भारत के अन्य भागों की तरह कुमाऊं में भी अंग्रेजों ने अपनी कूट-नीति से सारे कुमाऊं-गढ़वाल में अपना अधिकार 1815 तक कर लिया. अपने राज्य की नींव को गहरा करने के लिए, उन्होंने ‘चीनी में लिपटी कुनैन की गोली’ का प्रयोग कर अधिकांश लोगों को अपनी ओर कर लिया. गोरखा शासन से यहाँ की जनता त्रस्त थी. उन्हें किसी प्रकार से गोरखा शासन से मुक्ति मिलने की चाह थी. अंग्रेजों ने इसी भावना को समझते हुए, यहां के प्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ पं. हर्षदेव जोशी को कई प्रकार के आश्वासन देकर, कुमाऊँ में विजय हेतु उनकी सहायता का भरपूर लाभ उठाया, परन्तु यहाँ पर अपना एकाधिकार करने के उपरान्त वे अपने वादों को न केवल भूल गये वरन् उन्होंने पं. हर्ष देव जोशी को दरकिनार कर दिया. अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु अंग्रेजों ने अपनी अद्वितीय प्रशासनिक कुशलता, कूटनीति का सहारा लिया और वे उसमें पूर्णतः सफल रहे.
(Kumaon Commissioner George William Trail)
1815 में कुमाऊं-गढ़वाल विजय के उपरान्त इस क्षेत्र को एक इकाई के रूप में रखा गया जिसे कुमाऊं नाम दिया गया. ई. गार्डनर प्रथम कमिश्नर नियुक्त हुए. प्रशासनिक रूप से गार्डनर के सामने नेपाल व कुमाऊं की सीमा तय करना, टेहरी रियासत की सीमा निर्धारित करना, सारे कुमाऊं में जमीन की नाप-जोप कर राजस्व तय करना, प्रशासनिक कार्य हेतु सुयोग्य कर्मचारियों को नियुक्त करना तथा सीमाओं की सुरक्षा हेतु उचित व्यवस्था व रणनीति तय करना था.
गार्डनर ने शीघ्र ही कुमाऊँ में सात तहसीलें, अल्मोड़ा, काली कुमाऊं, पाली, कोटा, फल्दाकोट व सोर में तथा गढ़वाल क्षेत्र में श्रीनगर व चाँदकोट में स्थापित कर दिये.
इसी समय राजस्व मामलों को शीघ्र निबटाने के लिए गार्डनर ने एक सहायक की मांग की जिससे 22 अगस्त 1815 को जार्ज विलियम ट्रेल की नियुक्ति सहायक कमिश्नर गढ़वाल के रूप में की गयी, जहाँ उन्होंने गढ़वाल का बन्दोबस्त प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया.
एडर्वड गार्डनर को अप्रैल 1816 में नेपाल में पोलिटिकल एजेन्ट बनाया गया तथा उन्हीं की संस्तुति पर ट्रेल कुमाऊँ के कमिश्नर नियुक्त किये गये.
ट्रेल ने गार्डनर द्वारा शुरू किये कार्यों को आगे बढ़ाया. गोरखा काल में जनता पर अनेक प्रकार के टैक्स लगाये गये थे जिससे जनता त्रस्त थी. कृषि कार्य चौपट हो गया था. अधिकांश लोगों ने खेती करना बंद कर दिया. कई जंगलों की ओर भाग गये थे. ट्रेल ने तुरन्त अवैध टैक्सों को बंद करवा दिया. ट्रेल ने चंदवंश से चले आ रहे ग्रामीण क्षेत्रों के बूढ़े, सयानों को अपने वश में करके उन्हें मालगुजारी वसूलने हेतु एजेन्टों के रूप में लगाया. चूंकि ग्रामों में इन लोगों का पूर्व से ही काफी प्रभाव था, लोग कृषि की ओर आकर्षित हुए.
थोकदार-जमींदारों को पूर्व हक मिलने से उन्होंने भी मालगुजारी की वसूली में उत्साहपूर्वक कार्य किया. जिसका परिणाम यह हुआ कि गोरखा काल के अन्तिम वर्ष 1814-15 में जो मालगुजारी केवल साड़े इकावन हजार थी वह 1815-16 में ही लगभग सवा लाख हो गयी. ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में बूढ़े, सयाने, थोकदारों आदि की महत्वपूर्ण सहायता मिल गयी.
गार्डनर के समय में ही पूरे कुमाऊँ-गढ़वाल में नौ तहसीलें स्थापित हो गयी थी. परन्तु ग्रामों तक राजस्व का सीधा सम्बन्ध न था. ट्रेल ने 1819 में पहली बार बारामंडल में नौ पटवारियों की नियुक्ति की, ताकि ग्राम स्तर तक राजस्व का सीधा सम्बन्ध स्थापित हो सके. पटवारियों को तभी से अपने क्षेत्र में पुलिस के अधिकार भी दिये गये.
1815 से लेकर 1837 तक ट्रेल ने कुमाऊँ में सात बन्दोबस्त करवाये, जिसमें 1823 (संवत 1880) का बन्दोबस्त सबसे प्रमुख माना जाता है जिसको अस्सी साला बन्दोबस्त भी कहा जाता है. 1823 के बन्दोबस्त द्वारा कुमाऊँ में 15 व गढ़वाल क्षेत्र में 11 परगने स्थापित किये गये.
ट्रेल ने कुछ ही दिनों के बाद यह अनुभव किया कि अधिक तहसीलें के स्थान पर कुछ और पटवारियों की नियुक्ति से खर्च में कमी आ सकती है, जिससे उसने कमाऊँ में सात के स्थान पर केवल दो तहसीलें अल्मोडा व काली कुमाऊं में स्थापित कर दी. गढ़वाल में दो तहसीलों के स्थान पर एक नये स्थान कैनूर में तहसील खोली गयी. 1821 में पांच व 1825 में सोलह और पटवारी नियुक्त किये गये जिससे मालगुजारी में काफी बढ़ोत्तरी हुयी. 1815-16 की सवा लाख मालगुजारी 1834 में एक लाख पचानब्बे हजार तक पहुँच गयी.
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पटवारी को उस समय केवल 5 रु. तथा कानूनगो को 20 से 25 रु. माहवार वेतन मिलता था. परन्तु ये लोग जिस गाँव में जाते थे, वहीं लोग इनके रहने, भोजन आदि की व्यवस्था भी बिना मूल्य के करते थे. यही नहीं इन लोगों का सामान भी गाँव वालों को निःशुल्क ढोना पड़ता था. इस कार्य को पूरा करने में थोकदार, मालगुजार, बूढ़े व सयाने अपना प्रभाव का प्रयोग करते थे. इसी तरह उच्च अधिकारियों के दौरे के समय भी निःशुल्क सेवा देना गाँव वालों के जुम्मे था, जिसने बेगार प्रथा को जन्म दिया.
पटवारियों, कानूनगो आदि की नियुक्ति उच्च कुल व ब्रिटिश हुकुमत की भक्ति को देखकर ही की जाती थी. कुमाऊँ में अधिकतर जोशी व चौधरी परिवार वालों को तथा गढ़वाल में खन्डूरी व एक दो अन्य परिवार वालों को ही इस पद पर नियुक्ति मिल सकी. यह ट्रेल तथा अंग्रेजों की दूरदर्शिता ही थी. जिसके कारण सदूर ग्रामों तक उन्होंने अपना प्रभाव जमा लिया, परन्तु इसमें जनहित को कोई महत्व नहीं दिया जाता था. मुख्यतः गांवों से समय पर लगान वसूली तथा उनका पूर्ण समर्थन को व्यापक करना ही उनका उद्देश्य था. 1863 तक कुमाऊँ-गढ़वाल में 63 पटवारी नियुक्त हो चुके थे.
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आरम्भ में अल्मोड़ा, कोटा, काठकिंनाव, छखाता व तिमला में पुलिस थाने खोले गये. गढ़वाल में श्रीनगर व कोटद्वार में उपथाना स्थापित किया गया. बाद में इनकी संख्या को कम करके केवल अल्मोड़ा, बमोरी, डिकुली व तिमला पर थाने रखे. श्रीनगर के थाने में संख्या कम कर दी गयी तथा कोटद्वार को मुख्यतः चुंगी वसूली के कार्यों तक सीमित रखा.
1829 में कानूनगो लोगों को मुन्सिफ के अधिकार दे दिये गये. उन्हें ट्रेल ने स्वयं 43 नियम बनाकर दिये जिनकी सहायता से वे न्याय करते थे. 1817 में अल्मोडा में तथा 1827 में पौड़ी में जेल निर्माण आरम्भ हुआ.
नेपाल से युद्ध के बाद उस ओर से किसी हमले की आशंका से अंग्रेजों ने अल्मोड़ा में तोपखाना, नेटिभ इन्फेन्ट्री, हिल पायनियर, इन्जीनियर कोर आदि यूनिटें स्थापित की. चम्पावत में इसी प्रथा की छोटी व्यवस्था रक्खी गयी जो सोर क्षेत्र की ओर भी सुरक्षा की व्यवस्था करती थी. सेना को एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने तथा मुख्य शिविरों में नियमित खाद्य व रसद पहुँचाने हेतु कुलियों व घोड़ों की आवश्यकता पड़ती थी. परन्तु गोरखा काल से ही लोग इस हेतु कार्य करने के लिए आसानी से तैयार नहीं होते थे. काठगोदाम के निकट बमोरी से अल्मोड़ा तक एक बोझ ढोने की मजदूरी केवल आठ आना दिया जाता था. इसी प्रकार के रेट बिरमदेव या सुनिया मंडी से लोहाघाट तक का मिलता था. जबरन पकड़कर लाने पर भी लोग मौका मिलते ही रास्ते से भाग जाते थे. सिविल कार्यों हेतु आसानी से आदमी मिल जाते थे.
ट्रेल ने पूर्व गोरखाकाल की ज्यादतियों को समझकर तथा अधिक दबाव देने के स्थान पर सेना के अधिकारियों को कुलियों के रेट बढ़ाने पर जोर दिया. परिणामस्वरूप दो बार रेट बढ़ाये गये तथा बमौरी से अल्मोड़ा का रेट पौने दो रुपया किया गया. इसी तरह अलग-अलग स्थानों के रेट्स भी बढ़ाये गये. ट्रेल ने कुलियों की आवश्यकता हेतु काफी समय पूर्व कुली एजेन्टों को सूचना देने का सुझाव दिया, परन्तु फिर भी सेना की पूर्ण मांग कभी भी पूरी नहीं हुई. ट्रेल ने इस कार्य हेतु पुलिस को सर्वथा अलग रखा ताकि लोगों में अराजकता की भावना न फैले. ट्रेल तथा अन्य अधिकारियों ने इस बात का ध्यान रखा की कम से कम मजदूरी पर लोग राजी हो जाय. उन्होने उस समय बरेली क्षेत्र में प्रचलित 2 रु. आधा आना प्रतिदिन मजदूरी को भी पहाड़ के लोगों के लिए मंजूर नहीं किया.
सेना को खाद्य आपति हेतु मैदानी क्षेत्र से मजदूरों के द्वारा लायी गयी सामग्री महंगी पड़ती थी. सेना के अधिकारियों ने अपने एजेन्टों के द्वारा स्थानीय रूप से अनाज की खरीद करना आरम्भ कर दिया जो उन्हें काफी सस्ता पड़ता था.
परन्तु इससे स्थानीय रूप से अनाज की कमी पड़ जाती थी जिसकी पूर्ति पर अंग्रेजों ने कभी ध्यान नहीं दिया. 1818 में सेना द्वारा स्थानीय अनाज की खरीद पर रोक अवश्य लगाई गयी परन्तु उनके एजेन्ट स्थानीय अनाज को खरीद कर मैदानों से लाने का बहाना कर सेना को देते थे. जिससे अनाज की यहाँ पर अत्यधिक कमी पड़ने लगी. वैसे ही पहाड़ों में अनाज की पैदावार काफी कम होती है. इस पर अंग्रेजों ने कोई ध्यान नहीं दिया. ट्रेल ने सैनिक दृष्टिकोण से कई झूला पुलों व सड़कों का भी निर्माण करवाया ताकि उनके घोड़े आसानी से आ जा सकें. सेना में अधिकतर नेपाली लोगों को भर्ती किया जाता था. बाद में कुमाऊंनी लोगों को भी लिया जाने लगा.
(Kumaon Commissioner George William Trail)
1815 की अंग्रेज-गोरखा युद्ध में मल्ला महल के भवनों के साथ वहीं पर स्थापित नन्दा मंदिर भी क्षतिग्रस्त हो गये. नन्दा देवी का वार्षिक पूजन व मेला भी बन्द सा हो गया. जनता ने नये मंदिर की स्थापना के लिए काफी जोर दिया. 1832 में मल्ला महल पूर्णतः सिविल अधिकारियों को सौंप दिया गया.
इसी समय ट्रेल के पिन्डारी-मिलन यात्रा (ट्रेल पास) के समय आँखों की रोशनी चली गयी थी. यहाँ के पंडितों की राय पर वर्तमान नन्दा देवी परिसर में शिव मंदिर के पास ही नन्दादेवी का मंदिर बना, पर मूर्ति किले से स्थानान्तरित कर नन्दादेवी मंदिर में स्थापित की गयी. कहते हैं कि इसी के उपरान्त ट्रेल की ज्योति भी लौट आयी थी.
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कुमाऊँ का क्षेत्र नान रेगुलेटेड एरिया होने से यहाँ के कमिश्नर के आदेश ही सर्वोपरि थे. 1816 से कुमाऊँ को बोर्ड ऑफ रेवन्यू कमिश्नर बरेली के अन्तर्गत लाया अवश्य गया परन्तु कुमाऊं कमिश्नर के आदेश सर्वोपरि रहे.
1826 में ट्रेल ने वनों की सम्पत्ति को राज्य सम्पत्ति घोषित करते हुए वनों से लकड़ी आदि लाने पर टैक्स लगा दिया. 1824 में तराई के शाल जंगलों को पूर्णतः संरक्षित कर दिया. कुमाऊं के लोग सैकड़ों वर्षों से (कत्यूरी काल से भी पूर्व से) जाड़ों में अपने जानवरों को तराई- भावर क्षेत्र में ले जाकर वहीं पर कुछ भूमि लीस पर लेकर खेती आदि कर लेते थे. ट्रेल ने इस हक को कायम रखा तथा बाद में तराई-भावर क्षेत्र को रोहिलखंड में मिलाने की योजना को इस हक के कारण कुमाऊं में ही रहने दिया गया, जिस हेतु ट्रेल का योगदान भी रहा.
पहले अल्मोड़े में स्वास्थ्य व चिकित्सा हेतु सेना का डाक्टर ही देख-रेख करता था. 1833 में पहले डाक्टर की नियुक्ति अल्मोड़ा में हुई. 1828 में कुमाऊं-गढ़वाल में ज्वर महामारी से लगभग तेरह हजार लोगों की मृत्यु हुयी थी.
ट्रेल ने अल्मोड़े के साथ ही अन्य स्थानों पर कैम्प लगाकर मुकद्दमे निबटाये. उसने तभी से ग्राम प्रधानों का चलन भी आरम्भ किया जो मुख्यतः कृषि सम्बन्धी व अपराधों की सूचनाएं सरकार तक पहुँचाते थे. अधिकतर यह पद पैतृक रूप से दिये जाते थे.
(Kumaon Commissioner George William Trail)
कुमाऊँ विजय के समय लार्ड हेस्टिंग गवर्नर जनरल के पद पर था जो फैजाबाद से कुमाऊँ की राजनीतिक चालों का संचालन करता था. ट्रेल ने भी उसी नीति का अनुसरण करते हुए उस समय के कुमाऊँ के सर्वोर्वय कूटनीतिज्ञ हर्ष देव जोशी को उनके द्वारा दिये गये सहयोग के लिए बिल्कुल नकार दिया. पहले गार्डनर व बाद में ट्रेल ने यह प्रयास किया कि किसी भी प्रकार हर्ष देव जोशी या उनके कोई सम्बन्धी प्रशासन में न आ सके.
हर्ष देव जोशी को यह आश्वासन अंग्रेजों ने दे रखा था कि गोरखों पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त किसी चंदवशीय परिवार के सदस्य को ही यहाँ की सत्ता सौंप दी जायेगी. विजय के उपरान्त गार्डनर ने पुरानी बातों को बिल्कुल नकार दिया जिसका हर्ष देव जोशी पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे कुछ ही समय उपरान्त स्वर्गवासी हो गये. उनके बाद उनके पुत्र जय नारायण जोशी ने पहले ट्रेल से व बाद में कार्यवाहक गवर्नर जनरल एडम से पूर्व शतों के अनुसार इस क्षेत्र कुमाऊँ को चंदवशीय परिवार को सौंपने का बार बार आग्रह किया, परन्तु कहीं कोई सुनवाई नहीं हुयी. इतना ही नहीं उन्होंने कुमाऊँ के ऐसे परिवारों को प्रशासन में अधिक महत्व दिया जिससे हर्ष देव जोशी की छवि धूमिल हो सके. अंग्रेजों ने हर्ष देव जोशी की छवि को गिराने हेतु इस तरह के रिकार्ड आदि रखे जिससे लोग उन्हें बुरा व्यक्ति समझें. यह विषय वास्तव में गहन अनुसंधान का है जिससे हर्ष देव जोशी के कार्यों का सही मूल्यांकन हो सके तथा अंग्रेजों द्वारा बनाई गयी. उनकी छवि के सम्बन्ध में सही तथ्य सामने आ सके.
(Kumaon Commissioner George William Trail)
-लक्ष्मी लाल वर्मा
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(‘पुरवासी’ के 1995 के अंक से साभार)
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