देवेन मेवाड़ी

पहाड़ों में पाया जाने वाला फल जिसे चंगेज खां अपने सैनिकों को उनकी याददाश्त बढ़ाने के लिये खिलाता था

कुछ समय पहले पहाड़ से कवि-कथाकार मित्र अनिल कार्की ने नन्हे, सुंदर, सिंदूरी फलों से लदे एक अनजाने पौधे का फोटो भेजा. लिखा था, ‘सिरदांग में हमने इसका जूस पीया था. आपका परिचय जरूर होगा इस पेड़ और फल से.’ (Leh Berry)

अब क्या कहूं? वही हाल हो गया है कि 
पार धार में लालि छ कनी
जैलि देखी भलि छ कनी
जैलि नैं देखि कसि छ कनी!

दूर धार (चोटी) में लाली है कहते हैं, जिसने देखी है वे अच्छी है कहते हैं, जिसने नहीं देखी है कैसी है कहते हैं. गौर से देखा तो फल हमारी चिर-परिचित गिंवाई जैसे लगे. (Leh Berry)

कोई आदमी हो तो चलो नाम भी पूछ लिया जाए, लेकिन यह तो अनजाना पौधा है और वह भी फोटो में! लेकिन, नाम तो पूछना ही पड़ेगा. किस से? क्यों किताबों से. पौधों का नामकरण करने वाले पुरोहित कार्ल लिनेयस ने इसका नामकरण जरूर किया होगा. उसकी द्विनाम पद्धति यानी वंश और प्रजाति के आधार पर ही तो आज दुनिया भर के लाखों पौधों का नामकरण किया गया है.
तो, पूछा किताब से. उसने बताया- हिप्पोफी रेमनोइडेज है. वंश ‘हिप्पोफी’ और प्रजाति ‘रेमनोइडेज’. इलियग्नेसी परिवार का सदस्य है. गिंवाई भी इसी परिवार का सदस्य है. मैंने पूछा, और? किताब ने कहा- एशिया और यूरोप के ऊंचे और रूखे-सूखे इलाकों का मूल निवासी पौधा है यह. अथाह ठंड को बर्दाश्त कर लेता है और पहाड़ों में अपने आप सदियों से उगता रहा है और झाड़ियों के रूप में अपनी जड़ों से मिट्टी को जकड़ कर उसे भूमि-कटाव से बचाता रहा है. इतना ही नहीं, यह हवा में मौजूद नाइट्रोजन को खूराक के रूप में जमा करके मिट्टी को उपजाऊ बना देता है. अपनी घनी झाड़ियों से यह जल का भी संरक्षण करता है और वन्य जीवों को शरण देकर उनकी सुरक्षा करता है.

यह सब जान कर मैं तो देखता ही रह गया. मन में एक सवाल था, पूछ लिया- इसका नाम थोड़ा अजीब-सा नहीं है?

अजीब-सा? अरे, इतना प्यारा नाम है- हिप्पोफी! लैटिन भाषा में है. पौधों के नाम तो लैटिन भाषा में ही होते हैं ना?

मैंने हामी भरी तो किताब ने बताया लैटिन भाषा में ‘हिप्पो’ का मतलब है ‘घो़ड़ा’ और ‘फाओस’ के मायने हैं ‘चमक’. असल में पहले तक घोड़ों को तंदुरुस्त रखने, उनका वजन बढाने और खाल में चमक लाने के लिए इस पौधे की पत्तियां और मुलायम टहनियां खिलाते थे. इसी खासियत के कारण इसका नाम ‘हिप्पोफी’ पड़ गया. अंग्रेजों ने अपनी भाषा में इसका नाम रखा ‘सी-बकथोर्न’.

हमारे देश में यह जम्मू-कश्मीर के लेह-लद्दाख क्षेत्र, सिक्किम और उत्तराखंड में उगता है. लेह-लद्दाख में तो अनुमान है कि यह तकरीबन 11,000 हैक्टर क्षेत्र में जंगली झाड़ियों के रूप में उगता है. मैंने ब्रिटिश हुकूमत के दिनों के वन अधिकारी ओस्मास्टन की किताब से पूछा तो पता लगा उत्तराखंड में इसकी दो प्रजातियां पाई जाती हैं: हिप्पोफी रेमनोइडेज और हिप्पोफी सेलिसिफोलिया. पहली प्रजाति को चुक या चु कहते हैं. धारचुला के सिरदांग में मित्र अनिल कार्की ने इसी चुक का जूस पीया होगा.

लद्दाख में एक फ्रुट-जूस मिलता है- लेह बेरी. वह इसी सी-बकथोर्न के फलों का जूस है. इसके लिए हमें रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन यानी डी आर डी ओ का शुक्रगुजार होना चाहिए. उनकी रक्षा प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने इस जंगली झाड़ी पर सन् 1992 में शोधकार्य शुरू किया और इसके पोषक गुणों से भरपूर नन्हे फलों का महत्व पहचाना. उनसे स्वास्थवर्धक ‘लेह बेरी’ जूस बना डाला. लद्दाख में इस पौधे को ‘त्सेरमांग’ कहते हैं.

इस जूस की खासियत यह है कि कितनी ही ठंड पड़े, यह जमता नहीं. शून्य से 20 डिग्री सेल्सियस कम तापमान पर भी नहीं. सियाचिन ग्लेशियर हो या द्रास-कारगिल यह वहां भी नहीं जमता. जवानों के लिए इससे बढ़िया भला और क्या पेय हो सकता है. पेय भी ऐसा जिसमें विटामिन भी हैं, खनिज भी, कैरोटिनाइड भी और बढ़िया रेशा भी. आज डी आर डी ओ इसका 5-6 करोड़ रूपए का सालाना व्यापार कर रहा है.

इसके फलों में इतना विटामिन-सी होता है कि इसे विटामिन-सी का राजा कहा गया है. इसके अलावा इसमें विटामिन-ई और विटामिन-के जैसे दुर्लभ विटामिन भी पाए जाते हैं. इसमें पोटैशियम, मैंगनीज और तांबा जैसे खनिज भी प्रचुर मात्रा में होते हैं.

इतना पौष्टिक पेय! कहते तो यह भी हैं कि चंगेज खां ने अपने सैनिकों को स्वस्थ-तंदुरुस्त रखने, उनकी याददाश्त बढ़ाने और उन्हें बीमारियों से बचाने के लिए इस झाड़ी के फल खिलाए थे. इस पौधे से औषधियां भी बनाई जाती हैं. परंपरागत चिकित्सा में इसकी पत्तियों, छाल, फलों और इसके तेल का उपयोग किया जाता रहा है. पत्तियां और छाल दस्त रोकने तथा चर्म रोगों में आराम पहुंचाने के लिए इस्तेमाल की जाती है.

कहते हैं, इसके तेल से त्वचा कोमल होती है और उसमें चमक आती है. इसलिए इसका तेल सौंदर्य प्रसाधनों के भी काम आता है. चीन, मंगोलिया, फिनलैंड, कनाडा, रूस, उत्तरी यूरोप आदि देशों में भी सी-बकथोर्न उगता है और इसके फलों का उपयोग किया जाता है. गर्ज यह कि गिंवाई जैसे फलों वाला हिप्पोफी यों ही कोई जंगली झाड़ी नहीं, बल्कि हमारे लिए प्रकृति की नायाब सौगात है. मिले तो इस फल को चखिएगा जरूर.

यह सब लिखा तो साथी अनिल कार्की ने पढ़ा और वापस लिखा, “ जानकारी के लिए आभार. एक बार फ़िर सिरदांग का खूबसूरत हिमालय नजरों में घूम गया. सिरदांग में इसका चूख (पका के काला वाला) बनाया जाता है नमक और चटनी के लिए. मुनस्यारी के सरस बाजार में इसका स्वादिष्ट चटनी और नमक चखा तो स्वाद अद्भुत लगा. तभी से मन में सोचा था आपसे नैनीताल जाके जरूर पूछूंगा.  मेरा मन है मैं इसे मच्छी के झोल में प्रयोग करूं. जामिर, दाड़िम तथा नींबू के चूख में तो खाई है अब जल्द इसका चूख डला झोल पीने का मन है.”

सी.बकथोर्न की झाड़ी में बक्टेरियन ऊंट. फोटो : साभार रणधीर संजीवनी

पढ़ा भूगर्भ विज्ञानी साथी रणधीर संजीवनी ने भी, और उन्हें लद्दाख याद आ गया. उन्होंने लिखा, “सुन्दर लेह बेरी. सी.बकथोर्न का स्वाद हमेशा लेता हूँ लद्दाख यात्रा में. वहां रहते हुए दिन में जितनी बार पीने को मिले, जरुर पी लेता हूं. मुझे पसंद है. सूखाकर चूरा भी मिलने लगा है. लाता हूं, चाय में भी डाल लेता हूं. आज सुबह चाय में सी.बकथोर्न का चूरा मिलाया तो आपके लेख की ताजगी और मिठास भी चाय में घुल गई. कुछ तस्वीर चस्पा कर रहा हूं. लद्दाख की नुब्रा घाटी के हुन्डर में रेत के टीलों के पास सी.बकथोर्न की झाड़ियां मिलीं और उनका आनंद  लेते दो कूबड़ वाले पालतू बक्टेरियन ऊंट भी मिले. आप जानते ही होंगे ये मूलतः मध्य एशिया के बाशिंदे हैं. यहां के लोग ‘सिल्क रूट’ के यहां से गुजरने की कहानी आज यहां आने वाले पर्यटकों को सुनाते हैं.”

बक्टेरियन ऊंट. फोटो : साभार – रणधीर संजीवनी

मैंने दोनों साथियो की लिखी बातें पढ़ी और मन ही मन कहा ‘जी रया दोस्तो!’ (Leh Berry)

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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