उत्तर रेलवे के कोटद्वार स्टेशन से 42 कि०मी० पुरातन शहर दुगड्डा से 27 कि०मी० उत्तर में 136 पुरानी छावनी युक्त एक छोटा किन्तु सुन्दर नगर लेन्सडौन लगभग 1780 मी० की ऊंचाई पर बसा है. लैन्सडोन का समस्त गढ़वाल के जनजीवन से एक अटूट सम्बन्ध है. स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के बाद भी अनेकों युद्धों में देश का नाम ऊंचा करने वाले बहादुर गढ़वाली सैनिकों की यह नगरी प्रशिक्षण-स्थली रही है. संयोगवश गढ़वाली पलटन की यह छावनी, गढ़वाल के प्रसिद्ध लंगूरगढ़ के सन्निकट है जिसने मध्य- काल में अनेकों मुगल-पठान फौजों का मान-मर्दन करके केदारखण्ड की इस पवित्र भूमि की रक्षा की थी. इस नगर के साथ गढ़वाल को अनेकों वीर माताओं, पलियों और बहिनों की देश रक्षा में वीरगति प्राप्त अपने बेटों, पतियों और भाइयों की अमर स्मृतियां भी जुड़ी हुई हैं. उन पराक्रमी वीरों की स्मृतियां-जिन्होंने रणांगन में न तो कभी मां का दूध लजाया और न कभी शत्रु को अपनी पीठ ही दिखाई. अस्तु, लैन्सडीन एक नगर का नाम न होकर गढ़वाली शौर्य का पर्यायवाची बन चुका है.
(lansdowne History Hindi)
एक शताब्दी पूर्व इस स्थान को कालौडांडा (कालेश्वर डांडा) कहा जाता था. तब यह एक सलामी ढलान वाला पहाड़ी चरागाह था. सघन बांज, बुरांश व काफल आदि के वन के मध्य यहां मात्र एक छोटा-सा किन्तु प्राचीन कालेश्वर महादेव का मन्दिर था. यहीं से कुछ कि. मी. दूर देवदारु तरू की झुरमुट में प्रसिद्ध मंदिर व पर्यटन-स्थल ताड़केश्वर भी स्थित है. कालडांडा की दक्षिणी ढलान तत्कालीन पातलीदून (नीची घाटी) तक उतरती है, जिसके 521 वर्ग कि. मी. क्षेत्र में आज भारत प्रसिद्ध “कार्बेट नेशनल पार्क” व शेष में कालागढ बांध का सरोवर है.
कहा जाता है कि लगभग एक शताब्दी पूर्व भारत में के तात्कालिन वायसराय लॉर्ड लैंसडाउन पतली दून में शिकार करने आए और उन्होंने अपनी क्षय रोग ग्रस्त पत्नी को कालू डांडा की जलवायु में विश्राम करवाया था. यहां की जलवायु ने उनके स्वास्थ्य पर जादू का सा असर किया और वे कुछ दिनों में रोग मुक्त हो गई. अब इसे श्रीमती लैंसडाउन का भाग्य कहा जाय, चाहे कालेश्वर महादेव की प्रेरणा, चाहे पिछड़े गढ़वाल का सौभाग्य कि भारत के तत्कालीन बेताज के बादशाह को यह स्थान भा गया. उन दिनों ब्रिटिश सरकार हिमालय पार की उभरती शक्तियों को हिमालय के ही उस पार रखने के लिए तिब्बत पर अपने फौलादी पंजे कसकर उसे सीमाराज्य (बफर स्टेट) बनाए रखना चाहती थी. इसीलिए मध्य-हिमालय में उन्होंने गोरखा शक्ति के जम रहे पाँव उखाड़ फेंके थे और कुमाऊँ के हिमालयी दरों की रक्षा के लिए वे अलमोड़ा में छावनी बना चुके थे.
गढ़वाल के महत्वपूर्ण नीति व माणा दर्रों की रक्षा के लिए भी एक छावनी बनाने की फाइल पूर्ववर्ती वॉयसराय लॉर्ड डफरिन और तत्कालीन कमाण्डर- इन-चीफ रॉबर्टस के मध्य चल रही थी. जिस पर कतिपय कारणों से अन्तिम निर्णय नहीं हो पाया था. उस समय शौर्य के लिए ‘ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इण्डिया’ से सम्मानित श्री बलभद्र सिंह नेगी, सेनापति के मुख्य अंगरक्षक थे. वे एक प्रभावशाली गढ़वाली अधिकारी थे. अतः लॉर्ड लैन्सडौन की इच्छा और श्री नेगी के प्रयास के फलस्वरूप अप्रैल सन् 1887 में गढ़वाली पलटन के संगठन के आदेश निर्गत हुए और फिर नवम्बर, 1887 को मेजर मैनरींग ने कालौडांडा (कालेश्वर) आकर बाकायदा लार्ड लैन्सडीन के नाम पर छावनी की स्थापना कर दी. तब यह सिर्फ एक बटालियन थी किन्तु 1891 में रेजीमेंन्ट बना दी गई.
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गढ़वाल राज्य के प्रसिद्ध सेनापति माधोसिंह भण्डारी की सन् 1662 की तिब्बत विजय-वाहिनी के पश्चात् सन् 1904 में द्वितीय बार लैन्सडीन की इसी गढ़वाली पलटन को तिब्बत की राजधानी ल्हासा जाने का भी गौरव प्राप्त हुआ था. सन् 1914-18 के प्रथम विश्वयुद्ध में इस रेजीमेंट ने फांस, जर्मनी, मित्र, बगदाद आदि के मोर्चों पर महान वीरता का प्रदर्शन किया. श्री गवर सिंह नेगी व श्री दरवानसिंह नेगी को ब्रिटिश सरकार के सर्वोच्च ‘विक्टोरिया क्रॉस’ और 72 अन्य सैनिकों / अफसरों को अन्य वीरता पदक प्रदान किये गये. इनमें से 4 पदकरूस की सरकार ने भी दिये थे. सन् 1922 में मालाबार के मोपला विद्रोह को तुरत-फुरत शान्त करने के कारण ब्रिटिश सम्राट ने खुश होकर इस रेजीमेन्ट को “रॉयल गढ़वाल राइफल्स” का शाही दर्जा प्रदान किया.
गढ़वाली सैनिक न केवल इस रेजीमेन्ट में रोजगार की भावना से बल्कि देशभक्ति के लिए भी भर्ती होते. रहे हैं. 1930 के प्रसिद्ध “पेशावर काण्ड” के नायक, वीर चन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’ इसी सेना के अफसर थे- जिन्होंने सहर्ष कालेपानी की सजा स्वीकार की किन्तु अंग्रेज अफसरों के निहत्थे सत्याग्रहियों पर गोली चलाने के आदेश की उनके मुंह पर ही अवहेलना कर दी थी.
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब 23 अक्टूबर, 1943 को आजाद हिन्द रेडियो पर नेताजी सुभाष का सिंह नाद गूंजा कि “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा!” तो गढ़वाली सैनिकों/अफसरों ने अंग्रेजों की गुलामी की यूनीफार्म फेंककर आजाद हिन्द फौज के शहीदी गणवेष को धारण कर भारत की सीमाओं को ‘दिल्ली चलो’ और ‘जय हिन्द’ के नारों से गुंजायमान कर दिया था. आजाद हिन्द फौज के कुल लगभग 24 हजार सैनिकों में से लगभग 3000 सैनिक गढ़वाली थे जिनमें से लगभग 800 ने अपने वतन की आजादी के लिए सीमान्तों पर लड़कर वीरगति प्राप्त की थी. इसके बाद भी जब-जब आजाद भारत की सीमाओं पर शत्रुओं ने अपने विषैले फन उठाये इस गढ़वाली सेना ने गरुडराज की भांति झपटकर उनकी ग्रीवाएं तोड़कर रख दी और आगे भी वह ऐसा करने के लिए तत्पर और जागरूक है.
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लैन्सडौन की स्थापना हुए सौ वर्ष हो चुके हैं परन्तु गढ़वाल के लोग अभी भी इसे पुराने नाम कालौं-डांडा (कालेश्वर) कह कर ही पुकारते हैं. बमुश्किल कोशिश करने पर कुछ बुजुर्ग “लैनडोन” तक ही कह पाते हैं. काली या कालौ डांडा का प्रसंग मात्र, गढ़वाल के सुदूर क्षेत्रों में सैनिकों और उनके परिवार के विरह और मिलन के करुण भावों का सृजक रहा है. सैनिक की छुट्टी खतम होने पर विदाई के क्षणों में माता की वात्सल्यमय करुणा और पत्नी के हृदय में उमड़ती कोमलकान्त भावनाओं के वर्णन वाले गीतों का गढ़वाली भाषा में एक अलग ही लोक-साहित्य बन गया है.
प्रथम विश्वयुद्ध के समय का एक गीत “सात समुन्दर पार च जाणों ब्वे! जाज मां जांण कि ना!” आज भी माताओं की आंखों में आंसुओं की झड़ी लगाने को काफी है. जिसमें एक सैनिक सात समन्दर पार, जहाज पर, बैठकर, लाम पर जाने की आज्ञा चाहता है. उसके घर में नवविवाहिता सुन्दर पत्नी है जिसकी गोद में दूधी का नौन्याल ( दुधमुहा बच्चा) विधवा माँ का वह इकलौता बेटा है और फिर जहाज से समुद्र लांघना भी धर्म विरुद्ध है.
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एक दूसरे गीत में सैनिक अपनी गणेसी नामक पत्नी को विदाई के समय दिलासा देता है कि हे प्यारी गणेशी! तुझे यदि मेरी याद आए तो उस ऊँचे कालोंडांडा पर्वत की ओर देखना. तुझे कुछ-न-कुछ राहत तो मिल जाएगी…
किन्तु दूसरी ओर, भारत की आजादी के बाद वीर रस से भरे गीत भी हैं, जिनमें नारियाँ अपने पुत्रों पतियों को जवान होते ही तुरन्त काली-डांडाम की सलाह भी देती हैं – भरती ह्वे जाणू केसरू ठम्-ठम् पलटन मां. देशा की खातिर केसरू ठम्-ठम् पलटन मां…
गढ़वाली सैनिकों की शूर-वीरता और देश प्रेम अपने प्राचीन “भड़ों” (वीरों) से विरासत में मिली है. जिनकी यशोगाथा आज भी सारे गढ़वाल भर में ‘भडोला. जागरों में गायी जाती है.
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प्रस्तुति- यदु जोशी
भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी’ का यह लेख सन 1987 में लिखा गया था. यह लेख उनके पुत्र जागेश्वर जोशी द्वारा उपलब्ध कराया गया है.
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