गणेश मर्तोलिया ने लोकसंगीत के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. बेहद विनम्र स्वभाव के गणेश हर समय पुरानी लोकधुनों की खोज में रहते हैं. उनके एक गीत पर हमने कुछ माह पहले एक पोस्ट भी लगाई थी. अनेक वर्षों के बाद इसी सिलसिले में हाल ही में वे अपने पुरखों की भूमि जोहार घाटी की मुश्किल यात्रा कर आये हैं.
इधर उन्होंने फेसबुक पर इस यात्रा के अपने संस्मरणों को तरतीबवार पेश करना शुरू किया है. इन विवरणों से गणेश मर्तोलिया का एक नया चेहरा देखने को मिलता है जो बहुत मानवीय है, अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत को लेकर सजग और संवेदनशील है और जिसे भाषा की अच्छी तमीज है.
पेश हैं उनके इन संस्मरणों के कुछ टुकड़े:
जोहार के बुबू का कर्मयोग
सुबह तकरीबन साढ़े पांच बजे ही प्रहलाद मपवाल बुबूजी गरम गरम चाय की गिलास हाथ में रखकर भौनि (बाहर का कमरा,जो अक्सर मेहमानों के लिए प्रयोग में आता था) में आये और आवाज देने लेंगे “नाती उठो, चहा पी लो!”
उठकर जैसे ही चाय की पहली चुस्की ली थी कानों में हल्की हल्की मधुर घंटियां सुनाई देने लगी तो मैं चाय की गिलास ही हाथ में लेकर बाहर की ओर आ निकला और घंटियों की आवाज का पीछा करते करते एक गाड़, द्वी गाड़, तीन गाड़ पार करते हुए आखिर उस गाड़ (खेत) तक पहुंच गया, जहां लगभग 70 साल के मपवाल बुबूजी दो बैलों की जोड़ी को लेकर “ल्हे-ल्हे-ल्हे,आई आई गत्तीलैन, स्वीटि-स्वीटि” की आवाज के साथ खेत जोतने में मशगूल थे .
इतनी उम्र मे बुबूजी ने अब तक जोहार आना छोड़ा नही. मैंने पुछा बुबूजी इतनी उम्र में भी आप जोहार कैसे आ जाते हैं,क्यो इतने कष्ट मोल लेकर जोहार आते हो?
बुबूजी ने उत्तर दिया “नाती हमारी पहली मिट्टी, पहली हवा, पहला घर, पहला गांव ही जोहार है,जब तक पराण है नाती अपनी भूमि को बंजर नहीं छोड़ सकते … और वैसे भी हम नहीं आएंगे फिर तुम थोड़े न आओगे हल्द्वानी, बम्बई, दिल्ली से फांफर, धुंगार,थ्वाया उगाने? सब तुम बच्चों के खातिर है नाती ये मार-मार, कुट-कुट”.
मैं भावुक सा था एक क्षण के लिए ये सोचकर कि इसे कहते हैं हिमाल में जीना, इसे कहते हैं हिमाल के लिए जीना.
मल्ला रिलकोट
यह मल्ला रिलकोट/पुराना रिलकोट है. तल्ला रिलकोट से लगभग १ किमी उपर मर्तोली से पहले पड़ता है. तल्ला रिलकोट में बसने से पूर्व रिलकोटिया कौम मल्ला रिलकोट में ही निवास करते थी. खंडहरों को भली-भांति देखने के बाद प्रतीत होता है कि लगभग 30-40 से ज्यादा रिलकोटिया परिवार यहां रहते होंगे. मल्ला रिलकोट में अत्यधिक हवा चलने के कारण मकान छोटे से मैदानी भूभाग पर चारों ओर से बनाए गए थे और सभी के आंगन एक दूसरे की ओर खुला करते थे.
प्रतिकूल भौगोलिक परिस्थितियों के कारण शायद रिलकोटिया लोग मल्ला रिलकोट छोड़कर तल्रला रिलकोट बस गए होंगे..अब केवल खंडहर और भग्नावशेष ही है.
बाकी तल्ला रिलकोट में 6-7 परिवार कीड़ा जड़ी और होटल व्यवसाय के लिए हर साल प्रवास करते हैं. तल्ला रिलकोट में भी कोई भी भवन सही दशा में नहीं है.
गोरी नदी और पिछले कुछ वर्षों में आते विनाशकारी प्राक्रतिक आपदा ने आधे से ज्यादा रिलकोट के मैदानी भूभाग को अपने साथ बहा दिया है,बाकि विनाश की बची खुची कसर BRO कम्पनी कर रही है.
वीर समाजसेवी छिनकेप पांगती
जोहार घाटी हमेशा ना केवल सौंदर्य से परिपूर्ण रहा है बल्कि यह घाटी महान व्यक्तियों की जन्मस्थली भी रही है.
उनमे से एक वीर,बहादुर और सामाजसेवी थे छिनकेप पांगती. सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी के करीब जोहार में जोहार वासियों में सट्टू बेगार प्रथा प्रचलित थी. सट्टू एक सफेद कपड़ा होता था जिसे प्रत्येक जोहार वासियों को बारी-बारी से हर वर्ष तिब्बती लामा व बौद्ध मठ में चढ़ाना पड़ता था.
इस सफेद कपड़े को बहुत सफाई के साथ मुनस्यारी से तिब्बत ले जाना पड़ता था. सट्टू में जरा सी भी धूल या गंदगी पड़ने पर तिब्बती अधिकारी क्रूर व्यवहार अपनाते थे और दंड देने से भी नहीं चूकते थे.
इस तरह एक बार सट्टू चढ़ाने की बारी गनघर गाँव की एक बूढ़ी विधवा महिला पर आई,अधिक उम्र होने की वजह से या ध्यान भटक जाने की वजह से बूढ़ी महिला सट्टू को साफ रखने में सफल नहीं हो पायी अत: तिब्बत पहुंचने पर बूढ़ी महिला पर तिब्बती अधिकारियों द्वारा निर्ममता से कोड़े बरसाए गए!
इस घटना से दुखी होकर मिलम के छिनकेप पांगती ने अपने कुछ साथियों के साथ तिब्बत जाने का निर्णय लिया और तिब्बत के प्रशासक से बेगार प्रथा को हटाने की विनती की और अपनी बुद्धिमता से इस पर सफल भी हुए!
इस तरह छिनकेप पांगती ने समस्त जोहारियो को तिब्बती शासकों,लामाओ द्वारा थोपे गए कष्टकारी प्रथा से मुक्ति प्रदान की.
ख़त्म होते घराट
मिलम,लास्पा और पाछू में पानी के घराट(घट्ट/चक्की) मिले. मिलम में जो घराट मिला वो गोरी नदी के किनारे पर स्थित है. घराट काफी पुराना प्रतीत हो रहा था. यह संभवत तीस-चालीस साल से प्रयोग में नहीं लाया जाता होगा. घराट के भान (यंत्र) कुछ घराट के अंदर कुछ बाहर इधर उधर टूटे-फूटे बिखरे पड़े थे. घराट की तरफ आना वाला पानी का गूल वर्षों पहले सूख चुका होगा, अब केवल गूल के हल्के हल्के निशान ही दिख रहे थे.
पांछू गांव का घराट हरे-भरे बुग्याल के बीच में पांछू गाड़ के किनारे स्थित है,जो की अत्यधिक रमणीय है. घराट के लिए बनाए गए पानी के गूल में अब भी पानी आ रहा था. घराट के पत्थर, लकड़ी और बाकी यंत्र अब भी सुरक्षित थे, शायद पांछू गांव के बुजुर्ग पिछले कुछ साल तक इस घराट का उपयोग करते होंगे.
जोहार वासी घराट का उपयोग मुख्यत: पल्थी व फांफर पीसने के लिए करते थे. जोहार में गेहूँ या मडवे की फसल नहीं होती थी अतः: लोग पल्थी का आटा बनाकर रोटी के रुप में खाते थे, हालांकि तल्ला मुनस्यारी से प्रवासी अपने साथ मड़ुवा लेके आते थे, जिसका उपयोग सत्तू, रोटी, थौपकू, रौबौल, फौन आदि के रूप में करते थे. फांफर का उपयोग सिल्थु, चुन्नी, पुली, च्यौंच आदि बनाने में किया जाता था.
सिल्थु के आटे को थोड़ा सा पानी में मिलाकर तुर्रु चूख (आचार) के साथ खाया जाता था. मुझे बचपन में याद है मेरी म्वया (नानीमां) इसे अकसर बनाया करती थी और मुझे भी खाने को देती लेकिन मुझे तब इसका स्वाद बिल्कुल पसंद नहीं था क्योंकि यह थोड़ा सा कड़वा होता था.
मुनस्यारी के शौका लोग अब भी शादियों में फांफर के आटे में पानी मिलाकर गोल-गोल आकृति बनाते हैं और उसके उपर हरे घास की दूब डालते हैं जिसे शुभ माना जाता है.
दुर्भाग्य है अब हिमाल के नदी किनारे आपको उपयोगी घराट नहीं बड़े-बड़े विनाशरुपी बाँध ही नजर आएंगे.
बारह परिवारों वाला घर
ठुल मो का परिवार कुछ ऐसा था – बाबू राम सिंह जी (1887) के दादाजी छेतुआ (1815) हुए. छेतुआ के चार बेटे हुए – धामू, जसमल, मेघ सिंह और हरि सिंह. जसमल (1842) के बेटे हुए बाबू राम सिंह,बाबू राम सिंह के चार बेटे हुए – मोहन सिंह, उत्तम सिंह, गोविंद सिंह, लक्षमण सिंह और एक पुत्री तुलसी.
छेतुआ के वंशों के इतने फैलाव के कारण ही जोहार में इन्हे ठुलमो कहा जाता है. करीब 12 परिवार का इतना बड़ा विशाल भवन अब जर्जर स्थिति में है, इसे देखने सम्भालने वाला कोई नहीं, अब सवाल नयी पीढ़ी से है कि अपनी विरासत, अपनी धरोहर को आप अपने आंखों के सामने यूं ही नष्ट होते देखना चाहेंगे या आपसी मेलजोल, तालमेल से फिर अपने पुरखों की पान-गोठ-बाखली को आबाद करेंगे, और आबाद रखेंगे अपने गौरवमयी इतिहास को.
(सभी फोटो: गणेश मर्तोलिया)
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मुनस्यारी की जोहार घाटी के खूबसूरत गांव मरतोली के मूल निवासी गणेश मर्तोलिया फिलहाल हल्द्वानी में रहते हैं और एक बैंक में काम करते हैं. संगीत के क्षेत्र में गहरा दखल रखने वाले गणेश का गाया गीत ‘लाल बुरांश’ बहुत लोकप्रिय हुआ था.
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Very nice . May God bless you.