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कुमाऊं का इतिहास

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ऐतिहासिक स्तर पर कुमाऊं के ‘संस्कृतीकृत नाम ‘कूर्मांचल’ का सर्वप्रथम अभिलेखीय उल्लेख चम्पावतस्थ नागमंदिर के अभिलेख में पाया जाता है. पौराणिक परम्परा के अनुयायी लोग इसका सम्बन्ध चम्पावत (काली कुमाऊं) में स्थित उस पर्वत से जोड़ते हैं जो कि उनके अनुसार भगवान् विष्णु के कूर्मावतार का क्षेत्र था. किन्तु इस क्षेत्र के अन्यतम खोजी इतिहासज्ञ डॉ. मदन चन्द्र भट्ट, जो कि इस क्षेत्र को मेरु-मंदर का भाग मानते हैं, का कहना है कि इसके इस नाम का आधार भगवान विष्णु का कूर्मावतार नहीं, अपितु कूर्म नामक ऋषि है. इनके अनुसार – यहीं मन्दर का वह भाग है जहां पर कूर्म ऋषि ने अपना आश्रम स्थापित किया था. वही कूर्म ऋषि बाद में देवता और फिर विष्णु के अवतार के रूप में चर्चित हो गये. फलतः ऋषि परम्परा से अनभिज्ञ इतिहास लेखकों ने इसे बहुज्ञात कूर्मावतार के साथ जोड़ दिया.
(Kumaon ka Itihas)

कूर्मांचल पर्वत का उल्लेख स्कन्दपुराण के मानसखण्ड के अतिरिक्त अन्य किसी पुराण या साहित्यिक कृति में नहीं मिलता है. इसमें उसकी स्थिति ‘दारुकावन’ (जागेश्वर) से आगे बतायी गयी है, किन्तु उसके इस नामकरण के विषय में कुछ नहीं बताया गया है.

नाम्ना नन्दगिरिः पुण्यः यत्र नन्दा महेश्वरि.
ततो मानसखण्डे व पुण्यो द्रोणगिरीः स्मृतः..
महौषधिसमाकीर्णः सिद्धगन्धर्व सेवितः.
तत्र पुण्यो महाभागः विद्यते दारुकावनम्..
यत्र योगेश्वरो देव पूज्यते नात्र संशयः.
परं कूर्माचलोनाम पर्वतः ख्यायतेभूवि..

(स्कन्द, मानस, 219-II)
एवं पर्णपत्रेति (पनार) विख्याता नदी कूर्माचलोद्भवा (वही, रामेश्वरमहात्म्य 84).

उत्तराखंड का यह कुमाऊं मंडल अपने इतिहास के विभिन्न कालों में अपने विभिन्न क्षेत्रीय नामों से अपनी पहचान बनाता रहा है. इसके कुछ भाग कभी पर्वताकर राज्य के प्रभाग रहे तो कभी कर्तृपुर साम्राज्य के और कभी स्थानीय सामन्तों एवं चन्द, ब्रह्म (बम) शासकों के अधीन. एक विशेष प्रशासनिक प्रदेश के लिए इस शब्द का प्रयोग 12वीं, 13वीं शताब्दि के आसपास से मिलने लगता है.

अतः इस सम्बन्ध में डॉ. भट्ट का कथन यदि सर्वथा स्वीकार्य नहीं हो तो सर्वथा अस्वीकार्य भी नहीं. उत्तरवर्ती कालों में ‘कुमाऊं’ के नाम से अभिहित किये गये पौराणिक ‘मानसखण्ड’ के सीमाकंन के विषय में स्कन्दपुराण के इस खण्ड में कहा गया है- इसकी सीमाएं उत्तर में मानसरोवर, दक्षिण में मोटेश्वर (काशीपुर), पूर्व में छत्रेश्वर (डोटी नेपाल) तथा पश्चिम में नन्दगिरी (नन्दापर्वत) तक विस्तृत हैं.

नन्दापर्वतमारभ्य यावत् काकगिरः स्मृतः.
तावद्वै मानसखण्डः ख्यायते नृपसत्तम..

(वही 214)

इसी प्रकार ‘शक्ति-संगम-तंत्र’ (8-12-13), जिसमें इसे ‘कूर्मप्रस्थ’ कहा गया है, में इसका सीमांकन इस रूप में किया गया है – ‘दक्षिण में गोकर्ण, पूर्व में कामख्या, उत्तर में मानसरोवर तथा पश्चिम में शारदा.‘

कूर्मप्रस्थं महेशानि कथ्यते श्रृणु साम्प्रतम्.
गोकर्णेशदक्षभागे कामाख्या पूर्वगोचरः.
उत्तरे मानसेशः स्यात् पश्चिमे शारदा भवेत्..

मध्यकालीन अभिलेखों तथा ऐतिहासिक कृतियों में इसे ‘कमादेश’ (पुरुषोत्तमसिंह का सन् 1191 ई. का बोधगया शिलालेख – अगाधगुणसम्पन्नः सर्वसौख्यैरलंकृतः. सुवेशश्च कमादेश वसेत् पूर्व प्रदेशतः.. ) पृथ्वीराज चौहान (1178-92 ई. के राजकवि चन्दवरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो’ में इसे ‘कुमऊंगढ़’ कहा गया है (सवालक्ख उत्तरस्य कमऊगढ़ दूरंग. राजतराज कुमोदमणि हयगय दब्बअभंग..)
(Kumaon ka Itihas)

अर्थात् दिल्ली के उत्तर में सपादलक्ष (शिवालिक) नामक एक पहाड़ी साम्राज्य है, जो अतुल हाथी, घोड़े और सम्पन्नता से युक्त हैं. जिसका शासक कुमुदमणि ‘दूरस्थ कमऊगढ़’ (कुमाऊं) के किले से इसका शासन चलता है, के नाम से अभिहीत किया गया है. प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. ईश्वरीप्रसाद के अनुसार मुहमद तुगलक के हिमालय अभियान से जिसे ‘कराचल’ या ‘कराजल’ के नाम से अभिहीत किया गया है. वह ‘कूर्मांचल’ ही है.

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि इस क्षेत्र के लिए ‘कूर्माचल’ नाम का सर्वप्रथम अभिलेखीय प्रयोग राजा कल्याणचन्द के शाके 1653 के चम्पावत स्थित नागनाथ मंदिर के शिलालेख में पाया जाता है. इससे पूर्व महावीर थापा के बालेश्वर ताम्रपत्र में इसे “कर्मालय’ तथा राजा रुद्रचन्द्र (1565-97 ई.) के नाटक ‘उषारागोदय’ में इसे ‘कूर्मगिरि’ कहा गया है.

इसके लोकभाषीय रूप ‘कुमाऊं’ से सम्बद्ध प्रयोग के अभिलेखीय प्रमाणों के संदर्भ में डॉ. रामसिंह का कहना है कि इसका प्रयोग राजा विक्रमचन्द (1433-36 ई.) के द्वारा राजा देशटदेव के (राजा क्राचल्लदेव के भी) ताम्रपत्र में अपनी ओर से बालेश्वर मंदिर को दिये गये भूमिदान की पुष्टि के संदर्भ में ‘कुमात्रा वादे शुभे’ के रूप में किया गया है. इसी प्रकार राजा ज्ञानचन्द के शाके 1340 तथा 1341 के ताम्रपत्रों में उल्लिखित ‘जगत् कुमांई’ में ‘ कुमांई’ जाति का उल्लेख भी ‘कुमाऊं शब्द के प्रचलन का निर्देश देता है (कुमांई-कुमाऊं का निवासी). इसके बाद राजा बाजबहादुर चन्द्र के शाके 1586 के ताम्रपत्र में, जिसमें कि राजा रुद्रचन्द द्वारा बालेश्वर के मंदिर को दिये गये भूमिदान की पुष्टि की गयी है, ‘कुमाऊं का महारुद्र को मठ दीनु’ में तथा राजा उद्योतचन्द्र के शाके 1604 के रामेश्वर ताम्रपत्र में ‘बौतड़ी कुमाऊं का गरखा’ जैसे प्रयोग से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि उस काल में कुमाऊं के पूर्वी क्षेत्र के लिए ‘कुमाऊँ’ नाम का प्रचलन हो चुका था. एक प्रशासनिक इकाई, ‘गर्खे’ के रूप में इसका प्रयोग राजा जगतचंद के शाके 1638 के नागनाथ ताम्रपत्र में भी पाया जाता है. पूरे राज्य के अर्थ में ‘कुमौराज’ जैसे शब्द का प्रयोग राजा कल्याणचन्द के शाके 1659 के तड़ागी ताम्रपत्र में किया गया है. इसी प्रकार राजा विक्रमचन्द के ताम्रपत्रों में इस शब्द का प्रयोग जहां एक ओर समूचे राज्य के अर्थ में किया गया है, वहीं एक गर्खे (परगने) के अर्थ में भी.

उपर्युक्त अभिलेखीय प्रमाणों से स्पष्ट है कि चन्द शासकों के द्वारा इसके प्रयोग को अपने राज्य विस्तार के साथ कुमाऊं मंडल के अन्तर्गत परिलक्षित सम्पूर्ण भू-भाग की बोधकता प्रदान करने से पूर्व तक ‘कुमाऊँ’ शब्द का संकेत बोध इसके पूर्वी क्षेत्र ‘काली कुमाऊं’ (चम्पावत क्षेत्र) तक ही परिसीमित होता था. राजा उद्योतचन्द के रामेश्वर ताम्रपत्र के अनुसार उस समय तक इस शब्द का प्रयोग केवल चम्पावत तहसील के अन्तर्गत आने वाले भू-भाग के लिए ही हुआ करता था. तदनन्तर चन्द शासकों, विशेषकर कीर्तिचन्द के द्वारा ‘मानसखण्ड’ के अधिकतर क्षेत्र को अपने अधीन कर लिए जाने तथा सन् 1563 राजा भीष्मचन्द के द्वारा चन्दों के प्रशासन केन्द्र को चम्पावत से खगमराकोट (अल्मोड़ा) में स्थानान्तरित कर दिये जाने के बाद उनके प्रशासनाधिकार के अन्तर्गत आने वाला सम्पूर्ण क्षेत्र ‘कुमाऊं’ के नाम से अभिहित किया जाने लगा था.
(Kumaon ka Itihas)

इसके बाद सन् 1815 में ‘ब्रिटिश गढ़वाल’ के नाम से जाने जाने वाले पूर्वी गढ़वाल के अंग्रेजों के शासनाधिकार में आ जाने तथा उसे कुमाऊं कमिश्नरी के एक परगने का दर्जा दिये जाने से प्रशासनिक स्तर इस समस्त क्षेत्र को ही कुमाऊं कमिश्नरी नाम दे दिया गया था.

कहा जाता है कि इस पर्वतीय राज्य (कुमाऊ) के लिए ‘कुमाऊं’ या ‘कुमायूं’ शब्द का प्रयोग मुस्लिम इतिहासकार अब्दुल्ला के ग्रन्थ ‘तारीखे-दाऊदी’ में दिल्ली के सुलतान इसलाम शाह (1545-1553ई.) के कट्टर विरोधी अफगान सरदार खवास खां को राजा कल्याणचन्द (1542-1555ई.) के द्वारा शरण दिये जाने के संदर्भ में किया गया है.

भौगोलिक स्थिति

एक भौगोलिक एवं प्रशासनिक इकाई के रूप में कुमाऊं मंडल के नाम से अभिहित यह भूभाग मध्य हिमालय के दक्षिण में 28°-14′ 45″ मे 30°-50′-00″ उत्तरी अक्षांश तथा 17°-6′-3″ से 80°-58′-15″ पूर्वी देशान्तर के मध्य में स्थित है. समुद्र की सतह से इसकी ऊंचाई 1000मी. से 3500 मी. के मध्य पड़ती है और औसत लम्बाई पूर्व से पश्चिम 110 कि.मी. दक्षिण से उत्तर 207 कि.मी. (हवाई दूरी), लघु हिमालय के बाद ऊँचाई 900 मी. से 1800 मी. तक (वृहत् हिमालय) और हिमालयी शिखरों की ऊंचाई 5000मी. तक. अट्किंसन के अनुसार इसकी लम्बाई पश्चिम में 165, दक्षिण में 90, पूर्व में 130, उत्तर में 75 मील है और अधिकतम चौड़ाई उत्तरपूर्व से दक्षिणपूर्व तक 140 मील और सबसे कम पश्चिम से पूर्व 40 मील है.

नवम्बर 9, 2000 में भारत के 27वें राज्य के रूप में नये राज्य उत्तरांचल का गठन किये जाने से पूर्व यह उत्तरप्रदेश राज्य की पर्वतीय कमिश्नरी हुआ करता था, किन्तु उसके बाद यह इस नये राज्य की एक मंडल इकाई हो गया है. इसकी सीमाएं पूर्व में नेपाल, उत्तर में तिब्बत, पश्चिम में गढ़वाल मंडल तथा दक्षिण में उत्तर प्रदेश के बरेली, रामपुर एवं मुदाराबाद जनपदों से मिलती हैं. इसकी उत्तरी सीमा के विषय में डा. मठपाल, यशोधर का कहना है-“शाश्वत हिमावृत महाहिमालय को भारत की उत्तरी सीमा मानना एक सामान्य सी भूल है, इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि कुमाऊं की 5 पट्टियां हैं- दानपुर, व्यांस, चौदांस, जोहार और दारमा. वह क्षेत्र है जहां से आपको नन्दादेवी जैसी अति उच्च चोटी भी दक्षिण दिशा में दृष्टिगत होगी.”
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प्रशासनिक स्तर पर सन् 1968 तक गढ़वाल मंडल का (ब्रिटिश गढ़वाल) का अधिक भाग भी इसी के अन्तर्गत हुआ करता था जो कि सन् 1868 में एक पृथक् आयुक्त की नियुक्ति के साथ ही पृथक हो गया था. सन् 1815 से 1857 तक, ब्रिटिश गढ़वाल सहित यह सम्पूर्ण क्षेत्र ब्रिटिश शासन के उ.प्र. राज्य का अंग रहा तथा उसके बाद स्वतंत्र उ.प्र. राज्य का. सन् 2000 में उत्तरांचल राज्य के गठन के बाद यह उत्तरांचल राज्य इकाई का एक घटक बन गया. उसके बाद अब कुमाऊं के अन्तर्गत उत्तरांचल के 13 जनपदों में से 6 जनपद (अल्मोड़ा, नैनीताल, ऊधमसिंहनगर, चम्पावत, बागेश्वर एवं पिथौरागढ़ आते हैं. प्रशासनिक इकाइयों की दृष्टि से यह 19 तहसीलों व 41 विकासखण्डों में विभक्त है. इसका कुल क्षेत्रफल 21,035 वर्ग कि.मी. आंका गया है. पहाड़ी क्षेत्र 3,200 वर्ग कि.मी. भाग सदैव बर्फ से ढका रहता है. क्षेत्र विस्तार की दृष्टि से इसे पूर्व-पश्चिम लगभग 155 कि.मी. तथा उत्तर-दक्षिण लगभग 235 किमी. आंका गया है.

जनसंख्या की दृष्टि से 2001 की जनगणना के अनुसार इसकी कुल जनसंख्या 35,63,969 परिगणित की गयी है जिसका जनपदीय विवरण इस प्रकार है – अल्मोड़ा (6,31,446) पिथौरागढ़ (4,62,149), नैनीताल (7,62,912), बागेश्वर (2,49,453), ऊधमसिंहनगर (12,34,548), चम्पावत (2,24,461).

जनसंख्यात्मक प्रजातीयता

जनसंख्या एवं प्रजातीयता की दृष्टि से भी कुमाऊं पांच वर्गों में विभक्त है जिन्हें मोटे तौर पर (1) हूणदेशीय, (2) भोटान्तिक, (3), सवर्ण आर्य, (4) असवर्ण आग्नेय (कोल, निषाद), (5) मिश्र.

प्रथम में मंगोल प्रजाति के उन लोगों की परिगणना की जाती है कि जो महाहिमालय तथा उसके उस पार 4500 मी. से अधिक ऊंचाई पर रहते हैं तथा रूपरचना के स्तर पर जिनकी तिकोनी छोटी आंखें, चपटी नाक, उभरे कपोल, रोम-श्मश्रु विरलता तथा पीताभ वर्ण होता है. द्वितीय वर्ग में महाहिमालय की भोटान्तिक घाटियों (3000 से 4500मी.) की ऊंचाई पर रहने वाले उन लोगों की गणना की जाती है जो शारीरिक अभिलक्षणों की दृष्टि से हूणदेशीय प्रजाति के लोगों से मिलते-जुलते हैं तथा स्थानीय स्तर पर भोटिया या शौका कहे जाते हैं.

इसके बाद स्थान आता है 1800 से 3000 मी. की ऊंचाई से बसे उन क्षत्रिय तथा क्षत्रियेत्तर सवर्ण लोगों का जिन्हें बाह्यगत लोगों के द्वारा खश वर्ग में परिगणित किया जाता है. इसके अतिरिक्त इसी क्षेत्र में रहने वाला असवर्ण वर्ग भी है जिन्हें यहां के आदिम निवासियों कोल-किरातों के वंशज माना जाता है और इसी वर्ग में गिना जाता है. इन सबके बाद आता है शिवालिक पर्वत श्रेणी के पादतल में 200 मी. से 1800 मी. के मध्य में स्थित तराई क्षेत्र का वह नवीनतम प्रवासी वर्ग, जिसमें सम्मिलित हैं पंजाब, बंगाल, बिहार एवं अन्य क्षेत्रों से आकर बसे हुए आर्य तथा आर्येतर प्रजातियों के लोग.
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प्राकृतिक सौन्दर्य

कुमाऊं के प्राकृतिक सौन्दर्य एवं वनसम्पदा की चर्चा करने से पूर्व इसकी पृष्ठभूमि के रूप में यह बताया जाना भी आवश्यक है कि पुरातन साहित्य में तो इसकी प्रभूत प्रशंसा की ही गयी है आधुनिक युग में भी इस क्षेत्र पर गृद्धदृष्टि रखने वाले अंग्रेजों को सर्वप्रथम इसी ने इस ओर आकृष्ट किया था तथा इससे आकृष्ट होकर ही उन्होंने इसे अपने अधिकार में लेने का प्रयास किया था.

उत्तराखंड पर ब्रिटिश शासन का इतिहास बताता है कि कुमाऊं पर अधिकार करने से पूर्व ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस क्षेत्र को हथियाने की दृष्टि से 17वीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में काशीपुर में बिरोजे की व भांग के रेसों से कपड़े बनाने की फैक्ट्रियां लगाई थीं और उनके माध्यम से यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य एवं वनसम्पदा के साथ उनका जो परिचय हुआ था उन्हें इस क्षेत्र को अपने अधिकार में लेने के लिए विशेष रूप से लालायित किया था.

कहा जाता है कि सन् 1802 में लार्ड वेलेजली ने यहां की वन सम्पदा एवं जलवायु की जानकारी के लिए मि. गॉट को यहां भेजा था. जिसने इस पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करके उसे भेजी थी. इसके बाद सन् 1811-12 में मि. मूरकाट व कप्तान हेरसी जब कुमाऊं के रास्ते तिब्बत गये थे और वहां पर कुछ काल तक बन्दी रहने के बाद वहां से लौटे थे तो उन्होंने कुमाऊं के हिमाच्छादित पर्वत शिखरों, स्वास्थ्यकर जलवायु, यहां के अतुल प्राकृतिक संसाधनों के विषय में कम्पनी को जो विस्तृत रिपोर्ट भेजी थी उससे कम्पनी सरकार के मन में इसे हस्तगत करने की कामना और भी प्रबल हो उठी. इस सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि इस मनलुभावनी रिपोर्ट को पढ़ने के बाद लॉर्ड हेस्टिग्ज उर्फ लॉर्ड मोयरा भी गुप्त रूप से यहां के सर्वेक्षण पर आया था और उसने अपनी गुप्त रिपोर्ट में लिखा था, “मैं स्वप्न में भी कुमाऊं के अद्भुत दृश्यों व हिमालय की नैसर्गिक छटाओं को देखता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह दिन जल्दी आये जब यह दिव्य भूमि हमारे हस्तगत हो”
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भूसंरचना

 भूसंरचना की दृष्टि से सम्पूर्ण क्षेत्र को जिन पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है वे हैं- (1) महाहिमालयी क्षेत्र, (2) मध्य मध्यहिमालयी क्षेत्र, (3) शिवालिक श्रेणियां (4) भावर क्षेत्र एवं (5) तराई क्षेत्र.

इनमें महाहिमालयी क्षेत्र का अधिकतर भाग सदा हिमाच्छादित है. इसमें 6000 से 7500 मीटर तक की हिमाच्छादित चोटियां तथा उनके मध्य में सोलह से अठारह हजार फीट ऊंचे हिमद्वार हैं.

महाहिमालयी क्षेत्र के दक्षिण में 1000 मी. से 3500 मी. तक की ऊंचाई वाला वह क्षेत्र है जिसमें बीच-बीच में नदी घाटियां एवं उपजाऊ तलहटियां पायी जाती हैं. मुख्य रूप से यही वह क्षेत्र है जिसमें पर्वतीय जनपदों की अधिकतम बसासत है.

इसमें पर्वत क्षेत्र के पादप्रदेश में आता है, भाबर का वह क्षेत्र जो कि प्रधान्यतः वेगवती पहाड़ी नदियों के द्वारा बहाकर लाये गये मलवे से निर्मित है तथा जो शीतोष्ण कटिबन्धीय वनस्पतियों से संकुल है. इसके अन्तर्गत ही कुमाऊं के कतिपय अन्नोत्पादक समतल मैदान भी हैं. इसका सबसे निचला भाग उष्ण कटिबन्धीय का प्रतिनिधित्व करता है.

वनस्पति जगत

यहां की भू-संरचना एवं जलवायु के अनुरूप ही यहां के वनस्पति जगत् का वैविध्य भी दर्शनीय है. मध्यहिमायल के इस भूभाग के प्राकृतिक वैविध्य एवं वन सम्पदा का सम्पूर्ण विवरण कतिपय अनुच्छेदों में संकलित कर पाना कठिन है. यह क्षेत्र न केवल अपने उन्नत हिमशिखरों, मनोरम घाटियों, कलानिनादिनी सरिताओं, पावन देवस्थलों की दृष्टि से ही अपना विशिष्ट स्थान रखता है, अपितु अपनी विशिष्ट वनस्पति सम्पदा में भी अपना एक अतुलनीय स्थान रखता है. इसके उच्च हिमालयी क्षेत्र जहां अक्षय हिम के आलय (आगार) हैं, वहीं इस क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली अमूल्य दिव्यौषधियों, वनस्पतियों एवं जीव-जन्तुओं के भी आलय हैं.
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इसमें जहां एक ओर प्रकृति की महानता एवं विशालता का आभास कराने वाले चीड़, देवदारु, बांज, सीशम, साल, सेमल, सागौन की अपरिमित सघन वनावलियां विराजती हैं, वहीं अनेक असाध्य रोगों का निवारण कर सकने में समर्थ, अनेक दिव्यौषधियों के निर्माण में प्रयुक्त की जाने वाली जड़ी-बूटियां, यथा अतीस, वत्सनाभ, सालमपंजा, निर्विषी, कुटकी, जटामासी, सर्पगन्धा, अश्वगंधा, वच, ब्राह्मी, मुश्कबाल, सिलफोड़ा, कचूर, कांगनी, काकड़सिंगी, रतनजोत, गन्द्रे॑णी, गुडूची, गिलोय, बनप्सा, सतावर, घृतकुमारी, मण्डूकपर्णी, डोलू, सालममिश्री, चिरायता, वज्रदन्ती, मकोय, कलहारी आदि ऐसी हैं जो यहां के विस्तृत भूभाग में उत्पन्न होती हैं. इसके अतिरिक्त अनेक वनस्पतियां ऐसी भी हैं जो सुगन्धित पदार्थों धूप आदि के निर्माण में काम आती हैं यथा गुग्गुल, जटामासी, शम्यो, झूला आदि.

यद्यपि हम उनकी पहचान भूल गये हैं किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं है कि रामायण में उल्लिखित संजीवनी आदि दिव्यौषधियां तथा देवताओं के पेय के निर्माण की आधारभूत सोमलता अभी भी इन क्षेत्रों में उगती हों. इसी प्रकार विभिन्न ऋतुओं में यहां की भूमि का सप्तरंगी श्रृंगार करने वाले ब्रह्मकमल, प्यूली, बुरांस आदि वन्य पुष्प भी इसके प्राकृतिक सौन्दर्य में समय-समय पर चार चांद लगाते रहते हैं.

जीवजन्तु

वनस्पति जगत् के वैविध्य के समान ही यहां पर ज्ञात-अज्ञात नाम वाले जीव-जगत् का वैविध्य भी दर्शनीय है. इनमें एक ओर जहां तराई भावर के वनों में भारी भरकम शरीर वाले नीलगाय, हाथी, चीते, बारहसिंगे, सांभर, सुअर, भालू, चीतल, अजगर, घड़ियाल, मोर जैसे जीवजन्तु विचरण करते हैं वहां पर्वतीय क्षेत्रों में तेंदुआ, लोमड़ी, सियार, कुनियांसियार, भेड़िया, काकड़ (पहाड़ीलाल हिरन barking deer). चट्टानों का पथिक घुरड़ / घुरल/घोल्डा, बन्दर, लंगूर, उच्च हिमालयी पशुवर्गीय जीव तथा शिवालिक श्रेणियों के सघन वनों में रहने वाला राजकीय पक्षी मोनाल, हारीत, चकोर, विरहिणियों का सहचर कपुआ, घुघुती, हरियल, कठफोड़ा, काफलपाको तथा अन्य कई प्रकार के रंग-बिरंगे, विभिन्न आकृति प्रकृति के पक्षी पाये जाते हैं

मौसम

ऋतु परिवर्तन की दृष्टि से अधिकतर क्षेत्रों में यह विभाजन स्पष्टतः बसन्त (मार्च अप्रैल), ग्रीष्म (मई-जून), वर्षा (जुलाई-सितम्बर), शरत् (सित. उत्तरार्द्ध से नव. का पूर्वार्ध) एवं शिशिर (आधे नव. से फरवरी पूर्वार्ध) के रूप में देखा जा सकता है.

वर्षा का अनुपात सामान्यतः 90 से. से 250 से. मी. तक पाया जाता है. महाहिमालय के उस पार की घाटियों में मानसून बहुत कम पहुंच पाते हैं फलतः वहां पर बहुत कम वर्षा देखी जाती है.
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सरिताऐं

कुमाऊं के उत्तर में स्थित हिमालय से निकलकर उसके दक्षिणी ढलानों को अपने जलों से सिंचित करने वाली पूर्वी ढाल की सरिताएँ हैं- काली (शारदा), धौली, गोरी, सरयू, गोमती, कोसी, रामगंगा (पूर्वी एवं पश्चिमी) पिंडर, लिस्सर. इनमें से पिंडर तो कुमाऊं के कुछ क्षेत्र में प्रवाहित होकर फिर गढ़वाल में प्रवेश कर जाती है और पश्चिमी रामगंगा गढ़वाल के जनपद पौड़ी में दूधातोली से उद्भूत होकर कुमाऊं के सीमित क्षेत्र से होती हुई पुनः कालागढ़ में गढ़वाल में ही प्रवेश कर जाती है. काली (शारदा) कुमाऊं तथा नेपाल की सीमारेखा का अंकन मात्र करती है. इस ढाल की नदियों में पश्चिमी रामगंगा तथा कोसी को छोड़कर सभी अन्ततः विभिन्न स्थानों पर काली में समा जाती हैं. ऐसे ही पश्चिमी ढाल की प्रमुख नदियाँ हैं- पिंडर, पश्चिमी रामगंगा, कोसी, गोमती, गगास, पनार, गौला, फीका, ढौर, बौर, दाबका, भाखड़ा, बैगुल, दोहा, नन्धौर आदि कोसी में संगमित होकर अन्ततः उत्तर प्रदेश में फरुर्खाबाद के पास गंगा में विलीन हो जाती है (अधिक विवरण के लिए देखें- तत्तत् प्रविष्टियां).

सरोवर

सरोवरीय दृष्टि से कुमाऊं का नैनीताल जनपद उत्तराखण्ड का सर्वाधिक सरोवरीय जनपद है. कभी इस जनपद में 60 छोटे-बड़े सरोवर हुआ करते थे जिन्होंने इस क्षेत्र को छखाता (षष्ठिखात) नाम दिया था. अब यद्यपि इनमें से अधिकतर या तो लुप्त हो चुके हैं या नामशेष रह गये हैं. फिर भी एक दर्जन से अधिक सरोवर एवं जलाशय ऐसे हैं जो वर्षभर जल से पूरित रहते हैं. जलापूर्ति करते हैं तथा नौका विहार के लिए पर्यटकों को आकर्षित करते रहते हैं. इस प्रकार के नैनीताल मुख्यालय से 20-25 किमी. की परिधि में पड़ने वाले उल्लेखनीय सरोवर हैं- नैनीताल, भीमताल, नौकुचियाताल, नल-दमयन्तीताल, एवं सातताल. इनके अतिरिक्त खुर्पाताल, सूखाताल, मलुवाताल (अब समाप्तप्राय), सड़ियाताल आदि भी हैं. इसके अतिरिक्त नैनीताल मुख्यालय से 72 किमी. में गोनिया (ओखलकांडा) विकासखण्ड में लगभग 4000 फीट की ऊंचाई पर एक किमी. के अन्तराल से दो ताल (लोखामताल एवं हरीशताल) हैं जो दो-दो किमी. विस्तृत हैं. इसी प्रकार चम्पावत जनपद में टनकपुर-पिथौरागढ़ मार्ग पर 30 किमी. पर स्थित सूखीढांग से 5 किमी. आगे 5000 हजार फीट की ऊंचाई पर एक डेढ़ किमी. क्षेत्र की परिधि में विस्तृत एक सरोवर है जिसे श्यामलाताल कहा जाता है. इनके अतिरिक्त सम्प्रति ऊधमसिंहनगर जनपद के अन्तर्गत काशीपुर में द्रोणसागर, नानकमत्ता में नानकसागर भी विशाल जलाशय अवस्थित है.
(Kumaon ka Itihas)

पर्वत शिखर

कुमाऊँ के महाहिमालयी क्षेत्र में इसके शिखरों में नन्दादेवी (7, 816मी.), त्रिशूल (7, 196 मी.), दूनागिरी (6,955मी.), पंचाचूली (6,789मी.), नन्दाकोट (6,759मी.) आदि का समावेश होता है, किन्तु इन उन्नततम माने जाने वाले हिमशिखरों के अतिरिक्त भी कम से कम 3 दर्जन हिमशिखर व हिमद्वार ऐसे हैं जिनकी ऊंचाई 6 हजार मी. से अधिक है जिन्हें निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है –

थरकोट (6099मी.), मैकतोली (6803), नन्दाखात (6611), सुन्दरढूंगा (6663), छंगुज (6322), पवालीद्वार (6663), बलजोरी (5922), कुचिला (6294), नंदाकोट (6881), नन्दाखानी (6020), नंदामानस (6236), नंदापाल (5782), पंचचूली श्रृंखला (1-6355; 11-6904; III 6312, IV 6334; V6437मी.), राजरम्भा (6537), छोटा कैलास (6191), मृगथनी (6855), हरदेवल (7151), त्रिशूल (7074), नन्दाभनार (6236), दङ्खाल (6050), बुर्फघूरा (6334), कलबन्दधूरा (6105), कालगंगाधूरा (6215), छिंगेबे (6559), सूलीतोप (6300) नागलिङ (6041) युङ्ताङतो (5949), नमाचौधारा (6510), सुतिल्ला (6373), इवुवालारी (6059), कितिया (5252), नितलथौर (6236), गिल्डिङ् (5629) सिपू (5629), सिनतीला (6333), त्रिगल (5983). (स्रोत शेखर- अनूप (1993), कुमाऊं हिमालय: टैम्टेशन) हिमद्वार: लिपुलेख (5122मी.) लिम्पियाधुरा (5,533 मी.), नूवेधूरा (5,650मी.) ऊंटाधूरा-कुंगरी-बिंगरी (5564मी.), केओ (5439मी.), बेल्चाधूरा (5,650 मी., नीतिघाटी).
(Kumaon ka Itihas)

प्रो. डी. डी. शर्मा

उत्तराखंड ज्ञानकोष’ प्रो. डी.डी. शर्मा से साभार.

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