उत्तराखण्ड में झंगोरा (Jhangora) नाम से पहचाने जाने वाले अनाज का वानस्पतिक नाम इकनिक्लोवा फ्रूमेन्टेंसी (Echinochloa frumentacea) है. अंग्रेजी में इसे इंडियन बर्नयार्ड मिलेट (Indian Barnyard Millet) या बिलियन डॉलर ग्रास (Billion Dollar grass) के नाम से जाना जाता है. मराठी में इसे भगर या वरी कहते हैं तो तमिल में कुथिरावाली. इसके अलाबा बंगाल में इसे श्याम या श्यामा चावल के नाम से जाना जाता है. गुजराती में इसे मोरियो और सामो कहते है. हिंदी में इसे मोरधन, समा, वरई, कोदरी, समवत और सामक चावल आदि नामों से जाना जाता है.
यह सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु चीन, नेपाल, जापान, पाकिस्तान, अफ्रीका के साथ ही कुछ यूरोपीय देशों में भी पैदा किया जाता है. झंगोरे में विपरीत वातावरण में भी पैदा हो जाने की अद्भुत क्षमता होती है. यह बिना किसी उन्नत तकनीक के, कम लागत और न्यूनतम देखभाल में पैदा होने वाला आनाज है. यह उन खेतों में भी आसानी से पैदा किया जा सकता है जहाँ धान और गेहूं नहीं उग पाता. अक्सर इसे धान या खरीफ की अन्य फसलों के साथ मेढ़ों में ही बो दिया जाता है. धान के साथ मेढ़ों पर बोये गए झंगोरे की तुलना करें तो इसकी पैदावार ज्यादा होती है, जबकि इसे उपयुक्त जमीन और देखभाल की जरूरत नहीं पड़ती.
इसकी बुवाई मार्च से मई के महीनों में की जाती है. इसके बाद इसे अतिरिक्त सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती यह बरसात के पानी पर ही पनपकर अच्छी फसल दे देता है. सितम्बर, अक्टूबर में इसकी फसल पककर तैयार हो जाती है.
शायद हमारे पूर्वजों ने विपरीत परिस्थितियों में भी पैदा हो सकने की इसकी क्षमता को देखते हुए ही इसे अपनी मुख्य फसल का हिस्सा बनाया होगा. यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि झंगोरे से अनाज के साथ पशुचारा भी उपलब्ध होता है. बर्फबारी के मौसम में पशुचारे की कमी हो जाने पर यह काफी उपयोगी साबित होता है.
मध्य एशिया से भारत पहुंचा झंगोरा उत्तराखण्ड के पारंपरिक खान-पान का अहम हिस्सा रहा है. बाद के समय में इसे भी गरीबों का भोजन मानकर तिरस्कृत कर दिया गया. वेदों तक में झंगरू नाम से इस अनाज का वर्णन एक पौष्टिक आहार के रूप में किया गया है. हिंदी पट्टी में आज भी झंगोरा व्रत वाला चावल के रूप में अपनी पहचान रखता है. झंगोरे में कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, प्रोटीन, वसा, कैल्शियम, आयरन, मैगनीशियम तथा फास्फोरस आदि पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्र में पाए जाते हैं.
कार्बोहाइड्रेट की मात्रा सामान्य चावल की अपेक्षा कम होने तथा धीमी गति से पाचन होने के कारण यह शुगर के मरीजों के लिए उपयोगी भोजन है. इसमें मौजूद हाई डाईटरी फाइबर शरीर में ग्लूकोज के स्तर को संतुलित रखते हैं. अपने पौष्टिक तत्वों के कारण यह दिल के मरीजों के लिए भी काफी फायदेमंद है.
अपने पौष्टिक तत्वों और लाजवाब स्वाद की वजह से झंगोरा अलग-अलग मौकों पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स व उनकी पत्नी कैमिला पारकर तथा पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की भी सराहना बटोर चुका है.
पहाड़ में झंगोरे की खीर, भात और छछिया, (छछया, छिछिडु) आदि पारंपरिक तौर पर लोकप्रिय व्यंजन हैं. 1970 तक झंगोरा पहाड़ों में बोई जाने वाली मुख्य फसल होने के साथ-साथ दैनिक भोजन का अभिन्न हिस्सा भी था. पहाड़ की अन्य परम्पराओं की तरह यह भी हाशिये पर जाता रहा. पहाड़ों में उगने वाले अनाजों पर देश-विदेश में हुए कई शोधों के बाद इसमें मौजूद पौष्टिक तत्वों एवं औषधीय गुणों की पुष्टि हुई. इसके बाद से झंगोरा पुनः लोकप्रिय हुआ और इसकी खेती का रुझान भी बढ़ने लगा.
आज देश-विदेश में झंगोरे से कई तरह के व्यंजन बनाए-खाए जा रहे हैं. सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ऑनलाइन स्टोर में झंगोरे का चावल, आटा, रवां आदि 150 रुपये प्रति किलो तक धड़ल्ले से बिक रहा है. इसे इसके हिंदी, अंग्रेजी या अन्य नामों से इन सभी ऑनलाइन स्टोर्स से खरीदा जा सकता है.
-सुधीर कुमार
सभी फोटो इन्टरनेट से साभार
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