कला साहित्य

कहानी : मैं हिंदू हूं

-असग़र वजाहत

ऐसी चीख कि मुर्दे भी क़ब्र में उठकर खड़े हो जाएं. लगा कि आवाज़ बिल्कुल कानों के पास से आई है. उन हालात में…मैं उछलकर चारपाई पर बैठ गया, आसमान पर अब भी तारे थे…शायद रात का तीन बजा होगा. अब्बाजान भी उठ बैठे. चीख फिर सुनाई दी. सैफ़ अपनी खुर्री चारपाई पर लेटा चीख रहा था. आंगन में एक सिरे से सबकी चारपाइयां बिछी थीं.
“लाहौलविलाकुव्वत…” अब्बाजान ने लाहौल पढ़ी. (Kahani Main Hindu Hoon)

“ख़ुदा जाने ये सोते-सोते क्यों चीखने लगता है.” अम्मा बोलीं.
“अम्मा इसे रातभर लड़के डराते हैं…” मैंने बताया.
“उन मुओं को भी चैन नहीं पड़ता…लोगों की जान पर बनी है और उन्हें शरारतें सूझती हैं”, अम्मा बोलीं.
सफ़िया ने चादर में मुंह निकालकर कहां, “इसे कहो छत पर सोया करे.”

सैफ़ अब तक नहीं जगा था. मैं उसके पलंग के पास गया और झुककर देखा तो उसके चेहरे पर पसीना था. सांस तेज़-तेज़ चल रही थी और जिस्म कांप रहा था. बाल पसीने में तर हो गए और कुछ लटें माथे पर चिपक गई थी. मैं सैफ़ को देखता रहा और उन लड़कों के प्रति मन में ग़ुस्सा घुमड़ता रहा जो उसे डराते हैं.

तब दंगे ऐसे नहीं हुआ करते थे जैसे आजकल होते हैं. दंगों के पीछे छिपे दर्शन, रणनीति, कार्यपद्धति और गति में बहुत परिवर्तन आया है. आज से पच्चीस-तीस साल पहले न तो लोगों को ज़िंद़ा जलाया जाता था और न पूरी की पूरी बस्तियां वीरान की जाती थीं. उस ज़माने में प्रधानमंत्रियों, गृहमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का आशीर्वाद भी दंगाइयों को नहीं मिलता था. यह काम छोटे-मोटे स्थानीय नेता अपन स्थानीय और क्षुद्र किस्म का स्वार्थ पूरा करने के लिए करते थे. व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता, ज़मीन पर कब्ज़ा करना, चुंगी के चुनाव में हिंदू या मुस्लिम वोट समेत लेना वगैरा उद्देश्य हुआ करते थे. अब तो दिल्ली दरबार का कब्ज़ा जमाने का साधन बन गए हैं. सांप्रदायिक दंगे. संसार के विशालतम लोकतंत्र की नाक में वही नकेल डाल सकता है जो सांप्रदायिक हिंसा और घृणा पर खून की नदियां बहा सकता हो.

सैफ़ को जगाया गया. वह बकरी के मासूम बच्चे की तरह चारों तरफ़ इस तरह देख रहा था जैसे मां को तलाश कर रहा हो. अब्बाजान के सौतेले भाई की सबसे छोटी औलाद सैफुद्दीन उर्फ़ सैफ़ ने जब अपने घर के सभी लोगों से घिरे देखा तो अकबका कर खड़ा हो गया. सैफ़ के अब्बा कौसर चचा के मरने का आया कोना कटा पोस्टकार्ड मुझे अच्छी तरह याद है. गांव वालों ने ख़त में कौसर चचा के मरने की ख़बर ही नहीं दी थी बल्कि ये भी लिखा था कि उनका सबसे छोटा सैफ़ अब इस दुनिया में अकेला रह गया है. सैफ़ के बड़े भाई उसे अपने साथ बंबई नहीं ले गए. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि सैफ़ के लिए वे कुछ नहीं कर सकते. अब अब्बाजान के अलावा उसका दुनिया में कोई नहीं है. कोना कटा पोस्ट कार्ड पकड़े अब्बाजान बहुत देर तक ख़मोश बैठे रहे थे. अम्मां से कई बार लड़ाई होने के बाद अब्बाजान पुश्तैनी गांव धनवाखेड़ा गए थे और बची-खुची ज़मीन बेच, सैफ़ को साथ लेकर लौटे थे. सैफ़ को देखकर हम सबको हंसी आई थी. किसी गंवार लड़के को देखकर अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के स्कूल में पढ़ने वाली सफ़िया की और क्या प्रतिक्रिया हो सकती थी, पहले दिन ही यह लग गया कि सैफ़ सिर्फ गंवार ही नहीं है बल्कि अधपागल होने की हद तक सीधा या बेवकूफ़ है. हम उसे तरह-तरह से चिढ़ाया या बेवकूफ़ बनाया करते थे. इसका एक फ़ायदा सैफ़ को इस तौर पर हुआ कि अब्बाजान और अम्मां का उसने दिल जीत लिया. सैफ़ मेहनत का पुतला था. काम करने से कभी न थकता था. अम्मां को उसकी ये “अदा` बहुत पसंद थी. अगर दो रोटियां ज़्यादा खाता है तो क्या? काम भी तो कमर तोड़ करता है. सालों पर साल गुज़रते गए और सैफ़ हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया. हम सब उसके साथ सहज होते चले गए. अब मोहल्ले का कोई लड़का उसे पागल कह देता तो तो मैं उसका मुंह नोंच लेता था. हमारा भाई है तुमने पागल कहा कैसे? लेकिन घर के अंदर सैफ़ की हैसियत क्या थी ये हमीं जानते थे.

शहर में दंगा वैसे ही शुरू हुआ था जैसे हुआ करता था यानी मस्जिद से किसी को एक पोटला मिला था जिसमें में किसी किस्म का गोश्त था और गोश्त को देखे बगैर ये तय कर लिया गया था कि चूंकि वो मस्जिद में फेंका गया गोश्त है इसलिए सुअर के गोश्त के सिवा और किसी जानवर का हो ही नहीं सकता. इसकी प्रतिक्रिया में मुग़ल टोले में गाय काट दी गई थी और दंगा भड़क गया था. कुछ दुकानें जली थीं और ज़्यादातर लूटी गई थीं. चाकू-छुरी की वारदातों में क़रीब सात-आठ लोग मरे थे लेकिन प्रशासन इतना संवेदनशील था कि कर्फ़्यू लगा दिया गया था. आजकल वाली बात न थी हज़ारों लोगों के मारे जाने के बाद भी मुख्यमंत्री मूछों पर ताव देकर घूमता और कहता कि जो कुछ हुआ सही हुआ.

दंगा चूंकि आसपास के गांवों तक भी फैल गया था इसलिए कर्फ्यू बढ़ा दिया गया था. मुग़लपुरा मुसलमानों का सबसे बड़ा मोहल्ला था इसलिए वहां कर्फ्यू का असर भी था और “जिहाद’’ जैसा माहौल भी बन गया था. मोहल्ले की गलियां तो थी ही पर कई दंगों के तजुर्बों ने यह भी सिखा दिया था कि घरों के अंदर से भी रास्ते होने चाहिए. यानी इमरजेंसी पैकेज. तो घरों के अंदर से, छतों के ऊपर से, दीवारें को फलांगते कुछ ऐसे रास्ते भी बन गए थे कि कोई अगर उनको जानता हो तो मोहल्ले के एक कोने से दूसरे कोने तक आसानी से जा सकता था. मोहल्ले की तैयारी युद्धस्तर की थी. सोचा गया था कि कर्फ्यू अगर महीने भर भी खिंचता है तो ज़रूरत की सभी चीजें मोहल्ले में ही मिल जाएं.

दंगा मोहल्ले के लड़कों के लिए एक अजीब तरह के उत्साह दिखाने का मौसम हुआ करता था. अजी हम तो हिंदुओं को ज़मीन चटा देंगे.. समझ क्या रखा है धोती बांधनेवालों ने…अजी बुज़दिल होते है….एक मुसलमान दस हिंदुओं पर भारी पड़ता है…हंस के लिया है पाकिस्तान लड़कर लेंगे हिन्दुस्तान जैसा माहौल बन जाता था, लेकिन मोहल्ले से बाहर निकलने में सबकी नानी मरती थी. पी.ए.सी. की चौकी दोनों मुहानों पर थी. पीएसी के बूटों और उनकी राइफलों के बटों की मार कई को याद थी इसलिए जबानी जमा-खर्च तक तो सब ठीक था लेकिन उसके आगे…

संकट एकता सिखा देता है. एकता अनुशासन और अनुशासन व्यावहारिकता. हर घर से एक लड़का पहरे पर रहा करेगा. हमारे घर में मेरे अलावा, उस ज़माने में मुझे लड़का नहीं माना जा सकता था, क्योंकि मैं पच्चीस पार कर चुका था, लड़का सैफ़ ही था इसलिए उसे रात के पहरे पर रहना पड़ता था. रात का पहरा छतों पर हुआ करता था. मुग़लपुरा चूंकि शहर के सबसे ऊपरी हिस्से में था इसलिए छतों पर से पूरा शहर दिखाई देता था. मोहल्ले के लड़कों के साथ सैफ़ पहरे पर जाया करता था. यह मेरे, अब्बाजान, अम्मां और सफ़िया-सभी के लिए बहुत अच्छा था. अगर हमारे घर में सैफ़ न होता तो शायद मुझे रात में धक्के खाने पड़ते. सैफ़ के पहरे पर जाने की वजह से उसे कुछ सहूलियतें भी दे दी गई थीं, जैसे उसे आठ बजे तक सोने दिया जाता था. उससे झाडू नहीं दिलवाई जाती थी. यह काम सफ़िया के हवाले हो गया था जो इसे बेहद नापसंद करती थी.

कभी-कभी रात में मैं भी छतों पर पहुंच जाता था, लाठी, डंडे, बल्लम और ईंटों के ढेर इधर-उधर लगाए गए थे. दो-चार लड़कों के पास देसी कट्टे और ज़्यादातर के पास चाकू थे. उनमें से सभी छोटा-मोटा काम करने वाले कारीगर थे. ज़्यादातर ताले के कारखानों के काम करते थे. कुछ दर्जीगिरी, बढ़ईगीरी जैसे काम करते थे. चूंकि इधर बाज़ार बंद था इसलिए उनके धंधे भी ठप्प थे. उनमें से ज़्यादातर के घरों में क़र्ज से चूल्हा जल रहा था. लेकिन वो खुश थे. छतों पर बैठकर वे दंगों की ताज़ा ख़बरों पर तब्सिरा किया करते थे या हिंदुओं को गालियां दिया करते थे. हिंदुओं से ज़्यादा गालियां वे पीएसी को देते थे. पाकिस्तान रेडियो का पूरा प्रोग्राम उन्हें ज़बानी याद था और कम आवाज़ में रेडियो लाहौर सुना करते थे. इन लड़कों में दो-चार जो पाकिस्तान जा चुके थे उनकी इज्जत हाजियों की तरह होती थी. वो पाकिस्तान की रेलगाड़ी “तेज़गाम` और “गुलशने इक़बाल कॉलोनी` के ऐसे किस्से सुनाते थे कि लगता स्वर्ग अगर पृथ्वी पर कहीं है तो पाकिस्तान में है. पाकिस्तान की तारीफ़ों से जब उनका दिल भर जाया करता था तो सैफ़ से छेड़छाड़ किया करते थे. सैफ़ ने पाकिस्तान, पाकिस्तान और पाकिस्तान का वज़ीफ़ा सुनने के बाद एक दिन पूछ लिया था कि पाकिस्तान है कहां? इस पर सब लड़कों ने उसे बहुत खींचा था. वह कुछ समझा था, लेकिन उसे यह पता नहीं लग सकता था कि पाकिस्तान कहां है.

गश्ती लौंडे सैफ़ को मज़ाक़ में संजीदगी से डराया करते थे.

“देखो सैफ़ अगर तुम्हें हिंदू पा जाएंगे तो जानते हो क्या करेंगे? पहले तुम्हें नंगा कर देंगे.”
लड़के जानते थे कि सैफ़ अधपागल होने के बावजूद नंगे होने को बहुत बुरी और ख़राब चीज़ समझता है,
“उसके बाद हिंदू तुम्हारे तेल मलेंगे.”
“क्यों, तेल क्यों मलेंगे?”
“ताकि जब तुम्हें बेंत से मारें तो तुम्हारी खाल निकल जाए. उसके बाद जलती सलाखों से तुम्हें दागेंगे…”
“नहीं,” उसे विश्वास नहीं हुआ.

रात में लड़के उसे जो डरावने और हिंसक किस्से सुनाया करते थे उनसे वह बहुत ज़्यादा डर गया था. कभी-कभी मुझसे उल्टी-सीधी बातें किया करता था. मैं झुंझलाता था और उसे चुप करा देता था लेकिन उसकी जिज्ञासाएं शांत नहीं हो पाती थीं. एक दिन पूछने लगा.

“बड़े भाई पाकिस्तान में भी मिट्टी होती है क्या?”
“क्यों, वहां मिट्टी क्यों न होगी.”
“सड़क ही सड़क नहीं है…वहां टेरीलीन मिलता है…वहां सस्ती है…
“देखो ये सब बातें मनगढ़ंत हैं…तुम अल्ताफ़ वग़ैरा की बातों पर कान न दिया करो.” मैंने उसे समझाया.
“बड़े भाई क्या हिंदू आंखें निकाल लेते हैं…”
“बकवास है…ये तुमसे किसने कहा?
“बच्छन ने.”
“गल़त है.”
“तो ख़ाल भी नहीं खींचते?”
“ओफ़्फोह…ये तुमने क्या लगा रखी है…”

वह चुप हो गया लेकिन उसकी आंखों में सैकड़ों सवाल थे. मैं बाहर चला गया. वह सफ़िया से इसी तरह की बातें करने लगा.
कर्फ्यू लंबा होता चला गया. रात की गश्त जारी रही. हमारी घर से सैफ़ ही जाता रहा. कुछ दिनों बाद एक दिन अचानक सोते में सैफ़ चीखने लगा था. हम सब घबरा गए लेकिन ये समझने में देर नहीं लगी कि ये सब उसे डराए जाने की वजह से है. अब्बाजान को लड़कों पर बहुत ग़ुस्सा आया था और उन्होंने मोहल्ले के एक-दो बुजुर्गनुमा लोगों से कहा भी, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ. लड़के और वो भी मोहल्ले के लड़के किसी मनोरंजन से क्यों कर हाथ धो लेते?

बात कहां से कहां तक पहुंच चुकी है इसका अंदाज़ा मुझे उस वक़्त तक न था जब तक एक दिन सैफ़ ने बड़ी गंभीरता से मुझसे पूछा,

“बड़े भाई, मैं हिंदू हो जाऊं?”

सवाल सुनकर मैं सन्नाटे में आ गया, लेकिन जल्दी ही समझ गया कि यह रात में डरावने किस्से सुनाए जाने का नतीजा है. मुझे ग़ुस्सा आ गया फिर सोचा पागल पर ग़ुस्सा करने से अच्छा है ग़ुस्सा पी जाऊं और उसे समझाने की कोशिश करूं.
मैंने कहा, “क्यों तुम हिंदू क्यों होना चाहते हो?”

“इसका मतलब है मैं न बच पाऊंगा,” मैंने कहा.
“तो आप भी हो जाइए…”, वह बोला.
“और तुम्हारे ताया अब्बार, मैंने अपने वालिद और उसके चचा की बात की.’’
“नहीं. ..उन्हें…” वह कुछ सोचने लगा. अब्बाजान की सफेद और लंबी दाढ़ी में वह कहीं फंस गया होगा.
“देखा ये सब लड़कों की खुराफ़ात है जो तुम्हें बहकाते हैं. ये जो तुम्हें बताते हैं सब झूठ है. अरे महेश को नहीं जानते?”
“वो जो स्कूटर पर आते हैं…” वह ख़ुश हो गया.
“हां-हां वही.”
“वो हिंदू है?”
“हां हिंदू है.”

मैंने कहा और उसके चेहरे पर पहले तो निराशा की हल्की-सी परछाईं उभरी फिर वह ख़ामोश हो गया.
“ये सब गुंडे बदमाशों के काम हैं…न हिंदू लड़ते हैं और न मुसलमान…गुंडे लड़ते हैं, समझे?”

दंगा शैतान की आंत की तरह खिंचता चला गया और मोहल्ले में लोग तंग आने लगे, यार शहर में दंगा करने वाले हिंदू और मुसलमान बदमाशों को मिला भी दिया जाए तो कितने होंगे… ज़्यादा से ज़्यादा एक हज़ार, चलो दो हज़ार मान लो तो भाई दो हज़ार आदमी लाखों लोगों की जिंद़गी को जहन्नुम बनाए हुए हैं और हम लोग घरों में दुबके बैठे हैं. ये तो वही हुआ कि दस हज़ार अंग्रेज़ करोड़ों हिंदुस्तानियों पर हुकूमत किया करते थे और सारा निज़ाम उनके तहत चलता रहता था और फिर इन दंगों से फ़ायदा किसका है, फ़ायदा? अजी हाजी अब्दुल करीम को फ़ायदा है जो चुंगी का इलेक्शन लड़ेगा और उसे मुसलमान वोट मिलेंगे. पंडित जोगेश्वर को है जिन्हें हिंदुओं के वोट मिलेंगे, अब तो हम क्या हैं? तुम वोटर हो, हिंदू वोटर, मुसलमान वोटर, हरिजन वोटर, कायस्थ वोटर, सुन्नी वोटर, शिआ वोटर, यही सब होता रहेगा इस देश में? हां क्यों नहीं? जहां लोग ज़ाहिल हैं, जहां किराये के हत्यारे मिल जाते हैं, जहां पॉलीटीशियन अपनी गद्दियों के लिए दंगे कराते हैं वहां और क्या हो सकता है? यार क्या हम लोगों को पढ़ा नहीं सकते? समझा नहीं सकते? हा-हा-हा-हा तुम कौन होते हो पढ़ाने वाले, सरकार पढ़ाएगी, अगर चाहेगी तो सरकार न चाहे तो इस देश में कुछ नहीं हो सकता? हां…अंग्रेजों ने हमें यही सिखाया है…हम इसके आदी हैं…चलो छोड़ो, तो दंगे होते रहेंगे? हां, होते रहेंगे? मान लो इस देश के सारे मुसलमान हिंदु हो जाएं? लाहौलविलाकुव्वत ये क्या कह रहे हो. अच्छा मान लो इस देश के सारे हिंदू मुसलमान हो जाएं? सुभान अल्लाह …वाह वाह क्या बात कही है…तो क्या दंगे रुक जाएंगे? ये तो सोचने की बात है…पाकिस्तान में शिआ सुन्नी एक दूसरे की जान के दुश्मन हैं…बिहार में ब्राह्मण हरिजन की छाया से बचते हैं…तो क्या यार आदमी या कहो इंसान साला है ही ऐसा कि जो लड़ते ही रहना चाहता है? वैसे देखो तो जुम्मन और मैकू में बड़ी दोस्ती है. तो यार क्यों न हम मैकू और जुम्मन बन जाएं…वाह क्या बात कह दी, मलतब…मतलब…मतलब…

मैं सुबह-सुबह रेडियो के कान उमेठ रहा था सफ़िया झाडू दे रही थी कि राजा का छोटा भाई अकरम भागता हुआ आया और फलती हुई सांस को रोकने की नाकाम कोशिश करता हुआ बोला.

“सैफ़ को पी.ए.सी. वाले मार रहे हैं.”
“क्या? क्या कह रहे हो?”
“सैफ़ को पीएसी वाले मार रहे हैं”, वह ठहरकर बोला.
“क्यों मार रहे हैं? क्या बात है?”
“पता नहीं…नुक्कड़ पर…”
“वहीं जहां पीएसी की चौकी है?”
“हां वहीं.”
“लेकिन क्यों…”

मुझे मालूम था कि आठ बजे से दस बजे तक कर्फ्यू खुलने लगा है और सैफ़ को आठ बजे के करीब अम्मां ने दूध लेने भेजा था. सैफ़ जैसे पगले तक को मालूम था कि उसे जल्दी से जल्दी वापस आना है और अब दस बजे गए थे.

“चलो मैं चलता हूं” रेडियो से आती बेढंगी आवाज़ की फिक्र किए बग़ैर मैं तेजी से बाहर निकला. पागल को क्यों मार रहे हैं पीएसी वाले, उसने कौन-सा ऐसा जुर्म किया है? वह कर ही क्या सकता है? खुद ही इतना खौफज़दा रहता है उसे मारने की क्या ज़रूरत है…फिर क्या वजह हो सकती है? पैसा, अरे उसे तो अम्मां ने दो रुपए दिए थे. दो रुपए के लिए पीएसी वाले उसे क्यों मारेंगे?

नुक्कड़ पर मुख्य सड़क के बराबर कोठों पर मोहल्ले के कुछ लोग जमा था. सामने सैफ़ पीएसी वालों के सामने खड़ा था. उसके सामने पीएसी के जवान थे. सैफ़ जोर-जोर से चीख़ रहा था,
“मुझे तुम लोगों ने क्यों मारा…मैं हिंदू हूं…हिंदू हूं…”

मैं आगे बढ़ा. मुझे देखने के बाद भी सैफ़ रुका नहीं वह कहता रहा,
“हां, हां मैं हिंदू हूं…” वह डगमगा रहा था. उसके होंठों के कोने से ख़ून की एक बूंद निकलकर ठोढ़ी पर ठहर गई थी.
“तुमने मुझे मारा कैसे…मैं हिंदू…”
“सैफ़…ये क्या हो रहा है…घर चलो”
“मैं…मैं हिंदू हूं.”

मुझे बड़ी हैरत हुई…अरे क्या ये वही सैफ़ है जो था…इसकी तो काया पलट गई है. ये इसे हो क्या गया.
“सैफ़ होश में आओ” मैंने उसे ज़ोर से डांटा.

मोहल्ले के दूसरे लोग पता नहीं किस पर अंदर ही अंदर दूर से हंस रहे थे. मुझे ग़ुस्सा आया. साले ये नहीं समझते कि वह पागल है.

“ये आपका कौन है?” एक पीएसी वाले ने मुझसे पूछा.
“मेरा भाई है… थोड़ी मेंटल प्राब्लम है इसे”
“तो इसे घर ले जाओ,” एक सिपाही बोला.
“हमें पागल बना दिया,” दूसरे ने कहा.
“चलो…सैफ़ घर चलो. कर्फ्यू लग गया है…कर्फ्यू…”
“नहीं जाऊंगा…मैं हिंदू हूं. ..हिंदू…मुझे…मुझे…”
वह फूट-फूटकर रोने लगा…‘‘मारा…मुझे मारा…मुझे मारा…मैं हिंदू हूं…मैं…’’

सैफ़ धड़ाम से ज़मीन पर गिरा…शायद बेहोश हो गया था…अब उसे उठाकर ले जाना आसान था. (Kahani Main Hindu Hoon)

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Sudhir Kumar

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