1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी. लम्बे कद के शांत मृदुभाषी, होठों पर सहज मुस्कान, दिखाई भी कम ही देते या तो क्लास में होते और या फिर प्रयोगशाला में. पता चला था जम के पढ़ाते हैं, उनके स्टूडेंट उनकी कोई क्लास मिस नहीं करते. डिपार्टमेंट में बस चाय पीने के समय दिखते हैं, बाकी समय लैब में रिसर्च में लगे रहते हैं. लिखते रहते हैं. उनके कई पेपर नामी एकेडमिक जर्नल्स में छप चुके. मैं जब भी टकराता तो बातचीत का विषय यही होता कि इस बीच क्या किया? कहाँ घूमे? क्या कुछ खींचा? उनकी बातें हमेशा कुछ नया करने का बोध जगाती रहीं.
(Kumaoni Bhasha Book Review)
अब चालीस साल बाद जब उनसे संपर्क हुआ तो उस किताब के हवाले जो कुमाउँनी भाषा पर लिखी गई है. भाषा, बोली और साहित्य पर मेरी कोई पकड़, दखल व गुरुत्व तो है नहीं बस थोड़ी रूचि कुछ शौक और क्या जो लिखा है के भाव से इस किताब को पलट गया जो पांच सौ बत्तीस पेज की थी.
किताब का नाम है, “कुमाउँनी भाषा” (परिचयात्मक संग्रह) जिसके परिचय में लेखक ने कहा है कि कुमाउँनी उनकी मातृ भाषा है और किसी लेखक के लिए सबसे सरल भाषा उसकी मातृ भाषा होती है. अपनी दुदबोली के विकास में साहित्य के कई मनीषियों का प्रबल योगदान रहा है पर लोगों के पलायन और आधुनिकता की दौड़ में हमारी दुदबोली के पीछे छूट जाने की आशंका है. यह आंचलिक भाषा हमारे पूर्वजों की अमूल्य धरोहर है जो अवश्य ही कहीं दर्ज रहे, संरक्षित रहे और विकसित रहे, इस दृष्टि से इस लोक भाषा के विभिन्न पहलुओं की विषय वस्तु का संग्रह कर यह पुस्तक लिखी गई है. लेखक विज्ञान का विद्यार्थी व शिक्षक रहा है और उसकी यह आस है कि यह पुस्तक कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने व समझने वालों के लिए उपयोगी होने के साथ लोक भाषा संस्कारक सिद्ध होगी.
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डॉ पूरन चंद्र जोशी ने पुस्तक की विषय वस्तु का चुनाव व उसके विश्लेषण – विवेचना में एक कुशल प्राध्यापक व शोधार्थी के साथ सिद्ध हस्त वैज्ञानिक की उन सभी विशिष्टताओं का परिचय दिया है जिससे कुमाउँनी भाषा की विशाल, विविध व शब्द संपदा के साथ इसकी विविध बोलियों का परिचय मिलता है. वहीं ये आभास भी होता है कि कुमाउँनी में भावों एवम विचारों की अभिव्यक्ति कितनी प्रभावपूर्ण व सटीक है जहाँ एक-एक वस्तु, कार्य, भाव, ध्वनि, स्वाद, गन्ध, मानव गतिविधियों व संवेदनाओं के लिए अलग-अलग शब्द हैं. इसके लिखने और बोलने में अधिक अंतर नहीं है. साथ ही कुमाउँनी लोक साहित्य काफी समृद्ध है, रोचक है. इसके विविध आयाम लोक जीवन को प्रतिबिम्बित करते हैं. यह लोक मानस के अंतस्थल में रचा बसा है और कुमाउँनी भाषा की प्राण वायु की तरह है. परिसीमा तो यह खिंची है कि कुमाउँनी के साथ ही गढ़वाली भाषा हिंदी की “बोलियों” की श्रेणी तक सीमित है जबकि नेपाली भाषा (खसकुरा) को नेपाल में राजभाषा व राष्ट्र भाषा का स्थान प्राप्त है तो वह भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित भाषाओं में से एक है. डॉ पूरन चंद्र जोशी दृढ़ता व सुस्पष्ट विवेचन से लिखते हैं कि कुमाउँनी भाषा को मान्यता प्राप्त करने के लिए इसे पूर्णतः व्याकरणलभ्य होना होगा तथा इसके लिखित साहित्य को और अधिक उत्कृष्टता व व्यापकता के साथ परिपक्वता हासिल करनी होगी.
कुमाउँनी भाषा पर तो व्याकरण का नियंत्रण और भी आवश्यक है,क्योंकि इसका स्वरूप स्थानीय बोलियों की खींचा तानी में अनिश्चित सा हो गया है. कुमाउँनी भाषा से संबंधित की जो जानकारी भाषा वैज्ञानिकों ने अभी तक दी है वह यत्र-तत्र टुकड़ों में बिखरी मिलती है. इसे संकलित करना अतिरिक्त उदाहरण दे कर तथ्यों को विस्तार से प्रस्तुत करना और विषय के अन्य पहलुओं का यथासंभव समावेश कर एक सन्दर्भ ग्रंथ का रूप देना डॉ पूरन चंद्र जोशी ने अपनी पुस्तक “कुमाउँनी भाषा” का उद्देश्य नियत किया.
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कुमाउँनी भाषा की उत्पत्ति तथा विकास का ऐतिहासिक पुनरावलोकन करते हुए उच्चारण, ध्वनि व रूप रचना के आधार पर इसकी बारह बोलियों का निर्धारण व इनके भाषायी स्वरूप व बोलने के तरीकों की भिन्नताओं को उदाहरण सहित रोचक तरीके से स्पष्ट किया गया है.लेखक का स्पष्ट कथन है कि हिंदी व्याकरण को आधार मानते हुए कुमाउँनी भाषा के स्वरूप को और अधिक व्यवस्थित व अधिक शुद्ध रूप में लाया जाना अत्यावश्यक है. व्याकरण लभ्य भाषा को परिनिष्ठित भाषा कहते हैं, कुमाउँनी भाषा को परिनिष्ठित बनाये जाने के लिए इसका एक सर्वमान्य लिखित व्याकरण का होना आवश्यक है. कुमाउँ की बोलियों में उच्चारण व शब्दों के प्रयोग में भिन्नता पायी जाती है और लिखित व्याकरण के अभाव में भाषा में एकरूपता व स्थिरता नहीं आ पायी है. कुमाउँनी भाषा के लिखित व्याकरण व उसके सुसंगत नियम निर्धारित कर शब्दों के रूप, इनके प्रयोग व वर्तनी को सुनिश्चित कर भाषा के स्वरूप को व्यवस्थित किया जा सकेगा. कुमाउँनी व्याकरण हिंदी व्याकरण पर आधारित होते हुए भी अनेक विभक्तियों, सर्वनाम, विशेषण तथा अव्यय कुछ विशेषताएं समाहित रखता है. ऐसे में कुमाउँनी को अपनी विविध बोलियों के आधार पर एक सुधारयुक्त भाषा का रूप गठित करना आवश्यक हो जाता है जहाँ यह ध्यान रखना होगा कि कुमाउँनी भाषा का मूल उच्चारित स्वरूप ध्वन्यात्मक है अक्षरात्मक नहीं.
लेखक ने उस छोटी से छोटी मूल ध्वनि जिसके खण्ड नहीं हो सकते के वर्ण विचार को पूरी समग्रता से समझाया है. वर्णों का वर्गीकरण, वर्णों का उच्चारण तथा व्यंजनों का संयोग कुमाउँनी के साथ हिंदी की नई मानक लिपि में उदाहरणों सहित वर्णित है. अर्थ, बनावट व उत्पत्ति के आधार पर शब्दों का वर्गीकरण कर शब्द-विचार (etymology) के अध्याय में तत्सम (संस्कृत) तद्भव (हिंदी) के कुमाउँनी शब्द की विस्तृत सूची तो है ही गढ़वाली के साथ प्रांतीय शब्द में तेलुगु, तमिल, मलयालम, मराठी, मैथिली-अवधी, कन्नौजी, गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी व हरियाणवी के साथ हिमाचली शब्दों का भी विस्तृत उल्लेख किया गया है. ऐसे स्थानीय या देशज शब्द भी हैं जिनके लिए हिंदी में भी शब्द नहीं हैं. साथ ही विदेशी शब्दों में फारसी व अरबी के साथ तुर्की, पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी, जर्मन, इता लियन, व अंग्रेजी के शब्दों की विस्तृत सूची दी गई है.इनके साथ ही वर्ण संकर या संयुक्त अक्षर के उदाहरण भी दिए हैं.
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शब्द शक्ति के तीनों स्वरूप समझाते हुए विकारी एवम अविकारी शब्द की प्रकृति एवम इनके भेद स्पष्ट किये गये हैं. संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण की उदाहरण सहित व्याख्या के साथ अव्यय पर पूरे अध्याय वर्णित हैं. निपात या वह शब्द जिसका प्रयोग किसी शब्द या शब्द समूह पर बल देने के लिए किया जाता है के विभिन्न प्रकार समझाए गये हैं जिनमें ‘धैँ’ ,’पै’,
‘ बलि’,’बल’, ‘भै’, ‘तो’ व ‘ठेरा’ के रोचक उदाहरण दिए गये हैं. ऊनार्थक शब्दों की सूची के साथ इनके प्रयोग पर भी प्रकाश डाला गया है तो कुमाउँनी में प्रचलित उपसर्ग व प्रत्यय सरल व स्पष्ट तरीके से समझाये गये हैं.
कुमाउँनी भाषा की मुख्य विशेषता है ध्वनि परिवर्तन. इसके तेरह प्रकार उदाहरण सहित स्पष्ट हैं जिनमें आम बोलचाल के शब्दों में हुई हेरफेर को आसानी से समझाने का पूरा प्रयत्न किया गया है जैसे ब्राह्मण को बामण बोलना, अनाज को नाज, एकानब्बे को इकानबे, सोलह को सोल, पिशाच को पिचास, हाथ को हात, नकद को नगद, खर्च को खरच, हास्य को हँसि, पानी को पाणि, जलेबी को जलेबि, कुकुर को कुकूर, स्कूल को इस्कूल, दवा को दवाइ इत्यादि. ध्वनि परिवर्तन के मुख्य कारण भी सरल तरीके से समझा दिए गये हैं जिनमें भौगोलिक कारण, सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियां, अशिक्षा, उच्चारण दोष, कठिन शब्दों के स्थान पर सरल शब्द का प्रयोग या अल्प प्रयास में अधिक कहने के मुखसुख मुख्य हैं. हिंदी से कुमाउँनी में हुए ध्वनि परिवर्तन के कारण की विस्तृत तालिका के उदाहरणों से बात स्पष्ट कर दी गई है.
डॉ पूरन चंद्र जोशी की पुस्तक “कुमाउँनी भाषा” उन विशेषताओं को क्रम से समझाती है जिससे यह लोक भाषा एक विशिष्ट स्वभाव ले कर विकसित हुई. परम्परागत रूप से पहाड़ में जीवन यापन का आधार खेती व पशु पालन रहा जिसके लिए प्रकृति पर ही निर्भर रहा गया व इसी का सामीप्य रहा. इसी के कारण ठेठ कुमाउँनी में इन्हीं से संबंधित शब्द अधिक मिलते हैं.पहाड़ की दुर्गम संरचना, शीत, कठिन रास्ते, आवागमन के साधनों का नितांत अभाव जिनने उच्चारण की खूबियां उपजने का आधार दिया. मूल कुमाउँनी स्थानीय बोलियों के शब्दों का मिश्रण थी जिसने कालांतर में अन्य प्रांतीय व विदेशी भाषा के शब्द निरन्तर ग्रहण किये. शब्द सामर्थ्य व सटीक भाषिक अभिव्यक्ति इसकी विशेषता बनी. कुमाउँनी भाषा का मानक रूप “खसपर्जिया” मानी जाती है जिसकी खूबी यह है कि इसमें कम समय में आसानी व शीघ्रता से शब्दों को उच्चारित कर दिया जाता है.शब्द सामर्थ्य व सटीक भाषिक अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता कुमाउँनी की विशेषता है.मानवीय क्रिया -प्रतिक्रियाओं, भावों, अनुभवों तथा अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए विशाल शब्द भंडार हैं. जैसे कि हम अपने जीवन में सुनाई देने वाली आवाजों को लें तो कुमाउँनी में प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग शब्द का प्रयोग होता है. इस तरह की विशिष्ट शब्दावली हमारे पूर्वजों की वैज्ञानिक सोच को प्रकट करती है व इस लोक भाषा को एक स्वतंत्र अस्तित्व व व्याकरण प्रदान करती है. कुमाउँनी भाषा की मानक रूप मानी गई खसपर्जिया में ऐसी खास विशेषताएं हैं.
कम समय में आसानी व शीघ्रता से शब्दों को उच्चारित करना जैसे ओ दाज्यू को ओ दा कहना. ऐसे अनेक उदाहरण प्रयत्नलाघव हैं जिनके अनेक उदाहरण पुस्तक में दिए हैं जिनके आधार पर यह स्पष्ट होता है कि कुमाउँनी में इसका जितना प्रभाव है वह अन्य किसी भाषा में नहीं. दूसरी खासियत यह कि हिंदी के दीर्घ स्वरों का उच्चारण कुमाउँनी में ह्रस्व रूप में किया जाता है जैसे तेरी को तेरि, भालू को भालु, खेलना को खेलण, मेरा को म्यर, चेला को च्यल, दीदी को दिदि, कथा को काथ, बाजार को बजार इत्यादि अनेक उदाहरण हैं. स्थानों में भी उच्चारण का यही स्वरूप है जैसे अल्मोड़ा को अल्माड़, डीडीहाट को डिडिहाट, नैनीताल को नैनताल इत्यादि.
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कुमाउँनी में ह्रस्वता से शब्दों के अर्थ परिवर्तन के अनेक उदाहरण हैं जिससे इसकी बोली में कोमलता व मधुरता समाहित होती है. अनेकों शब्द विशिष्ट अर्थ का बोध कराते हैं. हिंदी के दीर्घ स्वर कुमाउँनी में ह्रस्व रूप में उच्चारित होते हैं जैसे पानी को पाणि, दीदी को दिदि, मेरी को मेरि. इसी तरह ऊनार्थक शब्दों की भी प्रचुरता है जैसे गागर को गागरि, तेरी को तेरि, नथ को नथूलि. पर्वतीय क्षेत्र की दुर्गमता व आवागमन के उतार चढ़ाव के साथ ठंड से कम से कम प्रयत्न से अधिक से अधिक भाव व्यक्त करने वाले बोल का प्रयोग आसान व सुविधा जनक लगना स्वाभाविक है जिससे शब्दों की लघुता कुमाउँनी बोली का महत्वपूर्ण स्वभाव बन गया. अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए एक ही शब्द को दो बार या मूल शब्द से मिलता जुलता समानार्थी शब्द या पुनरुक्त या युग्मक शब्दों की प्रचुरता है जैसे बचि-खुचि, फसक-पराव, हका-हाक, न्यूत-पात इत्यादि.
कुमाउँनी लोक जीवन के विविध पक्ष और इसकी भौगोलिक दशाओं व जैव विविधता से ले कर स्थानीय लोगों के द्वारा की जा रही क्रियाओं, उनके मनोभाव व सूक्ष्म संवेदनाओं के लिए भिन्न भिन्न शब्द हैं, यहां तक कि प्रत्येक अनुभूति, विचार व भाव के लिए पृथक शब्दावली का प्रयोग किया जाता है जैसे कल के लिए -बेलि /बेई, भोल, पोरूहों /पोरहुँ, नेरुहों / नेरहुँ. कुमाउँनी में अनेक ऐसे शब्द हैं जिनसे उनके अर्थ का सीधा बोध होता है. ऐसी शक्ति “शब्द शक्ति”से कुमाउँनी समृद्ध है. उदाहरण के लिए अनेकों ध्वनिवाचक शब्द जैसे सुसाट, भुभाट, कुकाट, चिचाट, गड़गड़ाट, मणमणाट, मचमचाट, खितखिताट, खन्न, टन्न, धम्म, कड़ाक इत्यादि तो गन्ध सूचक शब्दों की बहुलता है जैसे गुऐन, चुरैन, भुटैन, बसैन, हंतरैन, जलैन, गन्योलआदि. स्वाद विविधता के भी विशिष्ट शब्द हैं जैसे चिरपिर, तितैन, कुकैल, झरझर, मतमत, चरपर.
लेखक ने स्पर्श या त्वचीय संवेदन के शब्दों की सूची दी है जिसमें छुवँण की विविध संवेदनाएं निहित होती हैं जैसे गुदगुद, कुतकुत, जरजर, निमैलि, चुपड़, चिमड़. रस से सम्बंधित शब्द हैं जैसे लसपस, गटबट, छरछर, तो दो से अधिक वस्तु मिलाने से बने मिश्रण के नाम जैसे हलदाणी, मर्चाणी, ठठवाणी, कटकि चहा. रूपबोधक शब्द भी कम नहीं जैसे ग्वर फनार, कफुली, खबीश, काव मशाण. किसी वस्तु या व्यक्ति की स्थिति या स्थान परिवर्तन से बने गति सूचक शब्द भी कुमाउँनी में बहुतायत से हैं जैसे लमालम, माठुमाठ, धसकण, लमकण, लपकण, खितण, कनमनीण.
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विविध भौतिक अवस्थाओं के लिए कुमाउँनी में विशेष शब्द प्रयोग किये जाते हैं जिसके लिए मूल शब्द के साथ “पट्ट” जोड़ कर विशेष शब्द बनता है जैसे अन्यारपट्ट, कावपट्ट, अरड़पट्ट, तितपट्ट इत्यादि. इसी तरह सहज और असहज मानव व्यवहार के लिए भी विशेष शब्द हैं जैसे फड़फड़ाट, लरबराट, छलबलाट, झनझनाट इत्यादि. किसी स्थान विशेष हेतु भी शब्द हैं जैसे बांज के पेड़ों का जंगल बज्याणि, घास के लूटे की जगह लुट्याणि, सिर की या तकिये की तरफ का भाग सिराणि आदि. किसी स्थान विशेष पर बल देने के लिए उस स्थान के साथ पन जोड़ा जाता है जैसे घरपन, बजारपन, भितेरपन.
व्यक्तियों को उनके मूल निवास के नाम से भी संबोधित किया जाता है जैसे गंगोलि, डोट्याव, सौर्याली. सम्मान सूचक शब्दों के साथ ज्यू जोड़ा जाता है जैसे दाज्यू, सौर ज्यू, गाँधी ज्यू. नाप तोल से संबंधित विशेष शब्दावली है जैसे एक बिसी,पौ भर, आदु, अत्ति, हल्क, ठुल, थ्वाड़, निमखुण. पीटने से सम्बंधित शब्द तो बड़े रोचक हैं जैसे अमोरण, गदोरण, फचकोंण, झनमन्यूण, लत्यूण आदि. मानव स्वभाव के भिन्न -भिन्न होने की अलग -अलग शब्दावली कुमाउँनी की खासियत है जैसे अकेला रहने वाला एकलकटु, अकड़ू स्वाभाव का किकड़, फैशनेबुल खानफरु, गप्पी फसक्या, उतावला लरबरु, भोला भाला लाट, मुखिया सयाण. इसी प्रकार प्रत्येक मनोभाव व मनस्थिति के लिए पृथक शब्द हैं जैसे वियोग में उदास रहने के लिए निशाश, हिचकी के लिए बाटुइ, कलि कलिl के लिए कइ-कइ, लम्बे समय बाद अपना गांव घर देख “दिगो लाली” मुँह से निकलना, परेशानी -उड़भाड़, अधीरता- उच्याट. विस्मयादिबोधक शब्द के अध्याय में आभारबोधक शब्दावली के अनेक उदाहरण हैं जो हर्षित मनोभाव प्रकट करते हैं जैसे,’तुमर भल हो, जी रया’. ‘भल भय हो काम सपड़ी गो’. मंगल कामनाएँ हैं जैसे,’खुब फल्या फुल्या’. ‘जी रया सुक्यार रया’. बधाई सूचक वाक्य हैं जिन्हें ‘भलि भैटयूण’ कहते हैं.
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आशीर्वचन हैं जिन्हें मांगलिक अवसरों व त्यौहार पर सयानों द्वारा छोटों को दिया जाता है जैसे,’एक इक्कीस पांचक पच्चीस है जये’. विषाद या शोक बोधक शब्द हैं जैसे, ‘शिबौ-शिब, शिव!शिव!’,’अहा!कस भय त’. जब वाक्य में अरे, हाय, अँ, एँ, उँ उँ उँ, ओ हो, ओइजा अरे आदि शब्दों का प्रयोग होता है तो यह आश्चर्य बोधक शब्द बन जाते हैं जैसे अरे!को छा?, अँ!साँच्ची. हाई!काँ बै आया आज तुम अचानक. उँ उँ उँ, तो यो बात छू. जब वाक्य में ओइजा, उइजा, हाय, बाप रे बाप, आ बाबा हो का प्रयोग हो तो ये शब्द भय बोधक कहलाते हैं जैसे, ‘ओइजा!स्याप त’. ‘बाप रे बाप, नान जै के तु छु त’. ‘आ बाबा हो, भौते ठुल छु त’. जब होय होय, हाँ हाँ, अँअ, हँ आदि शब्दों का प्रयोग हो तब यह स्वीकृति या सहमति बोधक होते हैं जैसे, ‘होय होय!कर दयूल काम’. ‘हाँ हाँ है जाल’.’हँ, लि आ पै’.
इसी क्रम में क्रोधबोधक शब्दों के सटीक उदाहरण हैं यथा, ‘त्यार तीन कुलाक पितरों कैँ हल्के दयूल, समझ के राखो त्वील’. जब वाक्य में हाइ, दा, भागि का प्रयोग हो तब ये अवधारणा बोधक बन जाते हैं. ऐसे ही अहाँहूँ, अहँ, उहुँ, न हाय शब्दों के प्रयोग से निषेध बोधक तो हँ, हाँ, हो होइ, अँ, होय, होई जैसे शब्दों से स्वीकार बोधक. आह, उह, ओइजा-ओइजा, हाय जैसे शब्द पीड़ा या दया का भाव व्यक्त करते हैं. हं हो, हँ वे, ओ, हँ रे, अ वे, ऐ, ओ, हो अँ हो, ओहो रे जैसे शब्द संबोधन हैं. वहीं छि, पल फुको, अरे आ जा, ज्वे, खशम, हट् ट, धत, चुप तिरस्कार बोधक शब्द हैं तो उँ अँ, उँ हं, छि जैसे घृणा सूचक. ऐसे ही अमंगलकारी बोधक शब्द व वाक्य भी बहुतायत से हैं जैसे, ‘चुरैन’, ‘रनकर’, ‘खड़पट है जो तैकित्यार तीन पुस्तो पितर हलकण है जान’. गालियों के शब्द भी बहुतायत से प्रयोग होते हैं यथा, पाथर, कठुलि, कुकुरि च्यल, आपण मै मुश्यार है जये.
समय, स्थान, शिष्टाचार प्रयोजन आदि कारणों से शब्द भिन्न अर्थो में प्रयुक्त होते हैं जिनके कारक डॉ जोशी ने अनेक उदाहरणों के द्वारा रोचक रूप से समझाया है तो शब्द रूप रचना की तकनीक भी. इसी प्रकार कुमाउँनी में हिंदी के विकृत शब्द व अंग्रेजी के प्रभाव को प्रदर्शित करते उनका आग्रह है कि इस तकनीकी व सूचना क्रांति में अंग्रेजी व बैज्ञानिक शब्दों को अपनाना व प्रयोग में लाना हर भाषा के लिए आवश्यक हो गया है. भाषा वही जीवित रह सकती है जिसे जनता बोलती है. प्रकृति का भी नियम है कि जिस कुँए या नौले से हम पानी पीते हैं वह कभी सूखता नहीं है. अतः हमें कुमाउँनी के मूल स्वरूप व शब्द संपदा को संरक्षित रखते हुए दूसरी भाषाओं के शब्दों का स्वागत करना चाहिए.
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शब्दों के उच्चारण में कम समय लगे यह कुमाउँनी भाषा की विशेषता है. इस एकाक्षरी या शब्दों की ऐसी लघुता के पर्याप्त उदाहरण पुस्तक में संग्रहित हैं. ऐसे ही युग्मक शब्दों की प्रचुरता है जो भले ही अन्य आर्य भाषाओं में पायी जाती है पर इतनी अधिक नहीं. विस्तृत अध्यायों में युग्मक, विलोम, पर्यायवाची, अनेकार्थक, अनेक शब्दों के लिए एक शब्द, शब्दों के विभिन्न प्रयोग, संख्यावाचक , समयसूचक व परिमाणबोधक शब्द विवेचनके साथ ही बंधुत्व वादी शब्द व आंचलिक जीवन से जुड़े अन्य शब्दों की वर्गीकृत शब्दावली विस्तार से दी गई है. जिसमें पहाड़ के मकान (कुड़ि ), भूमि, धातु, रंग, प्राकृतिक घटनाएं, शरीर के अंग, रोग, व्याधि, विकार, स्थानीय रोग के अधिकाधिक शब्द समाहित किये गये हैं.
डॉ जोशी ने कुमाउँनी लोक साहित्य एवम संस्कृति का सार गर्भित विश्लेषण किया है.यहां के मौखिक व लिखित साहित्य के बीच अंतर व समानताएं स्पष्ट करते हुए उन्होंने लोकगीत, लोकगाथा, लोक कथा, पहेलियाँ, मुहावरे, लोकोक्तियां, लोक-नाटक व प्रकीर्ण लोक साहित्य, कुमाउँनी कौतिक एवम उत्सव, व्यापारिक मेले, कर्मकांड, लोकपर्व, पारम्परिक परिधान, आभूषण के साथ ही वाद्य यँत्र, लोक कला व चित्र कला के पक्ष विस्तार से समझाए हैं.कुमाउँ की पारम्परिक लोक कलाओं की वर्तमान स्थिति का पुनरावलोकन भी समग्रता से किया है. डॉ जोशी कुमाउँनी संस्कृति में प्रकृति प्रेम से जन जीवन के सहज जुड़ाव से उन दुश्चक्रों के निवारण हेतु सार्थक प्रयास किये जाने की आस में हैं जिनने हर स्तर पर तनाव-दबाव व कसाव दिखाए हैं.इसका एक बड़ा कारण लोक थात की उपेक्षा है. अपने समकालीन सामाजिक परिवेश व संस्कृति के प्रति सहज रह ही परंपरागत ज्ञान व मध्यवर्ती तकनीक को बचाया बनाया जाना इसका एक मात्र विकल्प है.
आज देश में जैविक खेती व इससे प्राप्त उपादान व प्रतिफल को उच्च वरीयता दी जा रही है. हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र ही ऐसी मिश्रित उत्पादन प्रणाली से स्थानीय जन के साथ पालतू पशुओं के जीवन निर्वाह की संतुलित उत्पादन पद्धति ले कर आये जिसे “बारहनाजा” कहा गया. मोटा अनाज को ही शासन ने “श्री अन्न” की संज्ञा दी है. जीवन निर्वाह खेती से आगे पहाड़ के लोक विज्ञान के द्वारा इसे विकसित करने की पहल किया जाना अपनी विरासत को संभालने का सबसे बड़ा कदम है अन्यथा लोक हित से जुड़ी वह परंपरा ही लुप्त हो जाएगी जिसकी उपेक्षा से आज परंपरागत तरीके, बीज और उत्पादन पद्धतियों पर ही ग्रहण लग चुका है.
लोक थात से जुड़े सभी प्रसंगों को डॉ पूरन चंद्र जोशी एक वैज्ञानिक की पारखी नजर और तार्किक विश्लेषण से सामने रखते हैं और इस निष्कर्ष को ह्रदयंगम करा देते हैं कि कुमाउँनी थात के संरक्षण व विकास के उपाय व नीतियों के साथ इसकी दशा व दिशा का स्वरूप क्या हो.
मेरे छात्र व मित्र युवा साथी अक्सर यह अनुरोध करते हैं कि उनको ऐसी पठनीय सामग्री मुझ से मिले जो उनकी पहाड़ से चाही जाने वाली गुणात्मक विकास की अपेक्षाओं पर खरी उतरे. ऐसे में अपने समवयस्क डॉ पूरन चंद्र जोशी की पुस्तक “कुमाउँनी भाषा”परिचयात्मक संग्रह उनके लिए है जो हमारी दूदबोली की प्राण वायु को महसूस करना चाहते है.
इस पुस्तक को अंकित प्रकाशन, चन्द्रावती कॉलोनी, पीली कोठी, हल्द्वानी, नैनीताल (मो.8191032884) मूल्य ₹650 द्वारा प्रकाशित किया गया है. पुस्तक में कुमाउँनी भाषा के लेखन /टंकण अनुप्रयोग-चिह्न व इसके दिशा-निर्देश भी दिए गये हैं जो अत्यधिक उपयोगी हैं.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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