दाल-भात-साग रोज ही खाये गए. पर किसके साथ क्या मेल बने इसके बहुत सारे संयोग बने. खास बात ये कि, घी तेल मसाले, बड़े नपे-तुले माप में बिना ढोल-फोक किये डाले जाते. लकड़ी की आंच भी नियंत्रित. जब पक जाये तो लकड़ी सरका दो. सिजाने के लिए चूल्हे से हटा क्वैलों में रख दो. फुरफुराना हो तो ढक्कन लगा ऊपर से क्वेले रख दो. Kitchen in Uttarakhand
बर्तन भी भारी कई धातुओं वाले. दाल बनाने को भड्डू जिसके ऊपर फिट साइज का लोटा या बड़ा ब्याला, पानी से भर दो. जब वो चुड़कन हो जाये तो भड्डू में लौट दो. भात के लिए तौली जो ताँबे या पीतल की होती. फिर कढ़ाई और तवा तो लोहे का ही हुआ. लुवा जो आगर से निकला, जिनने बनाया वो कहलाये आगरी, स्थान या जगह के आगे भी आगर जुड़ जाये, जैसे राई आगर, मनी आगर.
फिर पूजा में काम आने वाली कूनी, पंचपात्र, अर्घ्य, लोटे के साथ ही पर्व त्योहारों के बड़े बर्तन, जिनमें ताँबे के भानकुन घर में होते जिनको बनाने वाले शिल्पी टम्टा, जिनकी पूरी बसासत ही अल्मोड़ा में टम्टा मोहल्ला के नाम से फेमस हुई. पानी भरने की गगरी, फाउंला जिसका पानी सबसे शुद्ध माना जाता. बागेश्वर में डिज़ाइन जरा फरक होता.
पीतल के गिलास भी होते जिनमें चहा पी जाती. पीतल की कटोरी व और भान-कुन भी होते जो मैदान से लाये जाते. जिनमें बने खाने में पितलेन आए तो लोहे में लुएँन. कस के बर्तन में बने कई भोज्य पदार्थ गजब का स्वाद देते तो कस की थाली भी बड़ी नाजुक होती. बहुत सार संभाल के उपयोग में आती. सारे बर्तन घास, मूँज, राख से चमके, चिकनी मिट्टी से मांज चम्म चमकाए जाते.
बड़े बेली, कटोरी, गिलास, थाली, परात, डाडु-पण्यू, झाझर, चिमटा, लोटे, कसेरे तरह तरह की धातुओं वाले भानकुन. हर धातु से बने जिनमें खाने की तासीर भी अलग -अलग. कई बर्तन तो तितपाती, खट्टीमीठी से चमकाए जाते. मांज-मूँज बाहर धूप में सुखा छापरी में रख, फिर करीने से रसोई में टंज जाते.
रसोई में खाना बनाने व खाने वाली जगह की एक विभाजन रेखा होती. मतलब ये कि कोई भी बने भोजन को छुवे नहीं. गोबर या राख से एक रेखा भी डाल दी जाती थी. रसोई रोज ही मिट्टी गोबर से पोती जाती. खाने को पहले बड़े-बूढ़े बैठते, साथ में नानतिन भी. थाली के कोने या भूमि पर एक गॉस भगवनजी को भोग लगता. थाली भी किनारों से उठी हुई जिससे किनारों से भोजन गिरे नहीं.
रिस्या में ही चौखे में पद्मासन लगा बैठ धीरे-धीरे खाना बड़े बूढ़ों कि खास लटक होती और जो भी चोखा बना होता वह पहले भगवान जी के नाम ठया में भोग लगता. गौ माता को खिला देना, यह गौ ग्रास होता. साथ ही कुकुरे,बिराऊ, चिड़िआ के लिए भी.
कुत्ते का रसोई में प्रवेश हड़ि- हड़ि की हड़काई से होता पर बिराऊ बिल्ली तो चूल्हे के आसपास ही पसरी रहती. रिस्या के मुस घपकाने का हुनर ठहरा. खास मौकों पे कौवा तो खसमखास हुआ ही. सीधे पितरों तक पहुँच हुई उसकी. और हाँ, खाने से पहले थाली के चंहु ओर हाथ घुमा भूमि पे जल छिड़क-डाल देना भी हुआ हां बुड बाड़ों ने, भोजन मंत्र की गुण-मुंण भी. खाना खाने में क्वीड फसक करने में भी बूबू आमा का ऐतराज. पर दाल भात धपोड़ने सपोड़ने पे कोई रोकटोक नहीं हुई. रहा बचा सब बड़े डेग या भदेले में जानवरों के लिए डाला जाता.
खाना बनने, खाने के सीप बड़े बूढ़े पूरे सीप से निभाते-सिखाते-बताते. खाने की बर्बादी पर गाली देती आमा.
किले रे रंकरा? जौंक पड़ गईं के पेट् में जे खाण णी छिरक नौ?
आमा यो गुटुक और यो भसभसी काव उगलक छोली रोट, कसी खूं? रोटी सब्जी क्यों नहीं बनाई?
अब नये नवेले, पुराने पचासे साठे, भाबर माल से देश परदेस से मिल-भेंट को आते, पहाड़ मौके-बेमौके. आते पूजा में, ब्या-काज में. गर्मी जेठहो या पूस की कुड़कुड़ाट. नौकरी, कामधन्दे, लाम से मिली महिने दो महिने की छुट्टी में पहाड़ के मालताल से खुसबू बिखेरती रिस्या चूल्हे में सुलग रही बांज-फल्यांट की लकड़ियों की आंच ताप से महक जाती. Kitchen in Uttarakhand
संध्या होते ही पहले देवता की ठ्या में धूप दीप जलता. फिर छिलुके जलते, लम्पू जलते, बोतल के ढक्कन में छेद कर हंतरा डाल शीशी में मिट्टी तेल भरा लम्पू अन्यारे में यहाँ वहां जाने के भी काम आता. लालटेन भी होतीं और शीशे वाले लैंप भी. जो बैठक की शोभा बढ़ाता. चहल-पहल हो जाती. सबसे ज्यादा सरफर रिस्या में. साली बहुत खुश हो जाती जब परदेश से दीदी भिन्जु आ रहे होते :
म्यारो भिना हलवा लैरो, दादी के ल्याली.
लकड़ी की गेड़ी नारंगी की गेड़ी.
भिना की नराई लागी, रुमाल में फेड़ी.
हथेली में कान बुड़ो, गाज कुमरी को, बिछाण दरी को.
समझणे करी गोछा, उमर भरि को.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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अति उत्तम व्याख्या ।