ब्रह्मा जगत-पिता हैं जिसके लिए ब्रह्मांड के सभी जीव उसकी संतान हैं. लेकिन इतिहास बताता है कि भारत की आज़ादी के बाद बने नैनीताल के पहले उच्च-शिक्षा केंद्र को लेकर इस जगतपिता ने पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया.
(January 2022 Article Batrohi)
उसी परम-पिता की कृपा से भारत के सबसे बड़े प्रान्त का मुखिया इसी देवभूमि से बना; यही नहीं, उसी के आशीर्वाद से भारत-नेपाल सीमा पर स्थित बेहद पिछड़े गाँव से एक कर्मठ युवा उद्यमी उभरा जिसने अपनी मेहनत से इतना पैसा कमाया कि वह इस हालत में हो गया कि अपने पिछड़े इलाके के लोगों को मुख्यधारा की शिक्षा-चेतना प्रदान करने के लिए अपनी कमाई को खर्च कर सके. इसी गरज़ से प्रदेश के मुखिया और इस धनवान व्यक्ति ने मिलकर एक आदर्श सरकारी कॉलेज की स्थापना की जिसका नाम धनवान व्यक्ति के पिता के नाम पर रखा गया: ‘ठाकुर देव सिंह बिष्ट राजकीय महाविद्यालय’. समूचे उत्तर भारत में चर्चित इस कॉलेज की स्थापना नैनीताल के तल्लीताल इलाके की अयारपाटा पहाड़ी पर सन 1951 में की गयी.
देखते-देखते इस छोटे-से सरकारी कॉलेज के विज़न की ख्याति दूर-दूर तक फैली और देश भर के विश्वविद्यालयों के शिक्षक इस ओर आकर्षित हुए. उन्हीं की कोशिशों से सदियों से उच्च-शिक्षा से वंचित इलाके की युवा प्रतिभाएँ देखते-देखते दुनिया के कोने-कोने में दिखाई देने लगीं और कॉलेज की ख्याति देश के अकादमिक संसार में फैलती चली गई.
इसी उत्साह में प्रदेश के मुखिया पंडितजी ने कॉलेज के शिक्षकों को यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसरों से आधिक वेतनमान देना शुरू कर दिया. परिणाम यह हुआ कि देश के कोने-कोने से आकर अलग-अलग विषयों के चुने हुए विशेषज्ञ-प्राध्यापकों ने इस छोटे-से क़स्बे में किराये पर मकान लेकर रहना शुरू कर दिया. इस कॉलेज के पहले प्रिंसिपल बने देश के चोटी के गणितज्ञ डॉ. अवधेश नारायण सिंह. देखा-देखी दूसरी बड़ी हस्तियाँ जुड़ीं जिनमें प्रमुख थे: जीव की उत्पत्ति पर काम कर रहे नोबेल सम्मान प्राप्त वैज्ञानिक के शागिर्द रसायन-विज्ञानी ओंकारनाथ पर्ती; आईडी पाण्डे, अर्थशास्त्री हरिशंकर तिवारी, वनस्पति-विज्ञानी एसपी भटनागर, राजनीतिशास्त्री के. आर. बोम्बवाल, अंग्रेजी के सबसे जटिल लेखक जेम्स ज्वायस के विशेषज्ञ बालाप्रसाद मिश्र, फ्रान्स से नए-नए लौटे संस्कृत के उद्भट विद्वान विद्वान जेके बलवीर, अपभ्रंश और प्राचीन हिंदी के चोटी के विद्वान हरिवंस कोछड़, इतिहासकार आईके गंजू, अंग्रेजी के डॉ. मोहन लाल आदि दर्जनों प्रोफ़ेसर. देश के मैदानी भागों की ख़ुशगवार जलवायु के बीच से आकर ये लोग तल्लीताल की सबसे ठंडी समझी जाने वाली अयारपाटा पहाड़ी पर ज्ञान का आलोक बिखेरने के लिए एकत्र हो गए.
(January 2022 Article Batrohi)
मगर उच्चशिक्षा का यह प्रभा-मंडल बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सका. एक दिन दूर मैदानी इलाके से एक वैश्य-कुलोत्पन्न नेता चुनाव लड़ने के लिए इस पहाड़ी इलाके में आया और न सिर्फ जीत गया, उसे प्रदेश की जनता ने अपना मुखिया चुन कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया. भारी-भरकम डीलडौल के पंडितजी के आसन पर ज्यों ही दुबले-पतले साँवले रंग के वैश्य कुलोत्पन्न नेता आसीन हुए, उन्होंने सब-कुछ उलट-पुलट कर रख दिया.
नवागंतुक मुखिया ने कार्यभार ग्रहण करते ही अपनी कैबिनेट में प्रस्ताव रखा कि इस पहाड़ी कॉलेज में यह अनर्थ हो कैसे रहा है? दुनिया भर में कॉलेज का अध्यापक यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर से जूनियर माना जाता है, ऐसे में उसे बढ़ा हुए वेतनमान क्यों दिया जा रहा है? मुखिया था, दूर मैदानों से आया था, उसकी बात काटने की भला किसकी हिम्मत थी? मुखिया की बात मान ली गई और प्रोफ़ेसरों के वेतन-मान घटा दिए गए. आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार किसी विभाग के वेतन इस तरह काटे गए. फिर वही हुआ जो होना था; अधिकांश प्रोफ़ेसर एक के बाद एक अपने मैदानी घोसलों में लौट चले.
ऐसी हालत में परमपिता ब्रह्मा भी बेचारे क्या करते? देवभूमि में उनके प्रतिनिधि पंडितजी तो अपनी राष्ट्रीय राजनीति खेलने में मशगूल हो गए,मगर छुटभैये नेताओं के धरने जुलूसों की बदौलत उसी तल्लीताल के कॉलेज को यूनिवर्सिटी का सम्मानित दर्ज़ा प्रदान कर दिया गया, हालाँकि उसे नाम दिया गया कुमाऊँ यूनिवर्सिटी, जिसे कुछ मैदानी विद्वान बदायूँ की तर्ज पर कुमायूं और पलायन-ग्रस्त पहाड़ी अध्येता ‘कमाऊ युनिवर्सिटी’ के नाम से पुकारने लगे.
लेकिन राजनीतिक चेतना-संपन्न इस पर्वतांचल के बुद्धिजीवी कैसे संतुष्ट रह सकते थे? देखते देखते आवाज उठी कि जिन दो मंडलों को मिलाकर प्रदेश बना है, उसके आधे हिस्से को क्यों प्यासा छोड़ दिया गया? देना है तो दोनों मंडलों को अलग-अलग यूनिवर्सिटी दो, वरना ये सौतेला व्यवहार किसी भी हालत में नहीं सहन किया जायेगा. ईंट-से-ईंट मिलाकर क्रांति का बिगुल बजा दिया जायेगा. अंततः सरकारको घुटने टेकने पड़े और दूसरे मंडल को भी उसके क्षेत्रीय नाम पर एक अलग विश्वविद्यालय दे दिया गया.
पता नहीं यह अनायास हुआ या षडयंत्र के तहत, तल्लीताल कॉलेज को विवि का नाम देने के बाद उसे मल्लीताल शिफ्ट कर दिया गया और उसका प्रशासनिक कार्यालय मल्लीताल बारापत्थर की जड़ पर स्लीपी हौलो नामक एक उनींदे गड्ढे में स्थापित कर दिया गया. अंग्रेजों के ज़माने की खूबसूरत सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग को जब पहले कुलपति ने अपने प्रशासनिक कार्यालय के रूप में अपनाया तो प्रदेश की उप-राजधानी समझी जाने वाली, अपने को प्रधान से भी अधिक बलवान समझने वाली हाईकोर्ट को यह कैसे गवारा हो सकता था? अंततः युनिवेर्सिटी को सूखाताल के अँधेरे गह्वर में घुसना ही था.
(January 2022 Article Batrohi)
सुगबुगाहट चल ही रही थी कि जनभावनाओं के मद्देनज़र ब्रह्मा को बीच में दखल देना पड़ा. न तल्लीताल, न मल्लीताल; मध्य ताल में अपने नाम से ब्रह्माजी ने एक विश्वविद्यालय स्थापित कर दिया ‘ब्रह्म कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय.’
मगर बुद्धिजीवियों के हलके में इस मध्यस्थता को कौन स्वीकार करता? अब तो तेजी से हर जिला-मुख्यालय में विवि की मांग उठने लगी. देखादेखी कुमाऊँ की प्राचीन राजधानी अल्मोड़ा वालों ने तो एक विवि झपट लिया ही, भीमताल ने कहा, हमने क्या बिगाड़ा था, वहां के परिसर को भी विवि का सम्मानजनक दर्ज़ा दिया जाय. इसके बाद ब्रह्माजी किस-किस को रोकते? कुछ को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्ज़ा देकर चुप कराया, अनेक प्राइवेट विवि की कुकुरमुत्ता पौध उगाई मगर असंतोष फिर भी नहीं थमा.
सबसे रोचक किस्सा तो यह रहा कि रामगढ़ के टाइगर टॉप को, जिसे अंगरेज शिकारियों ने अपनी मौज-मस्ती के लिए घोड़ों के अस्तबल के रूप में निर्मित किया था, कुछ कविता-प्रेमियों ने टैगोर की साधना-स्थली घोषित कर वहां के लिए विश्वभारती विश्वविद्यालय का आवासीय परिसर झपट लिया. पानी के लिए तरसने वाली कृषि विभाग की जमीन पर जी भर कर स्टाफ क्वार्टर और भव्य प्रशासनिक भवन के निर्माण की खबर है. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाम से स्थापित कला की बारीकियों के अध्ययन वाले इस विवि के लिए सुना है, एक-एक कुलपति, रजिस्ट्रार, वित्त अधिकारी और दूसरे उच्च अधिकारियों की तलाश हो रही है. अखबारी सूत्रों के अनुसार, सरकार ने डेढ़-सौ करोड़ की धनराशि के साथ कई एकड़ जमीन आबंटित भी कर दी है.
सरकारी दावों को धता बताते हुए नयी खबर यह है कि तल्लीताल वाले जल्दी ही एक आन्दोलन छेड़ने वाले हैं कि उनके डिग्री कॉलेज को उन्हें वापस किया जाए. तल्लीताल-वासियों के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में दी गयी उनके कॉलेज की उपलब्धियाँ देश-प्रदेश में फैले अनगिनत विश्वविद्यालयों से आज भी भारी हैं, इसलिए उसे मल्लीताल-सूखाताल के रास्ते उनींदे शून्य (मूल नाम स्लीपी हौलो) में धकेलते हुए उसका नाम मिटा देना कहाँ का न्याय है? उसे वापस किया जाना ही इस पलायन-ग्रसित प्रदेश के हित में है. अतः हमारा अगला नारा तल्लीताल को उसका डिग्री कॉलेज वापस करो. अन्यथा जनांदोलन तो हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है.
(January 2022 Article Batrohi)
हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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