कला साहित्य

‘कथा कहो यायावर’ देवेन्द्र मेवाड़ी की नई किताब

यह मन ही तो है, जो नन्हे बीजों को उगते, फूलों को खिलते, तितलियों को उड़ते, नदियों को बहते, झरनों को झरते , सागरों को गरजते, बारिश को बरसते, बादलों को उमड़ते और सितारों को चमकते हुए देखने के लिए मचलता रहता है. मन न हुआ धौली नदी हो गया.
(Katha Kaho Yayavar)

शांत, सहज, मन में प्रकृति के अभिनव सोपान छुपाये देवेन मेवाड़ी लेखन व यायावरी के साथ विज्ञान के रहस्यों को सरल तरीके से सामने रख तर्क पूर्ण जिज्ञासा को जगाने में माहिर हैं. किस्सागोई के उस्ताद हैं. कितने राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजे गए हैं. खूब लिखा है.अभी तक तीस किताबें छप चुकीं हैं. कई पत्रिकाओं का संपादन किया. रेडियो और टेलीविजन में अपनी बात और आवाज का जादू बिखेरा. उनके लिखे को दिल की गहराईयों में बैठाने के साथ दिमाग सच की, यथार्थ की तलाश में खुद निकल चलता है. यहाँ कोई पगडण्डी नहीं बस आज की समस्याएं हैं और समाधान के लिए सरल से रास्ते जिन्हें जानते हुए भी समझा नहीं गया. वह कड़क से गुरु के रूप में भी नजर आते हैं. धारा के विरुद्ध. अपनी चिंतन प्रक्रिया में प्रकृति के रहस्यों के साथ कथा, कहानी, कविता और अनुभवसिद्ध मूल्यांकन का ऐसा समा बांधते हैं कि संवेदनायें जाग्रत हो उठती है, मन की ग्रंथियां कुछ पाने को अधीर हो जाती हैं और देवेंद्र मेवाड़ी लुटाते चलते हैं स्वानुभूत ज्ञान का विलक्षण खजाना, विज्ञान की वह जानकारी बकौल ऐश देहलवी कि -“अपना कहा आप ही समझे तो क्या समझे /मज़ा कहने का जब है, एक कहे और दूसरा समझे.”

 भोपाल यात्रा में मिलती है काली सुई चिड़िया जो गाती रही. साथ हैं,नर्मदा की पैदल यात्रा में तीस साल गुजारने वाले अमृत लाल वेगड़. हमेशा अपनी पत्नी के साथ यात्राओं पर चले. कहते हैं कि इन पद यात्राओं में उन्होंने नर्मदा का सौंदर्य तो देखा ही, लोगों के ह्रदय का सौंदर्य भी देखा.गाँव के वह सीधे सादे लोग जिनके पास संस्कृति रही और शहर के पास सभ्यता. जब मनुष्य सभ्य नहीं था तो नदियाँ स्वच्छ थीं. वह सभ्य हुआ, तो नदियां मैली हो गईं. उनकी पीड़ा फूट पड़ती है -“हम हत्यारे हैं,अपनी नदियों के हत्यारे. क्या हाल बना दिए हैं, हमने नदियों का ? “

अब काल यात्रा में भीमबेटका है. रातापानी अभयारण्य की हरियाली के बीच विंध्य पर्वत माला के उत्तरी छोर पर विशाल काली खड़ी चट्टानों वाला, जहां सुना कभी पांडव आए थे. शायद 5,000 से 2,500साल पहले इन पहाड़ियों से दूर नीचे मैदानों में लोग खेती कर रहे. वहीं कुछ आदि मानव कंदमूल रख रहे. दोनों के बीच लेन – देन शुरू हो गया.यहाँ के शैला श्रयों में चित्र उकेरे दिखते हैं घुड़ सवारों के. वृक्ष देवता के. आकाश में उड़ता रथ भी है. अपने देखे तमाम जानवरों के चित्र. अनगढ़ से. पहले अनगढ़ता में जो सौंदर्य था, वह अब कम हो रहा है. नीली कमीज में मूर्ति सा बैठा मानव देख ठिठक जाता हूँ. पर वह हिलता है. जहां कभी वस्त्र हीन आदिमानव बैठते होंगे वहाँ इक्कीसवीं सदी का गार्ड समय की लम्बी यात्रा याद दिला रहा है.
(Katha Kaho Yayavar)

शिवना नदी, मध्य प्रदेश के तट पर बसे मंदसौर में. यहाँ पशुपतिनाथ के प्राचीन मंदिर हैं, यह अफीम की खेती के लिए प्रसिद्ध है. इसे मंदोदरी का मायका माना जाता है. बरगद के चार -पांच सौ साल पुराने पेड़ और पुरानी बावड़ी के गिर्द धनेशों के झुण्ड कलरव मचा रहे हैं. बच्चों के बीच बैठ उन्हें बताता हूँ कि हर चीज को जानने की जिज्ञासा हमें विज्ञान का ज्ञान देती है. लोक जीवन से मिले ज्ञान को भी समझना है. हर चीज को जानने की जिज्ञासा ही विज्ञान का ज्ञान देती है.

विज्ञान और विज्ञान से परे भी जानने का प्रयास हो. विज्ञान जीवन में तर्क दृष्टि का विकास करता है तो आध्यात्म जीवन को संवेदनाओं और भावनाओं से भर देता है. हरिद्वार शांति कुंज में जा हर ज्ञान के आपसी सम्बन्ध का सबक सीखता हूँ.नेत्र हीन बच्चों के बीच हूं फिर शाहदरा दिल्ली में. जानता हूं इनकी मन की आँखे तेज हैं. अब आवाज से ही मैंने पात्र रचने हैं, दृष्यों की रचना करनी है. उन्हें उत्तराखंड की लोक कथाएं सुनाता हूं जो मेरी मां ने मुझे सुनाई थीं बचपन में, ‘होशियार बकरा ‘और ‘चल तुमड़ी बाटे -बाट ‘.सिर्फ आवाजों के सहारे.

ये आवाजें, ये कलरव चिड़ियों का है. कफुवे का कुक्कू!कुक्कू! बोलना. तमाम आवाजें, ‘न्याहो!, न्याहो!न्याहो!,’तीन तोला तित्तरी!’, ‘सरग दिदी पांणी -पाणि’,’चीं -चुर -चुर -चु र्र र्र र्र ‘, ‘टी -टिटिट!’,’कुर -कुर -कुरूरू!कु रू रू. सोच रहा हूं क्या ये पहचानती होंगी एक दूसरे की भाषा? भला हो मित्रों का जो मुझे चूनाखान के इको पर्यटन केंद्र ले गए.यहाँ पता चला कि उत्तराखंड के दो तिहाई भू भाग में वन हैं और अद्भुत फ़्लोरा फोना को समेटे यहाँ चिड़ियों की 691 प्रजातियां देखी पाई जाती हैं.14 इलाके तो पक्षियों का स्वर्ग ही कहे जाते हैं.

अब नैनीताल में किल्बरी -पंगोट के रस्ते में चलते हवा की खासी ठंड और जंगल की नम मोहक खुशबू शुद्ध प्राणवायु खींचते शहर में जगमगाती रोशनियां हैं तो ऊपर निरभ्र आकाश में पूर्वी क्षितिज के काफी ऊपर हीरे की तरह चमकता शुक्र ग्रह. दक्षिण -पश्चिम की ओर ओरायन यानी मृग तारामंडल में व्याघ मृग का पीछा कर रहा था. वह तीन तारों का ‘त्रिकांड’ तीर छोड़ चुका था. फिर आई दूधिया आकाश गंगा. अब ओरायन के त्रिकांड के ऊपर दो तारे और नीचे दो तारे. जैसे पहाड़ का हुड़का. इसके ऊपरी दो तारों के बीच चमकता ब्रह्म ह्रदय तारा यानी कैपेला.जंगल के बीच स्नो व्यू पॉइंट के घुप्प अँधेरे में शुक्र ग्रह के साथ मृग तारा मण्डल, मिथुन राशि के पुनर्वसु नक्षत्रों और सप्तर्षि के सात तारों को जी भर निहारा . वशिष्ठ के साथ चमकते छोटे से अरुँधुति तारे को देख नज़र की जाँच भी कर ली. आम विश्वास है कि यदि सप्तर्षि के छटे तारे वशिष्ठ के साथ अरुँ धुति को भी देख लिया जाय तो मतलब है, नज़र तेज है.
(Katha Kaho Yayavar)

आसमान, तारे, झील तालाब, पशु -पक्षी, पेड़, पहाड़ और जंगल के साथ अब एक यात्रा आज से अतीत तक जुड़ रही है.जब  विज्ञान, प्रबंधन, और कला की शिक्षा के केंद्र तक पहुँचने और विज्ञान, वास्तु शिल्प, जल प्रबंधन और प्रकृति संरक्षण के प्राचीन केंद्र, भोजपुर जा पहुँचता हूं जहां आज से करीब हज़ार साल पहले के शिक्षा केंद्रों को देखने का और आधुनिक आई सेक्ट यूनिवर्सिटी देखने का संयोग है . यहीं विविध रुचियों से युक्त दूरदर्शी राजा भोज था. वह वास्तु -शिल्प, जल प्रबंध, औषधि विद्या, प्रकृति संरक्षण, धातु विज्ञान, योग, संगीत, के साथ शिक्षा के प्रकट अधिमानों से भरा साहित्य का ऐसा रसिया था जिसके राज्य में जुलाहे भी संस्कृत में कविताएं रचते थे. विद्या की देवी सरस्वती को समर्पित अनेक भोज शालाएं उसने स्थापित की थीं.यहीं प्राचीन स्थापत्य युक्त भोजेश्वर मंदिर भी है और ग्यारहवीं सदी में बने बांध के अवशेष भी.बांध के पार राजप्रासाद. और हाँ, ‘सिंहासन बत्तीसी’ की रचना भी यहीं पर हुई थी. विक्रमादित्य के उस सिंहासन पर बैठने की चेष्टा में बत्तीस योगिनियाँ उसे रोकती हैं और कहती हैं तभी बैठ सकोगे तुम इस सिंहासन पर जब तुममें राजा विक्रमदित्य जैसे गुण होंगे. अब आज वह विशाल बांध नहीं दिखता, दिखते हैं उसके भारी काले पत्थरों की दीवार के अवशेष. नीचे हरी काई की चादर ओढ़ कर बहती कराहती बेतवा नदी.मध्य प्रदेश से उत्तर प्रदेश की 590 कि. मी. यात्रा पूरी कर औद्योगिक कचरे से प्रदूषित हो अंततः हमीरपुर में यमुना में समाहित नदी जो सिंचाई तक के काम की नहीं. सुना है जन आंदोलन के बाद अब इसे भी राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना में चुन लिया गया है.

पिछले 161साल पुराना जलसेतु देखना और उसके पास से कुछ दूरी पर गंग नहर के आधुनिक पुल को देखते उसके इतिहास को याद करता हूं. सोलानी नदी के आसपास के इलाके में 1837-38 में भयावह सूखा पड़ा था तब कर्नल प्रोबी कॉटले ने हरिद्वार से कानपुर तक 560 कि. मी. लम्बी गंग नहर बनाने की योजना बनाई. धर्मचार्यों का विरोध हुआ. मेहवड़ गाँव वालों ने कहा की नहर निकाल गाँव को दो भागों में बाँटने की साजिश कर रहे हो. आप तो मांस -मदिरा का सेवन करते हो सो आपको गंगा जल छूने भी न देंगे. कहा जाता है कि  कॉटले ने भरोसा दिलाया कि वह ना तो वह मांस -मदिरा का सेवन करेगा बल्कि पहनेगा भी धोती कुरता. गाँव भी नहीं बंटेगा, आरपार पुल बनेगा और सबसे बड़ी बात तो यह कि नहर से सिंचाई होगी. पुल से जहां मिट्टी की भराई की गई वहाँ नहर के दोनों तरफ विशाल शेरों की मूर्तियां बनायीं गईं जो अब रुड़की के प्रतीक चिन्ह बन चुके हैं. इसके आगे है आस्था का केंद्र कलियर शरीफ, जहां दुआ मांगने हर साल हजारों लोग आते हैं.

25 अप्रैल 2015 को विश्व मलेरिया दिवस प्रोफ़ेसर यशपाल और दिल्ली के बारह राज्यों से आए राष्ट्रीय निबंध प्रतियोगिता के विजेता स्कूली बच्चों के साथ गुजरा . बच्चों को बताया कि रोम, यूनान और मिश्र जैसे साम्राज्य इसी मलेरिया ने नेस्तनाबूद कर डाले थे और इसी नन्हे मच्छर ने विश्व विजय का सपना देखने वाले सम्राट सिकंदर महान को भी मार गिराया था. यही मच्छर मलेरिया फैलाते हैं का शक अल्मोड़ा में पैदा हुए रोनाल्ड रास को हुआ जिन्होंने लगातार प्रयोग कर यह पता लगा लिया कि इसके रोगाणु मच्छरों के पेट में पनपते हैं और फिर उनकी लार ग्रंथियों में आ जाते हैं. अब जब यह आदमी को काटता है तो उसे मलेरिया का शिकार बना डालता है. रोनाल्ड रास को इस खोज के लिए सन 1902 का नोबेल पुरस्कार मिला. ऐसे ही जब एक बार सिनकोन की कांउटेस वहाँ की राजधानी लीमा गईं तो उन्हें बुखार आ गया. वहाँ एक स्थानीय ने उन्हें ‘क्विन -क्विना’की छाल का काढ़ा पिला दिया. तभी से यह पेड़ सिनकोना और इलाज की दवा कुनैन कहलायी.
(Katha Kaho Yayavar)

बच्चों से मिलने और उनसे बातचीत का मौका रामनगर, नैनीताल से 8 कि. मी. दूर गाँव में चल रहे शाइनिंग स्टार स्कूल में मिला जो रटंत विद्या से बच जीवन की सही दिशा देने की सोच से युवा देवेंद्र नेगी ने चलाया है. यह वह अवसर था जब बच्चों को पेड़ -पौंधों और जीव जंतुओं यानी फ़्लोरा -फोना से प्यार -दुलार की बात समझाई.तभी हरियाली बचेगी और दुनिया हमारे रह सकने लायक बची रहेगी. उन्हें बताया कि आखिर क्योँ बंदर उजाड़ खा रहे हैं ? बिल्ली का रास्ता काटना खाली झूठ और भ्रम है. ग्रहण के दिन कुछ भी खा पी लो शरीर पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता. बस आकाश की इस अद्भुत घटना को सुरक्षित तरीके से देख लो .अब मौका था अपने मित्र युवा कवि शिरीष मौर्य के साथ शाम बिताने का जो अपने बेटे को शाइनिंग स्टार स्कूल की जमीनी शिक्षा से जोड़ उत्साह से लबालब थे  कि अब बेटा जमीन की खुशबू पहचानेगा. यहाँ की हवा, यहाँ की प्रकृति में रमेगा, बोलचाल जानेगा. सचमुच उसके चेहरे पर बेटे को प्रकृति के परिवेश से जोड़ने की आभा थी.

अब एक सपने को उगता हुआ देखता हूं अलीगढ से सोलह कि. मी. की दूरी पर डॉ पदमा व डॉ. उदय वीर शर्मा के बनाए पदमोदय यूनिवर्सल कॉलेज में अपने उच्च शिक्षित बेटी बेटे समीक्षा और मानव के संग कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ा -लिखा उपक्रमी बनाएंगे. बच्चों के बनाए बीज बोने की मशीन और मिट्टी को एकसार करने वाले तवेदार हैरो को देख शर्मा परिवार की सोच समझ में आ गई. मैंने भी बच्चों को बताया कि असली विज्ञान मुझे अपने बचपन में प्रकृति की प्रयोगशाला से मिला जो गाँव में थी. वहाँ देखा कि जमीन से कैसे अंकुर फूटते हैं, कैसे दो पत्तियों की हथेलियां हवा में निकल आतीं हैं.उनमें लम्बी, पतली अंगुलियां निकाल आतीं हैं जो हवा में हिल यहाँ वहाँ डोलते किसी टहनी का सहारा ढूंढ़तीं हैं उस पर लिपट जातीं हैं उसके सहारे पौंधा ऊपर उठता है अपनी मंजिल को पाने. तुम उन्हें निहारोगे, प्यार करोगे खाद -पानी दोगे तो उनकी कलियां और फूल मुस्कुरा उठेंगे तुम्हारा शुक्रिया अदा करेंगे. डॉ नार्मन अरनेस्ट बोरलॉग ने भी ऐसा ही किया वो जान गए थे कि पेड़ पौंधे हमसे बातें करते हैं. इसलिए पेड़ -पौंधों के नजदीक जाना, जीव जंतुओं और कीट पतंगों को गौर से देखना उनके जीवन के गीत को गुनगुनाना महसूस करना जरुरी है.

अब पहुँच गया हूं प्रकृति की सुरम्य स्थली कौसानी में,जो सुकुमार कवि सुमित्रा नंदन पंत की जन्मस्थली होने से रचना कारों के प्रबल आकर्षण का केंद्र बनी है .मुझे यहाँ मिले जिज्ञासाओं के जुगनू संजोये बच्चे और उनके सृजन को पँख लगाते शिक्षकों के साथ रचनाकारों की शानदार प्रयोगशाला में सम्मिलित होने का बेहतरीन अवसर मिलता है.पहले अल्मोड़ा के राजा आनंद सिंह बालिका विद्यालय में एकत्रित करीब साढ़े चारसौ बालिकाओं को तारों भरे आसमां के संग सौर मण्डल की सैर कराई. उनके सवालों के जवाब दिए जो बड़े विकट भी थे कि, “अगर पूरे सौर मण्डल में जीवन ही नहीं है, तो फिर एलियन कहाँ से हो सकते हैं ?”.” पृथ्वी पर जीवन ही क्योँ है?”जैसे.
(Katha Kaho Yayavar)

अल्मोड़ा की सड़कों में डोलते सर पर टोकरी ले जाते ताजे रसीले काफल ले जाते ग्रामीण दिखे तो पचास रुपे के पाव भर खरीद खाने लगा, गुठलियाँ भी निगलता गया. खाते खाते अपना पूरा बचपन, गाँव के काफल के वह पेड़, गेहूं के नल से बुनी वे काफलों से भरी सुनहरी टोकरियां याद आतीं रहीं. अब आगे के सफर में कोसी पार कर कटारमल का सूर्य मंदिर है, फिर सोमेश्वर धाटी का चौरस इलाका. जब धान की रोपाई होती है तो हुड़के की थाप पे आज भी यहाँ ‘हुड़किया बौल’ के बोल गूंजते हैं “ये सेरी का मोत्यु तुम भोग लगाला हो सेलो दिया, बिदो हो ये गों का भूमिया देवो, देेणा होया हो.”

कौसानी जाते हरे भरे जंगलों में आग सुलग रही थी. चारों ओर धुआँ ही धुआँ. यहाँ पंत वीथिका पहुंचे तो बच्चे ही बच्चे जिनके आगे उनके हाथों से बनाई किताबें सजी हुई थीं. इन किताबों का नाम भी उन्होंने खुद तय किया था -बाल मन, प्रकृति, बाल बिगुल, बाल विज्ञान, बाल वाणी, बाल प्रेरणा, नई किरण और साथ में हर बच्चे की एक -एक रचना के संकलन से बनी हस्तलिखित, सजिल्द पत्रिका ‘कौसानी’. तीन दिन तक चली इस संगोष्ठी में दूर गाँव के बच्चे, देश के विभिन्न प्रदेशों से आए बाल साहित्यकार जिनके साथ गीत गाए बुजुर्ग और युवा कवियों ने. कहानियाँ सुनाईँ. अनासक्ति आश्रम में वरिष्ट रचनाकारों की संगत में बच्चे ही कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे. महसूस हुआ कि ऐसे बाल साहित्य के लेखन की जरुरत है जिसकी जड़ें संस्कृति में जमीं हों और जो आज के समय के साथ पनपे. वह आज के समय की कहानियाँ हों. गैजेटों के कारण अलग -थलग पड़ गए बच्चे ? आज बाल साहित्य में विज्ञान से जुड़ी रचनाएं इतनी कम क्योँ हैं? विज्ञान के बारे में जो कुछ भी लिखा जा रहा है, क्या बच्चे उसे आसानी से समझ रहे हैं ?

मैं जब विज्ञान कहता हूं, तो मैं हमारे आसपास की दुनिया, हमारी प्रकृति के रहस्यों के सच की बात करता हूं. वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात करता हूं, तो उससे मेरा मतलब तर्कसंगत सोच से है, जो विज्ञान के ज्ञान पर आधारित है.विज्ञान का मतलब सिर्फ प्रयोग शाला, वैज्ञानिक, यँत्र या मशीनेँ नहीं बल्कि अपने चारों ओर की दुनियां को जानना समझना भी है. विज्ञान तो बड़ा रोचक है. वह हमें प्रकृति के अनजाने रहस्यों के बारे में बताता है. इसलिए बच्चों के लिए लिखते हुए हमें अपने मन के आँगन में बच्चों को जरूर बैठा लेना चाहिए.साथ ही बच्चों को सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने के लिए आंचलिक बाल साहित्य की विरासत को बचाये रखने और नई आंचलिक रचनात्मकता को बढ़ावा भी देना होगा.
(Katha Kaho Yayavar)

अपने अंचल में, गाँव -कस्बे में,हमारे आस पास ही ऐसे लोग छुपे होते हैं जिनकी मेहनत, लगन और निस्वार्थ भाव समाज को बहुत कुछ दे सकने की भावना रखता है. हाँ, मैं बात कर रहा हूं  लखपत सिंह राणा की जो गुप्तकाशी के आगे नरोत्तम गाँव में जैक्सवीन नेशनल स्कूल चलाते हैं. यहीं पास के गाँव कालीमठ में मुकुंदी राणा थे जो चार कोस दूर दयूंण गाँव तक जा दिन- रात मजूरी करते. गुजारा न हुआ तो चाय की दुकान खोली. ये बड़ा बेटा लखपत खूब तेज हुआ. गाहकों से खूब बातें करता. चटपट चाय पिलाता. इसी दुकान से कुछ दूर किराये पर एक विदेशी युवक फ्रांस से आया. ध्यान, योग आध्यात्मिक साधना करने. डॉक्टर था. लखपत चुप -एकाकी बैठे उस युवक से ठिठोली करता तो युवक उससे पढ़ने लिखने की बात करता. यह युवक जैक्स वीन था. आखिर उसने लखपत को शिक्षित करा ही डाला और अब उसके सपनों में था ऐसा स्कूल जहां उस जैसे गरीबी में लिथड़े बच्चे पढ़ लिख सकें. अब इसी स्कूल में मैं ढेर बच्चों और स्टॉफ से घिरा उनको अपनी कहानी सुनाने का मौका पा गया हूं. मेरे गाँव में हरे भरे जंगल में खूब चिड़िया रंगबिरंगी, जंगली जानवर थे. पर जब शहर आए तो वहाँ तो जू जा इन्हें देखना पड़ा. अब तुम जानो, ‘काल यँत्र ‘. जो अतीत में भी ले जाता और भविष्य भी दिखाता. अतीत में पाया कि पशु -पक्षी निर्ममता से मारे जा रहे और भविष्य में हमने सालों बाद का पचास साल बाद का चिड़िया घर देखा. क्या देखा होगा? तुम बताओ, हाँ क्या नाम है तुम्हारा? अच्छा, रवि !तुम बताओ, फिर और बच्चे भी बताएँगे. बारी बारी से. वहाँ तो कोई पेड़ पौंधे, पशु पक्षी थे ही नहीं. वहाँ तो रोबोट थे. वहाँ तो आइस क्रीम के ठेलों की जगह ऑक्सीजन के ठेले थे. हर जगह मकान ही मकान थे मन्दाकिनी नदी में बहुत कम पानी रह गया था. वहाँ फिर से केदारनाथ जैसे भीषण आपदा आ गई थी.

सवाल उभरते जाते हैं. जवाब चिंतित करते हैं. पर समाधान हैं विज्ञान में. विज्ञान को अधिक आसान और रोचक बनाने के लिए हमें साहित्य का सहारा लेना चाहिए. यह बात बताई डॉ. नार्लिकर ने होमी भाभा विज्ञान शिक्षण केंद्र मुंबई में आयोजित सम्मलेन में. माइकेल फैराडे ने यही किया तो कार्ल सांगन, फ्रेड हायल, रे ब्रेडबरी और स्वयं नार्लिकर भी अपने बहुचर्चित साइंस फ़िकश्नों में ऐसे ही रचते आए विज्ञान के सरल सूत्र. ध्यान रखा कि इनकी भाषा भी सरल हो. जिज्ञासा और रोमांच बना रहे. पंचतंत्र, हितोपदेश, ईसप की कहानियाँ, एलिश इन वंडरलैंड जैसी रचनाएं इसीलिए तो सराही गईं और बहुत कुछ कह गईं. विज्ञान को समझाने के लिए ‘विक्रम और बेताल ‘में बेताल को बीते समय का और विक्रम को संवत्सर का प्रतीक बनाया.

विज्ञान केवल संकल्पना या सिद्धांत नहीं है. यह प्रकृति के रहस्यों का रोचक अनावरण है. इसलिए विज्ञान की किताबों में थोड़ा जूनून और जिज्ञासा का पुट हो. चित्रांकन हो. कविता और गीतों में विज्ञान को खूबसूरती से गूंथा जाय.आसानी से विज्ञान कथा कहानी नाटक गीत रेखाचित्र में ढल जाता है. यही कोशिश रहे.

अब होती है जुगलबंदी और वह भी आबिद सुरती के साथ जो मेरे प्रिय लेखक और कार्टूनिस्ट रहे. यह मौका मिला झीलों की नगरी उदयपुर में. वहाँ बच्चों को रोबोट और एलियन पर कहानी लिखने को कहा तो जैसे उनकी कल्पनाओं को पँख लग गए. आबिद जी से भेंट हुई और उन्होंने बच्चों को चित्रकला के गुर समझाये. ये भी कहा कि बच्चों के लिए ऐसी सीधी सरल भाषा और रोचक शैली में लिखा जाये जिसे वह आसानी से समझ सकें और उसे पढ़ उसका आनंद उठायें. ऐसा ही कुछ काम रुद्रपुर ऊधम सिंह नगर उत्तराखंड में हेम कर रहे हैं. वो बच्चों के लिए नाटक कर रहे हैं, फ़िल्में दिखा रहे हैं, कविता पाठ कराते हैं. सृजन पुस्तकालय भी बनाया है जिसके कमरे में बैठ मोबाइल और इंटरनेट युग में पुस्तकों की प्रासंगिकता पर चर्चा चली. सभी माने कि पुस्तकें अपने जादुई शब्दों और कागज की खुश्बू के साथ सदा हमारा साथ निभाती रहेंगी.

देहरादून में मैती आंदोलन के जनक कल्याण सिंह जी से भेंट हुई वह एक अनोखा आंदोलन चलाते रहे हैं जिसमें नव विवाहित वर -वधू एक पौंधा लगाते हैं जो लड़की के मैत यानी मायके में बड़ा होता है और उनके विवाह को यादगार बना देता है. उन्होंने 200 साल से चल रहे स्कूल के बारे में बताया और फिर उसके प्रधानाचार्य हुकुम सिंह उनियाल जी से भी भेंट करवा दी. यहाँ पढ़ने वाले बच्चे सभी बेसहारा. स्कूल आवासीय था और बच्चे अपनी दुनिया में बुलबुलों की तरह चहक रहे थे. खेल रहे थे. बस उन्हें कहानियों और फँतासी की दुनिया में बहला, टाइम मशीन से अतीत और भविष्य की झलकियां दिखा समझाने लगा कि कल की दुनिया तो तुम्हें ही बनानी है. अगर आज पेड़ पौंधों और जीव जंतुओं से प्यार करोगे, उन्हें बचाओगे तो ही कल की दुनिया हरी-भरी और खुशहाल होगी.

‘लर्निंग साइंस थ्रू स्टोरी टेलिंग ‘यानी किस्सागोई के जरिये विज्ञान की बात बच्चों के साथ युवा पीढ़ी के सामने रखने का मौका मिला गढ़वाल विश्वविद्यालय के चौरास कैंपस में जहां इंस्पायर कार्यक्रम का शिविर आयोजित था. तो राजस्थान में ब्यावर से आगे मसूदा में बालविज्ञान खोजशाला आयोजित है. रास्ते में घुघुती चिड़िया दिखाई देती है तो उसका गीत भी याद आ गया-‘ नीँ बास घुघुती चैत की /नराई लागे मैं मैत की. कु कु कु कू कू कू.पर साथ चल रहे स्थानीय लक्ष्मण ने चौँकाया,’ना, ना, ना, यहाँ तो इसके गाने को अपशकुन मानते हैं. ये तो गाती है कि मैं तेरा सब बर्बाद कर दूंगी, घर का खंडहर बना दूंगी ‘, इसलिए इसे लोग सुनते नहीं, भगा देते हैं. यहाँ इसे डेकण कहते हैं.लोक में कितने मिथ प्रचलित हैं महसूस हुआ. आगे फिर एक अनोखे गाँव के बारे में पता चला जहां सारे घर कच्चे हैं. दो ढाई सौ परिवार रहते हैं. लोग पढ़े लिखे बड़े ओहदे में भी हैं पर सबके घर कच्चे. सब घरों में चूल्हा जलता है, न कहीं ए. सी. ना कूलर. ना कोई मांस खाता है न शराब पीता है किसी घर में आज तक चोरी नहीं हुई सो ताला भी नहीं लगा.गाँव की सारी जमीन की रजिस्ट्री गाँव वालों के नाम नहीं बल्कि देवता देवनारायण के नाम है. अनोखा गाँव है देवमाली गाँव जिसे हेरिटेज ग्राम घोषित किया गया है.
(Katha Kaho Yayavar)

ऐतिहासिक विरासत और गाथिक वास्तुकला का अनूठा उदाहरण है शिमला का ‘गेयटी थिएटर ‘जहां मैंने पोर्टमोर गर्ल्स स्कूल के बच्चों को आलू की कहानी सुनाई. उसी आलू की जिसकी एक किस्म शिमला आलू का नाम कमा चुकी है. न जाने कब से पेरू और बोलेविया में एंडीज की पहाड़ियों में रेड इंडियन इसे उगा रहे थे. स्पेन ने जब वहाँ हमला किया तो उनका सेनापति फ्रेंसिसको पिजारो का एक पादरी इसे स्पेन ले आया और नाम पड़ा पटाटा. हमारे देश में आलू पुर्तगाली लाये. एक अंग्रेज कैप्टेन यंग ने इसे मसूरी की पहाड़ियों में बोया तो कैप्टेन गन ने इसे कुमाऊं में फैलाया. आलू में बड़े गुण हैं इसे उबाल के खाओ और गाओ -‘आलू, कचालू बेटे कहाँ गए थे, बंदर की झोंपड़ी में सो रहे थे.’

सतपुड़ा के घने जंगलों की सम्मोहक वनैली गंध जब नाक में पहुँचती है तो ऐसा लगता है जैसे बीजों से फूटे नवांकुरों की तरह मां प्रकृति की उस आदि गंध से मन मस्तिष्क का एक एक रेशा जगा दे. यहाँ के विद्यालय में जंगल में बसे अनगिनत गांवों के बच्चे पढ़ते हैं. फिर केसला का स्कूल है जिसके द्वार पर आदिवासी कोरकू भाषा में लिखा था, ‘अले विज्ञान सिखाऊ ‘ यानी हमें विज्ञान सीखना है. इससे आगे भरगदा गाँव में एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय है जो विज्ञान की पढ़ाई को ही समर्पित है और केवल आदिवासी बच्चों को ही शिक्षा देने के लिए स्थापित है.

एक गैर सरकारी संस्था ‘एकलव्य’ ने 1982 में होशंगाबाद में वैज्ञानिक जागरूकता की लहर जगाई थी. आगे इटारसी है. जंगलों से भरे इस स्थान पर पहले ईँट और रस्सी बनाने का कम होता था. यह कहते -कहते इस जगह को ही लोग इटारसी कहने लग गए. यहाँ की हरियाली का राज पूछा तो एक मुहावरे की जानकारी मिली, ‘तीखड़ जमानी, तीन हाथ पानी!’ यानी तीन हाथ खोदो तो पानी ही पानी.वहाँ बच्चों के मन की बात जानी. बातों बातों में उन्हें बताया कि पेड़ -पौंधे और जीव – जंतु इस दुनिया में हमारे हमसफ़र हैं. अगर ये न रहे तो हम भी न बचेंगे. अब तक जो गलतियां हुईं वह हम न करेंगे. आज जिन फसलों, पेड़ -पौंधों, पक्षियों और तितलियों के बीच तुम रह रहे हो वह शहर- महानगर के बच्चों के लिए एक सपना है.

इस सपने को पूरा करने में लगे पडे साहस और उम्मीद से भरे लोग भी दिखते हैं कि वसुंधरा हरी -भरी समृद्धि से परिपूर्ण रहे. श्रीनगर गढ़वाल की हिम्मती लड़की गंगा असनोड़ा उनमें से एक है. अपने घर में तीन -तीन दारुण त्रासदियाँ सह, दो नन्हे बच्चों का हाथ पकड़ अपने पति के मासिक ‘रीजनल रिपोर्टर ‘पत्रिका के सपने को साकार करने और इसके दस साल पूरा होने पर अपने दम खम से स्कूली बच्चों के लिए शहर में बाल मेला आयोजित कर वह साहस भरा कदम उठाती है. मुझे फिर मौका मिलता है चम्बा (टिहरी गढ़वाल ), पौड़ी, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग और गोपेश्वर में शिक्षकों और विद्यार्थियों से बातचीत का . भास्कर उप्रेती के साथ भीमताल, रानीखेत , गरुड़, बागेश्वर, देवलथल, पिथौरागढ़,, अल्मोड़ा, दिनेशपुर, खटीमा, काशीपुर, हल्द्वानी की कुमाऊं परिक्रमा का.

हल्द्वानी के कमलुवागाजा में गोल घेरे में बच्चों, साथियों के साथ घूमते- गाते झोड़े में भाग का मौका भी- “अहा धौली गंगा भागीरथी को के भलो रेवाड़ा अहा खोलि दे माता खोल भवानी धार में किवाड़ा ” अहा, धौली गंगा भागीरथी का तट कितना सुन्दर है. अहा, खोल दे मां भवानी,चोटी पर अपने मंदिर का द्वार खोल दे.
(Katha Kaho Yayavar)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के नियमित लेखक हैं.

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  • आज (5 सितंबर) एक ऑनलाइन प्रोग्राम की व्यस्तता के बाद देर शाम को प्रोफेसर मृगेश पांडे जी लिखित यह दीर्घ समीक्षा पढ़ कर मन गदगद हुआ। बहुत अच्छा लगा यह जानकर कि उन्होंने मेरी पुस्तक 'कथा कहो यायावर' को शब्द-शब्द पढ़ते हुए मेरे साथ विभिन्न प्रदेशों की यात्रा की, जहां-जहां मैं विज्ञान और प्रकृति की तमाम बातें बच्चों और बड़ों को सुनाने के लिए गया। वहां उन लोगों को भी देखा-सुना जिनको मैंने किस्सागोई में वे किस्से सुनाए।
    आभारी हूं कि उन्होंने अपनी इस शब्द-यात्रा के बाद जो अनुभव किया, वह इस समीक्षा के रूप में लिख दिया। मेरी पुस्तक पढ़ने और समय निकाल कर यह समीक्षा लिखने के लिए मैं प्रोफेसर पांडे जी और इसे प्रकाशित करने के लिए 'काफल ट्री' के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करता हूं।

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