मेरे एक मित्र मजाक में कहा करते हैं कि अगर कोटद्वार या ऋषिकेश से दिल्ली जा रही किसी बस की औचक चेकिंग की जाए तो हर पहाड़ी के ब्रीफकेस में एक पोटली में रखा जखिया जरूर मिल जाएगा. मेरे मित्र भले ही यह बात मजाक में कहते हों, लेकिन उनकी इस बात में कहीं न कहीं सच जरूर है. इस मित्र ने तो जखिया के पहाड़ से सिर्फ दिल्ली जाने की बात ही सुनाई, पर जखिया के प्रति पहाड़ियों की आसक्ति का जो प्रसंग एमबीपीजी कॉलेज छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और इन दिनों मुख्यमंत्री के जनसंपर्क अधिकारी विजय बिष्ट ने सुनाया वो तो गजब है. बिष्ट जी की एक बहन अमेरिका में रहती है. उनके ही पड़ोस में गढ़वाल के रहने वाले एक सज्जन भी रहते हैं. कुछ वर्ष पहले बिष्ट जी की मां अपनी बेटी से मिलने अमेरिका गई. वहां गढ़वाल के उन सज्जन से भी मुलाकात हुई तो उन्होंने बिष्ट जी की मां से एक ही आग्रह किया कि अगली बार अमेरिका आते हुए पहाड़ से पाव-दो पाव जखिया जरूर लेते आना. नजीजतन बिष्ट जी को अगली बार मां के अमेरिका जाने के समय हल्द्वानी के बाजार में जखिया ढूंढना पड़ा और वो इसे अपने साथ अमेरिका लेते गईं. तो दोस्तो इस बार की बात किसी खास पहाड़ी व्यंजन की बजाय हर पहाड़ी व्यंजन को खास बना देने वाले इस खास मसाले पर.
बहुत मजे की बात यह है कि जीJakhiya Spice of Uttarakhandरा, धनिया, मेथी आदि दूसरे मसालों की तरह जखिया की कोई खेती नहीं की जाती है. यह पहाड़ और पहाड़ के बाशिंदों के लिए प्रकृति का अनुपम उपहार है. चूंकि राजस्थान, गुजरात की जलवायु में उगने वाला जीरा यातायात के साधनों के अभाव में आज से आधी सदी पहले तक पहाड़ के खानपान का हिस्सा नहीं रहा होगा तो पहाड़ के व्यंजनों को लजीज बनाने का काम जखिया ही करता रहा होगा. जीरे से भी बढ़कर इसमें एक और विशेषता है. खाते समय दांतों के तले कटने पर इसके बीजों से जो किरच-किरच की ध्वनि उत्पन्न होती है, वो इसे और भी बेमिसाल बना देती है और खाने का मजा दोगुना कर देती है.
500 से 1500 मीटर ऊंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों में बरसात के दिनों में इसके पौधे स्वतः ही खरपतवार की तरह आपके खेतों की मेड़ों पर, खुले पड़े मैदानों, नदियों के किनारे उगने लगते हैं. धीरे-धीरे पौधे बड़े होकर लगभग एक मीटर ऊंचाई के हो जाते हैं और पहले इन पर सरसों की तरह पीले-पीले फूल और फिर सरसों जैसी ही फलियां आने लगती हैं. परिपक्व होने पर ये फलियां जामुनी रंग की हो जाती हैं और अक्टूबर आते-आते पीली पड़कर खुद ही फटने लगती हैं. फलियों के फटने का मतलब अब जखिया काटकर झाड़ने के लिए तैयार हैं. इस समय इन्हें काटकर तिरपाल या किसी कपड़े पर फैला कर दो-चार दिन की धूप और दिखाई जाती है तथा उसके बाद इसके बीजों को इकट्ठा करके रख लिया जाता है. उसके बाद इसके दानों को साल भर तड़के के रूप में विभिन्न सब्जियों व दालों में इस्तेमाल किया जाता है. खासकर आलू के गुटके, घर के आंगन में लगी बेल पर उगे हरे कद्दू और लाही की सब्जी में जखिया का छौंक लग जाए तो कहना ही क्या. घर में बासी बचे भात को नए स्वाद और अंदाज में खाना हो तो जखिया के तड़के से अच्छा कोई विकल्प ही नहीं. कुछ लोगों को मैंने जखिया का चटपटा नूण बनाकर इस्तेमाल करते देखा है. चूंकि इसके बीजों का रंगरूप व आकार सरसों या राई के दानों जैसा ही होता है, इसलिए इसे जंगली सरसों भी कहा जाता है. अंग्रेजी में इसे वाइल्ड मस्टर्ड या ड़ॉग मस्टर्ड कहा जाता है.
सैणी हो या मैंस, सबकी पसंद चैंस
जखिया न केवल तड़के व नूण के घटक द्रव्य के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, बल्कि इसकी औषधीय महता भी काफी है. आयुर्वेद में जखिया को बुखार, खांसी, जलन, हैजा आदि बीमारियों के लिए उपयोगी औषधि बताया गया है. अगर किसी को कभी चोट लग जाती है तो घाव को भरने के लिए उस पर जखिया के पत्तों का लेप बनाकर लगाया जाता है. इस प्रकार यह एक बेहतरीन फर्स्ट ऐड का काम भी करता है. हाल के वर्षों में कुछ चिकित्सा अनुसंधानों में ऐसा भी सामने आया है कि जखिया का तेल दिमागी बीमारियों को ठीक करने में उपयोगी साबित हो सकता है. शायद इसके बहुआयामी उपयोगों के कारण ही गढ़वाल मंडल में ऐसी परंपरा है कि जिन गांवों में जखिया नहीं होता है, उन गांवों के लोगों को उनके वे रिश्तेदार सौगात के तौर पर जखिया भेजते हैं जिनके गांवों में जखिया पाया जाता है.
पिछले कुछ वर्षों में जखिया के बारे में पहाड़ से बाहर के लोगों को भी जानकारी हुई है तो वे भी इसके लाजवाब स्वाद के मुरीद बन गए हैं. देहरादून के एक पहाड़ी व्यंजन परोसने वाले रेस्टोरेंट के मेन्यू में तो जखिया राइस सर्वाधिक लोकप्रिय डिश बन गई है. जीरा राइस की तरह जखिया में फ्राई किए चावलों की इस डिश का इस रेस्टोरेंट में आने वाला हर तीसरा ग्राहक ऑर्डर करता है. उधर, उत्तराखंड से शेफ की नौकरी करने गए युवाओं ने इसे विदेश में भी लोकप्रिय बना डाला है. विदेश में कई रेस्टोरेंट ने जखिया राइस को अपने इंडियन कुजिन सेक्शन में प्रमुखता से दर्ज किया हुआ है.
जखिया की लोकप्रियता तो बढ़ रही है, पर पहाड़ों से निरंतर पलायन के कारण इसका संग्रहण करने वालों की तादाद लगातार घटती जा रही है. पहले पहाड़ों में बड़ी संख्या में लोग कृषि कर्म करते थे तो सीजन पर वे जखिया भी इकट्ठा कर लेते थे, लेकिन अब खेती करने वाले ही बेहद कम बचे तो जखिया भी कहां से मिले. यही कारण है कि उन शहरों में जहां पहाड़ियों की बसागत ठीकठाक संख्या में है, वहां ये काफी महंगे दामों पर बिक रहा है. पिछले दिनों मैं स्वयं हल्द्वानी के मंगल पड़ाव बाजार में जखिया खरीदने पहुंचा तो इसके दामों ने मुझे चौंका दिया. पूरे तीन सौ रुपये किलो, एक पैसा भी कम नहीं. चूंकि स्वाद का मारा था, इसलिए पिचहत्तर रुपये का पाव भर खरीद कर ले आया. लेकिन इसके दामों ने मुझे एक आइडिया तो दे ही दिया. पहाड़ में मेरे पास पांच बीघा जमीन है. सोच रहा हूं, अगली बरसात इस जमीन पर जखिया की ही संगठित खेती करूं.
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इसकी खेती का अर्थशास्त्र जांचा तो मामला फायदे का लगा. अच्छी फसल के लिए दो-दो फीट की दूरी पर भी इसके पौधे लगाऊं तो प्रति बीघा 1681 पौधे लग सकते हैं. एक पौधा लगभग सौ ग्राम उपज दे देता है. इस प्रकार एक बीघा में औसत 168 किलो और पांच बीघा मे लगभग साढ़े आठ क्विंटल जखिया पैदा किया जा सकता है. अगर इस जखिया को थोक भाव में डेढ़ सौ रुपये किलो भी बेचा जाए तो इसकी कीमत बनती है एक लाख छब्बीस हजार रुपये. जानवरों के प्रकोप से मुक्त, कम मेहनत, बिना किसी खाद-पानी व कीटनाशक के इस्तेमाल के दुनिया में कोई फसल इतने अधिक दाम नहीं दे सकती. तो दोस्तो अपना तो जखिया की खेती का इरादा पक्का है. खुद भी खाऊंगा, दोस्तों को भी बांटूंगा और जो बच गया उसे बाजार में बेच डालूंगा.
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चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखते हैं.
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