उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 35 किलोमीटर दूर स्थित जागेश्वर धाम कुमाऊँ के प्राचीन मंदिरों में से है. जागेश्वर मंदिरों का निर्माण कत्यूरी राजाओं ने सातवीं सदी के दौरान कराया था. इसलिये इन मंदिरों के स्थापत्य में कत्यूरी काल की झलक देखने को मिलती है. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है. कत्यूरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चंद्र काल. जागेश्वर में छोटे-बड़े कुल मिलाकर 124 मंदिर हैं. इन मंदिरों का निर्माण पत्थर की बडी-बड़ी शिलाओं से किया गया है और दरवाजों की चौखटों में देवी देवताओं की प्रतिमायें लगी हुई हैं. मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी प्रयोग किया गया है.
जागेश्वर मंदिर परिसर के अधिकाँश मंदिर उत्तर भारतीय नागर शैली में निर्मित हैं जिस में मंदिर संरचना में उसके ऊंचे शिखर को प्रधानता दी जाती है. इसके अलावा बड़े मंदिरों में शिखर के ऊपर लकड़ी की छत भी लगाई जाती है. यह इस शिल्प की विशेषता है जिसे स्थानीय भाषा में इसे बिजौरा कहा जाता है.
जागेश्वर को पुराणों में हाटकेश्वर और भू-राजस्व लेखा में पट्टी पारूण के नाम से जाना जाता है. यह मंदिर पावन जाटगंगा के तट पर समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है. मान्यता है कि जाटगंगा शिव की जटाओं से निकलती है. जागेश्वर को भारत में उपस्थिति बारह ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है.
पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्तऋषियों ने यहाँ तपस्या की थी. कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था. आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजय में स्थापित शिवलिंग को कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की. शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएं पूरी नहीं होती. केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी होती हैं.
स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में जागेश्वर ज्योतिर्लिंग की व्याख्या की गयी है. स्कन्द पुराण के अनुसार ८वां. ज्योतिर्लिंग, नागेश, दरुक वन में स्थित है. दरुक नाम देवदार वृक्ष पर आधारित है जो इस मंदिर के चारों ओर फैले हुए हैं.
एक और दंतकथा के अनुसार शिव ने अपने ससुर दक्ष प्रजापति का वध करने के पश्चात अपने शरीर पर अपनी पत्नी सती के भस्म से अलंकरण किया व यहाँ ध्यान हेतु समाधिस्थ हुए. कहानियों के अनुसार यहाँ निवास करने वाले ऋषियों की पत्नियां शिव के रूप पर मोहित हो गयीं थीं. इससे ऋषिगण बेहद क्रोधित हो गए और भगवान् शिव को लिंग विच्छेद का श्राप दिया था. इस कारण धरती पर अन्धकार छा गया था. इस समस्या के समाधान हेतु ऋषियों ने शिव सदृश लिंग की स्थापना की व उसकी आराधना की. उस समय से लिंग पूजन की परंपरा आरम्भ हुई. यह भी कहा जाता है कि भूल ना होते हुए भी श्राप देने के जुर्म में शिव ने उन सात ऋषियों को आकाश में स्थानांतरित होने का दण्ड दिया.
एक अन्य दंतकथा के अनुसार, भगवान् राम के पुत्र लव और कुश ने यहाँ यज्ञ आयोजित किया था जिसके लिए उन्होंने देवताओं को आमंत्रित किया था. कहा जाता है कि उन्होंने ही सर्वप्रथम इन मंदिरों की स्थापना की थी.
जागेश्वर को हटकेश्वर और नागेश्वर के नाम से भी जाना जाता है.
जागेश्वर में महा शिवरात्रि के दिन विशेष पूजा-अर्चना की जाती है. इसके अलावा सावन के पूरे माह यहां विशेष पूजा अर्चना व पार्थिव पूजन होता है. इस दौरान यहां श्र्ृद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है. इस माह में एक छोटा सा मेला भी लगता है जिसमें आसपास के गांव वाले अपनी जरूरतों का सामान लेने आते हैं.
जागेश्वर मंदिर इस परिसर के एक छोर पर पश्चिम मुखी रूप में स्थित है. प्रवेशद्वार के दोनों तरफ द्वारपाल की आदमकद मूर्ति स्थापित है. इन्हें नंदी व स्कंदी कहा जाता है. मंदिर के भीतर, एक मंडप से होते हुए आप गर्भगृह पहुंचते हैं. मार्ग में गणेश, पार्वती जैसे शिव परिवार के सदस्यों की कई मूर्तियाँ स्थापित हैं. असली शिवलिंग दो पत्थरों की जोड़ी है, एक शिव व दूसरा शक्ति का रूप. कहा जाता है कि यहाँ का शिवलिंग स्वयंभू अर्थात् धरती के गर्भ से स्वयं प्रकट हुआ है. इस शिवलिंग के नीचे शायद पानी का कोई जीवित स्त्रोत मौजूद है क्योंकि यहाँ से पानी के बुलबुले निकलते दिखाई पड़ते हैं.
महामृत्युंजय महादेव मंदिर, पुष्टि देवी मंदिर, नवग्रह मंदिर, कुबेर मंदिर परिसर एवं दंडेश्वर मंदिर परिसर.इसके अलावा भी कई और मंदिर यहां उपस्थित हैं.
दंडेश्वर मंदिर परिसर मुख्य जागेश्वर मंदिर परिसर से करीब 1 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यहाँ एक बड़ा मंदिर व 14 अधीनस्थ मंदिर हैं. वस्तुतः यही बड़ा मंदिर दंडेश्वर मंदिर है और इस क्षेत्र का सबसे ऊंचा और विशालतम मंदिर है. इन मंदिरों में कुछ, दंडेश्वर मंदिर के समीप ही एक चबूतरे पर स्थित हैं व कुछ इसके आसपास बिखरे हुए हैं. इनमें कुछ मंदिरों के भीतर सादे शिवलिंग, योनि पर स्थापित हैं वहीं कुछ मंदिरों के भीतर चतुर्मुखलिंग स्थापित है.
भगवान् शिव यहाँ लिंग रूप में ना होते हुए, शिला के रूप में हैं. एक दंतकथा के अनुसार भगवान् शिव यहाँ के जंगल में ध्यानमग्न समाधिस्थ थे. उनके रूप व नीले अंग को देख इन जंगलों में रहने वाले ऋषियों की पत्नियां उन पर मोहित हो गयीं. इस पर क्रोधित हो कर ऋषियों ने शिव को शिला में परिवर्तित कर दिया. इसलिए शिव यहाँ शिला रूप में स्थापित हैं. कहा जाता है मंदिर का नाम दंडेश्वर ‘दण्ड’ शब्द से लिया गया है.
जागेश्वर को यहां का प्राकृतिक सौंदर्य और देवदार के विशाल वृक्षों को जंगल और भी सुन्दर एवं शांत बना देता है. जितने विशाल देवदार के वृक्ष जागेश्वर में हैं उतने विशाल वृक्ष किसी दूसरी जगह नहीं हैं.
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