लघु पत्रिका आन्दोलन की शुरुआत व्यावसायिक पत्रिकाओं को चुनौती देने के उद्देश्य से हुई थी. साठ के दशक में ‘समानांतर’ कला-माध्यमों के रूप में यह लगभग सभी कला-रूपों में एक साथ शुरू हुआ. सिनेमा, साहित्य, रंगमंच आदि सभी जगह बदलती संवेदना के अनुरूप नए माध्यमों की तलाश थी. इस रूप में यह काफी सफल भी रहा, मगर हिंदी पत्रकारिता में इसने एक अलग ही रूप ग्रहण कर लिया. तब ‘बड़ी’ पत्रिकाएं लाखों की संख्या में बिकती थीं, और कई लेखकों के उनके संपादकों तथा मालिकों के साथ सैद्धांतिक/निजी मतभेद होने के कारण बड़ी पत्रिकाओं में उन्होंने लिखना छोड़ दिया था. (Little Magazines Hindi Literature)
उन्हीं दिनों कुछ लोगों ने अपने निजी प्रयासों से पत्रिकाएं निकालनी शुरू कीं. ‘हंस’, ‘पहल’ ‘कथादेश’ वगैरह अनेक पत्रिकाओं का जन्म इसी तरह हुआ था. धीरे-धीरे व्यावसायिक पत्रिकाएं बंद हो गईं तो बड़ी पत्रिकाओं का चरित्र छोटी पत्रिकाओं में खिसक आया और वे लेखक जो बड़ी पत्रिकाओं में लिखते थे, छोटी पत्रिकाओं में सिमट आये. कुछ लेखक अख़बारों के प्रायोजित संस्करणों में लिखने लगे, जिनमें लिखना वे कभी अपनी शान के खिलाफ समझते थे. मगर हिंदी में पत्रिकाओं के पाठक वर्ग में वो बढ़ोत्तरी कभी वापस नहीं आ पाई जो व्यावसायिक पत्रिकाओं के स्वर्णकाल में मौजूद थी. (Little Magazines Hindi Literature)
इसी क्रम में कुछ पत्रिकाओं के संपादकों और असंतुष्ट लेखकों ने एक-दूसरे के गुट की, उन्हीं तर्कों के आधार पर आलोचना शुरू कर दी, जिनके कारण वो व्यावसायिक पत्रिकाओं की आलोचना करते थे. शुरू-शुरू में दोनों तरह की पत्रिकाओं में सामग्री को लेकर भी अंतर मिलता था, मगर ‘बड़ी’ पत्रिकाओं के बंद होने पर उनमें लिखने वाले लेखक इन कथित ‘छोटी’ पत्रिकाओं में आ गए तो ‘बड़े’ और ‘छोटे का अंतर एकदम ख़त्म हो गया. हालत यह हो गयी कि साहित्यिक हलकों में जिस पत्रिका की चर्चा होती थी, उसे विशिष्ट दर्जा देते हुए लगभग ‘व्यावसायिक’ पत्रिका का-सा सम्मान मिलने लगा. धीरे-धीरे ऐसी पत्रिकाओं के ’कठोर’ संपादन के चलते ‘असंतुष्टों’ की संख्या बढ़ती चली गयी और ऐसे असंतुष्टों ने अपनी-अपनी ‘लघु’-पत्रिकाएं निकालनी आरम्भ कर दीं.
हिंदी का मध्यवर्ग यों ही पाठकीय अभिरुचि के मामले में शुरू से ही बहुत कमजोर रहा है, साहित्य को लेकर उसकी निजी रुचियाँ कभी विकसित नहीं हो पाईं, पत्रिकाओं के इस जल्दी-जल्दी कायांतरण की वजह से वह बुरी तरह से कंफ्यूजन का शिकार होता चला गया. एक तरह का लेखकीय गुट अलग विषय-वस्तु और शैली के लेखन को विशिष्ट मानता था, दूसरा अलग तरह के लेखन को. इस रूप में लेखकों का भी बटवारा हो गया. नौबत ऐसी आई कि पत्रिका के संपादक का नाम देखकर ही (बिना रचनाओं को पढ़े) अदाज़ लगाया जा सकता था कि पत्रिका में कौन से लेखक और कैसी सामग्री शामिल होगी. इस प्रवृत्ति ने भी पाठकों के मन में साहित्यिक लेखन के प्रति उलझन और फिर इस क्रम में अरुचि उत्पन्न कर दी.
आज बड़े व्यावसायिक घरानों से निकलने वाली हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएं कौन-सी हैं? साहित्य को लेकर उनका स्टैंड और चरित्र क्या है? क्या यह चरित्र हिंदी की कथित ‘लघु’ पत्रिकाओं से भिन्न है? क्या हिंदी की ‘लघु’ पत्रिकाएं अलग-अलग अखाड़ों के छुटभैये पहलवानों का-सा अहसास नहीं देतीं? हालत यह है कि आज हिंदी में पाठकों से अधिक लेखक उग आये हैं, और सच तो यह भी है कि पाठकों के बीच भले ही साहित्यिक अनुशासन दिखाई देता हो, लेखकों के बीच उसका नितांत अभाव है.
हिंदी समाज में, जिसमें उसके लेखक भी शामिल हैं, प्रबुद्धता और विशिष्टता का पैमाना अंगरेजी है, इसलिए लेखकों और पाठकों दोनों के ही बीच हिंदी में लिखने वाला लेखक सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता. कुछ चालाक किस्म के अंग्रेजी जानने वाले लेखक इस कमजोरी का फायदा उठाकर पश्चिमी साहित्य और आन्दोलनों की जानकारी देकर या उनकी नक़ल करके अपना रुतबा बना लेते हैं, चर्चित होते हैं; बाकी लोग हीनता-ग्रंथि के शिकार होकर कुढ़ते रहते हैं. ऐसे में क्या करेंगी लघु पत्रिकाएं और क्या ‘बड़ी’? मानो पहाड़ों की ‘छोटी’ और ‘बड़ी’ धोती का अंतर हो, जो होते तो एक ही इलाके और जाति के हैं, मगर खाना साथ बैठकर नहीं खा सकते!
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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सही बात कही है सर आपने। सबके अपनी ढफली और अपना राग है। मुझे आजतक यह समझ नहीं आया कि साहित्य को इतना कठिन बनाने की जरूरत क्यों पड़ी? मेरी समझ से तो अच्छा साहित्यकार वो है जो किसी भी गूढ़ से गूढ़ बात को इस तरह से कह सके कि साधारण से साधारण शिक्षा प्रपात व्यक्ति भी उसे समझ सके। वही साहित्य में ऐसा देखा जाता है कि बात होती तो साधारण है लेकिन उसको इस गूढ़ रूप से कहा जाता है जैसे देवकीनंदन खत्री जी उपन्यास का कोई तिलस्म हो। ऐसे में पाठक दूर न हो तो क्या होगा। इससे होता यह है लेखक को पाठक तो मिलते नहीं है और इस कारण वो अलग अलग तरह की राजनीती करके अपना गुजारा चलाने की कोशिश करता है।खैर, अपन को क्या। अपन ठहरे पाठक।