प्राचार्य का अर्दली तारा विभाग में आया और बड़ी कॉन्फिडेंसियल मुख मुद्रा में उसने फुसफुसाती आवाज में मुझे बताया कि साहिब ने बुलाया है अभी. आ रहा हूँ कह मैंने मुँह में रसते पान को तेजी से चाबना शुरू किया. क्लास से निकले अभी पांच मिनट भी न हुए थे. अब साब ने बुलाया है तो जल्दी जाना ही पड़ेगा और साब भी आदेश के परिपालन मामले में एकदम अंग्रेज डॉ कृष्णा नन्द जोशी, अंग्रेजी के प्रोफेसर और अब हमारे प्राचार्य. नैनीताल और ज्ञानपुर के बड़े स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में रहे. कुमाऊँ की संस्कृति पर किताबें लिखीं जो प्रकाश बुक डिपो, बरेली से छपी. इनमें से एक की प्रति मुझे भी दी. इसी किताब से लिया देवी का जागर हमने पहले महाविद्यालय के हॉल व फिर शरदोत्सव में अपार भीड़ के सामने किया. जिसे देख वहाँ कइयों के आंग थिरक गये. प्राचार्य खुद भी मौजूद थे सपत्नी. कर्ता-धर्ता रहा इतिहास का विद्यार्थी भूपेंद्र तिवारी. उसने कॉलेज के पास के ही अपने गांव बजेठी के जगरिये-डंगरिये जुटाये जिन्होंने समा बांध दिया. बाकी चेले-चपाटे सब कॉलेज के ही, उन पर रिहर्सल के दौर से ही लहसुन प्याज़ का कड़ा प्रतिबन्ध. नातक-सूतक भी देखा गया. मुझे यह सब कुछ अतिरंजित तो लगा पर धीरे-धीरे में समझ गया कि ये सब देवी के जागरण, उसके प्रति रखी भावनाएं हैं.
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प्राचार्य ने बैठो का संकेत दिया और सामने पड़ी डाक से एक भूरा लिफाफा मेरी ओर बढ़ाते मुझसे कहा “यूजीसी से शार्ट टर्म प्रोजेक्ट मिला है तुम्हें, टेक्नोलॉजी एडॉप्शन इन बॉडर डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ यू पी हिल्स.” अप्रूवल की डेट तो मार्च की है आया अब है. अब तुरंत काम शुरू कर इसकी पहली किश्त का हिसाब-किताब भेजो तभी फाइनल ग्रांट आयेगी.
प्राचार्य कक्ष में डॉ राम सिंह, डॉ. जे एम सी जोशी, डॉ. एच एस फर्तयाल के साथ स्टॉफ के अन्य कई वरिष्ठ बैठे थे. लगता था कोई मीटिंग चल रही थी जो अब खतम हो गई थी क्योंकि बलभद्र चाय सर्व करने लगा था.
साइंस में तो लोग काम कर रहे. यू जी सी के प्रोजेक्ट अच्छे मिले हैं कॉलेज को. इकोनॉमिक्स में तो पहला मिला है मृगेश को. गणित के डॉ जोशी बोले. अर्थशास्त्र में गणित के प्रयोगों पर वह खूब बहस करते. कोई भी नया सा काम करो खूब पीठ थपथपाते.
बढ़िया है. बस लगे रहो. यहां तो ऐसे भी हैं जो पहली किश्त मिलते ही ग्रांट का पैसा एन एस सी में लगा देते हैं. मुझे डॉ फरत्याल की गरजती आवाज सुनाई दी. किसी पर उन्होंने तंज मारा था पर निशाना कौन था ये पता नहीं. और ये डॉ साब राम सिंह जी हुए ही. ये भी खूब चले हैं बॉर्डर पर जोहार में. ये खूब बताएंगे वहाँ के बारे में. अपना चेला तुम्हें बनाने में लगे ही हैं. बस धोतीधारी मत बन जाना तुम. पता है आपको सर ये हमारे राम सिंह जी तो मिलम भी धोती पहन पहुँच गए. पर नैन सिंह की डायरी वाला काम इन्होने खूब किया है. बढ़िया लेख छपा देखा मैंने धर्मयुग में. अब उस की डायरी पर मोटी किताब छपवा डालो. हां, किताब भी आ रही. प्रेम ग्रंथ भनार टनकपुर वाले लोहनी जी छाप रहे.
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अरे राजकमल छाप देगा उसे दिल्ली वाला. कब तक ये पूजा पाठ जैसी किताब छपाओगे? फर्तयाल साब बोले और खांसने लगे. जेब से रुमाल निकाल उन्होंने होंठ पोछे और मुझसे मुख़ातिब हो बोले – जोहार के बाबू राम सिंह हुए असली विद्वान, बाबू राम सिंह पांगती उन्होंने लिखा है जोहार का इतिहास. ये अपना रिसर्च स्कालर देवराज हुआ उनका नाती- वाती होगा. उससे पता कर उसे पढ़ो. रिफरेन्स ऑथेंटिक होना चाहिए नहीं तो तुम भी इतिहास वालों की तरह गप मारने लगोगे. हमारे शासन में है खूब पढ़ाकू वो आर एस टोलिया उससे मिलो आते रहता है पिथौरागढ़. दूसरा वाई एस पांगती हुआ. नृप सिंह नपच्याल भी हुआ हां पर वो जोहार का नहीं हुआ. तुम्हारा काम तो जोहार में होगा ना?
“हां सर, ये सर्वे बेस्ड काम है. स्ट्रैटीफाइड सर्वे. मिलम गाँव तक, मैंने जोहार वैली ली है.
ठीक किया, माइक्रो स्टडी होनी चाहिए. अब वैसे भी सरकार डिसेंट्रेलाइज्ड प्लानिंग पर फोकस कर रही. फैक्ट एंड फाइंडिंग पर बेस्ड रहो. हिंदी-हिस्ट्री वालों की तरह गपोड़िया पन मत करना.
जी सर.
तब तुरंत शुरू करो काम. नवंबर तक जितना डाटा ले सको, जा के लाओ. फोटो भी लगाओ. फिर तो ठंड का दौर हो जायेगा. कुछ जान पहचान है वहाँ?
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‘हाँ. सर. देवराज सिंह पांगती पोलिटिकल साइंन्स का रिसर्च स्कोलर, दिनेश दा के अंडर, उससे ही ये आईडिया मिला. उसने ट्रेडिशनल टेक्नोलॉजी के बारे में बहुत कुछ समझाया है. और पांगती जी हुए लाइब्रेरियन ऊपर सरकारी लाइब्रेरी के और धर्म सत्तू हैं टेलीफोन वाले, उनसे पूछताछ करता रहता हूँ. कई स्टूडेंट्स हैं वहां के.
मुंशियारी इंटर कॉलेज में शेर सिंह पांगती जी हैं. उनसे जरूर संपर्क करो. आज ही चिट्ठी डाल दो. अब डॉ जोशी, प्राचार्य बोले. “कुछ किताबें हैं मेरे पास, उनको भी पढ़ डालो. काम खूब मेहनत से करो. ढील ढाल न हो. और जो ये पैसा मिल रहा उसी मद में खर्च करो जिसके लिए एसाइन है.”
“मेरी खूब पहचान है वहाँ जोहार में. साब को मालूम है.मेरे को ले चलो. सब काम करा दूंगा आपके”. मुंह लगा तारा बोला.
हाँ, हां ये तारा के जुगाड़ सब जगह हैं, ऊपर तक, जब होश में रहे ये.
नहीं साब. कहाँ. आपने देखा ही होगा. छोड़ दी मैंने बाप कसम.
तू छोड़ेगा?
तारा प्रिंसिपल साब का अर्दली होता था. इतनी होशियारी मीठे मुँह से बात करता कि हर काम सुलटा लेने का हुनरमंद लगता पर उसकी बातें किसम-किसम के आसवों के कंसन्ट्रेशन में डूबी रहतीं. और तो और जुलॉजी डिपार्टमेंट से प्योर अलकोहल की स्मगलिंग में भी पारंगत हुआ बल.
ऊँची चोटियों पर जाने और कुछ काम से जुड़ जाने की खुशी तो हुई ही शुरूवात में ही अपने सीनियर के पॉजिटिव रुख से मन में तरंग उठी. वैसे भी पहाड़ में चढ़ने का हर मौका मुझे और हल्का बना देता था.
चाय के साथ अब आपसी हास व्यंग व अन्य बातें होने लगी.
प्राचार्य कक्ष से भूरा लिफाफा पकड़े मैं सीधे दुमँजले फिजिक्स डिपार्टर्मेंट भागा. दीप को खबर दी. वह भी तैयार हुआ . यात्राओं में मेरा पहला साथी वही हुआ. आजकल उसके ईजा बाबू भी अल्मोड़ा अपने पाण्डेखोला वाले घर थे.
दीप के मालिके मकान अखबार स्वाधीनप्रजा के सम्पादक थे. शाम को उनकी प्रेस में प्रोजेक्ट की प्रश्नावलियाँ छापने को दे दीं.
अपनी टीम तैयार थी. दीप के साथ इतिहास का छात्र शोबन, कुण्डल दा पक्के हुए. कुल मिला दस दिन का आयोजन बना. शाम टहलते हुए पुलिस वाले अपने पाण्डे जी मिले तो उन्होंने बताया कि उनका भी उधर सरकारी दौरा है सो मुवानी में वह मिल जायेंगे. उन्होंने फिर भगवती बाबू के बारे में बताया कि वो डाक हरकारों के बॉस हुए थल-नाचनी से ऊपर. पूरे इलाके को नापा है उन्होंने. मैं कह दूंगा तो मुंसियारी या आगे कहीं मिल जाएंगे. पोस्ट ऑफिस तो हर जगह हुए ही. उनकी हर गांव घर में पहचान हुई. रहने टिकने खाने का भी इंतज़ाम पक्का रखते हैं. पांडे जी ने कहा टीम में चार पांच लोग ही रहें तो अच्छा.
शाम ढले अगरवाला को पता चला तो उसने एलान कर दिया कि वो भी चल रहा है. कैजुअल लीव सब पड़ी हैं.
“अरे ये ढोल जैसा पेट और थुल-थुल काया ले कहाँ चढ़ेगा और पहनता भी सैंडल है हर बखत. फच्च फच्च चलता है. ऐसे पाँव घिसट कौन पहुंचा वहाँ”. दीप ने चिढ़ाया.
“बाटा का बूट ले लेंगे क्रेप वाला. अरे बनवा ही लेंगे नाप दे कर. पर हमें रोक नहीं सकता कोई”.
“तो तेरा पिट्ठू कौन बोकेगा? दस कदम चढ़ाई में भी कुत्ते की तरह धों-फौँ करने लगता है”.
“जो पहना है उसके अलावा कुछ रखेंगे ही नहीं”.
हे शिव -शम्भू! ये तो चिपट ही गया. अब?
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त्रिशूल पर्वत ठीक सामने है. इसकी दक्षिणी पूर्वी तल्हटी की ओर मिलम हिमनद है जिससे निकलती है गोरी गाड़ नदी. इससे ग्यारह हजार फिट की ऊंचाई पर तिब्बत से निकल कर आने वाली नदी गोंखागाड़ का यहीं संगम होता है जिसके ठीक ऊपर खूब बड़ा गाँव है मिलम. बिल्कुल नहीं सोचा था कि सीमांत प्रदेश में इतनी ऊंचाई पर इतना बड़ा गांव होगा बस लोगों से सुना भर था. यही नहीं गोरी गाड़ नदी खूब तेजी से मचलती-कूदती, जल कलरव करती यहां प्रवाहित होती है तो इसके पूरब की ओर घास के बड़े फैले मैदान के दर्शन होते हैं जिसे “थांगची” कहा जाता है. तिब्बती भाषा में “थांग” का मतलब मैदान है, तो “ची” कहते हैं घास को. दक्षिण की ओर गोरी नदी की घाटी पसरी है तो पूरब और पश्चिम की ओर पहाड़ के ढलान में घास के मैदान जिनको समीप से देखने पर छोटे-छोटे रंग -बिरंगे फूलों के दर्शन होते हैं. इन बुगयालों से काफी ऊपर उत्तर दिशा की ओर हरा-भरा पहाड़ दूर तक फैला पसरा है जिसमें झाड़ियों का घना जंगल है. अधिकांश झाड़ियां जूनिपर की बताई गईं जिसे “बिल्ल” कहते हैं. झाड़ियों के इस समूचे जंगल को “सिंगुला” कहा जाता है. साथ चल रहा मेरा एमए का विद्यार्थी व मिलम का निवासी गोपाल बताता है कि यहीं आगे जो गोंखाधार है उसके उत्तर की ओर जंगली फलों की झाड़ियां हैं जिनमें ‘स्यप्ला’ और ‘सिरकुती’ की बहुतायत है. बरसात के मौसम के बाद इनमें लाल-गुलाबी-भूरे फलों की भरमार हो जाती है.
गोपाल के बड़े भाई केजीएमसी लखनऊ से एमबीबीएस के आखिरी साल में हैं तो छोटी बहिन कमला नेहरू मेडिकल कॉलेज इलाहाबाद के सेकंड ईयर में. गोपाल अभी एम ए इकोनॉमिक्स कर रहा. उसको प्रशासन में जाना है. मेरा चेला है बड़ा मेहनती और विनम्र भी.
पिथौरागढ़ से डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है प्रकृति की अनमोल धरोहर का खूबसूरत बसाव मुंशियारी. हम पिथौरागढ़ से कनालीछिना के रास्ते ओगला पहुंचे. ओगला से आगे डीडीहाट, तेजम व गिरगांव होते मुंशियारी पहुंचा जाना तय हुआ. यहां से वापसी के लिए हमने मदकोट का रास्ता चुना. ऐसे में ओगला से तेजम-गिरगांव-मुंशियारी-मदकोट-ओगला का पथ पूरी परिक्रमा करा देता है. वहीं पिथौरागढ़ से दूसरा रास्ता भी है जो पनार, रामेश्वर, गंगोलीहाट, बेरीनाग होते तेजम पहुँचता है. बेरीनाग से आगे चौकोड़ी होते बागेश्वर व फिर आगे कपकोट होते भी तेजम पहुँचते हैं.
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मुंशियारी से आगे मिलम गांव तक पहुँचना है जिसे एशिया का सबसे बड़ा व विस्तृत गांव कहा जाता रहा. आगे मिलम ग्लेशियर सात हजार मीटर से भी अधिक ऊंचाई पर हिमाच्छादित चोटियों का सिरमौर है. पिथौरागढ़ से मुंशियारी तक बस यात्रा कर पहुंचा जाता है तो मिलम के लिए करीब साठ किलोमीटर की पैदल यात्रा है जिसमें लिलम, बुगडियार, रिल्कोट व मिल गांव मुख्य पड़ाव हुए. यहीं मुंशियारी से रालम गलेशियर का रास्ता है जिसके लिए करीब पचास किलोमीटर की पदयात्रा करनी पड़ती है. अभी तो हम बस मिलम तक जाने की योजना में थे.
पिथौरागढ़ सीमांत में सुदूर हिमालय की इन सुरम्य वादियों के रहवासी रही “रं” जनजाति जो 1967 से अनुसूचित जनजाति घोषित कर दी गई व पूर्व में कुमाऊँ व गढ़वाल में “शौका” के रूप में जानी जाती रही. भोटिया शब्द तो अंग्रेजों का दिया हुआ था. छह सौ ईस्वी के बाद के पंचज्वारी युग में पश्चिमी नेपाल व पूर्वी कुमाऊंनी इलाकों से जोहार आ गए राजपूतों ने वैदिक धर्म के रीति रिवाज और कुमाऊंनी भाषा के चलन को अपनाया जिसे पंद्रहवीं सदी में श्री धाम सिंह रावत और गंगोलीहाट से आये ब्राह्मणों के द्वारा गति मिली.
सोलहवीं शताब्दी से वैदिक धर्म, त्यौहार, रीति रिवाज और कुमाऊंनी बोली का संमिश्रण शौका संस्कृति का अभिन्न अंग बना जिसमें जोहार की जलवायु और रहवासियों के संक्रमण शील जीवन के कारण कुछ भिन्नताएं व विविधता भी दिखाई दी. शौका व्यापारी थे और तिब्बत व्यापार मुख्य व्यावसायिक गतिविधि जिसके साथ ऊन का कारोबार व इसका अनूठा शिल्प. इससे पूजा पाठ व धार्मिक विधि विधान सूक्ष्म हुए व इनका काज पंडितों के द्वारा हुआ.
सत्रहवीं शताब्दी तक शौका समाज काफी उदार व समावेशी था. जोहार उपत्यका में गढ़वाल, कुमाऊँ व नेपाल के विभिन्न भागों से आये राजपूतों को शौकाओं ने सरलता से अपने में शामिल किया जिसका मुख्य कारण यह माना गया कि तिब्बत व्यापार में अधिक जन-शक्ति की आवश्यकता रहेगी. फिर व्यापार की प्रतिस्पर्धा बढ़ने से उन्होंने समाज को एकांतिक बना दिया. जैसे गढ़वाल से जो राजपूत आए उनको एक अलग वर्ग नित्वाल में रख दिया गया व उन्हें उच्च कुल का समझ उन्हें द्याप्त पूजन के काज से जोड़ा गया. अन्य भागों से जो निर्धन राजपूत आये उनका अलग वर्ग बना. यह ऐसी परिपाटी बनी जिसमें ये वर्ग तिब्बत व्यापार में सम्मिलित न हो सके. छुआ छूत का भी प्रचलन रहा. कमोबेश सामंतवादी व्यवस्था से प्रभावित जिसमें पुरोहितों को पूजा पाठ व काश्तकारों को शारीरिक श्रम, शिल्पकारों को दासोचित व मिरासियों को आमोद-प्रमोद कार्य करने के लायक समझा जाता. शिल्पकार व मिरासी जनों के द्वारा छुआ अन्न जल ग्रहण न करना परिपाटी रही तो काश्तकार उनके अधीन जीवन निर्वाह व्यवस्था में रहे. शौकाओं पर उनकी निर्भरता व्यवहार में दास व्यवस्था से प्रभावित रही. अपने मालिक शौकाओं को वह गुसाईं जी कहते.
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व्यापार में सौदा तय हो जाने पर शर्ते हर परिस्थिति में निभाना व गुप्त सौदों को सार्वजनिक न करना, व्यक्ति और उनके रिश्ते की गरिमा का सम्मान करना व बिना किसी प्रतिफल की कामना किये सामाजिक कार्य करना शौका की खासियत रही. व्यक्तिगत रूप से व्यक्तिवादी तो सामाजिक रूप से सहकारी भावना का संयोग भी मुखर रहा.
राजकीय पुस्तकालय पिथौरागढ़ के पांगती जी ने बताया कि दारमा बोली ही “ब्याँखो”-बम्बा, तिंकर और कुटे बोली की जननी है. सामान्यत: “रं” लोगों की अर्वाचीन बोली दारमा बोली कहलाती रही. ‘कोस कोस में बदले पानी, तीन कोस में बानी’ की कहावत के हिसाब से भौगोलिक दूरी के कारण धीरे-धीरे मूल दारमा बोली से आगे प्रचलित “बम्बा” बोली और “व्यंखो” बोली का जनम हुआ. कई लेख एक फाइल में तरतीब से लगा कर उन्होंने मुझे दिए जिनसे ये जानकारी मिली कि यहां का धार्मिक ग्रंथ “अमरीमो” हुआ जिसके अनुसार इस धरा के पूर्वजों की हमेशा ही खोजी प्रवृति रही जिन्होंने यहां के दुर्गम स्थानों में पथों की खोज की, आने जाने व व्यापार के लिए पथ बनाए, रस्ते चढ़ाये. अमरीमो में ऐसे सभी भौगोलिक संकेतकों का उल्लेख है जो इस इलाके के सुदूर गाँव की दशा तो बताता ही था, रास्ते में पड़ने वाले देव स्थानों का भी इनमें वर्णन होता. यहां तक कि दानवों के आवास का भी इसमें जिक्र है. पांगती जी ने बताया कि पहले से चला आ रहा रिवाज यह था कि रास्तों में पड़ने वाले देव स्थान में पत्थर का लिंग अर्पित किया जाता था. उस पर ‘धजा’ या ध्वजा चढ़ा कर ‘स्यर्जे’ अर्थात अक्षतों से पूजा जाता था. रस्ते में पड़ने वाले असुरों, दैत्यों का कोप कम करने के लिए पथ में ‘लूंण’ अर्थात नमक और कांटेदार टहनियाँ डाल दी जाती थीं.
देवताओं की पूजा जिसे ‘द्याप्त पुजै’ कहते स्थानीय विविधताओं से परिपूर्ण रहती जैसे बुर्फू व टोला में ‘रागा’ मनाते थे तो बिलजू में ‘पुबर्याल’, मरतोली में ‘बगनाथ’ एवम ‘सादयो’तो मिलम में ‘थात्याल- भूम्याल’, ‘हरदेवल’ व ‘ल्वारद्यो’ जो पांछू व खिलाँच में भी पूजे जाते. कई कुल देवताओं की द्याप्त पुजै अधिकांशतः मंदिरों या चुने हुए स्थल में संपन्न की जाती जिनमें पशु बलि भी दी जाती. इनमें परिवार के सदस्य मौजूद रहते व पूजन कार्य भी खुद संपन्न करते.
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द्याप्त पुजै उत्सव के रूप में भी की जाती जैसे नंदादेवी पूजा तथा गांव का सामूहिक पूजन जो अधिकांशत: नितवाल पुजारियों द्वारा संपन्न की जाती थीं. हुनाकरा व रातांग यानी बकरियों के साथ भैंसों की बलि चढ़ती थी. इनको पहले ‘पिठाक’ यानी पिठ्या लगाते फिर अक्षत वारते. फिर बकरियों के मस्तक व बदन पर जल छिड़का जाता. बकरी इस जल को बाल फरफरा कर झाड़ देतीं जिसे ‘बोकोरो-झारीन’ कहा जाता. ऐसा होने पर यह मान्यता होती कि द्यापता द्वारा बलि स्वीकार कर ली गई है. भैंसो की गर्दन तलवार के एक ही वार में धड़ से अलग कर चढ़ाई जाती. मुनस्यारी व तल्ला जोहार में द्याप्त पूजा व बलि के आयोजन में शोभा यात्रा नहीं होती थी.
मल्ला जोहार में परिवार या सामूहिक रूप से मिल कर द्यापता बलि के आयोजन सम्पन्न होते रहे. इन्हें उत्सव की तरह मनाया जाता हालांकि इनको मनाने की विधियां आंचलिक स्तर पर भिन्नता भी लिए होती थीं जैसे कि मिलम में संपन्न नंदादेवी पूजा में पुजारी लोगों में ही किसी के आंग में ‘घूरमु’ या द्यापता आता था. इसके पीछे लोक कथा यह सुनी गई कि गढ़वाल के दो भाई थे जिनका नाम घरमू व राजू था. दोनों भाई अपनी तंत्र विद्या साधने तिब्बत गए. तिब्बतियों ने उन्हें खाल में बांध-बूंध के खिंगलुंग नदी में प्रवाहित कर दिया. धरमू व राजू तांत्रिक तो हुए ही जिसके बल पर उन्होंने नदी के प्रवाह को रोक दिया. अब पूरा गांव जल से भर गया. खबर लामा गुरु तक ल्हासा पहुंची तो उन्होंने वहीं तीन जोड़े मुखौटे बनाए. इनको नाम दिया ‘धुरमु’, इनमें एक जोड़ी मिलम वालों को, एक गढ़वाल के झेलम गांव वासियों को व तीसरी ल्हासा वासियों को दी. इस कथा के आधार पर मिलम निवासी नंदादेवी के साथ घुरमु का पूजन करते हैं. सयाने कहते हैं कि जिसके आंग में घुरमु आता उसे चंवर गाय की खाल में लपेट पानी में प्रवाहित करने की रस्म भी निबाही जाती. पूजा के दिन पहले उसकी मुख मूर्ति को नंदादेवी मंदिर ले जाने वाले ‘ल्हाँग’ व निशान में लगी चंवर गाय की पुछड़ी के नीचे बांधा जाता. जिस व्यक्ति के आंग में घुरमु औतार लेते उसके हाथ में धागुला व कान में मुनड़ा और बदन में नया चोला पहनाते. फाफर के आटे व दारू से बना खाद्य ‘चुन्नी ‘ खिलाया जाता. तब आवेश में घुरमु अवतरित व्यक्ति बलि के बकरे का लहू अपने मुँह में भर ल्हाँग में चढ़ाता था. कहा जाता है कि नंदादेवी पाछू से मिलम लाई गई थी इस कारण पाछू में भी घुरमा की पूजा होती रही .
द्याप्त पुजे में पुजारी उपवास कर ऊपर नन्दा बुग्याल से कोंल कफ्फु या ब्रह्म कमल तोड़ डोके में भर कर लाते तब ढोली लोगों द्वारा बजाए नगाड़े व दमाऊ से उनका स्वागत होता. ब्रह्मकमल को वर्ष में केवल एक बार नन्दा देवी पूजन में ही तोड़ा जाता और पूजा से पहले इसका वितरण नहीं होता. पूजा के बाद परिवार के मुखिया को कोंल कफ्फु के साथ प्रसाद व जंगली फल बनतिमाला दिया जाता.
दूसरी ओर मुंशियारी में देवता पूजन के साथ जो शोभा यात्रा निकलती है उसे “कौतिक” कहते. मुख्यतः ये सितम्बर व अक्टूबर में होते जिनमें मिलकुटिया, दराती व दरकोट धार के मेले मुख्य होते. डांडाधार का कौतिक अगस्त के आस-पास नंदाष्टमी पड़ने पर आयोजित होता. इसमें पापड़ा व हरकोट के निवासियों की टोली मंदिर की परिक्रमा कर बाजा बजाते प्रवेश करती व सभी अन्य टोलियों के साथ ढुस्का गायन की धूम मच जाती. ढुसके के बोल पुरातन या शास्त्रीय होते जो प्रकृति प्रेम पर आधारित होते तो नए ढुसके प्रेम प्रसंगों पर टिके होते. कौतिक में साथ साथ चांचरी, झोड़ा व चपेली भी होती. बलि व प्रसाद वितरण के साथ कौतिक संपन्न होता. नीचे के इलाकों में थल व नाचनी में शिवरात्रि का कौतिक होता तो वैशाख एक गते थल में व्यापार मेले की धूम मचती.
“रं” पहाड़ी खेती के कुशल खेतिहर होने के साथ ही कुशल व्यापारी भी थे. पांगती जी ने बताया कि यहां ज्यादातर पांगती, रावत, धर्मसत्तू, सयाना और निरखुपा लोग रहते थे. सैकड़ों मकान थे, पशुवों के खोड़ थे जिनमें भेड़, बकरी, घोड़े-खच्चर रहते. खूब चहल -पहल भरा था सीमांत का यह गांव जिसके बारे में कहा जाता कि मिलम गांव तो कभी सोता ही नहीं. बहुत पहले यहां छोटी सी बसासात थी जिसमें मुख्यतः निरखुपा लोग रहते. मिलम की चहल-पहल तब से बढ़ी जब गढ़वाल से धाम सिंह रावत यहां आ कर बसे. तिब्बत से आते वह मिलम रुके और फिर यहीं बस गये.
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1962 में जब चीन का आक्रमण हुआ तो इस युद्ध से जोहार घाटी पर सीधे तो कोई असर न पड़ा पर यहां से होने वाली मुख्य गतिविधि तिब्बत की ओर आवागमन और व्यापार एक दम ठप हो गया. वह जो नियमित गतिविधि व्यापार ने कायम की थी जिसमें शौका लोग मल्ला जोहार की तरफ कूच करते उस पर अचानक ही रोक लग गई. सदियों से चली आ रही यह परम्परा सिमट गई और मुंशियारी और तल्ला जोहार में शौकाओं का बसाव होने लगा. ऊन के परंपरागत काम के साथ भरण पोषण के लिए खेती व दुकानदारी के रहे बचे विकल्प को स्वीकार किया.
पांगती जी ने बताया कि ऐसे कठिन समय में शौकाओं के सयाने बाबू रामसिंह की दूरदर्शी सोच पर अमल हुआ कि कठिनाई और संक्रमण के इस समय में दुविधा से बचना है. अपने समय और श्रम को बर्बाद नहीं होने देना है. भले ही हमारे सामाजिक ताने-बाने का आधार तिब्बत व्यापार अब बीते समय की बात हो,नई शुरुवात तो करनी ही होगी. अभी तक शौका समाज की खासियत तिब्बत व्यापार का कुशल निर्वाह और संचालन था, सारी आर्थिक सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियां इस परंपरागत व्यापार से ही एकनिष्ट रूप से जुड़ी थी. अब इसके बन्द होने का झटका भी झेलना होगा और तेजी से नए अवसरों की खोज भी करनी होगी.
बीसवीं सदी के साथ नवप्रवर्तक योगदान से जोहार में नए बदलाव स्पष्ट दिखाई दिए. हालांकि 1875 में ही पंडित नैन सिंह रावत द्वारा इतिहास रावत कौम और फिर अक्षांस दर्पण व थोक जुलुँग की यात्रा लिख दी गईं जब कथा कहानियाँ किस्से इतिहास सब मौखिक परम्परा पर चलता था. तदन्तर बाबू राम सिंह पांगती जी ने जोहार का इतिहास व जोहार की वंशावली 1907 से 1936 के बीच लिखे व महिला सुधार के सन्दर्भ में अनेक लेखों का संग्रह ‘देशोपकारक’ पुस्तक में किया. 1911 से 1913 की अवधि में जोहार उपकारिणी अखबार के कई अंक निकाले.
मुंशियारी में शेर सिंह पांगती जी के घर में स्थानीय आंचलिक सन्दर्भ ग्रंथो का सुव्यवस्थित संग्रह था. उन्हें भरपूर पलटने का मुझे खूब अवसर मिला. मुंशियारी आए तीन दिन हो चुके थे और अभी तक बिजली नहीं आई थी. शाम होते ही पांगती जी जोहार पर लिखे अपने लेख दिखाते और इस इलाके की खासियत समझाते. मेरे साथ सोबन था इतिहास का विद्यार्थी, वह लेम्पू की धीमी रोशनी में भी तेजी से नोट्स लेने में महारत हासिल कर चुका था. गोपाल भी आ गया था. इन सबकी संगत में हूण देश यानी तिब्बत से होने वाले व्यापार में दारमा के साथ व्यास और चौदास घाटियों के बारे में खास बातें पता चलीं – समझी, नोट की. मेरी परियोजना का खास मकसद यहां इस सुदूर प्रदेश में होने वाले उत्पादन और उसकी परंपरागत तकनीक थी. समय के बदलते इनमें क्या बदलाव हुए उसके अनुभव सिद्ध प्रमाण भी सामने आ रहे थे. उन प्राचीन मुख्य मंडियो की जानकारी भी जुट रही थी जहां तक पहुंचना यहां होने वाली उपज, माल और उसके व्यापार हेतु खासा कठिन और कौशल भरा था.
व्यास और चौदास घाटियों की खास मंडी “किदं” थी जिसका प्रचलित नाम तकलाकोट था. इसे “वानी रुपन गा बं जूनी लीगर छीबं बिल्लीथँ” कहा गया. दारमा बोली में “पन” व्यापार, “गा” करना और “बं” का मतलब स्थान से है. “जूनी लीगर छी बं” से आशय है लेन देन, आदान-प्रदान. तकलाकोट को पुरातन नाम “बिल्लीथँ” के द्वारा भी जाना जाता रहा जो व्यापारिक मंडी के साथ वैचारिक लेनदेन का भी मुख्य केंद्र था.
(Johar Uttarakhand Mrigesh Pande)
शेर सिंह पांगती जी ने हूण देश से हुए व्यापार में अदल बदल, वस्तुओं का आदान-प्रदान अर्थात बार्टर और फिर विनिमय के माध्यम के आई मुद्राओं का क्रमिक प्रचलन भी समझाया. मुद्रा की इन इकाईयों को “सिमुल-मंमुल हयोंता, मालवू-हाटू खूबसू पाता, सरखा -मं, जं क्षे सू च्येर्ता” कहा जाता. जहां “सिमुल-ममूल” को गिना जाता, वहीं “मालवू-हाटू” को नापा जाता और “सरखा-मं-जं” को तोला जाता. यह समस्त जानकारी “अमरीमो” में दी गई.
अमरीमो शब्द की जानकारी मुझे सबसे पहले अपने गुरु तारा चंद्र त्रिपाठी जी के बैठक में बिखरी एक पुरानी सी किताब से हुई थी जिसे मैं उनके आवास मोहन निवास में पलट रहा था अचानक ही अमरीमो शब्द पर ध्यान अटका था . उन दिनों गुरुदेव किसी प्राचीन राजधानी ब्रह्मपुरी की खोज कर रहे थे और आदेश हुआ था कि साँझ होते मोहन निवास आ जाऊं. मैं घर से निकल दुर्गा निवास के आगे छोलदारी से आगे बक स्कूल होते रामजी रोड के चर्च वाला रस्ता पकड़ मालरोड से ऊपर ही ऊपर मोहन निवास का रस्ता पकड़ता. उनके बगल में हमारे हाई स्कूल के प्राचार्य गिरीश चंद्र पांडे जी रहते जिनने क्रोकर स्पेनियल का जोड़ा पाला था. दोनों से मेरी खूब दोस्ती हो गई थी. ऐसा लिपट-चिपट कर खेलते कि ध ही नहीं होती. एक हमारे घर का भालूनुमा कालू तिब्बत ब्रांड था जिसने घर में किसी का आना तक हराम कर रखा था और शाम होते ही वह बप्पाजी के ऑफिस से घर आने के इंतज़ार में गेट से हिलता ही न था. रात भर किसी भी खटके पर उसका भोंकना शुरू हो जाता और फिर मोहल्ले के सारे उसके संगी साथी भी जाग जाते. नाम भी बप्पा ने रखा गुलशेर. कई बार मेरे साथ शाम के घूमने में छोटा भाई राकेश भी लग लेता जिसके साथ उसका दोस्त तिलुआ भी होता. राकेश मोहन निवास से नीचे दुर्गा साह लाइब्रेरी की ओर चला जाता और कई दिन मेरे घर लौटने पर बड़े-बड़े बतख के अंडे दिखाता जो अपने मित्र तिलुआ के सहयोग से वह लाइब्रेरी के नीचे बतखों के निवास से पार कर लाते. एक बार तो एक बतख ने उसकी ऊँगली काट भी ली. इन अण्डों को उबाल गुलशेर को खिलाया जाता इसलिए वह राकेश को सबसे ज्यादा भाव देता और उसकी सूंघ मिलते ही दुम से खूब हवा देता.
राकेश का परम मित्र तिलुआ उर्फ़ त्रिलोक सिंह तो गजब का दुस्साहसी भी था. ऊपर सूखा ताल और कैलाखान की कब्रों की खुदाई कर चांदी के सिक्के हासिल करने का पराक्रम भी उसके पास था. मैंने गुरूजी से कहा भी था कि जब अगली बार वह कुछ पुरातन-उत्खनन करने निकलें तो तिलुआ को भी साथ ले लें. इसके बदन में खूब ताकत भी है और उसकी खोपड़ी झुरझुस से भी परे है. एक क़ब्र से कुछ माल पार करते जहां राकेश और उसका अन्य दोस्त घनतू डर से, जूड़ी-ताप से ग्रस्त हो गये वहां तिलुआ का चेहरा और लाल दिखने लगा. साफ कहता बाबू ने मशाण साधा है ये अंग्रेजों के खबीस तो उनके आगे पानी भरें. किसी मेम की भुतनी लगे तो उसकी टक्कर वह अपनी लोकल आंचरी से करा दे जो लाल टेंकी में दिन भर फिरती हैं. वाकई तिलुआ के बाबू कई तरह की झसक नजर भूत प्रेत झाड़ देते थे बल. सारी पूजा पाती वह कैलाखान से ऊपर लाल टंकी वाले इलाके में करते जहां कई पेड़ों पर सफेद-काली चीर बधी दिखती. विशेषज्ञ बताते कि कित्ती घास काटने लकड़ी लाने वालियां वहां सॉलिड कमाई करती थीं दिन दहाड़े. तिलुआ के बाबू हुए पतरोल, तभी तिलुआ मण्डली उस कैंट वाले इलाके के सारे राज जानती कि आखिर शहर के कई नामचीन हों या पल्लेदार-डोटियाल जुबली भिला और धर्मबीर की कोठी पे तो जायेंगे नहीं और न ही रांची के जंगल में हर मौसम काफल ही पकते हैं. इस लाल टंकी के बारे में दिनेश दा से पूछ बैठने के चक्कर में उनका जबर चाँटा मैं तो एक दो साल पहले खा ही चुका था सो राकेश को भी मैंने सावधान कर दिया था कि ऐसे अंड-बंड करतबों वाले दोस्तों से हट गणित और अंग्रेजी पर ध्यान दे नहीं तो लल्लू ही बना रहेगा. जब भी लिखने-पढ़ने की बात होती वह गुलशेर को घुमा लाता हूं कह सरक जाता.
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मैंने मोहन निवास में जब से ये क्रोकर स्पेनियल देखे तभी से ये हौस पैदा हो गई कि ऐसा जोड़ा पालूंगा जरूर जो मेरे आते ही अथाह प्रेम के करतब दिखा दे. ऐसे ही चंगू-मंगू जो मिलते ही मेरे कपड़े भी खराब करते और चाट-चूट से थकते नहीं. खैर उनकी लिपट- चिपट के बाद गुरुदेव की बैठक में जा घुसता जहां अपनी हर समस्या को गहराई से सुन समाधान करने वाले तारा चंद्र त्रिपाठी जी की छत्रछाया मिलती. मेरे लिए वह मात्र हिंदी के प्राध्यापक ही नहीं हमेशा कुछ खोजबीन में लगे रहने वाले अपनी धुन में मस्त-खरे विचारक बने रहे. त्रिपाठी जी कभी ब्रह्मपुरी के बारे में बताते. अचानक ही न जाने कहाँ कहाँ से खुदी चीजों की पोटली को खोल उससे निकली चीज, बर्तन भांड की बातें करने लगते. मैं अपना लिखा उनके आगे रख देता. कुछ लिखने नोट करने के जतन होते और फिर कंधे पर झोला डाल मोहन निवास से सीधे आगे बढ़ते माल रोड में बाटा शू के पास उतरा जाता. नारायण की बुक शॉप पर जाना होता जहां नई किताब और पत्रिकाओं के दर्शन होते. माल रोड पर उतरते ही साथ चलने वालों की तादाद भी बढ़ती जाती और फिर शुरू हो जाती नई-नई सी बातों की वह श्रृंखला जिनके कई अधूरे हिस्से अब जा कर खुलने लगे हैं.
अमरीमो शब्द भी मैंने गुरुदेव के संग्रह में रखी पुरानी सी पत्रिका में पढ़ा था. उनसे पूछा तो उनने बताया कि अमरीमो में यात्रा के पथों का पूरे विस्तार से वर्णन किया जाता रहा. जिस रास्ते यात्रा की शुरुवात की जाती वहां से अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँचने के बाद वापसी किस दूसरे पथ से हो इसका भी जिक्र होता. अब पांगती जी ने खुलासा किया कि इसमें नेपाल के मर्मा तक जाने के पथों का पूरा विस्तार तो है ही कुमाऊँ के सेराघाट, पिथौरागढ़, चम्पावत और ‘पियाँगिरि’ या पूर्णागिरि का भी उल्लेख है. ऐसे ही नदियों में काली, धौली, गोरी और चमलया के अलावा पियाँगिरि के नजदीक ‘स्यलंदी’ का जिक्र है. उन्होंने यह सम्भावना भी जगाई कि संभव है कि स्यलंदी ही शारदा नदी हो. ये शारदा ही रामगंगा बनती है रामेश्वर में.
विश्व विद्यालय अनुदान आयोग की लघु शोध योजना ने जो सीमांत इलाके में परंपरागत उत्पादन की प्राविधि से सम्बंधित थी, ने जानकारी जुटाने मुंशियारी व मिलम गांव तक आने का मौका दे दिया था. आने-जाने का पैसा भी था. इसी बीच कॉलेज में कुछ छुट्टी भी पड़ गईं थीं. दीप के ईजा बाबू भी अल्मोड़ा गये थे. सोबन को भी इंतज़ार था कि कब लम्बी यात्रा होगी. कुण्डल सिंह और करमदा भी आने ही थे जिनके रहते सारे यात्रा प्रबंध खटाखट होते. डॉ रामसिंह जी ने मुंशियारी में शेर सिंह पांगती जी से मिलने व उनसे खूब जानकारी मिलने का भरोसा भर दिया था. महाविद्यालय में पोलटिकल साइंस में दिनेशदा के निर्देशन में शोध कर रहे देवराज सिंह पांगती ने तो पूरा रूट प्लान ही बना दिया मिलम गाँव तक का. मिलम जो ग्यारह हजार फिट की ऊंचाई पर बसा बड़ा गाँव था. सो पिथौरागढ़ से मिलम तक की यात्रा की सारी तैयारी होने लगी. दीप के मालिके मकान की प्रेस थी, उत्तराखंड ज्योति अखबार वहीं छपता था. तुरत-फुरत प्रश्नावलियां भी छप गईं.प्राचार्य लिखने पढ़ने के काम में मेहरबान थे सो थोड़ी अतिरिक्त छुट्टी का प्रबंधन मुश्किल न था. कुण्डल और करम दा तो कुछ भी हो रोज कॉलेज मत्था टेकने के आदी थे उनकी कैजुअल पड़े पड़े खतम होती थीं सो कोई टंटा न हुआ. पर तभी खेल की टीम के साथ करम दा को ले जाना तय हुआ वह हमारे साथ नहीं चल सके.
‘इस भंचकिये को गोल करो साब’, कुण्डल जब मुझसे ये बोला तो मुझे लगा तारा याने साहिब के मुँह लगे अर्दली तारा की बात हो रही..
‘अरे कुण्डल दा, तारा कॉलेज से अपने गाँव बजेठी जाने में तो हांफ जाता है वह कहाँ आएगा’.
‘लो आपको नहीं मालूम, तारा देवलाल नहीं, वो तो नम्बर एक का फसकिया हुआ. वो अगरवाल सबसे कहता फिर रहा कि मिलम मुंशियारी जा रहा हमारे साथ, और तो और कोहली के यहां से गरम पजामे और नई बंडी भी खरीद ली हैं उसने. मुझसे बोला असली चमड़े की जैकेट है उसके पास. बस टोपी, स्वेटर-मफलर मुंशियारी से खरीद लेगा. अरे साब बड़ी बदनामी कर देगा. बड़ी-छोटी आंख बना घूरता कैसे है? यहीं मास्टर न होता तो जुत्योल कर देते लोग. ये गुराल को तो छटकाओ एक तरफ’.
पता नहीं अगरवाल का नाम गुराल कैसे और क्यों पड़ गया. शायद घूरने की आदत से. नाम रखने वाले ने घू की जगह गू कर दिया. लड़कियां किशोरियाँ तो हुई ही उसकी नजर -बाण में. चर्यो पहनी महिलाओं को भी देख, एक बड़ी व दूसरी छोटी आंख मचल-मचल टपक जाती. उसे मालूम न था कि ज्यादा नेत्र सुख की लालसा में उसकी गर्दन पर दराती च्याँपे जाने में भी देर नहीं. कभी भूरमुणी गांव की मेहता काकी मिल गई तो वो बड्याट से खच्च करने में सेकंड नहीं लगाएँगी. अभी भी बगल से गुजरती औरतें इसके देखने पे पिच्च से थूक देतीं पर उस पर कोई असर न पड़ता. हां,अंग्रेजी पढ़ाने में तो उसकी कोई सानी न थी. घर में अंग्रेजी बोलने की ट्युटोरियल भी शुरू कर उसने मजमा जुटा दिया था जिसमें कॉलेज की कन्याएं उसके घर के बाहर के तखत के गिर्द बिखर जातीं और अगरवाला पदमासान लगा शाम चार बजे बैठ जाता. कहने को तो यह क्लास एक घंटे की यानी चार से पांच होती पर आगे भी खिंचती जब तक उसके नयन तृप्त न हों. सो कन्या मण्डली इस समय सीमा की अवहेलना कर सरकती जाती. इंग्लिश स्पीकिंग की शुरुवात पिथौरागढ़ में संभवतः अगरवाल ने ही की. दूसरी खूबी ये कि उसकी आवाज में जादू था और किसी भी कार्यक्रम में उसके प्रेम और विरह से भरे गीत और गजल लोगों को पसंद भी आतीं, सम्मोहित करती, पर उसकी नयन संधान अदाऐं ऐसी होती कि महिलाएं तो उसे सहन ही न करतीं. खास कर स्टॉफ की महिलाएं हालांकि एक दो को वह दीदी कह भी पुकारता.
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सेक्सोफ़ोन के साथ अगरवाल के गाये इस गीत ने तो जैसे बिनाका गीत माला की पहली पायदान छू ली थी :
जब सावन रुत की हवा चली तुम याद आए
जब पत्तों की पाजेब बजी तुम याद आए.
जब तक गीत गाया जाता उसकी बड़ी-छोटी दृष्टि किसी महिला पर ही टिकी है ऐसा गुमान अक्सर स्टॉफ में होता और महिला शक्ति जली-भुनी रहती. गर्ल्स स्टूडेंट भी खी-खुस्स कर यही शिकायत मारतीं कि घूरता कैसा है ये गुराल बागड़ बिल्ले की तरह. पर वो पढ़ाता गजब था और उसे बार-बार बताना पड़ता था कि सर पीरियड हो गया, घंटी बज गई. हाँ, एक और खासियत कि अगर क्लास में लड़कियां नहीं तो वह क्लास कैंसिल. बोलता चिड़ी चुँगलियां नहीं तो हमारा कंसन्ट्रेशन नहीं. चलो फुटो.
अगरवाल ने साथ जाने का ऐलान कर दिया है सुन मुझे भी झस्स हुई. वह बड़ा जिद्दी भी और मन की न हो तो महा बदमिजाज भी. मेरे से उसके बड़े अच्छे सम्बन्ध और मेरी बात वो नहीं माने ये भी संभव न था पर इस बीच ऐसी घटना हो गई थी कि मुझे भी उसके निहायत अड्याट होने का एहसास हो गया.
घटना के मूल में उसका संगीत था. उसका पैनासोनिक का बड़ा टेप रिकॉर्डर था जो सांझ ढलते ही वॉल्यूम बढ़ाते जाता. पड़ोसियों के गुमसुम विद्रोह का कोई असर न हुआ. भोल दा बिचारे हाई ब्लड प्रेशर के आवेश में उससे उसकी गजलों के विरोध में कुछ कह गये. भुवन मलकानी ने बताया कि भोलदा कह रहे थे कि इसके संगीत के फुल वॉल्यूम से शाम के समय संध्या पूजा-आरती, शंख-घंट करना मुश्किल हो गया. इतनी तेज आवाज कि बच्चों की पढ़ाई लिखाई कैसे हो? और तो और जब आप खुद गाते हो तो ठीक पर घर में भी माइक लगा गाने की क्या तुक? अब ये क्या बात हुई?
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जब तक प्रॉपर पिच में लहर न चले, मुरकी कान में न बजे, दिल न उछले तब तक कैसी चैती, कैसी बसंत बहार? हमारी तो हर सांस में रामपुर है भई. रग रग में मूसीकी. हम तो बजाएँगे-गाएंगे, कोई हमारा क्या कर लेगो? भोलदा को अब जा ये एहसास हुआ कि गलत समय उन्होंने प्रतिरोध कर दिया है. ये टाइम तो स्टील का गिलास भर गुराल के गुनगुनाने -बजाने का होता है.
बाहर धीमी बारिश भी थी. बारिश में वाया धोबीघाट जाओ या जी आई सी के रास्ते कीचड़ मिट्टी से रास्ते भर उठते हैं सो मैंने और भुवन ने तय किया कि आज मार्केट नहीं जाते. घर में साग सब्जी है ही बहिन ने बता दिया था. वह अपनी दोस्तों के साथ बैठक में थी और मैं चाय बनाने लगा था. इसी बीच मैंने सब्जी भी काट ली थी.
तभी दरवाजा जोर से भड़का. बहिन है ही, बैठक में देख लेगी. मैं चाय कप में डालने लगा. तभी बहन आई, बोली वो आया है तुम्हारा परम मित्र. अंदर ही घुस आता, मैंने कहा अभी आ रहे. पूरा महक रहा. तुम बाहर ही निबटो. मालूम होगा उसे यहां खूब लोग हैं.
हाँ!हाँ! कह मैं बाहर निकला. बैठक से लगा एक छोटा कमरा था जिसमें प्रमोद पढ़ रहा था. मुझे बाहर जाता देख वह भी आ गया. देखा,अगरवाल भुवन मलकानी के दरवाजे पर खड़ा धीमी बारिश में भीग रहा है. भुवन कह रहा अरे भीतर तो आ जाओ पर ना. वो तो उसकी मन है बस भीगेगा.
हाँ भई पंडित जी जरा मार्केट चलिये आप दोनों साथ और हमें बड़े बढ़िया स्पीकर दिलवा दीजिये. आज ही चाहिए. यहां की सड़ू मार्केट में मिल तो जायेंगे ना.
स्पीकर? मैं चौंका. इस समय. पता नहीं इसे भी क्या खपत चढ़ी है.
हाँ, स्पीकर तो मिल जायेंगे, प्रीमियर में, पाटनी जी के यहां, बुश वालों के यहां, फिलिप्स में. मैं बोला.
तो बस चलिये हम तो तैयार खड़े हैं. सभी चलते हैं, लाद लाएंगे. भुवन भी तैयार हो गया प्रमोद भी.
प्रमोद का एडमिशन यहीं जी आई सी में महिने भर पहले करवाया था. वह मेरा छोटा भाई हुआ मथुरा कक्का का बड़ा लड़का जो अभी हमीरपुर वन विभाग में कंसर्वेटर थे. प्रमोद बड़ा शालीन सभ्य इमेज का था, पर पहले लखीमपुर और अब हमीरपुर रहते कट्टा-बंदूक चलाने की ओर आकर्षित हो गया था. मामूली सी किसी बात पर हमीरपुर, किसी तलय्या के किनारे छर्रे छोड़ दिए जो दिशा मैदान के लिए विराजे किसी के पिछवाड़े लग चीख व फिर हाहाकार में बदले. रातों रात कक्का ने अपने विश्वस्त अनुचर देव सिंह के साथ प्रमोद को पिथौरागढ़ भेज दिया. स्कूल का टी सी, करेक्टर सिर्टिफिकेट आता रहेगा.
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अब हम दोनों भाई बहिन के साथ वह था. बहन गंगोत्री पढ़ाई लिखाई के मामले में खूब सख्त भी थी. मैं उसकी कुछ आदतें कण्ट्रोल करने के भरपूर प्रयास में लग गया बकलम बड़े भाई साहब. पर कुछ धक्के तो लगने ही थे.
पाण्डेगांव होते बाजार जाते शेरदा की दुकान पर हमेशा की तरह रुका तो पूरे आराम व संजीदगी से मीठे बंगले पर चूना घिसते शेरदा का शांत स्वर सुनाई दिया, “वो जो सामने दो लड़के खड़े हैं आपके साथ ही रहते हैं, कौन हुए?”
दोनों भाई हुए मेरे, ये इधर छोटा,जो गोरा चिट्टा है, नैनीताल पढ़ता है इधर ही आया है कमलेश नाम है और वो दूसरा जो है वो हमारे कक्का जी का बड़ा लड़का है उसका एडमिशन यहीं इंटर कॉलेज में कराया है. उसका नाम प्रमोद हुआ.
“अरेss!”शेरदा की आवाज कुछ बदली सी लगी. मुझे कुछ संदेह सा हुआ
कुछ कहना चाह रहे हो आप.
“हाँ साब, अब आपसे क्यों छुपाऊं, अपना तो कारबार ही हुआ पर ये जो यहीं पढ़ रहे ये काली वाली धूप बत्ती मांग रहे थे.”
हाँ, ये तो मुझे मालूम है कि ये सिगरेट तो पीता ही है.
“अरे साब, दम वालों की संगत हो रही इनकी. मांगते भी बिषाड़ वाली हैं एकदम ताजी. आपके साथ इनको देखा है तभी मैंने तो मना कर दिया साफ.”
अच्छा तभी मैं कहूं हर काम में सुर जो क्यों लगा रहता है. पढ़ाई लिखाई में भी जमा दिखता है.
“आप ठीक कर लेंगे सब.”
हूँ ss,की स्वीकारोक्ति तो मैंने कर ली पर भीतर से मैं हिलने भी लगा. कक्काजी आश्वस्त थे कि मेरे साथ वह पढ़ने \-लिखने में सही चलेगा. दिमाग का तो तेज हुआ. पर आशंका ने मुझे भीतर तक हिला भी दिया. अभी दो बरस भी नहीं हुए कि ग्वालियर वाले नवीन कक्का का बड़ा पुत्र रवि राज भी नैनीताल भेजा गया था महेशदा के पास. वह भी इंजीनियरिंग से ध्यान हटा कहीं अलग रमा पाया गया. दो तीन महिने महेश दा के यहां बड़ी केयर से रखा गया. फिर उसने खुद कहा कि वह वापस लौटेगा ग्वालियर नौकरी पर. नवीन चच्चा भी खुश. उसकी शादी तय कर दी. पर ठीक शादी के दिन वह गायब हो गया. कहाँ गया आज तक खबर नहीं.
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बहुत कठिन है डगर पनघट की. अपने मित्र कॉमर्स के प्रवक्ता, दन्या नरेश देवकी नंदन पंत उर्फ़ डी एन का ब्रह्म सूत्र, “फुक साले को” ऐसी कई परिस्थितियों में मलहम लगाता. कुछ जतन तो करने ही होते.
तो अगरवाला के झीनी बारिश में भी सविनय बाजार चल स्पीकर खरीदने के लिए कारवां चल पड़ा जिसमें तीन रंगरूट प्रमोद, कमलेश और अगरवाला के कुछ दिन पहले ही रामपुर से पधार गये सुपुत्र चार्ली थे तो दूसरी तरफ मैं और भुवन मलकानी. नगरपालिका के पास धामी जी के टी स्टॉल में सिगरेट धौँकता कुण्डल भी मिल गया.
चाय पियो हो साब कह वह उठ खड़ा हुआ.
चलो भाई कुण्डल, चलो मार्केट वहीं खिलाते हैं सबको दावत. अगरवाला का खुला इनविटेशन मिला.
प्रीमियर वालों के यहां पैनासोनिक के स्पीकर मिल गये. अगरवाला का बस एक ही क्राइटेरिया था कि स्पीकर मजबूत हों, हवा-पानी, बारिश तूफान का कोई असर न हो और आवाज पीक तक बुलंद. तो जो सबसे बड़ा था दिखने में वह लिया गया. कुण्डल ने कहा भी कि अभी तो रिमझिम द्यो पड़ रहा ले कैसे जायेंगे कोई डोत्याल भी नहीं आएगा उधर की ओर अँधेरे में. पर ना प्रीमियर वालों से कह पॉलीथिन के कई लपेटे उन दोनों बॉक्स में लिपटवाए गये. बीस मीटर तार और दो जोड़े प्लग अलग से खरीदे गये. पता नहीं क्या फितूर चढ़ा है. अगरवाला के चेहरे से जैसे नूर बरस रहा था और इस खुशी में बिना कोई मोलभाव किये उसने नोट गिन दिए. उसकी चीजें खरीदने की आदत में ये खास थी कि वह बार्गेनिंग नहीं करता था और जो पसंद आए वह माल थोक में रख लेता था. फ्रिज में ठूंसने के बाद भले ही वह सड़ जाएं गल जाएं या उनका मलीदा क्यों न निकल जाये. एक आध दिन बाद वह मोहल्ले में बँटने लगतीं. अब पड़ोसी के भी मतलब की न हों तो क्या गाय भी तो पली हैं भोलदा-बालदा के हियां. गाय भी मुँह फेर ले तो क्या? कम्पोस्ट बनेगी. पदार्थ है ही नाशवान.
अब तय किया अगरवाला ने कि कोई बढ़िया जगह बैठ लौंडों को कुछ खिलाया जाये. नोंन वेज. सो कुण्डल दा ने बैंक रोड की साइड एक भुटुवे की दुकान बताई और फिर सीपाल का ढाबा, जहां न जाने कैसा कैसा सूप और पहाड़ी बकरी वाला भुना माल मिलता.
मैं और भुवन अखबार लेने जा रहे हैं कह गाँधी चौक से नीचे उतरने लगे तो अगरवाला को याद आई कि उसने अभी एक नया माइक लेना है वो भी फिलिप्स वाला.
“अरे वह हम सेलेक्ट कर लेते हैं तुम जो खा पी रहे हो वो करो”. मैं बोला
अरे ये क्या झपसटी बात हुई?
“अरे भई, मैंने संध्या नहीं की है. घर में दिया बत्ती नहीं हुई है”. भुवन शांत भाव से बोला.
“अब उसके रास्ते हम न आएंगे. आपके लिए बांध लाएंगे माल”.
“सुनो, मैं कहाँ खाता हूँ मीटवीट”.
“तो कुछ और बांध लाएंगे. क्यों भई कुण्डल दा”.
“हाँ हाँ सैबो”.
हम गाँधी चौक से नीचे मनीराम पुनेठा की दुकान की ओर उतर लिए.
घर पहुंचे तो प्रमोद और कमलेश को अगरवाला ने रोक दिया. कहा कुछ फिटिंग करेंगे ये.
घंटे भर बाद प्रमोद और कमलेश होठों में मुस्की लपेटे लौटे. बड़े भाई के दायित्व से भरे मेरे मन में दस्तक हुई कि कहीं कुछ लगा वगा न आए हों. पर बास खुश्बू कुछ न उभरी. सभी खा पी सो गए.
रात अचानक हुए शोर से नींद उचटी. फौरन लाइट जलाई. खिड़की से बाहर झांका. पूरे हरिनन्दन निवास में हर घर में लाइट जगमग हो गईं सिवाय अगरवाला के टू रूम सेट के. पूरे वॉल्यूम से स्पीकर बज रहे थे
छाप तिलक सब छोड़ी तोसे नैना लगा के
नैना लगा के…
भोलदा के घर के दरवाजे के पास के आड़ू के पेड़ पर नया खरीदा स्पीकर लटका था स्वर लहरियां बिखेरता. सारा मोहल्ला जागृत. सभी की नींद टूटी और दरवाजे खुले. सब बाहर. मोहल्ले का एकमात्र कुत्ता जो अगरवाला के यहां ही पड़ा रहता, और जिसका नया नामकरण उसने प्रिंस कर दिया दुम भीतर कर तखत के भीतर घुस गया. किशोर -किशोरियाँ चेहरे पर आश्चर्य भारी मुस्कान लिए थे. युवक-युवतियाँ दिल ही दिल ऐसे साहस का समर्थन तो सभी औरतें जरा सीरियस हो अपने खुले मुँह को हाथ से ढक, क्या जो करें वाली मुद्रा में. भोल दा भी बाहर आए कुल्हाड़ी ले,जैसे आड़ू का पेड़ ही काट देंगे पर उनके चेहरे पर बढ़ती लाली देख बढ़े ब्लड प्रेशर का अंदाज बालदा ने लगा लिया और उन्हें भीतर ले गए. आखिरकार भुवन मलकानी ने नीचे के कमरों वाला फ्यूज ही निकाल दिया. अब नीचे की मंजिल में अंधेरा और नीरव शांति थी. अगरवाला तो सुबह सात बजे से पहले उठता ही न था.
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(जारी)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…