हल्द्वानी-नैनीताल मार्ग पर हल्द्वानी से करीब पंद्रह किलोमीटर दूर दोगांव नामक स्थान पिछले कुछ सालों से भट्ट जी के भुट्टों की वजह से खासा नाम कमा चुका है. अनेक चैतन्यकारी मसालों से बने मसाले-चटनी और मक्खन की मदद से परोसे जाने वाले उनके सुस्वादु भुट्टों की साख उत्तराखंड के बाहर भी फैली हुई है. पिछले दो दशकों में वे आसपास के इलाके में एक ब्रांड की तरह उभरे और स्थापित हुए हैं. पेश है साल 2018 में ‘काफल ट्री’ के लिए लिया गया उन का साक्षात्कार.
जैसा कि इस तरह के साक्षात्कारों में होता है, आपको व्यक्ति के बारे में बहुत सारा ऐसा जानने को मिलता है जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की होती. जिंदादिल और बेहद उम्दा सेन्स ऑफ़ ह्यूमर के स्वामी भट्ट जी जिनका पूरा नाम लीलाधर भट्ट है, ने बहुत आत्मीयता और ईमानदारी के साथ अपनी दास्तान तो सुनाई ही, भुट्टों के अपने धंधे की बारीकियां भी बतलाईं. उनसे बातचीत कर चुकने के बाद जो पहला अहसास मुझे हुआ वह ये था कि हमारे पहाड़ की पिछली पीढ़ियों ने बहुत कष्ट और निर्धनता से भरपूर जीवन बिताया है और अपनी अथक मेहनत-मशक्कत से अपनी संततियों के लिए रास्ते बनाए हैं. भट्ट परिवार की दास्तान अमूमन पूरे उत्तराखंड की दास्तान है. हो सकता है विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले हमारे पहाड़ों के किसी घर में पर्याप्त भोजन एकाध पीढ़ी पहले उपलब्ध होने लगा हो या एकाध पीढ़ी बाद, लेकिन भूख और सामाजिक विषमता से हममें से सभी के पुरखों ने बड़े संघर्ष किये हैं. इस लिहाज से भट्ट जी से की गयी यह बातचीत बहुत महत्वपूर्ण है कि इसमें हमसे ठीक पहले की यानी पचास-साठ साल वाली पीढ़ी के बड़े हिस्से की जिजीविषापूर्ण संघर्षगाथा की झलक बहुत करीब से देखने को मिलती है.
– अशोक पाण्डे
बारह भाई-बहनों वाला भट्टजी का परिवार
अल्मोड़ा के सालम में जैंती-बाराकोट के पुगाऊँ गाँव मूल निवासी हैं लीलाधर भट्ट. उनके बाबू स्व. चन्द्रदत्त भट्ट ने 1952 में पहाड़ से आकर हल्द्वानी-नैनीताल मार्ग पर दोगांव से दो किलोमीटर आगे चोपड़ा ग्राम सभा के आमपड़ाव गाँव में जमीन खरीदी. लीलाधर भट्ट जी की पैदाइश 1956 की है. छः भाई और छः बहनों का परिवार है. उनके पिता इकलौते कमाने वाले थे और छोटी-मोटी खेती मजदूरी कर परिवार का भरण-पोषण करते थे. इसके अलावा वे कभी-कभार जागरों और पूजाओं में डंगरिये और पुजारी का काम भी करते थे. वे एड़ी देवता के डंगरिये थे और भले-भले भूत-प्रेतों को सही कर देते थे. जिस तरह आज लीलाधर जी की धाक है उसी तरह उनकी भी हुआ करती थी. उनके पिता यानी लीलाधर भट्ट जी के दादा स्व. रामदत्त भट्ट भी साधारण किसानी-मजदूरी ही किया करते थे.
बचपन की यादें
“हम आमपड़ाव से पांच किलोमीटर दूर ज्योलीकोट पैदल स्कूल आते-जाते थे. पहले चोपड़ा में प्राइमरी स्कूल था. दस पैसे फीस पड़ती थी और कभी-कभी बाबू के पास वे भी नहीं होते थे. जब एक जना कमाएगा और दर्जन भर लोग खाने वाले होंगे तो ऐसा ही होगा. प्राइमरी के बाद ज्योलीकोट में छः तक पढ़ा और उसके बाद हल्द्वानी के नवाबी रोड में स्थित महादेव गिरि संस्कृत विद्यालय से आठवीं तक की पढाई की. स्कूल में ही रहते थे. उन दिनों वहां बसन्ती माई व्यवस्थापिका थीं. बच्चों का खाना-पीना, रहना-सोना सब उन्हीं के जिम्मे था.”
“घर पर दिनचर्या यह होती थी कि सुबह उठे, हाथ-मुंह धोये और नंगे पैर स्कूल को चल दिए. पैरों में चप्पल थोड़े ही होती थी उन दिनों! स्कूल से आए, कुछ रूखा-सूखा पेट में डाला तो दो-दो रस्सियाँ थमा कर ईजा या बाबू का आदेश मिलता – ‘जाओ रे लकड़ी तोड़ लाओ! घास काटकर लाओ! जानवरों को हँका के घर ले आओ!’ खाने को कभी भट की भट्याई, कभी चने-जौ या मडुवे की रोटियाँ मिला करतीं. गेहूं की रोटी तो मेहमानों के आने पर ही मिलती थी. हाँ, दही-दूध-मठ्ठा खूब मिलता था. पिताजी घी बेचते थे. एक किलो घी के उनको चार-पांच रुपये मिल जाते थे. तो भी घी खूब खाया. घी और गुड़ जैसी चीज़ों को बाबू लुका देते थे पर हमने वह सब भीतर से चुरा कर खूब खाया.”
“बाबू कभी कहीं धान काटते थे,कभी कहीं गेहूं काटते थे तो कभी कहीं मजदूरी कर हम बच्चों का पेट पालते थे. जमीन इतनी भर थी कि पांच-सात बोरी धान हो जाया करता था. जंगल के किनारे खेती थी तो लंगूर-बंदर-सूअर का आतंक रहता ही था.”
भट्टजी की शादी
“फिर 1975 में उन्नीसवें साल में मेरी शादी हुई. मेरी शादी के समय तक दो दीदियों और एक छोटी बहन का ब्याह हो चुका था. मेरी शादी में कुल सात सौ रूपये खर्च हुए थे. बारात गाँव से रानीबाग तक पैदल आई. वहां से सिटी बस में हल्द्वानी और फिर बैलगाड़ी में हल्दूचौड़. वह समय अलग था. उस जमाने में हल्दूचौड़ एक वीरान इलाका हुआ करता था. बस झोपड़ियां हुआ करती थीं. लोग जमीन पर पुआल बिछा कर सोते थे. अतिरिक्त सम्मान के नाम पर बारातियों और दूल्हे के सम्बन्धियों के लिए उस पुआल पर दरी बिछा दी गई थी. चारपाई वगैरह का कोई नाम नहीं हुआ उन दिनों. बारात में खूब लम्बी-चौड़ी दुगाल पूरियां बनती थीं. उन्हीं को भकोसने का रिवाज़ था. मेरे लिए लड़की देखने बाबू गए थे. उन दिनों ऐसा ही होता था. जो उन्होंने कह दिया वैसा ही करना हुआ. लड़की देख कर शर्म लगने वाली हुई! तो दस-पंद्रह लोगों की बारात गयी. बारात वाली रात मेरी सालियों वगैरह ने मुझे सुई भी चुभोई और मुझे बहुत छेड़ा.”
“शादी की तैयारी कराते हुए बारात जाने वाले दिन सुबह-सुबह बाबू ने अपने हाथ में कैंची लेकर मेरे बाल किसी खर-पतवार की तरह खरोड़ (काट) डाले. सारे बाल खरोड़ दिए. मैंने खूब रोना-पीटना किया. बड़ी मुश्किल से कुछ टोपी वगैरह पहन कर जितना संभव था मैंने बाबू की उस कारीगरी को छिपाया. मेरे बाबू कुछ अड़ियल किस्म के इंसान थे. हर समय खूब डांटते रहते थे और हम सब बच्चे उनसे बहुत डरे रहते थे.”
रोजगार की तलाश से भुट्टे तक
“शादी के समय मैं बेरोजगार था. तीस साल पहले बाबू मतलब चन्द्रदत्त भट्ट जी मरे फिर दस साल पहले ईजा मतलब लक्ष्मी देवी (इत्तफाक से मेरी पत्नी का नाम भी लक्ष्मी ही है.) बाबू गेहूं काटने-मांड़ने का बड़ा काम ले लेते थे. लकड़ियां चीरने का काम भी उन्होंने किया. हम भाइयों ने उनकी सब कामों में सहायता की. करनी ही हुई. मैंने अपना पहला काम दो साल तक दोगांव में भुट्टे बेचने का किया. सन 1981 से भुट्टे बेचना शुरू किया. उससे पहले जो भी काम मिला मैंने किया – सब कुछ लगा कर रोज करीब पांच रुपये की कमाई हो जाती थी. शादी से ठीक पहले एक ठेकेदार के पास दस रुपये रोज पर भी काम किया था. सन 1983 में मेरा परिवार रामनगर के पास बैलपड़ाव चला गया. एक बार पता नहीं किस बात को लेकर ईजा और बाबू की लड़ाई हुई तो मैं उस माहौल से तंग आकर बच्चों को लेकर वहां से चला गया. बैलपड़ाव में एक तिवाड़ी जी के यहाँ काम किया. गेहूं-धान काटे. कितने ही सिख किसानों के बड़े-बड़े फार्मों में काम किया. फिर दो-तीन साल बाद बाबू मर गए. मुझे खबर लगी तो वहीं जाना पड़ा. वैसे वहां सब कुछ ठीक ही चल रहा था. आठ-दस बोरी गेहूं लेकर गया. मेहनत बहुत की. अब भी वही करता रहता हूँ. वैसे अब स्वास्थ्य कुछ खराब रहने लगा है. आजकल तेजपत्ते की ग्रेडिंग का काम शुरू कर लिया है. दिन भर घर के आँगन में ही काम किया और फिर शाम को भीतर चले गए. ठंड से हाथों में दिक्कत रहने लगी है. तेजपत्ते के पेड़ घर पर लगा रखे हैं. एक-दो क्विंटल पत्ते का मतलब हुआ आठ-दस हजार रुपये. बच्चों से नहीं मांगना पड़ता!”
“तो 15 अगस्त 1988 को मैंने दोगांव में सड़क किनारे वाले उसी मोड़ पर भुट्टे बेचने की शुरुआत की. भुट्टे बेचने का आइडिया ऐसे आया कि उन्हीं दिनों आसपास के कुछ और लोगों ने वह काम शुरू किया था. देखादेखी मैंने भी शुरू कर दिया. उन दिनों पहाड़ी ककड़ी भी बिकती थी. उसे काटकर उसके टुकड़ों पर नमक और बस ज़रा सी हल्दी डालकर थोड़ा नींबू लगाकर बेचते थे. बहुत अच्छा होता था वो. फिर एक दिन ख़याल आया कि धनिया-पोदीना-लहसुन-मसाले वगैरह का नमक बनाकर भुट्टे में लगाया जाए.”
“लोगों को उसके स्वाद का धीरे-धीरे चस्का लगना शुरू हो गया. अच्छी भीड़ लगने लगी. भीड़ लगने के पीछे मेरी ईमानदारी ने भी काम किया. एक बार एक कोई पशुपालन विभाग के डाक्टर थे. मैं सड़क पर लकड़ी का गठ्ठर बेचने के लिए बैठा हुआ था. वो चार टायर वाली 407 गाड़ी होती है ना. तो वो वहां से गुजरी और उसमें से एक अटैची नीचे गिर गयी. मेरे साथ दो लड़के और थे. उन्होंने कहा छोड़ो हटाओ. बम भी हो सकता है! लेकिन हमने उसे खोला तो उसमें चार-पांच सौ रुपयों के अलावा राशन कार्ड, फोटो और पशुपालन विभाग के कुछ कागज़ात निकले.
के. एन. जोशी, तल्ली मुखानी, हल्द्वानी का पता लिखा हुआ ठहरा. लडके बोले – कागजों को फेंको, पैसे आपस में बाँट लेते हैं. मैंने उन्हें फटकार लगाते हुए कहा कि कागज़ात इतने जरूरी लग रहे हैं और तुम्हें पैसों की पड़ी है. रात को मैंने अटैची अपने घर में रखी और अगले दिन सवेरे-सवेरे हल्द्वानी पहुँच गया. नवाबी रोड में पशुपालन का दफ्तर था तो मैं वहीं पहुँच गया. वहां पर मौजूद स्टाफ ने कहा कि हाँ डाक्टर साब बहुत परेशान हो रहे थे कल रात से. तुम अटैची हमें दे दो. हम उन तक पहुंचा देंगे. तो मैंने कहा कि अटैची तो मैं उन्हीं को दूंगा. इसके बाद वे मुझे जीप में बिठाकर जोशी जी के घर ले गए. जोशी जी उस समय धोती पहने हुए थे और आँगन में तुलसी के पौधे को पानी चढ़ा रहे थे. मैंने उन्हें अटैची दी तो वे बहुत खुश हुए. उन्होंने मुझे सौ रुपये का इनाम दिया और ड्राइवर से कहा की भट्ट जी को घर छोड़कर आओ. रास्ते में उनके ड्राइवर ने मुझसे कहा कि मुझे सौ रुपये लेने की जगह पांच सौ रुपये मांगने चाहिए थे. इससे मेरा नाम होता और अखबार के लिए मेरी फोटो खिंचती वगैरह वगैरह. इस पर मैंने कहा कि भाई फोटो खींचने वाला तो ऊपर बैठा भगवान है. तो उसके कुछ दिनों बाद भीड़ बढ़नी शुरू हो गयी. डाक्टर साहब ने भी अपने कई दोस्तों को मेरे पास भुट्टा खाने भेजा.”
“फिर कुछ समय बाद नैनीताल के एक बड़े होटल वालों की पत्नी की चेनपट्टी सड़क पर गिर गयी. मैं शाम को रोशनी के लिए लकड़ी का छिलका जलाकर अपने घर जा रहा था जब मेरी निगाह उस पर पड़ी. बहुत बड़ी चेनपट्टी थी. मैंने सोचा कि कोई लेने वाला आ गया तो ठीक है वरना उससे अपनी बेटी की शादी के लिए चेनपट्टी बनाऊंगा. बीसेक दिन बाद नैनीताल के नेशनल होटल वाले उसके बारे में पूछते-पूछते आ गए. मैंने उनकी अमानत उन्हें सौंप दी. इसी तरह एक बार लखनऊ की एक महिला अपना पर्स मेरे ठिकाने पर रखकर भूल गयी. उसमें हीरे-सोने के जेवर और पैसा वगैरह थे. चार-पांच लाख का माल रहा होगा. वह भी मैंने लौटा दिया. तब से वह महिला और उसका परिवार जब भी वहां से गुजरते हैं मेरे पास रुकते जरूर हैं. मेरे पिताजी ने मुझे यही सीख दी कि चाहे कुछ भी हो जाय चोरी मत करना. यही सीख मैंने अपने बेटे को भी दी.”
“फिलहाल इसी तरह मेरा काम चलता गया और मैंने बारह सालों में बारह लाख रुपये बचाए और अपना घर बनाया, मोटाहल्दू में एक छोटा सा प्लाट खरीदा और बच्चों की शादियाँ कीं. अब स्वास्थ्य की वजह से उतना नहीं हो पाता. पिछले साल मैंने स्वास्थ्य ठीक न होने की वजह से एक आदमी को काम पर रखा और उसे भी दिन में पांच-छः सौ रुपये रोज दिए. थोड़ा खुद भी कमाया. तीन ही महीने काम किया पर एकाध लाख फिर भी बच ही गया. अब आगे भगवान ही मालिक हुआ. होगा तो होगा नहीं होगा तो नहीं होगा.”
“मेरा एक भतीजा मेरे नज़दीक ही भुट्टे बेचता है. वह तो लगभग साल भर काम करता है. अमेरिकन स्वीट कॉर्न भी बेचता है अलबत्ता लोग उस वैरायटी को कम पसंद करते हैं. उसका स्वाद कुछ खास नहीं होता! लोकल भुट्टा तो बस मई से सितम्बर तक चलता है. वैसे प्लेन्स का भुट्टा साल भर चलता है – दिल्ली, सितारगंज जैसी जगहों से माल आता है – तीन हज़ार रुपये क्विंटल के भाव से. मैं अपने भुट्टे मुख्यतः रानीबाग के नजदीक अमृतपुर से लाता हूँ. उसके अलावा भीमताल, नौकुचियाताल, घोड़ाखाल और कैंची वगैरह से भी लाता हूँ. सीजन समाप्त होते-होते जब लोग कहना शुरू कर देते हैं कि भट्ट जी मजा नहीं आया तो मैं बंद कर देता हूँ. तो अब तीस साल हो गए यही काम करते हुए. एक से एक बड़े अफसर, जज वगैरह आते हैं मेरे यहाँ. लहसुन-मिर्च-जीरा-धनिया-चाट मसाला-मूंगफली-काजू-गोला वगैरह से चटनी अलग से बनती है. मक्खन तो खैर लगता ही है.”
“औसतन एक दिन में पांच सौ छः सौ भुट्टे बिक जाते हैं. कभी सुप्रीम कोर्ट के कोई वकील, नैनीताल के कोई बड़े अफसर या कोई और बोरी भर भुट्टे ले जाते हैं , कभी कहीं से एक साथ सौ-सौ भुट्टों का आर्डर आ जाता है. दस-पंद्रह साल लगे इस पूरे धंधे को स्थापित करने में. एक समय था जब एक रुपये के चार भुट्टे आते थे. आज बारह रुपये का एक भुट्टा तो खेत में मिलता है. बीस में बेच देते हैं. दो-तीन रुपये एक भुट्टे में बच जाते हैं. कभी-कभी नुकसान भी हो जाता है जैसे किसी खेत का भुट्टा खोखल निकल गया. खैर जो भी कमाया मैंने इसी से कमाया. घर बनाया, बच्चे पढ़ाए-लिखाए, उनकी शादियाँ कीं, हरिद्वार ले जाकर नाती का कर्णभेद करवाया. अब एक नाती है – कमल और तीन नातिन हैं – पायल, रिद्धि-सिद्धि – दो जुड़वां और एक अकेली. सब दोगांव के सिद्धार्थ पब्लिक स्कूल में पढ़ती हैं.”
आज इस इलाके में दो सौ के आसपास लोग इसी काम को करते हैं पर आपका काम सबसे अलग है
“अब जैसे चाट-पकौड़ी हर किसी को पचती नहीं. भुट्टा पचने में आसान होने वाला हुआ. ताकतवर हुआ. ग्लूकोज-प्रोटीन-फाइबर हुआ उसमें. पहाड़ी भुट्टे का स्वाद ही ऐसा होता है कि प्लेन्स का एक भुट्टा खाने वाला आदमी दस-दस खा जाने वाला हुआ. और मैं तो हमेशा ताज़ा भुट्टा लाता हूँ. बासी मैं कभी नहीं बेचता. शायद यही मेरी सफलता का रहस्य है.”
मसाले का रहस्य
“भुट्टों में लगने वाले मसाले में बहुत सारी चीज़ें मिलाई जाती हैं. पर असल बात तो यह है कि अपना सीक्रेट कोई किसी को बताता नहीं. मैं आपको बताऊँ एक बार क्या हुआ. हल्द्वानी के फेमस शमा होटल वाले सज्जन आये और भुट्टा खाकर बोले कि यार भट्ट जी इसमें तो कबाब का मजा आ गया. आपने इसमें डाला-मिलाया क्या है! तो मैंने तपाक से पूछा कि तुम बताओ तुम मसाले में क्या डालते हो! ये तो भाई अपने-अपने तजुर्बे की बात होती है. वो हर किसी को कैसे बता दूँ. सब कुछ बता दूंगा तो भी एक चीज तो छोड़ ही दूंगा. है न!”
“एक बार एक सैम्पल चैक करने वाला सरकारी आदमी आ गया. बोला तुम्हारे सैम्पल की चैकिंग होगी. मैंने कहा – कर लो! उसने पूछा – भट्टजी मिलाते क्या हो इसमें? तो मैंने जल्दी-जल्दी कहा – कूटबस-सेंधा नमक-गरम मसाला-इलायची-कालीमिर्च-लालमिर्च-हरीमिर्च-लहसुन-धनिया-चाट मसाला-जायफल-जावित्री-लहसुनिया-बनप्याज. उसने हकबकाकर पूछा – क्या बताया! तो मैंने कहा कि मैं एक ही बार बताता हूँ दो बार नहीं! अगर किसी ने पूछ ही लिया तो उसका यही इलाज होता है.”
यह कहकर एक भरपूर ठहाका लगाकर भट्टजी किसी शरारती बच्चे की तरह कहते हैं – “अब जैसे आयुर्वेदिक दवाइयां होती हैं न – जैसे कूटबस-सेंधा नमक-नागरमोता-इलायची और कालीमिर्च को बराबर मात्रा में लेकर बारीक कूटकर अदरक के रस में मिलाकर छोटी गोली बना लें और सुबह शाम शहद के साथ खाएं. श्वास-कफ-खांसी से छुटकारा मिलेगा. तो मैं क्या करता हूँ ऐसे ही किसी नुस्खे को पढ़कर उसमें कालीमिर्च-हरीमिर्च वगैरह का नाम जोड़-जाड़ कर कुछ भी नुस्खा बता देता हूँ.”
“कभी कभी क्या होता है कि कोई टूरिस्ट वगैरह पूछते-पाछते आते हैं कि भट्ट जी कहाँ गए. तो कुछ ईर्ष्यालु लोग उन्हें ये भी कह देते हैं कि वे तो निकल लिए मतलब उनकी मृत्यु हो गयी. फिर वो बिचारे किसी तरह मेरे पास पहुँचते हैं और शर्मिन्दा होते हैं. ज्योलीकोट के आसपास कई लोगों ने मेरे नाम से धंधा शुरू कर दिया तो मैंने अपने खोखे के सामने एक बोर्ड लगवा दिया – हमारी कोई ब्रांच नहीं है. नक्कालों से सावधान. उत्तराखण्ड का तोहफा: भट्टजी का भुट्टा. संपर्क करें : भट्टजी, डब्लू डब्लू डब्लू भुट्टा डॉट कॉम. तो बोर्ड पढ़कर भी ग्राहक खुश होते थे. वेबसाइट-फेबसाइट तो कुछ नहीं हुई. ऐसे ही लिखा दिया ठहरा. उन दिनों तो फोन भी नहीं था. अब तो फोन ले लिया है. फेसबुक, नेट वगैरह में खोजेंगे तो भट्टजी का भुट्टा कर के सर्च करने पर सब मिल जाएगा हमारे बारे में.”
आप सौ साल जियो भट्टजी!
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Jabardast bhutte habardast bhatt ji ??
Jabardast bhutte jabardast bhatt ji
Nice story..
गाथा प्रेरक है किन्तु सम्पादन एवं भाषा में त्रुटियां हैं।किसी विषय वस्तु को जनसंचार का अवयव बनाने से पूर्व भाषाई एवं सामाजिक मूल्यों के आधार पर मूल्यांकन करना एक अच्छी पत्रकारिता का आधार होता है।
महोदय, आपके द्वारा लिखित यह दास्तान/गाथा प्रेरक है एवं ज्ञानप्रद भी, किन्तु संपादन एवं भाषाई त्रुटियां इसमें बहुत हैं।किसी विषय को जनसंचार का अवयव बनाने से पूर्व भाषा एवं सामाजिक पहलुओं का पर्यावलोचन कर प्रकाशित करना अच्छी पत्रकारिता का आधार होता है। निष्पक्षता एवं तटस्थता पत्रकारिता की आत्मा है और इसके लिए एकांतिक-अनेकान्तिक उभय वृत्ति रहित समीक्षात्मक चिन्तन दृष्टि अपेक्षित होती है। कृपया निवेदन समझें।
Bhae please upload things atleast which make some sense. And friends bhatt ji ki daastan jane k liye. 4 pm badd m bhatt ji ki dukan m 1bottle whiskey sang chakhna milega which masleledar bhutta. And friend bhatt ji k e liye 1beer bottle lana nhi bhule.