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एबट माउंट में ख़ब्बीस से इक मुलाक़ात

जी हाँ, ये मुलाक़ात सच्ची है महज़ किस्सागोई नहीं. ख़ब्बीस के मुलाकाती हैं पोलिटिकल साइंस में डी. लिट, दुबले पतले, बड़े पढ़ाकू, घुमक्कड़, हरफनमौला प्रोफेसर ज़ाकिर हुसैन. यारों के यार. इमोशनल हों तो ऑंखें रिमझिम पर उसूल के खिलाफ बात होती दिखे तो साक्षात् बरेली वाला झटका वो भी बीच बाजार.
(Ghost of Abbott Mount Champawat)

1983 में न चाहते उनका ट्रांसफर डिग्री कॉलेज रानीखेत से अचानक ही लोहाघाट हो गया. जी हज़ूरी खून में न थी फ़ौरन ज्वाइन कर लिया पर कई चिंताएं व्याप्त थीं. यू.जी.सी का प्रोजेक्ट जिसका पहला इंस्टालमेंट ही मिला था. नियम ऐसे कि दूसरे कॉलेज को बाकी किश्तें ट्रांसफर होती नहीं थीं तब. फिर कई रिसर्च स्कोलर उनकी रिसर्च का काम. अब ट्रांसफर हुआ है तो चल रहे कामों वाली किताबों की लदाई, कागज पत्तर, सीने सी चिपकी डायरियां, अनगिनत चिंताएं.

परिवार में बच्चों की पढ़ाई उनकी सेहत, बेगम साहिबा के हाथों का खाना. अब वहां कहाँ नसीब होगा. अकेले रहने पर अपने आप को बनाये रखने वाले वह सारे छुटपुट घरेलू नियत वाले काम जिनमें वो कच्चे थे. पैजामे में नाड़ा तक न डाला था कभी. ऐसी परेशानियां पेशानी पे पता नहीं कितनी लकीरें डलवाये. सो तय किया कि अब वापसी के लिए जम कर संघर्ष करना ही पड़ेगा. लिखा पढ़ी में उस्ताद हुए ही. उच्च शिक्षा निदेशालय, इलाहाबाद को कागजी घोड़े दौड़ाने का आगाज तो ट्रांसफर आर्डर मिलते ही कर भी दिया था. 

अब ये जद्दोजेहद लम्बी चलने की नीयत रखती है. ज़ाकिर भाई रिसर्चर और थिंकर के साथ अव्वल दर्जे के प्रकृति प्रेमी भी हुए. तबियत में शायरी थी और दिमाग में किसी भी किसम की कूड़मगज सोच की खिलाफत का बूता भी. लॉजिकल डिडक्शन पर चलना और सुनी-सुनाई बतकही की जड़ काट देने की फितरत भी. फालतू लोगों में घिर चिमगोजियों से बेहतर सुकून से अकेले चलते सोच विचार कर कुछ रच लेने कागज पर अनवांटेड की शक्ल देना उन्हें खूब भाता था नैनीताल और अब रानीखेत रहते दरख्तों की छाँव तले कितनी किताबें, कितने सन्दर्भ ग्रन्थ पढ़ समझ डाले थे उन्होंने.वैसे बरेली वाले हो के भी लगते उन्हें पहाड़ ही प्यारे थे. 

अब ट्रांसफर हो फटाफट चल दिए और लगे लोहाघाट, मायावती, चम्पावत, देवीधुरा, पाटी तो उधर काली कुमाऊं पंचेश्वर तक नापने. तो लो पूरा गुम देश समझ डाला. अफसाने, नग्मे, रिसर्च पेपर लिखना आदत में शुमार हुआ ही तो अब उस जगह के ताने बाने, हिस्ट्री जुग़राफ़िया भी कागज पर उतरने लगा. डायरी फिर भरने लगीं. गोया बेग़म और बच्चों के बिना जहां दिल आधा अधूरा ही धड़क रहा था वहां रोजमर्रा अपने को बनाये बचाये रखने में बड़ी इनर्जी खर्च हो रही थी. पर वो जानते थे कि हर चेंज भले के लिए होता है. अल्ला ताला ऐसे ही दरवाजे खोलता है और इसी यकीन दिमागी कुव्वत और रूहानी ताकत से सारी मुश्किलें और अला बला टाली जानी मुमकिन है. सरकारी नौकरी में ट्रांसफर भी अला बला से कम नहीं.

काली कुमाऊं रोमांचकारी है, इसलिए कि ये हैरतंगेज किंवदंतियों, सनसनीखेज़ पौराणिक गाथाओं और उनसे भी बढ़कर ‘गोरिल’, ‘चौमू’,’हारु’, ‘रनिया’ की कथाओं के साथ ‘भूतिया’, ‘मशाण’और ख़ब्बीस जैसे भयानक, डरावने किरदारों को असली मीठी खींच खींच कर बोली जाने वाली कुमेय्यां में बखान भी करता पाया जाता है . लोग बाग भी गजब के किस्सागो. रूहानी मसले हों, बाणासुर का किला हो या घटोतकच का मंदिर, चंद राजाओं के बखान हों या पीर फकीरों से ले कर कनफटे नाथों के किस्से  और या फिर रात होने पे इन पहाड़ियों में फिरने वाली अतृप्त आत्माओं के साथ कई कई रूप बदलने वाली हूरें . ऐसे किस्से सुनाने और इन्हें सच्ची मानने वाले यहाँ भरे पड़े पाए उन्होंने.अब उन्हें गपोड़िया कहो या किस्सागो वह पहले ही ताक़ीद कर देता कि, ” अब गुरू तुम झसकिया नि हाँ पै! याँ त रोजेकी बात भै यो महराज !”

यही वो इलाका है जहां से चंद राजाओं की तक़रीर शुरू हुई. राजघराने में अभिजात वर्ग के राजपूतों और ब्राह्मणों के सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन की अनूठी हलचलों का गवाह है यह इलाका. जहां इक तरफ महर और फर्तयालों का द्वन्द है तो दूसरी तरफ कुलीन ब्राह्मणों की कुशल वणिक बुद्धि जिसने इस इलाके के साथ साथ बाहर भी व्यापार का जाल फैलाया, ऊँचे ऊँचे पदों पर भी बैठे. ये उन्ही साहसी और जुझारू कुमय्यों की रणभूमि रही जिन्होंने 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के समय तक यहीं से अंग्रेजों की हुकूमत को ललकारा था जबकि कुमाऊं के दूसरे इलाकों से अंग्रेजों की मदद की गई थी.

ज़ाकिर हुसैन, प्रोफेसर साब यादों में डूबे, बहुत कुछ याद करते फरमाते हैं कि लोहाघाट पहुंचा ही था तो वो डी.अफ.ओ साब हैं अपने.हाँ बड़े मिलनसार. पहले तो गर्मजोशी से मुझे बधाइयाँ दी कि कुदरत के नायाब नज़ारे हैं यहाँ, सेहत बन जाएगी डॉक्टर. अब आओ, लगे हाथ तुम्हें पांडे स्वीट्स की वो खेँचुए वाली चाय पिलाऊँ. गाय खूब पालते हैं लोग इधर सो दूध खूब होता है लोहाघाट में. चाय भी दूध में ही उबली थी. पर चीनी नहीं पड़ी थी. प्लेट में रखा था खूब मीठा खोये चीनी को घोंट कर बना खेँचुआ. सब कुछ इतना मीठा कि अरसे तक जबान भी चासनी में नहाने का दम भरती रही. डी.एफ.ओ. साहिब ने अब थोड़ा आगे मोड़ पे बनी दुकान पे कदम बोसी की. बड़ी बातें हुईं यहाँ वहां की. फिर खुद बंगला पान में बाबा जर्दा एक सौ बीस के साथ नब्बे नंबर का किवाम लगवाया लिपटाया. जाकिर साहिब ने सादे पान की ही चाहत की.

आगे अपनी जीप तक पहुँचते कुछ थूकते कुछ गटकते अपनी नौकरी की टफ नेस से भरा एक किस्सा भी सुना गये. बोले ज़ाकिर भाई इक बारिश भरी रात जब रह रह बिजलियाँ कड़क कड़क कर नींद तोड़ रहीं थीं तो जंगलात के दौरे के दौरान मुझे देवीधूरा के डाकबंगले में रुकना पड़ा. खापी कर बारह बजे के बाद झपकी जैसी आई ही थी कि चट्ट कि आवाज आई. हड़बड़ा कर उठ बैठा. लैम्प की लौ बढ़ाई. दरवाजे की ओर देखा. बाहर अंधेरा, बिजली कड़कती तो चमक दिखती. अचानक क्या देखता हूं कि दरवाजे के शीशे से इक काला बड़ा हाथ भीतर आया और उसने दरवाजे की चिटकनी खोल दी. अरे डॉक्टर ज़ाकिर, मेरे भाई जब तक में अपनी दुनाली बंदूक उठाता, वो हाथ गायब. मैं तो सनसना गया. सोचा होगा कोई चवन्नी चोर. मुझे खाया पिया सोया जान पहले शीशा तोड़ा होगा. फिर हाथ डाल चिटकनी खोली होगी. अब दम ख़म आने के बाद जब मौका मुआयना जांच पड़ताल की. तो पाया कि शीशा तो बिलकुल साबुत था. चिटकनी भी लगी थी. पर ज़ाकिर भाई वो बाल मिठाई का किलो वाला डब्बा गायब था जो में अल्मोड़े जोगा साह हलवाई के यहाँ से लाया था. खोला भी न था.

अब डी.एफ.ओ साब ऐसी एहसासे कमतरी की नीयत वाले छिछोरे तो थे नहीं कि वह उन्हें डरा सहमा कर खुद ख़ुशी बटोरें. सो अपने जेहन में ये किस्सा दबा जाकिर भाई लोहाघाट के मंजर, वहाँ के नज़रों में दिल बहलाने लगे. वाह भई. देवदार के दरख्तों से ढका छोटा सा चढाई उतार से नपने वाली खूबसूरत ठण्डी जगह. शहर के बीचों बीच धीमे धीमे बहती रेंगती लहुवती नदी. कहते हैं कि कभी यहाँ देवताओं और असुरों के बीच घमासन युद्ध हुआ था. सब धरती और पहाड़ियां हो गईं लाल. नदी तक में खून बहने लगा तभी उसका नाम पड़ा लहुवती. और रणभूमि कहलाई लहुघाट और फिर लोहाघाट. यहाँ स्टेशन के पार ही मोक्ष धाम, शिव मंदिर. यहीं से विवेकानंद की जप तप भूमि मायावती को जाने वाली सर्पीली सड़क  तो देवीधुरा होते खुटानी बैंड से भाभर ले जाने वाला अलग रास्ता. पहाड़ी साग सब्जी, दाल और मसालों की भरमार खासकर पहाड़ी लाल खुस्याणी या मिर्ची. खूब रसीले खट्ट मिठ सेब.उन्हें ये सब पसंद आने लगा. और इस माहौल में उन्होंने अपनी डायरी लिखनी शुरू की जो कुछ दिन से अटकी पड़ी थी.

रानीखेत सी दिलनशीं नगरी को छोड़ लोहाघाट के रोडवेज स्टेशन पर बहुत सारी उदासी बटोरे जब मैं बस से उतरा तो अगवानी करने मौजूद मिले श्रीमान धन सिंह देव. बस जान पहचान से हुआ परिचय कि मैं ट्रांसफर हो कर आया हूं. बातों ही बातों में तमाम अजनबीपन झाड़ पोंछ उन्होंने मुझे अपना बना लिया. सख्त ताक़ीद भी दी कि जब तक अपने हिसाब का मकान ना जंचे मेजबानी वही करेंगे. असल मानों में ये इक मास्टर का आदर था. 

धन सिंह देव के साथ रहते उनके आतिथ्य में अपनी तमाम चिंताएं भुलाते मैंने शांत एकांत बसेरे की ढूंढ खोज जारी रखी जहां रुकावट में आ गई लिखाई पढ़ाई को मैं फिर से रफ़्तार दे सकूं और साथ ही रानीखेत वापसी की पुरजोर कोशिशें भी जारी रख पाऊं . इसी बीच मेरी मुलाक़ात शहर की रसूख़दार लेडी मीना मेक्डोनाल्ड से हुई जो अपनी उम्र के सत्तर बसंत पार कर भी काफ़ी एक्टिव थीं. उनके दादा जनरल व्हीलर थे जो 1857 के संग्राम में अलाहाबाद में मारे गये थे. उस ग्रैंड लेडी ने तुरंत एस.डी.एम. साहिब से मेरी सिफारिश की और मुझे जिला बोर्ड के डाक बंगले में रहने के लिए क्वाटर मिल गया. 

डाक बंगला, देवदार के जंगल के बीच. और वहां बीती पहली रात. रह रह डी. एफ. ओ के सुनाये बाल मिठाई चोर की याद आती. उस पर शाम होते ही सियारों की आवाज. पहले एक हुss वां होती फिर सामूहिक स्वर क्रंदन. उस पर निपट अकेला बंगला. बस भरोसा तो जोशीजू पर था जो डाक बँगले के चौकीदार थे. शिबजी हनुमान जी और काली मैया के भगत पूरी संध्या पूजा वाले. अब बँगले के साथ ही मेरे पहरेदार पंडित कृष्णानंद जोशी. शाम की फुर्सत में बड़े स्टील के गिलास में चहा भर लोकल बेकरी के कभी नमकीन कभी मिट्ठे बिस्कुट बाहर दालान की टेबल पर रख वह खुद कोने में बैठ जाते और चाय की सुड़ुक मारते. फिर बीड़ी जलतीं दो एक साथ. लम्बा सुट्टा और फिर वह नोंन स्टॉप बोलते जाते . उन्हें पूरे गाँव-शहर क्या गुमदेश तक की ताज़ा तरीन खबरें किस्से पता होते. बस मुख्य हेड लाइन सुनाने के बाद असली कवर स्टोरी में रोज होता तंत्र, मंत्र, भूत प्रेत मसाण का पूरा किस्सा.

मुझे ठंड ठिठुरन के साथ किस्सों की झुरझुरी ओढ़ा कर अब वो पहले संध्या पूजा और फिर रात की रोटी सब्जी पकाने में दत्त चित्त हो जाते. खाली समय में वो अक्सर हाथ में जो हरी काली पत्ती रगड़ते उसका पूरा असर दूसरी बीड़ी के साथ उभार पर आ जाता. फिर उनकी भूतिया बकबकाट जो शुरू होती वो अचानक कोई काम याद आ जाने पर ही थमती. उस दिन उन्होंने ऐबेट माउंट का जिक्र किया. 

ऐबेट माउंट जहां रात को अक्सर अंग्रेजों की आत्माएं घूमती मँडराती. किसी को लाल टोप पहने अंग्रेज का सर दिखता तो कोई बताता कि सर कटा अंग्रेज जो पवन वेग से चलने वाले घोड़े पर सवार यहाँ से वहां उस धार से उस तोक तक खटपट खटपट करता चलता. और भी कई रूप कई भेस वाले भी हैं वहां. कोई सुर्ख सफ़ेद चेहरे वाला जिसकी आँखों की जगह गड्डे हैं तो किसी के चेहरे पर कट का निशान जिससे खून टपकता. लेडी लोगों के भी भूत हैं मास्साब. सुना ये भूतनियाँ बस अँग्रेजी में बलाती हैं, गाली में भी ब्लॉडी फूल सण ऑफ़ बिच फ़क फुक कर चीख मारती अन्तर्ध्यान हो जाती हैं. अब मैं तो मास्साब हुआ काली भक्त-शिव भक्त.ये ऐसे दलिदर अँग्रेजी भूत तो उनके आण-बाण बनने के लायक भी नहीं हुए ना..? खाली झस्का देने वाले घोस्ट होस्ट हुए माट्साब. आप भी अपने पीर फकीर याद रखना.

घोस्ट.. अब्बोट माउंट !कौतूहल के मारे मैं भी न जाने क्या जाना अनजाना समझने अल्ल्सुबह निकाल पड़ा लोहाघाट से छः सात किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ जाने वाली सड़क पर. अब यहाँ ऊंचाई पे एक डाइवरजन रूट है जो और ऊँची पहाड़ी को जाता है. इसी पहाड़ी पे बसी है करीब डेढ़ सौ साल पहले की अंग्रेजों की बसाई बस्ती. यहाँ की दास्तान भी निराली. कोने के मोड़ पे चाय चने छोले की दुकान वाले मुरारी जी ने खूब खींच तान के बताया कि यहीं रहता था कुमूँ में घासों का राजा एबेट. ये सारी मिलकियत उसकी थी. यहाँ चर्च था. बेले हॉल था. रिक्रिएशन हाउस था. डांस-वांस होते थे. फरोक पहन कर नाचतीं थीं मेमें. बैंड बजता था. खूब माल पानी आता था. बहता था. खूब सर्वेंट चाकरी पे होते. उनकी भी मौज होती.पर अब तो उजाड़ है. बस खंडहर बाकी हैं. जहां रौनक थी मस्ती थी वहां पाथर की चिनाई की मिट्टी झड़ने लगी है. चिमगादड़ हैं रात को और दिनमान भर घुघुते घ्घू -घुग्घू करते हैं. अब आपुं बहाँ जा ही रये हो. तो देखदाख शाम होने से पेले ही फरक आना. कोई दगडुआ नहीं लाये साथ. कई लोग आते हैं एक आध संगी साथी लाते हैं वीराने में. साथ ठीक रहने वाला हुआ ऐसी जगह में. अकेले निश्वास ही लगने वाले हुए. अब वहां आपुकों ऊपर वाले बंगले में शेख अल्ली मिल जाएगा. वो कलकत्त्ते वाले सेठ के बँगले का खानसामा. अब बूढ़ा हो गया है पर ठोस दिल वाला है वो.अब सेठ तो साल में एक आध बार कुछ दिन के लिए आता है गर्मी में. दस बीमारी चिपट गईं हैं उसको भी. बाकी चौकीदारी यही करता है शेख अल्ली. चिकण मटण खूब बनाता. मोटी फूली गुद्द पिसुए बेसन की रोटी और वो क्या ठहरी रुमाली रोटी भी. चिकन मटन पुलाओ भी.
(Ghost of Abbott Mount Champawat)

ऊपर वीरान पड़े बँगले में मिल गया शेख अल्ली. पत्थर की उस ईमारत पे धूसर काई लिपटी थी. बाकी सब साज सज्जा बासी पड़ी सी. कुछ फूल भी खिले थे झाड़ियां भी थीं. कई कई किस्म के पेड़-पौंधे क्यारियां थीं. सूखी पत्तियां झड़ गईं थीं उन पर. चलते खसक्क-ख़ासाक्क आवाज आ रही थी. बँगले के पीछे बने आउट हाउस से खाना पकने की खुश्बू का झोंका भी आया. हुक्के से खमीरे की खुशबु भी महकी. शेख अल्ली ने बताया कि वो अलमोड़े से बदलू मियां का तम्बाकू मंगाता है. चिलम रामपुरी है. कलकत्ते का सेठ गुड़गुड़ाता था. अब दमा हो गया उसे. पिशाब की बीमारी भी. ठंड लगाने आता है यहाँ.

कुछ भी कहो बँगले से कुदरत के नज़ारे गज़ब थे. हवा इतनी साफ और हल्की कि लगता था सीधे सोचने समझने वाली किसी नस को वीणा की झंकार की तरह छेड़ छेड़ जा रही थी. मधुमती में मुकेश का गाया और दिलीप साहब पर फिल्माया गीत जेहन पे सवार हो रहा था ये कौन हँसता है फूलों में छुप के, बहार बेचैन है जिसकी धुन पे. अब यहाँ कुछ दिन रुक लिया जाए तो पता नहीं यहाँ की हवा ये फिज़ा क्या कुछ लिखवा दे. सिर्फ पोलिटिकल साइंस लिख़ते पढ़ते तो चैन मिलेगा नहीं. शेख अल्ली ने भी अच्छे मेजबानी की, सब अपने मालिकों की सेवा टहल से उसे अदब के साथ हुनर की तरह मिला था. मैं भी आखिरकार कह ही गया कि बुजुर्गवार मुझे इस बँगले में इस खुले नज़ारों की बस्ती में कुछ दिन रहना है. यहाँ रह किताब लिखनी है कुछ नये ढब की. कुदरत के इतने नजदीक रह ही ये मुमकिन है. 

शेख अल्ली ने एकदम इज़ाज़त ना दी. उसने लोहाघाट आकर मेरे बारे में पूछताछ की. मेरी तमाम हरकतों पर गौर किया. तब जा मुझे खबर भिजाई कि में तारीकी कामों के वास्ते उसके बँगले में कुछ दिन रह सकता हूं. पर कुछ हिदायतों के साथ.जिनमें शाम होने के बाद बँगले से बाहर अकेले निकलने की सख्त मनाही सबसे अव्वल थी. अपने डोलीपने की फितरत के बावजूद मैं सब शर्तों मैं हामी भर गया. कुछ छुट्टियां पड़ीं तो में एबट माउंट के बंगले में आ धमका. साथियों को खबर थी ही.कुछ हरदिल अजीजों ने तमाम तरीकों से मुझे रोकने के भी जतन किए. अपने प्राचार्य थे डॉक्टर डी सी पांडे, उनका मेरा विषय एक ही था राजनीति विज्ञान. बोले ये कहाँ? छुट्टी पे रानीखेत नहीं जा रहे बाल बच्चों के पास? मैं तो निकल रहा हूं नैनीताल. मैंने भी कहा सर वो द्वि ध्रुवीयता में गुट निरपेक्षता वाली किताब का कन्क्लूजन फाइनल लिखना है इसी लिए एकांत में एबट माउंट के बँगले जा लिखने का इरादा है. उन्होंने हूँ कह दिया और में अपने बदलने के कपड़े तौलिया साबुन के साथ डायरी कागज़ ले आ बँगले में आ धमका. बड़ी टोर्च भी रखी. अब कृष्णानंद जोशी जू ने कोई मंत्र नौ या ग्यारह बार पढ़ मेरे दाएं हाथ में कलावा बांधा. घर से बाहर निकलने का टाइम बताया.तो वहीं याक़ूब भई ने तो गंडा ही बांध दिया. वो मेरे शहर के बरेलवी हुए. मेरी एक चेली ने तो मिर्ची राई परख चौराहे पे ऐसी डाली कि मैं तीन चार मिनट छींकता खांसता फिरा. 

लाजवाब रोगन जोश, पतले फुल्के, रायता ककड़ी का राई पड़ा और वो कटलरी जिसमें परोसा गया वो असली मुरादाबादी बर्तन. लम्बे चांदी की रंगत के गिलास और उनका ठंडा पानी. शेख अल्ली कहता रह गया कि पानी पीने का गुनगुना दें पर मुझे तो बस ठंडा ही पसंद. जमीन पे बैठा दरखस्तान बिछा जो पहली दावत हुई तो मन किया कि यहीं बस जाऊँ सेहत दुरुस्त हो जाएगी. पर अभी तो मेरा मिशन कुछ और ही है. आखिर में मिली दूधिया सेवईं. क्या नसीब हैं तेरे ज़ाकिर जो ठंडे पानी में मदहोश हो गया. इस बँगले के मालिक तो इसी सकूँ के लिए कितनी अंगूरियों से लिपटते और वो अंग्रेज दिन रात सिंगल माल्ट गटकते . खा पी लेटा, आँख लगी. पहले से तय था कि रात ग्यारह के आस पास उठ जाऊंगा तब तक शेख और उसका परिवार सो भी जायेंगे. 

बिना खटर-पटर बंगले से मैं बाहर निकल गया. आधे चांद की दूधिया रौशनी थी. आस-पास के कुछ ही बंगलों के क्वाटरों में लोग थे बाकी तो सब वीरान थे. इन बंगलों को पार कर में उस रास्ते पर चलने लगा जो ग्रेव यार्ड की ओर जाता था. पगडण्डी पे बिछे पत्ते मेरे चलने पे चरमरा रहे थे. रह रह के झींगुर सी आवाज कभी तेज कभी मंद हो रही थी. रह रह के कुछ सरसराहट भी महसूस हो रही थी. मैंने ग्रेव यार्ड के पूरे रस्ते की रेकी पक्के तौर पर कर रखी थी बस उधर अब मैं पहुँचने ही वाला था. अब उतार था घास थी. कदम संभाल के चलना था. सोचा थोड़ा ठहर सुस्ता लूँ. दूर चांदनी में दमक रही पहाड़ियों को एकटक निहारूं. ठण्डी सी इस बयार को अपने सीने में भीतर तक भरूं-छोडूं. पर मैं चलता रहा. ग्रेव यार्ड से और बेहतर नज़ारे दिखेंगे.इतनी  रूमानी फिज़ा में खुद को रूहानी सुकून का एहसास होना ही था और इसके साथ ही ख़ाक में आराम फरमा रही रूहों को अपने पे समेटे कब्रिस्तान का ये भूतिया सन्नाटा कुछ और गहराना ही था. कुछ डर भी बना हुआ था तो कलेजा मजबूत रखने का हौसला भी .

जब जी करे घूमने कहीं भी निकल पड़ने की आदत तो मेरी बचपन से ही थी. अब इस लोहाघाट में ये भूत, जिन्न , बेताल, ख़ब्बीस के बारे में जानने की खब्त भी सवार हो गई .अब इसकी पड़ताल को इतने पापड़ बेल भी रहा. इतनी तहकीकात तो बनती ही है कि आधी रात को सुकून से सोने के बजाय बाहर निकल कुछ अनदेखा अनसुना फ़साना हाथ आए.

इतना तो मैं समझ ही गया था कि इस छोटी सी खूबसूरत पहाड़ी में रहस्य रोमांच की फिज़ा है. देवदार के पेड़ हैं. मुंह में कभी हल्की और कभी तेज चपत लगाती सरसराती हवा है.इनके साथ पुराने अंग्रेज़ों के समय के बने बंगलो हैं जिन में से दो तिहाई वीरान पड़े हैं. इनके मालिक लोग सैर सपाटे या तफरी के लिए अभी भी आते जाते रहते हैं और बंगले की देखभाल के लिए अपने ख़ादिम और उनके कुनबे पालने पोसने का रिवाज अभी यहाँ बाकी है. ऐसे ही वफादारों में अपना शेख अल्ली भी है जिसका पठानी डीलडौल अब ढल गया है. आँखों के कोए पीले भूरे हो गए हैं और जबान पै अलीगढ़ी ताला हर बखत लटका रहता है. उससे कुछ राज की बात निकल लेना नामुमकिन ही समझो. बस मेरे पै ये मेहरबानी उसने जरूर की है कि मुझे यहाँ रहने की इजाजत दे दी. अच्छा खिला पिला देता है. तहजीब तमीज का पक्का है. पांचो बखत की नमाज पढता है. अपने स्कूल पढ़ने वाले पोते पोती को शाम के बखत जाजम के पास बैठा स्कूल का काम पूरा करने के बाद ही खेल कूद की इजाजत देता है. मैं भी उन बच्चों से खूब घुल मिल गया. उन्हें कुछ न कुछ पढ़ाता बताता रहता.शायद मेरे कॉलेज मैं पढ़ाने की वह गहरी वजह थी जो शेख अल्ली ने मुझे अपने इस बंगले मैं कुछ दिन रुक जाने की इजाजत दे दी. मुझे भी बदलाव का शौक है जिसमें मैं तरोताज़ा तो रहता ही हूँ मेरी डायरी भी नये नये ख़यालात समेट लेती है. चलो एक फायदा तो ये होगा ही यहाँ रहते कि अरसे से फुर्सत ना मिलने से मेरी अधूरी पड़ी किताब पूरी हो जाएगी. मेरे प्राचार्य डॉ पांडे भी लगातार पूछते हैं. 

सामने ग्रेव यार्ड तक आ गया था मैं. बिलकुल सन्नाटे में कुछ पक्षियों की आवाजें रह -रह उभरतीं. चांद की रौशनी में पुरानी कब्रों में की गई नक्काशी के उभार भी दिख रहे थे रही थी तो सफ़ेद पत्थर पै भूरे पड़ गए अँग्रेजी के हर्फ़ भी. अब जिस क़ब्र के पास मैं झुक लिखे हर्फ़ पढ़ने की कोशिश कर रहा था वो किसी लेडी की थी. मिस…

अचानक ही इस सन्नाटे को चीरती और मेरे होशो हवास उड़ाती चीख़ से मैं सन्न हो गया. किसी जनाना की चीख थी. कर्कश सी आवाज, कुछ कई परिंदे भी जो पता नहीं कहाँ कहाँ अलसाये सोये थे, फड़फड़ा कर उड़ गए. चीख इतने समय तक तक थी की मेरे सर से पाँव तक सिहरन हो गई. सारे बदन पै जैसे लकवा मार गया. उँगलियाँ हिला हाथ टेकने की कोशिश कर रहा था मैं. पर दिमाग को लगा कुछ भी हरकत करने लायक जान नहीं बची है. भाँय भाँय सा कानों में बड़ी देर तक तक कुछ बजता लगा. क़ब्र पर झुके मेरे जिस्म में बड़ी देर तक कोई हरकत नहीं हुई.लगा कि काली काली छायाऐं मेरी ओर बढ़ रहीं हैं . छायाएं जिनमें मैं डूब उतर रहा हूं. किसी के तेज तेज सांस लेने की आवाजें. अचानक ही मुझे लगा कि मेरा बदन एक तरफ ढुलक गया है. चीख का असर मेरे कानों से हो कर मेरे पूरे बदन को झनझना गया है. पता नहीं पांव कहाँ पड़ रहे. हाथ क्यों किसी हरकत के लायक नहीं रह गए. 

फोटो: सुधीर कुमार

आखों पर सीधी धूप पड़ी. देखा तो सामने शेख अल्ली था. उसके बड़े खुरदरे हाथ में चाय का गिलास था. उसकी गंदलाई सी आँखें मुझे घूर रही थीं. झटके से उठ मैंने चाय का गिलास थामना चाहा पर बदन बहुत टूटा था. गिलास थाम पास की मेज पर रख मैं धीमे धीमे गुसल की और गया. रात में पहना बंद गले का कोट, स्वेटर पेंट सामने अलगनी पे टंगे थे. बाहर जूते रखे थे जिनमें कीचड़ लगी थी. गुसल के कोने में मेरी जुराबें पड़ीं थीं मिट्टी से सनी थीं. चीख के बाद उस क़ब्र की तरफ ढुलक जाने के बाद क्या हुआ, कुछ भी याद नहीं. 

जरुरत से ज्यादा देर लगा जब हाथ मुहं धो मैं कमरे में लौटा तो शेख अल्ली की छोटी बेटी चाय का ग्लास गरम कर मेज पर रख चुकी थी. भीतर अभी ठंड थी. चाय का गरम गिलास उठा मैं बरामदे में आ गया. वहां आराम कुर्सी रखी थी. पटखाट थी जिसपर शेख के नाती -नातिन कॉपी पे झुके लिखने में जुटे थे शायद होम वर्क पूरा कर रहे थे. खट्ट -खट्ट की आवाज आ रही थी. शेख लकड़ी का बड़ा गिंडा फाड़ रहा था.. मेरी चाय ख़तम होने तक वह दोनों हाथों में फाड़ी लकड़ी थामे रसोई में घुस गया . मैं वहीं कुर्सी में बैठ आँख मूंद धूप के मजे लेने लगा. सिर अभी भी भारी था और दिमाग में बहुत सारे सवाल. 
(Ghost of Abbott Mount Champawat)

आपको सोये में चलने का रोग है क्या मास्साब. रात देखा आपके कमरे की बत्ती जली है और आप न कमरे में और न गुसल में.बाहर गेट अधखुला. टॉर्च ले पड़ोसी भिमदा को ले ढूंढ खोज की आपकी तो अढ़ाई घंटे लगे पूरे. आप तो वहाँ लेडी मेहरु की क़ब्र में झुके पड़े थे. नीमबेहोश. कहा था आपसे मास्साब. यहाँ रात अधरात इधर उधर चलना जाना ठीक नहीं. क्या कुछ हो जाता है. कोई चीखता भी है क्या? कोई औरत जैसे कलेजा फट रहा हो उसका?

आपने सुनी चीख !खुदा का करम समझिये कि नींद में रहे होंगे. कुछ दिखा नहीं.अक्सर सुनाई देतीं हैं चीख! और भी बहोत कुछ. चलिए नाश्ता लगा देता हूँ. आप भी कॉलेज जायेंगे. बच्चों का भी स्कूल टेम हो रहा. शाम होने से पहले ही आ जाएं, जब तक यहाँ रहें. 

दूसरी शाम जल्दी ही लौट अबॉट माउंट के कई वीरान पड़े बंगलो के चक्कर लगा आया. ज्यादातर वीरान थे. रखरखाव कि कमी से बदहाल. अब रात का इंतज़ार था. सो खा पी अपने एक अधूरे आर्टिकल को पूरा करने में लगा दिया. पहाड़ में रात ढलते ही खापी सब जल्दी सो जाते हैं पर मेरे लिए रात का एकांत लिखने पढ़ने का माकूल वक़्त होता है. बाहर रह-रह कुत्तों के भोंकने की आवाज़ आती. कुछ पक्षी तो रात भर कुइ कुइ क्वां क्वें करते रहते ऎसी भी आवाज आती कि कोई लगातार किसी लकड़ी को कुतर रहा है. अब मैंने घड़ी देखी तो सवा ग्यारह बज गए थे. और बस मैं अपनी मुहिम के लिए एकदम तैयार. दबे क़दमों से बाहर निकल अपने कमरे की सांकल चढ़ा अब मैं सीधे अब्बोट के बेऱक नुमा उस बहुत बड़े से बंगले की तरफ चल दिया जिसके लान में देवदार के दो बड़े पेड़ थे. पीतल की दो बड़ी प्लेट उन पर जड़ी थीं जिन पर एक में अब्बोट का और दूसरे पर मिसेज़ अब्बोट का नाम खुदा है. इतनी रेकी मैं शाम होते ही कर चुका था.

अभी मंजर बहुत बदला सा था. चाँद अपने शबाब में था और बादल चल रहे थे. सामने आते बंगले अपनी पुरानी पड़ गई दमक में भूरी मटियाली रंगत बिखेर रहे थे. हवा की सांय सांय एक सर्द सी लहर हाथ और चेहरे पे महसूस करा रही थी.इस स्याह सुफेद हलचल में पहाड़ियों से देवदार के आस पास उग गई अनगिनत झाड़ियों से आती हवा उदास से किसी गीत का पार्श्व संगीत बजा रहीं थीं. फिर बड़ी देर तक सन्नाटा भी हो जाता. किरकिर चिर चिर कट कट की अस्फुट सी कुछ ध्वनियाँ. हूँSS की आवाज भी गूंजने लगती. शायद उल्लू होगा. कुछ फड़फड़ाने फिर सिमट जाने सा स्वर. सामने के कुछ बंगलों में धीमी टिमटिमाती पीली सी रौशनी. एबट का बंगला अभी कुछ क़दमों के फासले पर था. उससे पहले के बंगले में रौशनी खिड़की से बाहर आ रही थी, दालान में बल्ब टिमटिमा रहा था. झूलते तार पर उसका शेड हवा के साथ धीमे-धीमे हिल रखा था. मुझे ऎसा लगा जैसे खट से कोई दरवाजा खुला और खट खट खट के तेज क़दमों की आवाज के साथ एक छाया भीतर चली गई. हां वह कोई जनाना थी जिसके बाल लहरा रहे थे. मैं और कुछ कयास लगाता कि एक और साया गेट के भीतर दाखिल हुआ और तेज क़दमों से दरवाजे के भीतर बंगले मैं दाखिल हो गया. अब कुछ कहासुनी के बाद रोने की आवाज आने लगी. साफ जनानी आवाज, रह रह कर सुबकियां और रोना कुछ और तेज होता गया. कुछ पल बीते, लगा कि भीतर से कुछ और भी आवाजें आ रहीं हैं. कोई चीख चीख कर कुछ कह रहा था. रोना भी इनके बीच उभरता. फिर अचानक ही आवाज सुनाई देनी बंद हो गयीँ.एक जोर की भड़ाक के साथ दरवाजा बंद हो गया. खिड़कियों के शीशों में परदे पड़े थे. ऊपर के रोशनदान से भीतर जले बल्ब की रौशनी झाँक रही थी. मैं दम साधे कुछ और होने के इंतज़ार में था. कुछ खटपट की आवाज हुई और फिर बंगले की रौशनी बुझ गयीँ. फिर भी उसके भीतर के कमरे की धुंधली पीली रौशनी अभी बाकी थी. मैं भी बहुत सारे सवाल समेटे खरामा खरामा अपने कमरे में लौट आया.
(Ghost of Abbott Mount Champawat)

सुबह चाय की चुस्कियों के बीच शेख अल्ली को मैंने पिछली रात का वाक्या तफ्सील से सुनाया. शेख बहुत देर खामोश रहा. उसके चेहरे पे कुछ बेबसी थी. पेशानी पे उभरी लकीरें उसकी बेचैनी जता रहीं थीं. आखिरकार खंखार कर सर झुकाये अपने चौड़े मजबूत हाथों की उंगली से फ़र्श पे लकीर खींचते वह नाराजगी से बोला, अअsअ अब आपसे क्या पर्दा. उस्ताद हैं, तालीम के हर बात की पकड़ है आपको. यहाँ जो है सब नापाक होते जा रहा है. कुछ यहाँ की वीरानियाँ का खौफ है और कुछ इस वीरानी में गुपचुप चलने वाला हिसाब. ये बंगले अब ढेर पैसे वाले लोगों ने खरीद लिए हैं. आते हैं देर सबेर, शाम ढले. शराब कबाब के साथ. कहाँ कहाँ की कमसिन छोकरियां भी ले आते हैं.बड़े बड़े लोग आते हैं.अफसरों की गाड़ियां यहाँ शाम रात आतीं और सुबह सबेरे निकल जातीं हैं. जश्न रहता हैउनका. जो पकाना बनाना होता है हम कर देते हैं. इनाम मजूरी मिल जाती है. हम तो मुलाज़िम हुए पर अपनी बहू बेटी नाती पोते इस माहौल में रखने को दिल गवारा नहीं करता . बस अल्लाताला कभी तो यहाँ से निकलेगा यही उम्मीद रहती है.

ऐबटमाउंट पर आत्मा रूह अँधेरे और सनसनी का रूहानी सफर जैसे जिस्मानी क्लाइमेक्स पर टंग गया. शेख अल्ली को अलविदा कह मायूसी समेटे मैं डाक बंगले लौट आया. 

डाक बंगले का माहौल कुदरत की बेइंतहा खूबसूरतवादियों से रूबरू करा मुझे खूब लिखते रहने का जूनून दे रहा था. इसी रौ में मुझसे एक दिमाग को सुकून देने वाला काम करा गया. जैसा मैंने आपको बताया कि लोहाघाट पहुँचते ही मेरा इस्तक़बाल धन सिंह देव से हुआ जिन्होंने एक अजनबी मुसलमान को किसी की परवाह किए बगैर अपने घर टिका सिरफ मेहमान ही नहीं बनाया बल्कि एक ऐसे रिश्ते को जनम दिया जहां कोई लेन देन नहीं था. कोई प्रोफेशनल आचरण नहीं था. था तो बस ऎसा चुम्बक जो देवगुरू की शख्शियत से मुझे खींचे जा रहा था.उनमें स्वामी विवेकानंद को जानने समझने का जूनून था. तो कितनी बार उनके साथ मायावती आश्रम जाते रहने का दौर चला. मेरी जो किताब इस संगत से उभरी उसका उनवान था, ‘कम्युनल हारमनी एंड द फ्यूचर ऑफ़ इंडिया ‘ जिसका निचोड़ स्वामी विवेकानद का यह कथन था कि भारत का भविष्य संरक्षित है उसे बस हिन्दू की प्रज्ञा और मुसलमान का दिल चाहिए. कहाँ मैं जिन्न बेताल भूत खबीस की बातों में किसी की कुछ न सुन कुछ रहस्य जुटाने के फेर मैं था पर यहाँ तो मेरे दरवाजे खोल देवगुरू ने जैसे मुझे स्वामी जी का चेला बना अचानक ही एक नई किताब लिखवा दी. 

कॉलेज में भी माहौल बेहतर होता गया. प्राचार्य डॉ डी सी पांडे सहृदय प्रशासक थे, पोलिटिकल साइंस यानि मेरे ही विषय में डी लिट थे. कहते थे बच्चों को हमेशा बिजी रखो. कॉलेज में खूब एक्टिविटी होते रहें. बस फिर कोई प्रॉब्लम नहीं.वह अपनी नौकरी में कभी अपने परिवार के साथ नहीं रह पाए इसलिए मुझ जैसे के दर्द को समझते थे. मैं भी यहाँ कॉलेज की कई कमेटियों का इंचार्ज बना. अपना लिखना पढ़ना भी जारी रहा. बीच में छुट्टियों में रानीखेत जा अपने परिवार से भी मिल आता हालांकि ये यात्रा बहुत थका देती. 

लोहाघाट महाविद्यालय यूँ तो स्नातकोत्तर था पर विषयवार स्टॉफ की कमी थी. कभी पोस्ट स्वीकृत न होना कभी ट्रांसफर के प्रतिस्थानी का न आना इसलिए बी. ए व एम.ए की सभी क्लास लेने में पूरा दिन निकलता. फिर हर सांस्कृतिक खेलकूद की गतिविधि में भी कहीं न कहीं जुड़ाव हो ही जाता. अब फिर से रूहानी हलचल से मुझे रूबरू कराने की हरकत उस रात हो ही गई. वाक्या एन एस एस कैंप का है जो पास के ही गाँव में लगा. शिविरार्थियों के ठहरने के इंतज़ामात गाँव के मंदिर में की गई. दो दिन सही गुजर गए पर तीसरी रात खाना खाने के बाद गाने बजाने का दौर चल ही रहा था कि कई छात्र अचानक बड़बड़ाने लगे. फिर उन्होंने नाचना शुरू कर दिया. छात्राओं के सर भी एक सी लय में हरकत करते हाथ पाँव कंपकपाते झूमने नाचने लगे. चपरासी नारायण दत्त बोला,ये तो मसाण लग गया है इसके लिए तो मंतरुआ बुलाना पड़ेगा. सब दौड़ भाग में लगे. आखिर कार टोपी धोती बंद गले के कोट में लदे भरी भरकम पंडित पधारे. जिनके आसानी से समझ में न आने वाले मन्त्रों और आग में डाली गई आहुतियों से एक छात्र के भीतर घुसा मसाण क्रोध भरी आवाज़ में ललकारा, ‘चमड़े की पेटी अटैची देबता के थान में क्योँ लाये? मंतरुआ ने मनाया, थाली में धरे चावल हवा मैं उछाले. तमाम लोगों पे वारे. पूजा देने की बात की.तब जा मामला सुलझा. कुछ देर बाद विद्यार्थी अपनी पुरानी हालत में लौटे. पहले भी इस तरह के किस्से सुने पढ़े थे. मैं यही मानता था कि ये मास हिस्टीरिया जैसा कुछ है पर देखा यहीं पहली बार. सबको एक साथ उठता कम्पन, चीख पुकार, दहशत से फटी आँखें, अजीब सा पगलैट पना, चावल के वार, किसी रूह जैसी ताकत से गुफ्तगू और फिर सारा मामला रफा दफा. 
(Ghost of Abbott Mount Champawat)

सब कुछ मामला अपनी डायरी में नोट कर लिया और लोगों से तरह तरह की सुनी बातों का लब्बोलुआब निकलने की कोशिश करते रहा पर नतीजे में फिर कुछ सवालों के और कुछ न जमा कर पाया. अब फिर एक ऐसा वाकया हो गया कि मैं और उलझन में फंस गया. हुआ यह कि अगली ही शाम लोहाघाट की पुलिस चौकी वाली सड़क से कुछ दूर एक आशियाना है जहां कई मुस्लिम परिवार रहते थे. बस शाम की सैर मैं उसी रस्ते से गुजर रहा था कि वहां भारी भीड़ जमा थी. तेज क़दमों से आगे बढ़ा ऊपर उधर कि ओर देखा जहां सबकी नज़र टिकीं थीं तो अजब मंजर पाया. वहां मकान की बालकनी पे लगभग कूदने की जद्दोजेहद में एक शख्स थे वो तो ऊपर वाले की रहमत कि अगल बगल पड़ोसियों ने उनको थाम लिया था. एक टांग फारुख ठेकेदार के हाथ की जकड़ में थी. यह कूदने को बेसब्र निहायत ही भला मानुस अपनी ही बिरादरी का जूनियर इंजीनियर था. देखते ही देखते उनकी घेराबंदी कर ली गई और नीम बेहोशी की हालत पर उन्हें चारपाई पे लिटा दिया गया. कोई पानी के छींटे मार रहा था तो एक के हाथ में अख़बार था जिससे वो हवा फेंकने की भरपूर कोशिश कर रहे थे. दो तीन शख्श डॉक्टर डॉक्टर की बात करते दिखे और एक उनके पाँव से जुराबें उतार सीने तक गाँधी आश्रम वाला कम्बल ढका चुका था. बाकी जो चिमगोइयाँ हो रहीं थीं उनमें पहले उनके तलाक का मसला उभरा तो दूसरी आवाज ने बताया की वो तो बिचारे कुंवारे हैं. मेरे साथ फारुख साहिब बतियाने लगे जिन्होंने चारमीनार सिगरेट के लम्बे कश के साथ निहायत ही खौफजदा बेचैनी भरे लहजे में मुझे बताया कि ये सब किसी खब्बीस रूह के असर के आसार हैं. तभी बेहोश इंजीनियर की खाला रोती कलपती वहां आ पहुंची और मोहल्ले की तमाम औरतों के बीच खुसपुस होने लगी. बाद में आने की सोच मैं फिलहाल वहां से लौट आया.

पहाड़ मैं अंधेरा भी जल्दी घिरता है. लोगबाग जल्दी खा पी सो भी जाते हैं. मैं भी खाना खा कर जे ई के घर चल दिया. मेरे पडोसी भी साथ हो लिए. वहां पहुंचे तो पाया कि मोहल्ले के कई नामचीनों के साथ फारूख साहिब इंजीनियर की बदरूह निकलने की तैयारी में हैं. आख़िर वह बरेली की खानकाहे नियाजिया के मेंबर थे और अला बला जादू टोना उतारने की प्रैक्टिस को बेताब भी.

लोबान की खुशबू माहौल मैं तैर रही थी. कई दाढ़ी जारों के हाथ में तस्बीह थी. कुछ उस पर हाथ भी फेर रहे थे. अब फारुख साहिब ने कुछ ग़ैबी ताकत वाले जुमले बुदबुदाने शुरू किए. रह रह इन्हें बोल वो फूकते जाते और फिर उन्होंने अपने हाथ में एक काली जूती पकड़ी और लगे जे ई के बदन पे मारने. जे ई भी जूतियों की मार खाता रहा और अकड़ा रहा. इधर अला बला के मंतर बढ़ते गए. जूती की मार भी चटचटाने लगी. आखिरकार जैसे रूह तिलमिला गई. अचांचक इंजीनियर बोल पड़ा. उसकी टोन ऐसी जैसे अंग्रेज टूटी फूटी हिंदुस्तानी बोलते हैं 

“मेरा घर पर रहने आता. शिवाला के पास का घर मेरा. ओनली माइन अंडरस्टैंड. वहां कब्जे को आता. तभी मैं सवार होता. यू ब्लडी इंडियन “

जे ई बदहवास था. उसकी आवाज, उसका सुर, बोलने की टोन बदल गई थी. ये सब सुन फारुख साहिब ने फिर से जे ई पर जूतों की मार और तेज कर दी. फट चट्ट होती रही. अब जे ई के भीतर घुसा अंग्रेज चीख मारने लगा.एक लम्बी चीख के बाद जे ई की गोल गोल घूमती आंखे जिनके कोए लाली से भरे दिखते थे मुंदने लगीं और मुंह से झाग निकलने लगा. फिर अधमरे से वो लुढ़क गए.

फारुख साब ने अगली ही सुबह विभाग के कुछ सहयोगियों के साथ जे ई साहिब को उनके पुश्तैनी घर जो बरेली के पास था भिजवा दिया. मुझे भी सुकून मिला कि जो पगलैट पना वह दिखा रहा था वह बरेली के अस्पतालों में निकल जाएगा. ऐसे मरीजों के लिए वहां पागलखाना फेमस हुआ ही. इमोशनली कमजोर लोग इधर उधर की बातों में जल्दी आ जाते हैं फिर जे ई रहता भी अकेला था. गुम्मा सा रहता अपने में खोया. ऐसे में सिजोफ्रेनिया या मेनिया जैसा कुछ डेवेलप होना कोई हैरत की बात नहीं. 

यही बात मैंने इस वाकये से दहशत में आ गए लोगों से की तो वो न माने. उन्हें तो बस गैबी ताकतों पे ही भरोसा था. रह रह मुझमें एहसासे -कमतरी का घेरा बढ़ने लगा कि इल्म का उस्ताद और प्रोफेसर होने के बावजूद लोग लॉजिकल बात पे यकीन नहीं करते.ये तो अपने ही मकड़ जाल में कैद हैं. बस जिन्न बेताल खबीस की गिरह से आगे निकलना ही नहीं चाहते. कुछ भी हो मुझे ये घेरा तोडना ही होगा. 
(Ghost of Abbott Mount Champawat)

ऊपर वाले ने ऐसे दरवाजे खोले कि इंटर कॉलेज में उर्दू के टीचर हाफ़िज याक़ूब साहिब मेरे फलसफे को सही मान कर चले. हाफ़िज साहिब ईमान धरम के पक्के, उस पर कुरान हाफ़िज. इसलिए कमजोर दिमागों में रह बस गए डर और शक को दूर करने की मेरी मुहिम में वह मेरे रहनुमा बने. वैसे भी इस्लाम में ये माना जाता है कि जो पाक रहता है उस पर बदरूहों का कोई असर नहीं पड़ता. मेरी बातों पे गौर कर हाफ़िज साहेब ने हमकदम रहने का वादा किया और एक वादा मुझसे भी लिया कि मैं कायदे से नमाज पढूं जिससे मेरे इरादे और मजबूत रहें, अल्लाताला का रहमो करम बना रहे. 

अब ये इरादा किया कि उसी शिवाले के पास वाले मकान को किराये पे लिया जाए जहां उन जे ई साहिब पे डर सवार हुआ था. ये जो शिवाले के पास वाला मकान था वहां पास मैं ही कबीर पन्थियो का कब्रिस्तान था. कबीरपंथी मुर्दों को जमीन में गाड़ते हैं और क़ब्र को पत्थरों से ढक देते हैं.आस पास कंटीली झाड़ियां और झाड़ झंकाड़. पास में ही बहती लोहावती नदी और शिवालय के बगल मैं सटा हुआ मरघट. अब इनसे कुछ ही दूरी पे वो मकान जो अच्छा भला था बस आस पास का माहौल वो सुबह सुबह मंदिर कि घंटियों, भक्तों कि प्रार्थना के साथ राम नाम सत्त की आवाजों से मुहं अँधेरे तक इसी माहौल से सरोबार रहता तो रात जाने अनजाने परिंदों और सियार की हुवाँ हुवाँ की  के रुदन से गूंजते रहता.फिर उनके पीछे बस स्टेशन में आराम फरमा रहे दर्जनों आवारा कुत्ते पड़ते. इसे लोग बाग यहाँ कुकुरियोल कहते.

कुछ करीबियों को भनक लगी कि मैं इस भूतिया माहौल वाले मकान में रहने जा रहा हूं तो बड़ी खानाफूसियों और चिमगोइयों का समा बंधा. लोग बाग़ अजीब सी नज़रों से मुझे तकने लगे. कॉलेज मैं भी एकदम हवा फैली तो मेरी खैर खबर कुछ ज्यादा ही ली जाने लगी. आखिरकार मकानमालिक से बात पक्की होने के बाद सौ रुपये माहवार के किराये पर वो मकान मुझे मिल गया. अपनी खाट पटखाट ले मैं उस सुनसान बसेरे में दाखिल हो गया. हां नये गृह प्रवेश की दावत भी हुई.लोहाघाट की मिठाई भी. प्राचार्य भी आए और मेरे महाविद्यालय के सहयोगी भी. देर शाम को याक़ूब साहिब भी आ गए. उनके साथ बैठ कर नमाज पढ़ी गई.मैं यहाँ के खूब खूब शांत हवादार और कुछ जरुरत से ज्यादा वीराने माहौल में अपने लिखने पढ़ने के काम को और रवानगी देना चाहता था और साथ ही वो सारे तजुर्बे भी करना चाहता था जो लोहाघाट आते ही मेरे से चिपक तो रहे थे पर कुछ होने के फेर में फिसलते भी जा रहे थे. 

नये घर में चीजों को करीने से रखते थकान से बिस्तर पर पड़ते ही नींद हावी हो गई और दो एक घंटे बाद ही उचट भी गई. गला सूख रहा था. सारा बदन पसीना पसीना. उठ कर बैठने की कोशिश की तो कमर सीधी करने में रीढ़ की हड्डी में कड़कड़ाहट हुई गर्दन में भी दर्द हुआ. बाहर भीतर घुप्प अंधेरा. टेबिल पर टोर्च रहती थी पर आज नये घर में आने के फेर में निकल कर रखना ही भूल गया था. हां माचिस जरूर थी. अभी लाइट के स्विच की भी सार नहीं पड़ी थी. था भी वह दरवाजे के पास. पानी की प्यास लगी थी सो एक तीली जलाई. वो भी कम्बख्त सीली थी आखिरकार एक जली . स्विच तक पहुँचते बुझ भी गई. स्विच भी कम्बख़त गोल ढिबरी सा पीतल वाला ठोस और इतना कड़ा कि उसे औन करने में आधे मिनट तक तो मुझे मशक्क़त करनी ही पड़ी.

अब साठ वाट के बल्ब की पीली रौशनी थी. ठण्डी हवा के झोंके बंद खिड़कियों के बावजूद न जाने कहाँ से रह रह कर बदन में सुई चुभा रहे थे. लोटे में रखा पानी गिलास में डाल एक ही घूंट पिया कि जोरदार छींक आयीं. लगता है जुकाम का अटैक हो गया है. कल से जुशान्दे का काढ़ा पीना पड़ेगा. टोर्च अटैची से निकाल सिरहाने दबा बिस्तर में घुस गया. रजाई के भीतर गरम लोई डाल ली. अब बाकी सब ठीक पर नींद गायब. कभी सीधे सोने पर तकिया चुभने लगता.करवट लूँ तो सांस की आवाज आए आखिरकार दोनों हाथ की उंगलियां जोड़ सर के नीचे रख लीं. कभी अपनी किताब के बारे में सोचूँ. रह रह रानीखेत याद आता. बच्चे बीबी चिलियानौला की छोटी सी बाजार. खड़ी बाजार.हैड़ाखान मंदिर में आत्मा परमात्मा की खोज में आये विदेशी. बाबा कालू सैय्यद की मजार. पता नहीं ट्रांसफर कब होगा. आँखें बंद किए यही सब सोच रहा था कि चिड़ियों के चहचहाने की आवाज आई. लो ये तो सुबह हो गई. 

तरोताजा सा उठा. सभी काम धाम निबटाये. नई जगह नये घर में नाश्ता कर कॉलेज जाने का समय इतनी जल्दी गुजरा कि मुझे अपने अति व्यस्त होने का दिली अहसास हुआ और घरेलू कामों में ढीला पड़े रहने की अहसासे कमतरी गायब होने लगी. अपनी ओर से खूब स्मार्ट बन बैग पकड़ कॉलेज की चढाई चढ़ते जिनसे भी दुआ सलाम हुई उन्होंने रात का हाल कैसे ना कैसे पूछ ही ही लिया. फिर मेरे मुंह से मेरे ठीक ठाक होने के जवाब से मुझे सलामत रहने की दुआएं भी दी. 

लो भई ये तो पूरा महीना गुजर गया. जिस थ्रिल के चक्कर में इस नये भुतहा में मैंने कदम रखे वो तो सिरे से गायब हो गया. तभी उस शाम ढले जब याक़ूब साहिब मुझे जंगल के रस्ते घर तक छोड़ने मेरे साथ चल रहे थे तब मैंने उनसे कहा कि ये खब्बीस तो लगता है कि हमसे डर गया है इसलिए क्योँ ना मैं अब वापस डाक बंगले में ही रहने लगूँ. महीना भी पूरा होने वाला है.इसलिए ये दूर दराज का वीराना मकान छोड़ ही देता हूं. क्यों हाफ़िज साहिब, यहाँ का खब्बीस भी हमसे डर कहीं और भाग गया है, क्योँ?

हाफ़िज साब से ये गुफ़्तगू हो ही रही थी कि बिलकुल करीब से हंसी की आवाज सुनाई दी . जिधऱ से आवाज आई उधर को हाफ़िज साब ने तीन बड़े सैल वाली अपनी जीप टोर्च की रौशनी घुमाई तो देखा कि सामने पेड़ की जड़ से सट कोई अधलेटा पड़ा था.थोड़ा झिझकते सहमते हम उसके पास पहुंचे. बेतरतीब सी लम्बी उलझी दाढ़ी और सर पर जटाजूट जैसे बिखरे बाल. इनके बीच भूरे पीले कोयों से बाहर को ढुलकती काली बड़ी बड़ी आँखें. हाफ़िज जी ने टोर्च बस जैसे उसके चेहरे पे फोकस कर दीं थी और अपनी जगह पर वो बस लट्ठ की तरह खड़े हो गए थे. मैं ये नोट कर रहा था कि वो शख्स बस हमें घूरे जा रहा और उसकी पलकें झपक तक नहीं रहीं थीं.
(Ghost of Abbott Mount Champawat)

अचानक ही याक़ूब साहिब ने मेरा हाथ कस के पकड़ लिया. मेरा ध्यान हटा तो मैंने याक़ूब साहिब की ओर देखा. उन्होंने ठोड़ी दायीं तरफ घुमा मुझसे चलने का इशारा किया. और मेरे हाथ को अपनी ओर खींचा ,मैंने महसूस किया कि उनके हाथ जरुरत से ज्यादा ठंडे पड़ रहे थे. याक़ूब साहिब कुछ बुदबुदाने लगे थे और मैं भांप गया कि वो आयत -अल -कुर्सी कुरान की एक सूरत थी. मैं भी दरूद शरीफ़ बोलने लगा और हम दोनों की चाल गिरते पड़ते ही सही तेज हो गई. पीछे से कुछ गों गों जैसी आवाज आती रही जो हमारे क़दमों के नीचे आए सूखे पत्तों की खर्र खुर्र के साथ अजीब सिहरन पैदा कर रही थी और साथ मैं वही टी टी टी टी टिर्र टिर्र वाली ध्वनि भी जो किसी कीड़े की होती है या पंछी की, मुझे नहीं मालूम.

अपने घर का ताला खोल भीतर घुस सांकल और सिटकनी चढ़ा लाइट जला याक़ूब साहिब से जो पहला सवाल मैंने बड़ी बेसब्री से पूछा कि क्या वो कोई बदरूह थी? डरे सहमे से चेहरे को नीचे की ओर लुढ़का उन्होंने सहमति जताई और फिर कई एक सेकंडों के बाद बड़ी मरियल सी आवाज में बोले हांss. हाफ़िज साहेब कुर्सी पे अधलेटे से पड़ गए और उनके चौड़े कंधे कुछ आगे को ढुलक लटक भी गए.

अब मैं भी यह सोचने पर मजबूर था कि टोर्च की तेज रौशनी उसकी आँखों पर लगातार पड़ने के बावजूद भी वह एकटक हमें घूरे जा रहा था. सबसे बड़ी बात तो ये कि इतने लम्बे समय में उसने एक बार भी अपनी पलकें नहीं झपकायीं. आम इंसान होता तो एक आध बार तो आँखे बंद होतीं, इधर उधर देखता. फिर उसमें नशा किए आदमी के भी कोई लक्षण नहीं दिख रहे थे.न दारू वाली बकझक और न ही सुट्टे दम वाली सुरबाजी. वह तो कुछ सम्मोहन वाली ख़ौफ पैदा करने वाली नज़र से घूरे जा रहा था वह भी एकटक . ये तो अल्लाताला का शुक्र कि अँधेरे सुनसान बियाबां से डरे सहमे ही सही  हम सही सलामत अपने ठिकाने पर पंहुच गए.

दिमाग़ कुछ उलझा हो तो खाली बैठ सोच विचार से बेहतर है कुछ हाथ पैर हिला लिए जाएं सो तुरंत ही अपने ख़ौफ पे काबू पाने को मैं रसोई में गया और चाय चढ़ा दी. मन तो हुआ कि टेप भी चला दूँ. पुराने गानों के ढेर कैसेट टेबल पर बेतरतीब पड़े हैं. पर हाफ़िज साहिब कुर्सी पे लधरे कुरान की आयतों को बुदबुदा रहे थे.चाय पीते हुए भी हम दोनों के बीच कोई बात न हुई. आखिरकार थोड़ा तरोताजा महसूस कर हम बिस्तर पर ढुलक गए और थोड़ी ही देर में मुझे हाफ़िज साहिब के खर्रांटे भी सुनाई देने शुरू हो गए.

आँखें भारीं हुई पड़ीं थी. आँखें बंद करते ही फिर वही झक्कड़ सूरत और चुभती एकटक नजरों का घूरना याद आने लगता. ऐसा भी लगता कि वो बस मेरे ही करीब बैठा है. खूब मोटी गाँधी आश्रम वाली रजाई ओढ़ी थी ऐसा महसूस हो रहा था कि सीने पे कुछ भारीपन बढ़ रहा है. शायद रजाई तुड़मुड़ भार बढ़ा रही हो. हाथ भी सीधे कर लिए. मुंह भी ढक लिया. ऐसा लगने लगा कि सीने पर कोई चढ़ा बैठा हो.

कितनी बार सोचा कि मुँह तक ढांप ली रजाई को एक झटके से हटा साफ सांस लूँ पर हाथ कोई हरकत नहीं कर रहे थे. रजाई के भीतर रहते आँखें भी मिचीं थीं उन्हें तो खोलूं पर ऐसा भी न कर पाया. गर्दन हिलाने की कोशिश की तो ऐसा लगा कि गर्दन तो अकड़ी हुई है.मैं जोर लगाना चाह रहा हूं पर कोई हरकत नहीं हो पा रही. करवट लेने की भी सोचता हूं पर नहीं. लग रहा है कि मैं सपना देख रहा हूं. मैं अपने कमरे मैं नहीं हूं. मैं तो उन काले भुजंग दरख्तों के बीच हूं जहां रौशनी की एक किरण भी नहीं है. वहीं उस टेड़े पड़ गए दरख़्त की जड़ में कोई अधलेटा सा मुझे घूर रहा है. अरे ये तो वही है. वही जिसकी आँखों के कोए दहकते अंगार की तरह मुझे तके जा रहे थे. अब बड़ी तेजी के साथ मेरी ओर बढ़ रहे हैं उसकी बेहद भद्दी सूरत से चिपके अटके से काली परत में लिपटे खूनी लाल डोले. मैं पूरा जोर लगा कर अपनी आंखें बंद करना चाह रहा हूं पर पलकें तो अटक गईं हैं.ये सपना नहीं हकीकत है कि मैं अपने कमरे में बिस्तर पर लिहाफ के भीतर डरा सहमा काठ कि तरह जड़ पड़ा हूं. ये खूनी आँखें जैसे मेरे जिस्म के हर हिस्से को छू गईं हैं. चीखना चाहता हूं पर खुद लग रहा है कि मेरे टेंटुए पर एक भारी वजनी हाथ पड़ चुका है. बस दबाने की कसर है.
(Ghost of Abbott Mount Champawat)

या खुदा. तेरा रहम कि मैं सोच पा रहा हूं. और मन ही मन मैंने दरूद शरीफ़ पढ़ना शुरू कर दिया.मुझे लग रहा था कि मेरे होंठ चल रहे थे पर आवाज गायब थी. आखिरकार मैंने अपनी गर्दन को एक जोर का झटका दिया. पीठ की हड्डियों की चट चट सी हुई और मेरी आँखे खुल गईं.

ओह्ह!ये सब मेरा वहम था. ऐसा सपना जो अपने भीतर घुस गए डर और वहम से मैंने खुद बुन लिया था. और मेरा बदन पसीने से भीगा हुआ था. मेरी गर्दन अकड़ी हुई थी और बिस्तर से उठते मेरी पीठ की हड्डियों से चटचटाने की आवाज भी आई थी. पाँव के तलवों में चींटियां सी रेंग रही थीं. किसी तरह लड़खड़ाते मैं उठा और दरवाजा खोला. ठंडी हवा का झोंका आया. सूरज बस उगने ही वाला था. अब मैंने इस ठण्डी हवा मैं खूब गहरी साँसे लेना शुरू किया. अब लग रहा था कि मेरे भीतर जो कुछ सर्द था जम गया था वह झटक रहा है. फिर उजाला भी फैल रहा है.बड़े बुजुर्गों की नसीहत याद थी कि जब भी कभी शक सुबहा हो, डर लगे या बदरूहों का खतरा हो तो अजान देने से फौरन राहत मिलती है. मैं अब वही करने लगा. एक बार दो बार तीन बार कई बार, बार -बार.

धूप खिल आई थी. चाय पीते हुए मैंने याक़ूब साहिब को अपना यह किस्सा बयां कर डाला. रात की बात न जाने वह डर मेरे सपनों मैं था या वाकई मैं सो ही न पाया था. बड़ी देर तक याक़ूब भाई गुमसुम रहे फिर बोले कि अब बहुत हो गया अपने ये रूहानी शैतानी तजुर्बों से तौबा करो. ये मकान छोड़ो और डाक बंगलो में ही रहो. अब तक जो हुआ सो हुआ. ऊपरवाले ने बचाये रक्खा. खुद कुरान में भी बद रूहों, खब्बीसों, आफतों और बलाओं के बारे मैं चेतावनी दी गयी है.

रानीखेत से खबर आई कि कुछ दिनों से बड़े बेटे की तबियत खराब चल रही है. सो तुरंत ही घर के लिए रवाना हो गया. बेटा अभी ठीक दिख रहा था. डॉक्टर ने दवाएं दी थीं. बेगम ने बताया कि परसों तो रात अचानक ही बहुत तेज बुखार में तप गया था. क्या कुछ बड़बड़ा रहा था. चीख भी रहा था. दो एक बार तो जबान भी बाहर निकल गयी थी.बेहोशी के आलम में बस यही कह रहा था कि पापा को किसी ने पकड़ लिया है. वो पापा पे सवार है. पापा को डरा रहा है.वो तो डॉक्टर ने फ़ौरन सुई लगायी तो झटके कम हुए. सुबे हुई तभी चैन से सोया और बुखार भी उतरा.
(Ghost of Abbott Mount Champawat)

मैं सोच रहा था यह तो वही रात की बात है जब मुझे वो खूनी सुर्ख गन्दलाई आँखों वाला शख्स मिला था. और रात को मेरा जिस्म अकड़ गया था. लगा था कि खब्बीस सवार है मुझमें.

शुक्र है कि बेटा ठीक हो गया था. रानीखेत से लोहाघाट वापस लौटा. अब आते ही पहला काम तो ये किया कि उस वीरान से मनहूस मकान को छोड़ा और वापस डाक बंगलो में आ गया.

कॉलेज के सभी साथियों ने बेटे की तबियत के हाल पूछे. मुझसे भी कहा कि वापस डाक बंगले में आ कर ठीक किया. मैं भी अपने बहुत काम निबटाने और तेजी से अधूरी किताब पूरी करने के सुर मैं आ गया था.

लोहाघाट बाजार में टहलते अपने डी.एफ़.ओ. साहिब मिले. दुआ सलाम हुई. उन्होंने पांडे मिष्ठान में चाय पिलाई, साथ में मिल्क केक की कटकी. जब में डाक बंगले की ओर जाने लगा तो मेरे कंधे पे हाथ रख कहने लगे. बहुत ठीक किया प्रोफेसर वो मरघट के पास वाला मकान छोड़ दिया. यहाँ एल.आई.यू वाले इंस्पेक्टर पंत जी यह पूछताछ कर रहे थे कि आखिरकार ये प्रोफेसर उस वीरान अकेले मकान में करता क्या है?
(Ghost of Abbott Mount Champawat)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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