी बेटी से ज़्यादा मुहब्बत का बर्ताव करते हैं. तुम दोनों जने प्याज़ और मसाले वगैरह पीसकर तैयार कर लेना. बाकी बाज़ार का सामान शराफत लेता आएगा. सलीम आ जाए, तो उससे कह देना, गंद जरा-सी भी न छूटे आँगन में. पोंछा लगवा लेना. खून के धब्बे वगैरह देखेंगी अम्मा तो, और बिगड़ेंगी. तुम लोगों से कुछ कहने लगें, तो कह देना, जुबेद के अब्बा ने ज़बर्दस्ती कटवा दिया. मैं उन्हें समझा लूँगा.”

शाम की जगह घड़ी-भर रात बीत चुकने के अहसास में ही, जद्दन घर वापस लौटी और गली में से होते हुए, घर के पीछे वाले सँकरे आँगन में निकल गई. खटोला गिराकर उस पर लेट गई और, आस-पास के नीम-अँधेरे में अपने-आपको छिपा लेने की कोशिश में, आँखें बन्द कर लीं.

मेहमान आ चुके थे और उनके तथा आपस के लोगों की बातचीत यहाँ पिछवाड़े भी सुनायी दो रही थी. छोटे बच्चों को बाहर लेकर आई, तो शहनाज ने देखा और करीब आकर, पाँव दबाती हुई बोली, “अब्बा आ गए हैं. आते ही आपकी बाबत पूछ रहे थे कि अम्मा ने पुछवाया है, कैसी हैं. कभी रायबरेली की तरफ़ आने की इस्तजा करवा रही हैं. मैंने भी अब्बा से कहा है कि अब की बार मैं अम्मा के साथ ही आऊँगी. अम्मा, तुम खाना कहाँ खाओगी? मेहमानों का दस्तरखान तो वहीं बाहर बैठक में बिछेगा. जल्दी खा-पी लेने की बातें कर रहे थे सभी लोग. कोई मज़हबी किस्म की फिल्म शहर में कहीं लगी हुई है!”

“मेरे लिए दो रोटियाँ यहीं भिजवा देना. मेरा न जी ठीक है, न पेट. जुबैद को जरा भेज देना, मैं उससे कुछ मँगवा लूँगी. तुम सब लोग आराम से खाओ-पिओ. मेरी फिक्र ना करना. अब तो कोई सर्दी ना रही. मैं यहीं सो जाऊँगी. अपने अब्बा हुजूर से मेरा सलाम कैना और कैना कि सुबह दुआ-सलाम होगी, अभी अम्मा का जी ठीक नहीं.”
(Maimud Shailesh Matiyani Story)

शहनाज ने अनुभव किया कि जद्दन की आवाज़ मरते वक्त की-सी हो आई है. निहायत हल्की और बेजान. वह चाहती थी कि कुछ बातें करके, उसकी उदासीनता को कम करने की कोशिश करे, लेकिन इस डर से चुप रह गई कि कहीं अंदर इकठ्ठा किया हुआ दु:ख गुस्से की शक्ल में बाहर फूट आया, तो पूरे घर का वातावरण बदल जाएगा. आज के वक्त को तो अब यों हीं टल जाने देना अच्छा है.

वापस लौटकर उसने बताया, तो जहीर और अशरफ मियाँ, दोनों ने मुँह बना लिया. “हम लोगों ने तो हरचंद वही कोशिश की है कि कहीं से उस नामुराद बकरे की कोई चीज अम्मा को दिखे ही नहीं. वो तो इतनी संजीदा है गई हैं, जैसे बकरे का हलाल किया हुआ सर आँगन में टँगा हुआ हो. कह रही थीं, गोश्त-पुलाव वगैरा कुछ मत भेजना.” शहनाज ने कहा, तो अशरफ मियाँ उठ खड़े हुए. बोले, “जब उसे खिलाना हो, हमें बुला लेना. क्यों, भई जुबेद, तुम कहाँ तशरीफ ले जा रहे हो? जरा बैठक में मेहमानों के करीब रहो.”

चाचा जी ने पिछवाड़े भेजा था, बड़ी अम्मा के पास. उन्होंने चार आने हमें दिए हैं कि “जाओ, शंभू पंडत की दुकान से आलू की सब्जी ले आओ.”

“अबे, इधर ला चवन्नी. जा, मेहमानों को पानी-वानी पूछना. अम्मा को हम देख लेंगे. शहनाज बेटे, ऐसा करो — एक थाली में पुलाव और बड़े कटोरे में गोश्त लगाकर हमें दो दो. हम ले जाकर समझा देंगे. वाकई, बहुत बेवकूफ़ किस्म की औरत है. जहीर, तुम बाहर बैठक में दस्तरखान बिछाने में लगो. शराफ़त के अलावा और एक-दो लड़कों को साथ ले लो.”

पुलाव की थाली और गोश्त का कटोरा शहनाज ने ही पहुँचा दिया. खटोले की बगल में रखकर, पानी लाने के बहाने तुरन्त लौट आई. अशरफ मियाँ ने करीब से माथा छुआ और बोले, “क्यों, भई, ऐसे क्यों लेटी हो? तबीयत तो ठीक है ना? अरी सुनो, सारे किए-कराए पर मिट्टी न डालो. तुम रूसवा रहोगी, तो सारी मेहमाननवाज़ी फीकी पड़ जाएगी. सारा घर कबाब-गोश्त उड़ाए और तुम उस शंभू पंडत के यहाँ के पानीवाले आलू मँगवाओ, ये तो हम लोगों को जूती मारने के बरोबर है. ऐसी भी क्या बात हो गई, जो तुमने खटिया पकड़ ली? गोश्त से तुम्हें कभी परहेज़ रहा नहीं. बिना शोरबे के रोटी गले के नीचे तुम्हारे उतरती नहीं. अब इस हद तक जज़्बाती बनने से तो कोई फ़ायदा नहीं. आखिर जिन बकरों का गोश्त तुम आज तक खाती आई हो, उनके कोई चार सींग तो थे नहीं! लो, शहनाज़ खाना दे गई है. गोश्त वाकई बहुत लज़्ज़तदार बना है. जहीर तो दूसरा बकरा भी ढूँढ़ने गया था, मगर लौटकर यही कहने लगा कि “अब्बा, अपना बेचने जाओ तो सौ के पचास देंगे और दूसरों का खरीदने जाओ, तो पचास के सौ माँगेंगे. तुम तो घर की इस वक़्त जो अंदरूनी हालत है, जानती ही हो.”
(Maimud Shailesh Matiyani Story)

जद्दन ऐसे उठी, जैसे कब्रिस्तान में गड़ा हुआ मुर्दा खड़ा हो रहा हो. तीखी आँखों से अशरफ मियाँ की ओर उसने देखा और आवाज़ मेहमानों तक न पहुँचे, इस तरह दबाकर बोली, “जहीर के अब्बा, नसीहतें देने आए हो? मेरी तकलीफ़ तुम लोग समझोगे? रिजवी के यहाँ घंटों पड़ी रही हूँ, तो कैसे यही मेरे तसब्वुर में आता रहा कि अब तुम लोग मेरे मैसूद के सिर को धड़ से कैसे जुदा कर रहे होंगे – जार-जार रोती रही हूँ और रिजवी की बीबी यों समझ के मुझे समझाए जा रही है कि मैं उसके बदनसीब भाई की बेवक़्त की मौत पे रो रही हूँ. आज ससुरा सवेरे-सवेरे से बार-बार मेरे कान मुँह में भरे जाता था और मैं थूथना पकड़कर, धक्का दे देती थी. मैं क्या जानूँ कि बदनसीब चुपके से कान में यही कहना चाहता है कि “अम्मा, आज हम चले जाएँगे!” तुम लोग समझोगे मेरी तकलीफ़ कि कैसे मेरे लबों पर ‘मैमूद’ की सदा आएगी और खत्म हो जाएगी?”

जद्दन काफी देर तक फूट-फूटकर रोती रही और अशरफ मियाँ हक्का-बैठे रहे. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति अब सँभले कैसे! आखिर उन्होंने यही तय किया कि चुपचाप खाना उठा ले जाना ही ठीक है. वह थाली-कटोरा उठाते कि जद्दन जहरबुझी आवाज़ में बोल उठी, “तुम बेदर्दों से ये भी न हुआ कि मैं अव्वल दर्जे की गोश्तखोर औरत जब कै रही हूँ कि बेटे शहनाज, हमें गोश्त-वोश्त न देना तो इसकी कोई तो वजह होगी? और जहीर के अब्बा, इंसान दाढ़ी बढ़ा लेने से पीर नहीं हो जाता. तुम ये मुझे क्या नसीहत दोगे कि सभी बकरों के दो सींग होते हैं? इतना तो नादीदा भी जानता है. दुनिया में तो सारे इंसान भी खुदा ने दो सींग वाले बकरों की तरह, दो पाँव वाले बनाए? लेकिन औरत तो तभी राँड होती है, जब उसका अपना खसम मरता है. अम्मा तो तभी अपनी छाती कूटती है, जब उससे उसका बच्चा जुदा होता हो. ये मैं भी जानती हूँ कि मेरे मैमूद में कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे थे, मगर इतना जानती हूँ कि मेरी तकलीफ़ जितना वह बदनसीब समझता था, न तुम समझोगे, न तुम्हारे बेटे ! समझते होते, तो क्या किसी हकीम ने बताया था कि मेहमानों को इसी बकरे का गोश्त खिलाना और तुम भी भकोसना, नहीं तो नजला-जुकाम हो जाएगा? जहीर के अब्बा, उसूलों का तुम पे टोटा नहीं, मगर इस वक्त अब हमें बहुत जलील न करो. शहनाज से कहो, उठा ले जाए, नहीं तो फेंक दूँगी उधर! जुबैद से कह देना, अब पंडत के हियाँ से सब्जी लाने की भी कोई ज़रूरत ना रही. मेरा पेट तो तुम लोगों की नसीहतों से ही भर चुका.”

अशरफ मियाँ नीचे झुके और थाली-कटोरा उठाते हुए, वापस आ गए, “लो बेटे, रखो! ज़िद्दी औरत को समझाना तो खुदा के बस का भी नहीं. उसे उसके हाल पर छोड़, मेहमानों की फ़िक्र करो.”
(Maimud Shailesh Matiyani Story)

हिन्दी के मूर्धन्य कथाकार-उपन्यासकार शैलेश मटियानी (Shailesh Matiyani) अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना में 14 अक्टूबर 1931 को जन्मे थे. सतत संघर्ष से भरा उनका प्रेरक जीवन भैंसियाछाना, अल्मोड़ा, इलाहाबाद और बंबई जैसे पड़ावों से गुजरता हुआ अंततः हल्द्वानी में थमा जहाँ 24 अप्रैल 2001 को उनका देहांत हुआ. शैलेश मटियानी का रचनाकर्म बहुत बड़ा है. उन्होंने तीस से अधिक उपन्यास लिखे और लगभग दो दर्ज़न कहानी संग्रह प्रकशित किये. आंचलिक रंगों में पगी विषयवस्तु की विविधता उनकी रचनाओं में अटी पड़ी है. वे सही मायनों में पहाड़ के प्रतिनिधि रचनाकार हैं.

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