कुमाऊनी होली के अनूठे रंग

ऋतुओं के राजा बसंत का आगमन हो चुका है. इसी के साथ पहाड़ में बैठकी होली की भी धूम मचने लगी है. कुमाऊँ क्षेत्र में होली का त्यौहार ख़ास तरह से मनाया जाता है. कुमाऊनी बैठकी होली की परंपरा (Kuamoni Baithaki Holi Tradition) की अलग पहचान है, इसे कुमाऊनी होली के नाम से जाना जाता है. कुमाऊनी होली का अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व है.

बसंत पंचमी के दिन से ही रंगों का त्यौहार रागों के त्यौहार के रूप में मनाया जाना शुरू हो जाता है. मौसम यहाँ जितने रंग बिखेरता है उसमें उतने ही रंग और राग होल्यार भरा करते हैं. बसंत पंचमी के दिन से शुरू होने वाली बैठकी होली में कुमाऊनी लोगों की होली का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. पौष माह के पहले सप्ताह से ही तथा बसन्त पंचमी के दिन से ही गांवों में बैठकी होली का दौर शुरु हो जाता है. कुमाऊनी होली के तीन प्रारूप हैं; बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली. इस होली में सिर्फ अबीर-गुलाल का टीका ही नहीं होता, वरन बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है. बसंत पंचमी के दिन से ही होल्यार प्रत्येक शाम घर-घर जाकर होली गाते हैं, और यह सिलसिला लगभग 2 महीनों तक चलता है.

होल्यार हारमोनियम, तबला और ढोलक के सुर-ताल पर भक्तिमय होलियों से बैठकी होली शुरु होती है. इन होलियों में शास्त्रीय राग इस्तेमाल किये जाते हैं. जिनमें दादरा और ठुमरी विशेष तौर पर प्रचलित है. राग धमार से होली का आह्वान होता है तथा राग श्याम कल्याण से होली की शुरुआत की जाती है, बीच में विभिन्न रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं. यह होलियाँ पीलू राग, जंगला काफी, सहाना, बिहाग, जैजैवन्ती, जोगिया, झिंझोटी, भीमपलासी, खमाज व बागेश्वरी सहित अनेक रागों में गाई जाती हैं. राग भैरवी के साथ होली का समापन किया जाता है.

कुमाऊनी बैठकी होली की उत्पत्ति में संगीत परंपरा की यह शुरुआत तो 15वीं शताब्दी में चम्पावत के चन्द राजाओं के महल और काली-कुमाऊँ, सुई और गुमदेश क्षेत्रों से हुई बताई जाती है. चन्द राजवंश के विस्तार के साथ ही यह सम्पूर्ण कुमाऊँ क्षेत्र में विस्तार पा गयी. कहा जाता है कि चंद शासनकाल में बाहर से ब्याह कर लायी गयी राजकुमारियों के साथ उनकी परम्पराओं, रीति-रिवाजों का भी यहाँ आगमन हुआ. इनके साथ ही होली भी यहां आयी. एक मान्यता यह भी है कि राजदरबार में बाहरी गायकों-संगीतज्ञों के यहाँ आने से उनके साथ शास्त्रीय-अर्धशास्त्रीय होलियाँ भी यहाँ आयीं.

पारंपरिक रूप से मनायी जाने वाली बैठकी होली यूँ तो कुमाऊँ में सभी जगहों पर मनाई जाती है मगर अल्मोड़ा, नैनीताल और रामनगर की बैठकी होली विशेष तौर पर समृद्ध रही है. सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में तो इस त्यौहार पर होली गाने के लिए दूर-दूर से गायक आया करते थे.

कुमाऊनी बैठकी होली पहाड़ी लोक संगीत में रचे-बसे बृज भाषा के बोल हैं. इसमें विभिन्न राग-रागिनियों पर ढली हुई बंदिशें हैं. इसमें शास्त्रीय संगीत को ख़ास पहाड़ी शैली में सामूहिक रूप से गाया जाता है. इसे गाने वाले समूह का हर व्यक्ति इसमें गायक की हैसियत से भाग लेते हुए कोई सुर लगा सकता है, इसे ‘भाग लगाना’ कहा जाता है. यानि यहाँ हर होल्यार एक गायक है.

बैठकी होली गायन के शुरूआती दिनों में गयी जाने वाली होलियाँ भक्ति रस से सराबोर रहती हैं. शिवरात्रि के बाद से इसमें श्रृंगार रस का तत्व शामिल होता है और बढ़ता चला जाता है. इन होलियों के सभी होल्यार मदमस्त झूमते-गाते रहते हैं.

इन गीतों में मीराबाई से लेकर नज़ीर और बहादुर शाह ज़फ़र की रचनाएँ तक सुनने को मिला करती हैं. हर घर में बारी-बारी होनी वाली होल्यारों की बैठकें आशीर्वाद के साथ संपन्न होती हैं. जिसमें मुबारक हो मंजरी फूलों भरी या ऐसी होली खेले जनाब आली आदि ठुमरियाँ पहाड़ी ठसक के साथ गाई जाती हैं.

बैठकी होली का यह दौर फाल्गुन तक चलता रहता है. फाल्गुन एकादशी को लोकदेवता के थान पर चीर बाँधने के बाद खड़ी होली की शुरुआत की जाती है. इसके लिए गांव के हर घर से इकट्ठा किये गए नऐ कपड़े के रंगीन टुकड़े ‘चीर’ के रूप में लंबे लकड़ी के लटठे पर बांधे जाते हैं. इस मौके पर ‘कैलै बांधी चीर हो रघुनन्दन राजा,’ ’सिद्धि को दाता गणपति बांधी चीर हो’ जैसी भक्ति से सराबोर होलियां गाई जाती हैं. इस होली में गणेश के साथ सभी देवी-देवताओं के नाम लिऐ जाते हैं. कुमाऊँ में ‘चीर हरण’ की भी परंपरा है. अपने गांव के चीर को दूसरे गांव वालों द्वारा चोरी किये जाने से बचाने के लिए पहरा दिया जाता है. चीर चोरी हो जाने पर अगली होली से गांव में चीर बांधने की परंपरा ख़त्म मानी जाती है. होली गायन के पश्चात घर के सबसे सयाने सदस्य से शुरू कर सबसे छोटे पुरुष सदस्य का नाम लेकर ‘घर के मालिक जीवें लाख सौ बरीस…हो हो होलक रे’ गाकर आशीष देने की अनूठी परंपरा है.

खड़ी होली में होल्यार खड़े होकर एक गोला बनाते हैं और उस गोले में एक दूसरे के पीछे घूमते हुए होली गायन करते हैं. यह होली भी गांव के हर घर-आंगन में गाई जाति है. इसके अतिरिक्त महिलाओं की बैठकी होली का भी जम्जमाव अलग से चलता रहता है.

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फोटो: सुधीर कुमार

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Sudhir Kumar

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  • Very educative , most of the new generation of our Uttrakhand dpnot know the information of this channels articles please maintain its sprit to know about the past I will recommend the generation must follow this , instead of wasting time in the material being served by different channels.KNOW YOUR PAST ALSO. thanks.

  • काफल ट्री वरदान है उत्तराखण्ड वासियो के लिए

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