पिछली क़िस्त का लिंक – जोहार घाटी का सफ़र -4
‘मामा अब नहीं आएंगे हम ट्रैकिंग में… ! मिलम गांव से मुनस्यारी को वापस आते वक्त नितिन के ये शब्द मुझे मुनस्यारी पहुंचने तक कचोटते रहे. ऐसा नहीं था कि नितिन इस ट्रैक में शारीरिक रूप से थक गया था. कम उम्र होने के बावजूद पीठ में रूकसैक लादे वो हर रोज हमारी टीम के साथ मीलों पैदल रास्ता नाप रहा था. दरअसल इस ट्रैक में बार्डर के बे-सर पैर के नियम कानूनों व उलझनों से परेशान हो नितिन मानसिक रूप से थक गया था. और इस बात का गुस्सा वो मुझ पर निकाल रहा था. देर सायं मुनस्यारी पहुंचने पर सकून सा मिला जब उसने कहा, ‘मामा अगले साल कहां का ट्रैक है. मुझे भूलना मत हां.
उत्तराखंड में हिमालय से लगी तिब्बत की सीमा कैसी होती होगी. वहां बार्डर में कैसी जो हलचल होती होगी. हमारे जाबांज सिपाहियों का जीवन वहां क्या होता होगा. पहले जब सीमाओं का बंधन नहीं होता था तो कैसे लोगों का काफिला दर्रों को पार कर आते-जाते होंगे. वो दर्रे कैसे होते होंगे. जैसी कर्इ जिज्ञासा बचपन से ही मन में रहती थी. कर्इ हिमालयी यात्राएं करने के बाद बार्डर की साहसिक यात्रा करने को मन में कुलबुलाहट मचने लगी तो व्यास व दारमा घाटी का रूख किया. व्यास घाटी में ऊं पर्वत तथा छोटा कैलाश के दर्शनों के साथ ही सिनला पास करने के बाद भी बार्डर की जिज्ञासा की हमारी प्यास नहीं बुझी. हांलाकि हम व्यास व दारमा घाटी की अदभुत सुंदरता व इतिहास से रूबरू जरूर हुए.
दसकों पहले अल्मोड़ा बारामडल का जोहार में छोटे-बड़े 500 मकानों का गांव था मिलम. जोशीमठ के मलारी गांव व मिलम के ग्रामीणों का सदियों पहले तिब्बत से व्यापार के लिए ऊंटा धूरा दर्रा पार करके आना-जाना लगा रहता था. तिब्बत की संस्कृति की झलक इनमें अभी भी मिलती है. मिलम तब एक बड़ी व्यापारिक मंडी थी. अब तो मिलम गांव खंडहर हो चुका है. कुछ ही ग्रामीण प्रवास में वहां जाते हैं. 1998 में हमारा एक दल मिलम से मलारी अभियान पर निकला. गार्इड का स्वास्थ्य बिगड़ जाने पर बुढ़ा दुंग से हमें वापस लौटना पड़ा था. बाद में गाईड बच नहीं सका तो इस क्षेत्र में कई सालों तक जाने का मन नहीं किया. ऊंटा धूरा दर्रा पार कर मलारी न जा पाने का एक मलाल कई सालों तक सालते रहा.
हमारे साथी भुवन चौबे ने कलकत्ता के एक दल के साथ मिलम-मलारी अभियान पर 2011 के अगस्त माह में जाने की पेशकश रखी तो हमें तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गर्इ. कलकत्ता के दल का इंतजार करते अगस्त भी गुजरने को हुवा कि इस बीच पता लगा कि उनका दल अब सिंनला पास को जा रहा है. हमें वहां की पेशकश रखी गर्इ. सिंनला दर्रा हमारे दल ने 2007 में पार किया था इसलिए मना कर दिया. मिलम-मलारी अभियान के अचानक फेल होने से हमने इस पर खुद ही जाने के लिए जो मन बनाया तो योगेश परिहार, संजय पांडे के साथ ही मेरा भांजा नितिन भट्ट समेत हम चार लोग जुड़ गए.
सात सितंबर 2011 को हमारा दल बागेश्वर से मुनस्यारी को निकला. बस से हमारा सफर थल तक का ही था. थल में मुनस्यारी के लिए जीप लगी थी. तब सड़क कर्इ जगह ध्वस्थ होने की वजह से बस नहीं जा पा रही थी. पिथौरागढ़ के बुजुर्ग पत्रकार बी. डी. कसनियाल व नाचनी के केवल जोशी से भी यात्रा की शुभकामनाएं ले ली. जीप चढ़ार्इ में मध्यम रफतार से चल रही थी. बादल फटने से दफन हो चुके ला-झेकला गांवों की जमीन में घास उग चुकी थी. अगस्त 2009 में बादल फटने से ये गांव भूस्खलन की चपेट में आने से बह गए. इस भयानक हादसे में गांव में रह रहे 42 लोग मौत की आगोश में चले गए थे. बिर्थी गांव के पास ही 125 मीटर की उंचार्इ से लहराते हुए नीचे गिरता झरना अपनी ओर खींच सा रहा था. यहां झरने के पास ही कुमाऊं मंडल विकास निगम का सुंदर ढांक बंगला है. जीप सर्पाकार सड़क में धीरे-धीरे ऊंचार्इ को जा रही थी. सड़क की सेहत काफी दुबली दिखी. किनारे में पैराफिड नहीं के बराबर हैं. राज्य समेत देश के शीर्ष पदों पर शासन चला रहे कर्इ दिग्गजों का मुनस्यारी, जोहार आदि में गांव हैं. वो भी अकसर इसी सड़क से यहां पहुंचते हैं. आश्चर्य होता है कि उन्हें ये सब क्यों नहीं दिखार्इ देता होगा. सायद भ्रष्टाचार ने दिमाग की परतों के साथ ही उनकी आंखें भी बंद कर दी हों!
जीप झटके से रूकी. घंटी बजने की आवाज पर बाहर देखा. ये 2700 मी. की ऊंचार्इ पर कालामुनि टॉप था. जीप की कैद से बाहर निकल मंदिर में चले. भोटिया कुत्ते के चार पिल्ले दौड़ते हुए अपनी गरजदार आवाज में भौंकते हुए हमारी ओर लपके. हम उन्हीं के साथ काफी देर तक खेल में मस्त हो गए कि जीप का हार्न सुनार्इ दिया. जीप अब उतार में थी. सड़क के नीचे वन विभाग का हर्बल गार्डन दिखार्इ दे रहा था. तब सुनने में आया था कि इस गार्डन में कुछ बड़े घोटाले हुए हैं, जिन्हें ले-देकर खत्म कर दिया गया. सामने पंचाचूली में बादलों की लुका-छिपी हो रही थी. जीप मुनस्यारी में पांडे लॉज के पास रूकी. सरल स्वभाव के पांडेजी हमारा सामान रखने में खुद भी मदद करने लगे. मुनस्यारी में उनका लॉज उनके मीठे स्वभाव की तरह काफी चर्चित और सकुनदायक है. इस यात्रा के लिए पांडेजी ने ही हमारे लिए गार्इड मनोज कुमार को तय कर रखा था.
मनोज के आने के बाद हम सभी आर्इटीबीपी कैम्प में गए. मिलम क्षेत्र में जाने के लिए प्रशासन के साथ ही आर्इटीबीपी की भी इजाजत जरूरी है. आर्इटीबीपी कैम्प में गए तो वहां के साहब ऊंटा धूरा के लिए ना-नुकुर सी करने लगे. हमने अपने मित्र एवरेस्टर हीरा राम जो कि आर्इटीबीपी में तब पिथौरागढ़ में सुबेदार मेजर पद पर थे का परिचय देने के साथ ही अपनी यात्रा का उदेश्य (साहसिक) बताया तो बमुश्किल उन्होंने परमिट में साइन किए।मौसम थोड़ी देर के लिए खुला तो सामने पंचाचूली की भव्य रूप देख हम सभी चिहुंके. पंचाचूली मुनस्यारी से काफी खूबसूरत दिखता है. पंचाचूली की चोटियां चिमनी की तरह खूबसूरत दिखी. मुनस्यारी में पंचाचूली से जुड़ी एक पुरानी कहावत मालूम हुर्इ. हमें एक गार्इड ने बताया कि पांडव जब स्वर्ग को जा रहे थे तब उन्होंने यहीं पंचाचूली में ही आंखरी बार भोजन बनाया था. यह कैसे संभव हुवा होगा अब ये तो पांडव और उस जमाने के लोग ही जानें. हमें यकीन करना जरा संभव नहीं जान पड़ा. मुनस्यारी तब काफी दूर तक फैला दिख रहा था. नीचे दूर जड़ में बहती गोरी गंगा की आवाज अपने होने का एहसास करा रही थी. मुनस्यारी से मिलम के साथ ही रालम, नामिक सहित अनगिनत ग्लेशियर व बुगयालों को जाने के लिए टैकिंग मार्ग है. रालम ग्लेशियर जाने के लिए मुनस्यारी से लगभग 45 किमी की यात्रा लीलम, पटाण गांव, सूफिया उडियार होते हुए साहसिक मार्ग है.
( जारी )
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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