अपने गीतों व गायन के माध्यम से लोगों में जनचेतना का संचार करने वाले और उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान, लस्का कमर बाँधा, हिम्मत का साथा और धैं द्यूणौ हिंवाल च्यलौ ठाड़ उठौ, जगाओ मुछ्याल च्यलौ ठाड़ उठो जैसे गीत गाकर आन्दोलन को नई धार व ऊर्जा देने वाले हीरा सिंह राणा का जाना जैसे एक पूरे समयावधि का अंत हो जाना है.
(Folk Singer Heera Singh Rana)
इसी वर्ष 13 जून 2020 की सुबह तड़के लगभग 3 बजे हार्टअटैक से उनका निधन हुआ. वे दिल्ली के विनोदनगर स्थित आवास पर थे. उन्होंने अपने शब्दों व स्वर से लोक की चेतना को एक नई अभिव्यक्ति दी. वे वास्तव में लोक के कवि व गायक थे. उनके गीत व कविताओं में तेजी से होते सामाजिक बदलाव व उनमें आ रही नैतिक गिरावट की चिंता भी साफ देखी जा सकती है. उनका जीवन हमेशा संघर्षों से लड़ते हुए ही व्यतीत हुआ. विशेषकर बचपन से लेकर युवावस्था तक पहुँचने तक. जीवन का भोगा हुआ कटु यथार्थ ही उनके गीत, संगीत में उभर कर सामने आया. हीरा सिंह राणा के गीतों व कविताओं की विशेषता यह है कि वे जिस भी कथ्य को उसके माध्यम से सामने रखते थे, उनमें संवाद व संवेदनाएँ भी मौजूद रहती थी.
जीवन भर जनचेतना की आवाज बने हीरा सिंह राणा का जन्म अल्मोड़ा जनपद के भिकियासैंण ब्लॉक के मानीला के डढ़ोली गाँव में 16 सितम्बर 1942 को हुआ था. उनकी माँ का नाम नारंगी देवी राणा और पिता का नाम मोहन सिंह राणा था. उनके पिता स्वतंत्रता से पहले पेशावर में जनरल मोटर्स में नौकरी करते थे. आजादी के बाद वे दिल्ली आ गए. तब राणा ने पिता के साथ रहकर दिल्ली में ही दूसरी कक्षा तक पढ़ाई की. उसके बाद गाँव में ही उन्होंने मानिला स्कूल से आठवीं तक शिक्षा ली, पर घर की आर्थिक दशा ठीक न होने से वे आगे नहीं पढ़ पाए. बहुत बाद में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा प्राइवेट पास की.
आजीविका के लिए हीरा सिंह राणा को बहुत संघर्ष करना पड़ा. उन्होंने दिल्ली में कपड़े की दुकान में 1959-60 में काम किया और उसके बाद स्टोव बनाने वाली एक कम्पनी में नौकरी भी की. इसी दौरान उनकी मुलाकात कुमाऊनी के गायक आनन्द सिंह कुमाऊनी से हुई, जो पर्वतीय कला केन्द्र, दिल्ली के लिए काम करते थे. उन्होंने हीरा सिंह राणा की गायिकी को एक पहचान दी और वे दिल्ली की रामलीलाओं में कुमाऊनी गीत गाने लगे. इससे पहले मानिला की रामलीला में राणा अभिनय और गायन दोनों कर चुके थे. गोपेश्वर में आकाशवाणी के एक कार्यक्रम में 1973 में राणा जी को बतौर इनाम 1440 रुपए मिले.
(Folk Singer Heera Singh Rana)
इस तरह गीत लिखने और गाने के सफर में उनका पहला गीत/कविता संग्रह ”प्योली और बुरांश“ नाम से 1971 में प्रकाशित हुआ. उसके बाद 1976 में गीत/कविताओं का दूसरा संग्रह ”मेरि मानिलै डानि“ तथा तीसरा गीत/कविता संग्रह ”मनखौं पड्यौव“ नाम से 1987 में प्रकाशित हुआ. हीरा सिंह राणा के गीतों का कैनवास बहुत विस्तृत है, जिनमें मानवीय मूल्यों के कई तरह के आयाम हमें देखने को मिलते हैं. कुमाऊनी साहित्यकार मथुरादत्त मठपाल कहते हैं कि उनकी गायिकी से बेहतर उनकी कविताएँ और गीत हैं, लेकिन उनकी उत्कृष्ट गायिकी ने एक तरह से उनकी ही कविताओं को ढांप दिया, जिससे उनके काव्य की ऊँचाई का आंकलन सही तरीके से नहीं हो पाया. उनके गीतों ने कुमाऊनी काव्य परम्परा को एक नई ऊँचाई दी.
लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि उत्तराखण्ड ने एक गजब का रचनाकार खो दिया. हीरा सिंह राणा के गीतों में पहाड़ की महक थी. अपने ऐसे ही गीतों से उन्होंने यहां के लोक में अपनी अलग जगह बनाई. उनके जाने से लोक संगीत को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई होना असम्भव सा दिखाई देता है.
गढ़वाली के सुप्रसिद्ध लेखक व टिप्पणीकार भीष्म कुकरेती ने कहा था – हीरा सिंह राणा उत्तराखण्ड की लोक संगीत के संवाहक और रक्षक थे. उनकी लिखी गई कविताओं व गीतों में तरह-तरह के भाव, रस, प्रतीक, बिम्बों का प्रयोग हुआ है, जो उन्हें आज के संगीत संसार में एक बड़ा गीत रचयिता और गीत गायक की श्रेणी में रखता है. उन्होंने विभिन्न विषयों पर गीत लिखे और गाए. उनके बहुविषयी गीतों में उनके पहाड़ी मानवीय प्रकृति और पहाड़ों के भौगोलिक प्रकृति अन्य जगह देखने को नहीं मिलते हैं.
युवा कवि व कथाकार अनिल कार्की उन्हें याद करते हुए कहते हैं कि हीरा सिंह राणा विशुद्ध रूप से लोक की मौखिक परम्परा के विकास के कवि थे. उनकी ठसक में यह हौसियापन देखने को मिलता है. इसका संस्कार उन्होंने लोक से ही लिया और उसके सहज प्रवाह को भी उसी तरह से गाया. कितना खूबसूरत है उनका रचना संसार और उसकी चेतना. अगर उनके शब्द संसार की बात करें, तो असल में वो कहीं नहीं गए. उन्होंने अपने लोक की अनघड़ और विराट चेतना को देखा. उसको देख सकने की आँख पाई. इसी कारण से उनकी कविताओं में जो आग है, वह एक स्त्री के हृदय की स्नेहपूर्ण और घर के चूल्हे की सी आग है. हीरा सिंह राणा की कविताओं में पहाड़ की स्त्रियों का एक भरा-पूरा संसार है, जिनमें लोकाचार, रूढ़ियों और परम्पराओं के साथ ही पहाड़ की महिलाओं के जीवन की जीवटता सहज रूप में देखी जा सकती है. साथ ही उन्होंने अपनी कई कविताओं व गीतों में शास्त्रीय रूप से भी छंदों में नए प्रयोग किए हैं. भावानुकूलन शब्द चयन और भाषा-भंगिमा की पकड़ उनके भीतर बेजोड़ थी.
(Folk Singer Heera Singh Rana)
कुमाऊनी के प्रसिद्ध कहानीकार डॉ. हयात सिंह रावत का मानना है कि अपने अर्थ प्रधान गीतों, कर्णप्रिय, मनमोहन धुनों और मीठी-सुरीली आवाज से कुमाऊनी भाषा को लोकप्रिय बनाने एवं जन-जन तक पहुँचाने में हीरा सिंह राणा का अप्रतिम योगदान रहा है. बचपन से ही कुमाऊनी गायन के प्रति समर्पित रहे राणा जी ने अपने गीतों के माध्यम से कुमाऊनी भाषा के साथ ही गीत/संगीत को भी सजाने-सँवारने का काम किया. उनके गीतों में पहाड़ की प्राकृतिक सुषमा और संयोग श्रृंगार का अद्भुत प्रयोग हुआ है. उन्होंने अपने गीतों व स्वरों से पहाड़ के जनमानस की पीड़ा, पहाड़ की महिलाओं के जीवन के कष्ट एवं पलायन की त्रासदी को भी प्रमुखता से स्वर दिए. उन्होंने कई जनगीत भी लिखे, जो निराशा को तोड़कर आगे बढ़ने का हौसला जगाते हैं और परिस्थितियों को बदलने के लिए लोगों का आह्वान करते हैं. उनकी कविताओं में लोक उपमानों-रूपकों का सहज और सुन्दर प्रयोग हुआ है. उन्होंने जिन लोक उपमानों का प्रयोग अपनी कविताओं में किया, वह कवि की अपनी माटी से गहरे जुड़ाव व लोक की गहरी समझ को दर्शातें हैं.
हीरा सिंह राणा ने कभी भी नौकरी पाने की लालसा नहीं की. उन्होंने इस बारे में कभी न सोचा और न ही कोई प्रयास ही किया. वे मानते थे कि वह अपनी कला से ही जीवनयापन कर सकते हैं और उन्होंने ऐसा कर के भी दिखाया. दूसरे शब्दों में कहें, तो उन्होंने अपना पूरा जीवन ही रचनाधर्मिता के साथ व्यतीत किया. जब बहादुर राम टम्टा 1975 के आस-पास दिल्ली के कमिश्नर थे, तो उन्होंने राणा जी की अस्थाई नौकरी नगर निगम में लगा दी थी. उसके लिए निगम में एक सांस्कृतिक प्रकोष्ठ भी बना दिया गया था. कुछ समय बाद किन्हीं कारणों से यह प्रकोष्ठ खत्म कर दिया गया और राणा की अस्थाई नौकरी भी चली गई. उसके बाद डॉ. नारायण दत्त पालीवाल उन्हें नौकरी के लिए पूर्व राज्यपाल बीडी पान्डे के पास ले गए. उन्होंने कहा कि यह तो बहुत ही पिछड़े इलाके से है. इस बात ने राणा जी के मन को बहुत ठेस पहुँचाई. उसके बाद उन्होंने कभी नौकरी करने का प्रयास नहीं किया.
अपने गीतों/कविताओं के लिखने के बारे में उनका मानना था कि जब प्रकृति और परिवेश आपको झकझोर देती है, तो उसका प्रतिबिम्ब अवश्य ही कविता/गीतों में दिखाई देता है. वे कहते थे कि – जैसा मेरा जीवन संघर्ष है, वैसा ही रचनाकर्म भी. उन्होंने इन दोनों को कभी भी अलग-अलग कर के नहीं देखा.
हीरा सिंह राणा का सम्पर्क नेताओं व दूसरे असरदार लोगों के साथ बहुत अच्छा था. उनके निधन पर नेताओं के बड़े-बड़े बयान श्रद्धांजलि के तौर पर सामने आए, पर जब वे जीवन में मुश्किलों से घिरे, तो वायदा करने के बाद भी किसी ने उनकी मदद तक नहीं की. एक दुर्घटना में 2016 में राणा जी के कूल्हे की हड्डी टूट गई. रामनगर के एक निजी अस्पताल में उनका आपरेशन हुआ. अखबार में खबर छपी. उनकी आर्थिकी ठीक न होने की बात सामने आई. सरकार के कानों तक भी बात पहुँची. सरकार ने घोषणा की कि उनके इलाज का पूरा खर्चा सरकार उठाएगी. सरकार ने वाह-वाही लूटी.
(Folk Singer Heera Singh Rana)
उसके बाद सरकार ने पीछे पलट कर नहीं देखा. उनके इलाज में खर्च हुए लगभग डेढ़ लाख रुपए न तो राणा जी को मिले और न ही रामनगर के ब्रजेश अस्पताल को. इन पाँच वर्षों में कई इस बारे में अस्पताल प्रबंधन व राणा जी द्वारा सरकार को कई याददाश्त के पत्र लिखे गए. हर बार रुपए दिए जाने का आश्वासन मिलता रहा, पर रुपए तो नहीं मिले और इस बीच राणा जी भी हमेशा के लिए चले गए. रामनगर के विधायक दीवान सिंह बिष्ट इस बारे में कहते हैं कि – हाँ, शासन में इस बारे में पैरवी की गई थी. फाइल भी चली. पैसा क्यों नहीं आया? इसकी मुझे जानकारी नहीं है. मैं इस बारे में पता करुँगा. उनके परिवार को रुपए दिलवाए जाएँगे. मतलब कि आश्वासन की एक मीठी गोली और जैसे पहले भूले, वैसे ही बयान देकर फिर भूल जाना है .
इसी तरह मानिला अल्मोड़ा में उन्होंने कुछ जमीन खरीदी. उस पर एक गुंडे ने कब्जा कर लिया. वे हर उस नेता, अधिकारी व उन लोगों की शरण में गए, जो अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उनकी मदद कर सकते थे. यहाँ भी उन्हें आश्वासनों के सिवा कुछ नहीं मिला. हार कर उन्हें न्यायालय की शरण लेनी पड़ी. कई साल मुकदमा लड़ने के बाद न्यायालय से उन्हें न्याय तो मिला, पर जमीन नहीं मिली, क्योंकि उस गुंडे ने इस दौरान उस पर पक्का निर्माण कार्य करवा दिया था. अब जमीन खाली कौन करवाए? उनके निधन पर मोटे-मोटे घड़ियालू आँसू बहाने वाले ‘ताकतवर लोगों’ ने न्यायालय के निर्णय के बाद भी उनकी कोई मदद नहीं की और वह जमीन उन्हें आज भी नहीं मिली है. उस गुंडे का कब्जा उस पर बरकरार है.
ऐसा निर्लज्ज रवैया है समाज का, नेताओं का और जिम्मेदार अधिकारियों का. उन लोगों के प्रति जिन्हें समाज की धरोहर कहा जाता है. उनके प्रसिद्ध गीतों में ‘त्यर पहाड़, म्यर पहाड़. रौय दुःखों को ड्योर पहाड़,’ ‘लस्का कमर बांदा, हिम्मत का साथा. फिर भोला उज्याई हली, काँ लै रलीं राता,’ ‘धैं द्यूणौ हिंवाल च्यलौ ठाड़ उठौ, जगाओ मुछ्याल च्यलौ ठाड़ उठो,’ ‘रंगीली बिंदी घाघेरि काई, ओ धोती लाल किनार वाई,’ ‘के संध्या झूली रे,’ ‘माछी ले फटक मारो बलुवा रेत में, हौंसिया साजी रये हरिया खेत में,’ ‘अजकाल हैरे ज्वान मेरी नौली पराण,’ ‘मेरी मानिलै डानी, मैं तेरी बलाई ल्यूँलो,’ ‘दिन आने-जाने रया, हम बाटिकैं चानै रया.’ ‘साँसों की धागिले आँसों का, हम फूल गठ्योनै रया’ आदि हैं. लश्का कमर बांदा जैसे गीतों ने उत्तराखण्ड आन्दोलन को एक नई धार व ऊँचाई दी. उन्होंने अपने गायन व गीतों से हमेशा समाज में एक चेतना का सूत्रपात किया.
(Folk Singer Heera Singh Rana)
काफल ट्री के नियमित सहयोगी जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. अपने धारदार लेखन और पैनी सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि के लिए जाने जाते हैं.
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वाह! नमन है देवभूमि के समाज को 🙏🙏। न्यायालय द्वारा राणा जी के पक्ष में निर्णय सुनाने के उपरांत भी यदि उनको अपनी ही ज़मीन वापस न मिली, तो ठीक ही हुआ फिर कि 1994 के असंख्य बर्बरतापूर्ण अन्यायों को करने वाले अपराधियों को आज तक सज़ा न मिल सकी है। ऐसा समाज किस प्रकार भविष्य के सपने साकार करने की धृष्टता कर सकता है, जब वह अपने ही दैदीप्यमान व्यक्तित्वों का सम्मान नहीं कर सकता? जब प्रखर पुरुषों की यह हालत है, तो समाज की ताकत के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। एक चावल ही काफी होता है पूरी हांडी का हाल बताने को।