समधी-समधिन मतलब दो अनजान परिवारों को एक सूत्र में पिरोने का रिश्ता. समधिन यानी पुत्र रत्न एवं पुत्री रत्न को परस्पर वर-कन्या के रूप में सर्मपण. याद रखें, समर्पण केवल पुत्री का नहीं होता, पुत्र का भी होता है, तभी तो दूल्हा जब दुल्हन को लेने अपने घर से विदा होता है तो अपनी मां के दूध का कर्ज अदायगी की सांकेतिक रस्म अपनाता है. जिस पुत्र पर केवल माता-पिता का अधिकार आज तक था, उस पर अब होने वाली दुल्हन का अधिकार भी हो जाता है. विवाह के उपरान्त वर एवं कन्या के माता-पिता को एक नया रिश्ता मिलता है, समधी-समधिन. इस नये रिश्ते का स्वागत कैसे किया जाय? कुमाऊॅनी लोकपरम्परा में इसे बखूबी निभाया गया है.
(Kumaoni Wedding Rituals Hindi)
कुमाऊनी लोक परम्परा में विवाह के पूर्व सुविधानुसार एक या दो दिन पूर्व सुआल पथाई की रस्म होती है, जिसमें अधिकांशतः परिवार के नजदीकी लोग तथा रिश्तेदारों को ही आमंत्रित किया जाता है. सुआले बनाने वाले आटे को पुरोहित द्वारा अभिमंत्रित व प्रतिष्ठित कर महिलाओं द्वारा मांगल गीतों के सामुहिक गायन के साथ आटा गूंथा जाता है और महिलाऐं पारम्परिक मांगलिक वस्त्राभूषणों में सजकर इन्हें पापड़ के आकार में बेलकर धूप में सुखा देते है और जब ये सूख जाते हैं, तो सुआलों को तेल अथवा घी में तल दिया जाता है. यह परम्परा उस दौर से चली आ रही है, जब बाजारवाद की संस्कृति विकसित नहीं थी और खाने-पीने की बनी-बनाई वस्तुओं का अभाव था. च्यूंकि धूप में सूख जाने के बाद सुआले लम्बे समय तक सुरक्षित रहते थे इसलिए विवाह की खुशी में पास-पड़ोस व गांव वालों में मिठाई के विकल्प के रूप में वितरित करने के लिए यही हुआ करते. आज यद्यपि सुआल पथाई परम्परा का हिस्सा जरूर है लेकिन सुआल खाने की रूचि किसी में नहीं रही फिर भी शगुन के तौर पर सुआल अपने रिश्तेदारों तक भेजने की परमपरा बदस्तूर जारी है.
इसके साथ ही सुआल पथाई की रस्म पर सुआले के साथ लाड़ू भी बनाये जाते हैं. लाड़ू बनाने के लिए चावल के आटे में काले तिल मिश्रित कर, घी अथवा तेल में खूब भूनकर इसमें गुड़ अथवा चीनी मिलाकर इन्हें लड्डू का आकार दिया जाता है. दरअसल लाड़ू शब्द लड्डू का ही अपभ्रंश रूप है. लड्डू अथवा लाड़ू बनाने के साथ ही इसी सामग्री से वर पक्ष कन्या के माता-पिता की तथा कन्या पक्ष वर के माता-पिता के स्वरूप की प्रतिकृति बनाते हैं. जिसमें उनकी मुखाकृति सहित पूरे अंगों का इसी सामग्री से निर्माण किया जाता है. हालांकि बाजारवाद ने आज मुखाकृतियों की बनी-बनाई आकृतियां बाजार में उपलब्ध करा दी हैं , लेकिन पहले लोग मुखाकृति भी इसी लाड़ू बनाने वाली सामग्री से ही बनाते थे. इस कौशल में सिद्धहस्त महिलाओं को अपनी कला का प्रदर्शन करने का यह एक बेहतर मौका मिलता था. इसमें न केवल समधी-समधिन की आकृतियां बनती बल्कि उन्हें उनके अनुकूल वस्त्र एवं आभूषणों से सुसज्जित किया जाता है. समधिन को सम्पूर्ण वस्त्राभूषणों के साथ रंगवाली पिछौड़ा भी ओढ़ाया जाता है जबकि समधी को पुरूषानुकूल वस्त्रों के अलावा दाड़ी-मॅूछ आदि लगाते जाते हैं. समधी के आदत पता होने पर उसी के अनुसार मुंह पर बीड़ी-सिगरेट या कभी कभी शराब की बोतल के प्रतीक कोई शीशी तक साथ में रख दी जाती है. दूसरे पक्ष के लोगों को देखने पर हंसी-ठिठोली एवं हास-परिहास को कोई मौका न छूटे, इसलिए उनके शरीर की संरचना मोटा- पतला, लम्बा-नाटा आकार भी दिया जाता. उभय पक्ष इसमें अपनी ओर से बेहतर कलाकारी प्रदर्शित करने का प्रयास करता है. जिसमें हास्य के साथ व्यंग्य का पुट भी सम्मिलित करने का प्रयास रहता है. लेकिन यह किसी पक्ष को नीचा दिखाने की नीयत से नहीं केवल हास-परिहास के तौर पर किया जाता है और इसे गंभीरता से लेने अथवा बुरा मानने वाली जैसी बात नहीं होती.
यत्न से बनाये गये समधी-समधिन की इस प्रतिकृति को बड़े यत्न से किसी डिब्बे में संभालकर रखा जाता है, ताकि टूटने का डर न हो. वर की बारात विदा होते समय ब्यौल पिटार (वर पक्ष की ओर से कन्या के वस्त्र, आभूषण आदि रखने का सन्दूक) के अन्दर कन्या पक्ष के लिए सुआलों के साथ समधी-समधिन को भी उसी ब्यौल पिटार में रखा जाता है.
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कन्या पक्ष के वहां बारात पहुंचने पर धुलिअर्घ के उपरान्त, जब गोठ की शादी होती है, हालांकि आज यह गोठ की शादी केवल शब्द तक ही सिमट कर रह चुकी है, उस समय वर पक्ष एवं कन्या पक्ष द्वारा वस्त्राभूषण के साथ ही छोलिका का आदान प्रदान होता है और छोलिका के रूप में समधी-समधिन का भी परस्पर आदान प्रदान होता है.
कन्या पक्ष के लोग विशेषकर महिलाऐं वर पक्ष द्वारा भेजी गयी समधी-समधिन की प्रतिकृति को देखने को लालायित रहती हैं तथा वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष द्वारा दी गयी समधी-समधिन की प्रतिकृति को भी उसी उत्सुकता से देखते हैं. इन प्रतिकृतियों पर खूब हास-परिहास एवं वाद-संवाद होता है और कुछ पलों के लिए माहौल खुशनुमा हो जाता है. वरपक्ष को दी गयी समधी-समधिन को बारात वापसी पर देखने का कौतुहल वहां उपस्थित महिलाओं में भी खूब देखा जा सकता है. सोचने वाली बात ये कि ये किसी कर्मकाण्ड का हिस्सा तो हैं नहीं फिर क्या मात्र विनोद का माहौल बनाने के लिए यह परम्परा शुरू हुई होगी? माहौल को खुशनुमा बनाने के लिए हालांकि यह एक अतिरिक्त तरीका हो सकता है. लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि जब यह परम्परा की शुरूआत हुई होगी, तब आज की तरह फोटो लेने की जैसी सुविधा नहीं थी. समधी का तो एक दूसरे को देखना संभव था भी लेकिन समधिन को एक दूसरे को आमने-सामने देखने का अवसर तो नहीं ही मिलता था.
दोनों पक्ष एक दूसरे के समधी-समधिन का काल्पनिक स्वरूप उकेरकर प्रतिकृति तैयार करते थे. इससे दोनों के पक्षों के बीच एक तरह का भावनात्मक लगाव की मनसा से यह परम्परा की शुरूआत रही होगी. जब कभी समधिन को भविष्य में अवसर मिलता होगा तो समद्यूण की रस्म होती होगी, परस्पर एक दूसरे को सामर्थ्यानुसार भेंट देकर यह रस्म अदा की जाती होगी. वर्तमान में जब वर-वधू का पूरा परिवार ही शादी से पूर्व मिल चुका होता है, समद्यूण जैसी रस्म औचित्यहीन सी हो गयी है. लेकिन समधी-समधिन बनाने का यह दस्तूर आज भी व्यंग्य-विनोद की अच्छी परम्परा है.
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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