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रंग हमारो बिदेस सिधारो- कुमाऊनी होली पर चारू चन्द्र पांडे का लेख

कुमाऊं की रंगीली होलियां
-चारू चन्द्र पांडे

कुमाऊँ में होलियों का पर्व बड़े उत्साह से मनाया जाता है, होली की एकादशी को रंग-भरे सफेद वस्त्र धारण किये जाते हैं एक डंडे पर नये कपड़े की धारियाँ या चीर बाँधने के उपरान्त स्थानीय शिवालय में यह होली गाई जाती है :

लाला छोरा खेलत कंकर मारि हरे.
कंकर मारी ना मरू गुन मारी मरि जावन रे,
गोरी की भीजै चुनरी पिया की मल-मल पागन रे.
इत जन बरसै मुघुला जेंह मेरो बालम लोकन रे.

इसके बाद होली-गायक गाते हुए देवी के मन्दिर में पहुँचते हैं वहां विधिवत् जगदम्बा की पूजा करने के बाद समीपस्थ धूनी को प्रज्वलित किया जाता है और धूनी के चारों ओर वृताकार नाचते हुए बड़े भक्ति भाव से देवी की होली गाई जाती हैः

सूरत धरी मन में अम्बा दरशन को तेरे द्वार, अम्बा जन तेरे
हरियो पीपल द्वारे सोहे पिछवाड़,
अम्बा जन तेरे.
पिंहली माटी गऊ का गोबर
चौका देहू बनाय, अम्बा जन तेरे.
ब्रह्मा बेद पढ़ै तेरे द्वारे,
शंकर ध्यान लगाय, अम्बा जन तेरे.

यहीं पर श्री कृष्ण भगवान की ब्रज लीला से संबंधित दूसरी होली भी गाई जाती हैः

इत मथुरा उत गोकुल नगरी
बीच जमुना बहिजाय, सुंदर साँवरो.
पीताम्बर सिर मकुट बिराजे
गलमोतियन की माल , सुंदर साँवरो.
ताल -पखावज बाजन लागै
नाचत गोपी ग्वाल, सुंदर साँवरो.
केसर भर पिचकारिन मारै भीजि गई
ब्रज बाल, सुंदर साँवरो.
बृंदाबन की कुंजन में होरि खेलत
नन्द को लाल, सुंदर साँवरो…

दूसरे दिन से लोग होली को अपने घर आमंत्रित करते हैं. होली आंगन में वृताकार घूमकर गाई जाती है. ढोल व मजीरा-वादक घेरे के बीच में रहते हैं. गाने का निर्देशक या डंडरिया आधी या पूरी पंक्ति गाने के लिए क्रमशः ‘एक बोलो’, ‘दो बोलो’ कहकर संकेत देता है. जैसे –

‘‘गुजरिया रेग मातिया डोलै ’’ दो बोल. पद संचालन ताल के अनुसार चलता रहता है. इसका क्रम है पहले बांया पैर दायें के ऊपर से आड़ा, फिर दायां आगे, फिर बांया पीछे, फिर दांया पीछे. मुख-चेष्टा तथा अंग संचालन द्वारा होली के भावों को स्पष्ट किया जाता है. अधिकांश होलियां 14 मात्रा के ताल पर चलती हैं. इन्हें धमार कहा जाता है. ये अति विलम्बित लय से प्रारम्भ हो, क्रमशः मध्यलय से गुजरते हुए अति द्रुत में समाप्त होती है. ढोलक बजाने वाले की कुशलता द्रुत गति में तथा ताल लौटाने में देखी जाती है. खड़ी होली के दो एक संक्षिप्त उदाहरण प्रस्तुत हैंः

लशकर के छूटे आये मियाँ हो मैली सी चादर ओढूं,
जाऊँगो हाट बिकाऊँगी धनिया खेलनहारो बूढ़ो बनियाँ , मैली …

फोटो: अल्मोड़ा रॉक्स फेसबुक पेज से साभार

फिर इसी प्रकार अन्य समतुकान्त शब्द जोड़ते हुए होली आगे बढ़ती है. एक अन्य होली में भारत के ‘ साजनों’ की शक्ति पर व्यंग्य देखियेः

बिंदुली गई सागर पार,
बिंदुली गई मोरे साजना.
कैसत की तेरी बिंदुली रे,
कैसत को तेरी हार. बिंदुली …
एक सत की मेरी बिंदुली रे,
नौ सत को मेरो हरि. बिंदुली…

होलियों का मुख्य विषय श्रृंगार रहता है, जिसमें संयोग-वियोग के सरस चित्र अंकित किये जाते हैं. काल-वर्णन में फागुन के अतिरिक्त कहीं-कहीं वर्षा ऋतु के सन्दर्भ भी दिख पड़ते हैं. जैसे:

एक मेरो बीरा अलबेलो छोटो सजन दा यार संय्यां.
सावन मासा हिंडोलै सबै मिलि झूलैं यार संय्यां…
एक मेरी मोत्यू लड़ टूटी सबै मिलि ढूंढै यार संय्यां.
जो मेरी मोत्यू लड़ पावै खिलाऊँ बीड़ा यार संय्यां…

परम्परा से कुछ होलियाँ बैठ कर ही गाई जाती हैं. इन्हें बैठी होली कहते हैं. कुछ आवश्यक परिवर्तनों के साथ इस बैठी होली को सुनियेः

रंग सोहै गुलाबी नैनन में,
अंखियन काजर रेख मिटै ल्याई,
कम्प छुडे़ ल्याई बैनन में एक पल को मेरो अंगिया फड़ै भड़ै ल्याई,
हार हरै आई ग्रैलन में एक सत की मेरी बिंदुली गेंवे
आई बिघन करै ल्याई चैनन में.
एक अन्य बैठी होली में कजरारी मैना को सम्बोधित करके कहा गया हैः
मैना मोहे काजर ल्यैदे.
यो काजर आँखियों पर वा (हां हां)
जो अँखियों में तो पर वा…

इसी प्रकार अन्य आभूषण बिन्दी, बेसर, लहँगा, अँगियाँ आदि की माँग की जाती है और कौन कहां सजेंगे इसका हवाला दिया जाता है.
कुमाऊँनी कवि ‘ गौर्दा’ ने इन प्राचीन तर्जो पर पहाड़ी बोली में सुन्दर होलियां रचीं. स्वातंन्न्यं संग्राम के दिनों लिखी उनकी एक व्यंग्यात्मक खड़ी होली देखियेः

दे हो स्वराज्य बिहारी.
श्री कृष्णा मुरारी.
रंग हमारो बिदेस सिधारो,
लीगै समुन्दर पारी.
भांग पिणा सूँ रैगेछ खाले और दिणा सूँ गारी.
रंग-रंगीला काँ बटि बणनूँ
भौजि न देवर प्यारी.
देराणि-जेठणी छयौक लगूँछन,
मालिक है रूठी नारी.
सास-ससुर की पूछ नि हाँती,
च्याल लत्यूंनी ब्वारी…

कुमाऊं के जन समुदाय में, विशेषकर नागरिक-वर्ग में होली की बैठकें बड़ी शान से आयोजित की जाती हैं. जो होली से प्रायः एक-डेढ़ माह पूर्व शुरु हो जाती हैं और होली के दिनों में अपने चरम उत्कर्ष पर रहती हैं. इनमें ठुमरी अंग के अनुकरण पर रागबद्ध होलियां गाई जाती हैं. काफी , देश, खमाज, पीलू शाहना, जैजैवन्ती , विहाग , भैरवी आदि राग-रागिनियों की बड़ी प्यारी बन्दिशें इन होलियों में मिलती हैं. इनकी विशेषता यह है कि ये दीपचन्दी में न होकर 16 मात्रा के चांचर ताल में निबद्ध हैं और तीन ताल, अद्धा, कहरूवा से गुजरती फिर अपने मूलताल पर टेक को पकड़ लेती हैं. इनमें कहीं-कहीं रागेतर स्वर भी लगा दिये गये हैं, रागबद्ध होलियों की कुछ झलक प्रस्तुत हैः

होरी खेलन कहाँ जाऊं,
घट ही में मेरो खिलाड़ी रहत है,
मेरे खिलाड़ी को सब कोई जानत,

यमुना तट पर झूलते श्याम का चित्र इस होली में मिलेगाः-

कोई राम कोई कृष्ण कहत है.
चलो री चलो सखी होरी खेलन,
आज तट जमुना के छोर,
अगर चँदन को बनो है हिंडोला रेशम लागी डोर,
चढ़त अकास लहर जमुना की झलत नन्द किशोर.

एक अन्य होली में ननदिया से कुछ मांगा गया है.

अपनो बीरन मोहे दे रौ ननदिया,
मैं होरी खेलन जात बृंदावन.
ताल मृदंग तमूरा की जोरी,
पायल बाजे झन नन… री ननदिया…

बसन्त में रूठे प्रियतम घर आ गये, सखियाँ मंगल गाने लगींः

आज बसन्त सुहाये सखी
मोरे पिया घर आये,
पीले ही फूल पीले बसन्त हैं
पीले ही भवन लिपाये.
सब सखियाँ मिलि मंगल गावें
आज अनन्त बधायें…

इस प्रकार सैकड़ों होलियां, क्या खड़ी, क्या बैठी और क्या रागबद्ध, यहाँ के जनसमुदाय का कंठहार होकर रही हैं क्योंकि ये प्रेम के उस अनन्त कोश को लुटाती चलती हैं, जो कभी रिक्त नहीं होता.

रंगभरी होली का मुख्य दिन यहाँ ‘छरड़ी ’कहलाता है. इस दिन छककर होली खेली जाती है और गाँव या मुहल्ले में घर-घर जाकर समवेत स्वरों में आशीर्वचन कहे जाते हैं, अपराह्न में पुनः स्थानीय मन्दिर में एकत्र होने का विधान है. लोग गले मिलते हैं, खूब रोते हैं, ह्दय का वेग आँसुओं के रूप में उमड़ पड़ता है. आत्मा की एकता का इस दिन प्रत्यक्ष दर्शन होता है. ‘‘होरी खेलि खालि मथुरा को चलै आज कन्हैया रंग भरै’’ होली इसी दिन गाई जाती है. दूसरे दिन देवर भाभी परस्पर टीका करते हैं, अबीर लगाते हैं, जाती हुई होलियाँ एक टीस छोड़ जाती हैं, एक उदासी का वातावरण बना जाती हैं, किन्तु शीघ्र ही ‘‘जो नर जीवै, खेलै फाग’’ की आशा में जीवन का दैनिक-चक्र यथावत् घूमने लगता है और शेष रह जाती हैं इन रस भरे गीतों की प्रतिध्वनियाँः-

गुंय्याँ होरी मैं खेलूंगी उन ही के संग.
जाके घुंघराले बाल, और साँवला सा रंग…
लगन बिन को जागे सारि रात.
कै जागे जोगी, कै जागे भोगी,
कै जागे ललना की मात…
लगन बिन…

‘उत्तराखण्ड होली के लोक रंग’ शेखर तिवारी द्वारा संपादित एक महत्वपूर्ण पुस्तक है. चंद्रशेखर तिवारी काफल ट्री के नियमित सहयोगकर्ता हैं. उत्तराखण्ड की होली परम्परा  (Traditional Holi) पर आधारित और समय साक्ष्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक की रूपरेखा दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून द्वारा तैयार की गयी है. होली के इस मौसम में इस जरूरी किताब में से कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं को हम आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहे हैं.  अनुमति देने के लिए हमारी टीम लेखक, सम्पादक, प्रकाशक व दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की आभारी है.

यह लेख उत्तराखंड के वरिष्ठ लेखक स्व. चारू चन्द्र पांडे द्वारा लिखा गया है. हल्द्वानी में रहने वाले चारू चन्द्र पांडे ने हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में साहित्य लेखन का कार्य किया.

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Girish Lohani

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