पहाड़ में आण-काथ-लोक गाथाओं का अक्षय भंडार हुआ जिनके असंख्य किस्से आमा-बुबू के मुँह से नानतिनों तक पहुँच सुनहरी यादों को रचा-बसा देने वाले हुए. उस पर शारीरिक चेष्टाओं के द्वारा प्रकट भाव के विशिष्ट नृत्य जिनकी स्मृति से बदन में कम्प लहराने लगे, तभी इन्हें पांचवे वेद की संज्ञा दी गई. रोमांच-रहस्य के साथ भक्ति की शक्ति से भरी गांव की इस पूजा में जाने के योग बन जाएं तो कहने ही क्या. कथा और नृत्य से भरी यह पूजा जिसे जागर कहा गया.
(Jagar in Uttarakhand)

सुबह-सवेरे हो या साँझ का समय और या फिर रात. पहाड़ों में कुछ खास महीनों में कांसे की थाली के साथ और कई वाद्य यँत्र बज उठते हैं, जिनके साथ बजेगा हुड़का या ढोल-नगाड़ा या फिर गांव-घर में प्रचलित परात, मजीरा व ढोलक जिनके साथ सुनाई देंगे- ऐसे स्वर जिनमें प्रार्थना हो,यश कीर्ति का वर्णन हो और लगे धाल-वह पुकार जिन्हें सुन बदन में कंप होने लगे. रणसिंहा, भंकोर और शंख ध्वनि भी सुनाई दे अलग-अलग जगह अपनी-अपनी रीत से और इनके साथ कहीं लम्बा गान हो देवता के लिए अपने ठाकुर जी के लिए. अलग अलग रिवाज के हिसाब से जिनकी पुकार भी अलग सी. पूजा स्थल में लाल और सफेद निसान फहरा दिये जाते हैं.कहीं काली चीर भी. पूजा के सारे प्रबंध गाँव के घर परिवारों के सयानों की निगरानी में संपन्न कर लिए जाते हैं. ठाकुर जी का मंदिर हो जहाँ, वहां जागेगा, कुछ जगाया जायेगा – बोल वचन से. यही जागर है.

लोक गीत उभरते हैं उन लोकगायकों के द्वारा जो उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी की संपत्ति है. गुरु-शिष्य परंपरा से सामने आते स्वर. कहीं ये तंत्र विज्ञान है जिस पर इतना अटूट लोक विश्वास कि विधि विधान से किये जाने पर तुरंत फल मिले, आधि-व्याधि-विपदा क्लेश मिटे. ऐसी गाथाओं का भंडार जिनकी परम्परा वैदिक और ब्राह्मण ग्रंथों से चली आई. पुराणोँ में तो इन गाथाओं का भण्डार ही रहा. अनेक लोक गाथाएं तदन्तर छन्दो बद्ध होती रहीं. समय के साथ जुटती रहीं. देवों की भांति पूजे कई अपने समय के ख्याति संपन्न शौर्य वान व्यक्तित्व वाले रहे. लोक देवता की श्रेणी में स्वीकार हुए. इन लोक विभूतियों को लोगों ने अपना रक्षा कवच माना.
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देव भावना के लोक नृत्य में देवी, भैरव, निरंकार व नागर्जा मुख्यतः पूजे जाते हैं. डमरू-डोंरू-घड़ियाला-थाली बजती है. धार्मिक नृत्यों में ही पांडव नृत्य भी हैं जिसका आयोजन ढोल-नगाड़ों के साथ खुले प्रांगण में होता है. ढोल नगाड़ों के साथ ही रासो नृत्य भी होता है. इसमें मंडाण लगता है, आवजी जागर लगाते हैं और गोल घेरा बना पुरुष नाचते हैं.

ऐसा भी देखा गया कि लोक देवताओं पर किसी जाति, समुदाय, कुनबे या समूह का विशेष लगाव व श्रद्धा भाव रहा. इन्हें अपना ईष्ट देव माना गया. इनकी पुकार लगाने पर वह हर बाधा हर लेंगे का अटूट विश्वास भी पनपता रहा. पहाड़ के लोक देवता अपने गुण व स्वाभाव के आधार पर विविध क्रम-अधिमान में वर्गीकृत रहे यथा – देवांगी, राजांगी और भूतांगी. जहां संतोषी व कल्याण कारी का प्रतिमान देवांगी व राजागी को मिला तो भूतांगी देवता कष्टकारी व आतंकी की श्रेणी में आए. इनकी कल्पना लोक में व्याप्त आस्था व विश्वास की सूचक बनीं जिनमें सूक्ष्म शरीर या आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया गया.

प्रजाति, वर्ग एवम श्रेणी के आधार पर पहाड़ में देवी-देवताओं को देवयोनिक, नागयोनिक, अर्ध देवयोनिक, भूतप्रेत योनिक, यक्ष गन्धर्व योनिक, मानव योनिक, सिद्ध कोटिक (नाथ संप्रदाय), मल्ल कोटिक (कत्युरी राजवंश), महाभारतीय देववर्ग, असुर वर्गीय, दानव वर्गीय व राक्षस वर्गीय श्रेणियों में पृथक पृथक रूप से मान्यता दी गई. जागर इन्हीं लोक देवताओं की पूजा पद्धति का एक भाग रहा. धीरे धीरे विकसित होते ये देवी की अठवाड़ (नौरता मंडाण) के साथ ही महाभारत के आख्यानों से पांडवोँ व युद्ध में मरने वालों से रणभूतों के रूप में नचाने के स्वरूप तक में प्रचलन में आ गया. उत्तराखंड में कृष्ण को नागराजा के रूप में मान्यता मिलने से इसकी व्यापकता अन्य देवी-देवता के सापेक्ष अधिक बढ़ी. कुमाऊँ की रमोल गाथा हो या गढ़वाल के नागरजा के जागर, दोनों का सम्बन्ध सेम नागराज की पूजा से जुड़ा रहा.
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ये जागर है. यहां जागर शब्द का प्रयोग मनुष्य के भीतर छुपी अदृश्य शक्ति के प्रदर्शन से है. माना जाता रहा है कि कुछ खास लोगों के तन में जो देवी, देवता या भूत विद्यमान है उसे जागृत कर देना ही जागर है. एक अदृश्य आत्मा को जगा कर उसका आह्वान कर उसे किसी आदमी (जो माध्यम होगा) के शरीर में अवतरित करना ही जागर है. यह सब बहुत रोमांच और रहस्य से भरा प्रतीत होता है. जागर के माध्यम से देवी देवताओं का आह्वान हुआ तो स्थानीय ग्राम देवता भी पूजे गये.

जागर शुद्ध संस्कृत शब्द है जो जागरी के साथ धळ् प्रत्यय लगा कर बना है व इसका अर्थ है जागरण. किसी माध्यम पर दैवी शक्ति के आह्वान, अवतरण और नृत्यमयी पूजा के लिए किये गए अनुष्ठान तथा गीतों को जागर कहा जाता है.जागर नृत्य गीतों से जहां प्रसिद्ध देवी-देवताओं का आह्वान किया गया वहीं स्थानीय ग्राम देवता भी पूजा के भागी बने.

जागर मुख्यतः तीन स्वरूपों में दिखते हैं. इनमें पहला है ‘हुड़किया’ जागर जिसमें हुड़का बजता-गमकता है. दूसरा है ‘डमरिया’ जागर जिसमें थाली व डमरू बजा कथा कही जाती है. तीसरा ‘ढोल’ जागर जिसके मुख्य वाद्य यँत्र ढोल व नगाड़ा होता है. कथा-संगीत के साथ नृत्य होता है. जलते अंगारों पर भी चला जाता है. मृदंग बजा लगने वाला जागर ‘मुरयो’ कहलाता है. सबका आधार पौराणिक या जागर धार्मिक गाथाऐं हैं.

जागर ही उस मंच को तैयार करते हैं जिस पर कोई भी देवता किसी व्यक्ति या पश्वा के माध्यम से अवतरित हो सामान्य जन से संवाद स्थापित करता है. जागर लगने से पूर्व जागरी को मंगला चार अर्थात जागर से पूर्व की अनुष्ठानिक पूजा-दीप पूजन, भूमि पूजन, गणेश पूजन, सूर्य अर्घ्य, शांतिपाठ कर पूरे परिवेश को देवमय व पूजा स्थल को देवायतन के रूप में परिवर्तित करना होता है.
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जागर से पूर्व की अनुष्ठानिक क्रिया में यजमान द्वारा तीन बार आचमन, बायीं हथेली में जल ले कर दाईं अनामिका ऊँगली से जल अभिमंत्रित करना, आसन शुद्धि, पंचगव्य छिड़कना आरम्भ किया जाता है. सर्वप्रथम गणेश जी याद किये जाते हैं. गंगा जी का ध्यान करते हैं. विघ्न हरण हेतु गणेश जी का स्मरण होता है. पवित्र सप्तनदियों व नवग्रहों का स्मरण करते हैं. सप्तपुरियां, गौरी /दुर्गा स्तवन, शिव ध्यान, श्री हनुमत्स्तुती, विष्णु स्तुति, काली स्तुति, भैरव पूजन, दीपक पूजन, सूर्य स्तवन के बाद अर्ध्य दिया जाता है –

ॐ आदित्याय नमः, रवये नमः, भानवे नमः, गन्धाक्षतंपत्रँ -पुष्पँ धूपँ, दीपं, नैवेद्यँ, दक्षिणाँ च समर्पयामि. ॐ मित्राय नमः. ॐ रवये नमः. ॐ सूर्याय नमः. ॐ भानवे नमः, ॐ खगाय नमः, ॐ पूषणे नमः. ॐ हिरण्यगर्भाय नमः.

अर्घ्य दे घंटे का पूजन करते हैं. घण्टाकोष करने के बाद घंटी को बाईं तरफ रख देते हैं. अब शंख पूजन किया जाता है,’ॐ भूभुर्व: स्वः शंखस्य देवताये नमः ‘.फिर विघ्न न पड़े इसकी उपासना के लिए भूतोत्सारणम किया जाता है.

चारों दिशाओं में अक्षत चढ़ाते हुए पुंडरीकाक्ष स्मरण होता है. बालकों से ले कर बालिकाऐं, किशोर, नवयुवक-नवयुवतियाँ, स्त्रियां, जवान-अधेड़-बूढ़े-सयाने सब के कपाल पर तिलक लगता है. रक्षा सूत्र बंधन किया जाता है. चतुर्दश नमस्कार किया जाता है :

ॐ श्री मन्नमहा गणाधिपतये नमः
ॐ लक्ष्मीनारायणाभ्याँ नमः
ॐ उमा महेश्वराभ्याँ नमः
ॐ वाणीहिरण्यगर्भाभ्याँ नमः
ॐ शचीपुरन्दाभ्याँ नमः
ॐ मातृ-पितृ चरण कमलेभ्यो नमः
ॐ ईष्ट देवताभ्यो नमः
ॐ कुलदेवताभ्यो नमः
ॐ ग्रामदेवताभ्यो नमः
ॐ स्थान देवताभ्यो नमः
ॐ वास्तु देवताभ्यो नमः
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः
ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्योनमः
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय
श्री मन्मगणाधिपतये नमः
अविघ्नमस्तु…

इसके उपरांत स्वस्तिवाचन व फिर गणेश-गौरी पूजनम संपन्न कर गणेश पूजन-आह्वान करते हैं. चौकी में गणेश, नवग्रह, षोडशमातृका आदि बना गणेश जी का आह्वान, ध्यान, स्मरण व पूजन व अंत में प्रार्थना की जाती है.कार्य सिद्धि हेतु धामी द्वारा गणेश जी व नारायण भगवान की स्तुति कर उनसे जागृत हो कार्य संपन्न होने की प्रार्थना की जाती है –

बीजी जावा बीजी हे खोली का गणेश,
बीजी जावा बीजी हे मोरी का नरेण.

ढोल दमाऊ के साथ गाए जाने वाले जागर / वार्ता / भारत घरों से बाहर आंगन में ही लगाए जाते हैं. इनको ‘मंडाण’ कहते हैं पहाड़ में कई जगह देवी का मंडाण लगता रहा जिसमें नर भेंसे की बलि भी प्रचलित रही. यह नौ दिन तक चलता और इसे ‘नौरता मंडाण’ भी कहा गया.दूसरी तरफ घड़ियाला में डौँर-कांसे की थाली के साथ गाए जाने वाले जागर कमरे के अंदर ही लगाए जाते हैं जिसमें धामी पहले गांव विशेष के भूम्याल, भूमिपाल धरती और कुरूम की पूजा करता है और फिर अन्य देवताओं का यशोगान करता है-

जै जस दे धरती माता
जै जस दे कुरम देवता
जै जस दे भूमि को भूम्याल
जै जस दे गंगा की निर्मल धार
जै जस दे पंचनाम देवता

जागर में कोई भी देवता किसी व्यक्ति, ‘पश्वा’ या ‘डंगरिया’ के माध्यम से अवतरित हो आम जन से संवाद करता है.जागर में सबसे खास है ‘जगरिया’ जो लोक वाद्यों के बजने के साथ एक विशेष तरीके से गा कर उस अदृश्य शक्ति को जगा कर ‘डंगरिये’ के शरीर में अवतार कराता है. जिस आत्मा का आवाहन किया जा रहा उसकी कथा का गायक है यह जगरिया जिसके साथ कथा कहने में भाग लगाने वाले कुछ और लोग ‘भगार’ या ‘हेवार’ कहे जाते हैं. थाली, ढोल, हुडका आदि बजाने वाले विशेष लय व ताल से वाद्य यँत्र बजाने में कुशल होते हैं.
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 गायन व वादन से शक्ति का आवाहन करने पर जिस खास व्यक्ति के आंग या शरीर में शक्ति प्रकट होती है, वह डंगरिया है. अवतार के बाद डंगरिया को उसी के बराबर शक्तिशाली व फलदायी माना जाता है. यह वही है जो किसी भी समस्या या परेशानी का समाधान करेगा, हल बताएगा. अब जिस घर, कुनबे, राठ में जागर, जाग या वैसी लगाई जा रही वहां का बड़ा बुजुर्ग और उसकी संगिनी ‘स्योंकार’/’स्योंनाई’ कहे जाते हैं.

जागर का आरम्भ जगरिये द्वारा ‘संज्यवली’ या संध्या वंदन से होता है. साफ स्वच्छ जगह पर बैठने व अन्य क्रियाओं के लिए खास तैयारी पहले से कर ली जाती है. पैट-अपैट यानी शुभ मुहूर्त का विचार कर लिया जाता है. मिट्टी गोबर से स्थल लीप, गोंत छिड़क शुद्ध करने की रीत की जाती है. धूप-दीप जलते हैं. विशेष सामान में चावल बड़ी थाली में रखा जाता है.गंगा जल छिड़का जाता है. डंडे के शीर्ष से बँधी पुटली खास जगह पर रख दी जाती है. अग्नि प्रज्वलित होती है. मस्तक में अक्षत पिठ्या व भस्म. डंगरिया धोती कुरता टोपी से सज्जित रहता है. सफेद पीली लाल धोती ज्यादा चलती है.
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‘जै गुरु-जै गुरु, माता पिता गुरु देवता, सब तुम्हारो नाम छू इजा… यो रुमनी-झुमनी संध्या का बखत में’… के आरम्भ व ब्रह्मा के बरमलोक, विष्णु के विष्णु लोक, शम्भु के कैलास, ऊँचे हिमाल, गैला पाताल में, डोटी गढ़ भगा लिंग में पंच मुखी दीप जो जल रहा स्योंकार-स्योंनाई के घर में, जागेश्वर-बागेश्वर, कोटेश्वर, कबलेश्वर में हरी हरिद्वार में – बद्री केदार में गुरु का गुरुखंड में, ऐसा गुरु गोरखनाथ जो छन अगास का छूटा छन-पताल का फूटा छन, सौ मण का भसम का ग्वाला जो लागि रई, गुरु का नौणिया गात में”.

सूरजामुखी शंख बजता है –

उर्धामुखी नाद बाजनौँ. कंसासुरी थाल बाजनौ. तामो बिजेसार को नगाड़ो में, म्यारा पंचनाम देबो… तुम्हरि नौबत जो लागि रै. अहाss तै बखत का बीच में, नौ लाख तारों की जोत जो जलि रै नौ नाथन की, नाद जो बाजि रै. नौखंडी धरती में, सातों समुन्दर में अगास-पताल में.

हुड़के के साथ कांसे की थाली जो पंय्या की डंडी से बजाई जाती है के साथ पूरी साँझवाली उभरती है जो ढोल के साथ दमाँउ की संगत लेती है. सब गुरु याद किये जाते हैं- खाक धारी, भेखधारी, टेकदारी, गुरु जलंधरी नाथ, गुरु मछँदरी नाथ, नंगा निर्वाणी, खड़ा तपेश्वरी, शिव का सन्यासी, राम का बैरागी. अब पुकार लगाई जाती है कि ये बखत बड़ी विपदा का आन पड़ा है –

घासिक घस्यार बंद है रौ. पनिक पन्यार बंद है रौ. घतियेकि घात बंद है रै. बिणियेकि विणे बंद है रै. ब्रह्माक वेद चलण बंद है गो. धरमक पैन चलण बंद है गो. क्षेत्री-क खण्ड चलण बन्द है गो. गायिक चरण बन्द है गो. पंछीन्क उड़न बन्द है गो. अगासक चड़ी घोल में भै गे. सुलछिणी नारी घर में पंचमुखी दीप जो जलौण फैगे.

हुड़के की थाप के साथ कांसे की थाली पयां के सोटे यानी पदम पेड़ की पतली टहनियों से बजने लगती है –

टन टनटन टन
कुड़ध्यान्न -कुड़क्याट्ट -कुड़ध्यान्न -कुड़क्याट्ट….

देव डंगर के बदन में कंप की लहर जगाने में तत्पर हैं ये. जहां ढोल बजता तो वहां साथ देता है दमाऊं कि इस बखत के बीच में संध्या झूल रही.

कि तै बखत का बीच में संध्या जो झुलनें इजू हस्तिनापुर में, कलकत्ता का देश में, जाँ मैया कालिका रैछ. गढ़ में गढ़ देवी, सोर में बैठें, भगवती. हाट में कालिका, पुण्यागिरी में माता, हिंगलाज में भवानी. संध्या पड़ रही बागेश्वर भूमि में, जाँ मामू बागिनाथ छन. जागेश्वर भूमि में बूढ़ा जागिनाथ रूनी. बूढ़ा जागी नाथेन्ल इजा, तेंतीस कोट द्याप्तकें सुनू का घंट चढ़ा छी. सौ मण को धज चढ़ा दी संध्या जो पडि रै इजा मृत्युंद्यो में, जां मृत्यु महराज रूनी. काल भैरव रूनी. तै बखत का बीच में संध्या जो झूलनेँ, सुरज कुंड में बरम कुंड में, जोशी मठ-ऊखी मठ में, तुंगनाथ, पंचकेदार पंचबद्री में जटाधारी गंग में, गंगा गोदावरी में, गंगा भागीरथी में, छड़ोँज का ऐड़ी में, झरू झाँकार में, जां मामू सकली सैम राजा रूनी. डफौट का हरू में, जां औन हरू हरपट्ट है जाँ, जान हरू छरपट्ट है जाँ.

कुड़ध्यान्न -कुडक्याट्ट -कुड़ ध्यान्न -कुड़क्याट्टsss

अब शुरू होता है जागर का दूसरा चरण जिसे ‘बिरत्वाई’ या बिरुदावली कहा जाता है. जिस देवता का अवतरण कराया जा रहा उसी की बिरुदावली गायी जाती है जिसमें उसके सब गुणोँ का बखान होता है. यह सुन सुन डंगरिये के शरीर में कंप उठने लगता है अर्थात द्यापता शरीर में अवतरित होने लगता है, फौरन तब बिरुदावली रोक ‘औसाण’ दिया जाता है.
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हुड़के की लय औसाण देते और तीव्र हो जाती है, कांसे की थाली भी उसी तेज गति से बजने लगती है. डंगरिये के तन में देवता अवतरित हो अपनी उपस्थिति दिखाता है. हर देवता की अपनी लय-अपनी चाल-अपनी मुद्रा है जो उसके निमित्त रचे औसाण से उठान करती है.

डंगरिये के शरीर में अवतरित देव अब अपनी नृत्य मुद्रा में भाव-राग-ताल के साथ हाथ में थाल पकड़े उसमें प्रज्वलित घी की बत्तियों, फूल, राख और चावलों के साथ गुरु की आरती करता है. मान्यता है कि सभी पवित्र आत्माओं के गुरुमुखी देवता ‘गुरु गोरखनाथ’ हैं. ठाकुर बाबा द्वारा गुरु की आरती के इस चतुर्थ चरण के उपरांत अब खाक रमाई जाती है.

थाली में रखी भस्म देवता सर्वप्रथम अपने मस्तक पर लगाता है फिर जगरिया उसके हुड़के व कांसे की थाली पर राख लगाता है. अब बारी होती है सारे भक्ति भाव से देव कौतुक देखने व देव कृपा पाने के उत्सुक श्रद्धालुओं की जो देवता के सम्मुख जा उसे प्रणाम कर उसके हाथों अपने मस्तक पर भभूत लगवाते हैं.

अब आगे होता है ‘दाणि’ का विचार. इसमें जिस घर परिवार में देवता को जागृत किया जाता है उसमें आई आपदा -विपदा का समाधान करता है देवता. थाली में रखे चावल परख कर वह विचार करता व दुख हरने संकट कटने का रास्ता बताता है. पूर्व में हुई भूल-गलती व उसे ठीक करने का मनोबल देता है. जिसको भी कोई कष्ट-विपदा आन पड़ी हो उसका समाधान करता है. घर-कुनबे के स्योंकार को दिलासा देता है कि उसने उनकी पूजा से प्रसन्न हो उनके दुख-विपत्ति हर ली है और उसका आशीर्वाद उनके साथ है.
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जगरिया तब अंतिम औषाण देता है. देवता पुनः अपने भाव नृत्य से हिमालय की ओर कैलास पर जाने की ओर उन्मुख होता है. उसकी सूक्ष्म आत्मा डंगरिये के शरीर से मुक्ताकाश में विलीन होती है.जगरिया द्वारा संज्यवाली, ईश प्रार्थना, उसकी वीरता उसकी महिमा व अवतार की प्रार्थना उसकी स्तुति भारत कही जाती है.

शरीर में विद्यमान भूतात्मा को वापस भेजने की क्रिया जाल काटना है. कई जगह यह रीत है कि किसी लकड़ी या धातु के पात्र में धागे से जाली बनाई जाती है और फिर परिवार के संकट ग्रस्त व फिर अन्य लोगों के द्वारा उसके धागे काटे जाते हैं.

जागर घर के भीतर या बाहर आयोजित होते हैं. कुछोँ में धूनी भी जगाई जाती है. देव मंदिरों में तथा नवरात्रियों में सामूहिक जागर भी लगते हैं. इस प्रकार एक दिन के जागर ‘जागो ‘, चार दिन के ‘चौरास’, ग्यारह दिन या बाइस दिन का ‘वैसी’ कहा जाता है जो कई जगहों में चौदह दिन का भी लगता है.

घर के भीतर किसी कमरे या गोठ में अखंड दीप जोत जला थाली, डमरू बजा देवता को ‘पश्वा’ के माध्यम से अवतरण कराना ‘घडियाला’ कहा जाता है.अखंड दीप ‘द्युलपाथा’ भी कहा जाता है जिसमें किसी पात्र को अनाज, जौ, झिँगोरा आदि से भर उसके ऊपर घी या तेल के दीप को जलाते हैं. दीप भैरव का रूप हुआ जो देव अनुष्ठान करते हुए सभी विघ्न बाधाओं का कीलन करता है. घडियाला लगने से पूर्व कक्ष में पंचगव्य छिड़क कर स्थान शुद्धि के बाद दीप पूजन, भूमि पूजन, गणपति पूजन, सूर्य को अर्घ्य, शांति पाठ और इस बड़े काज को बिना अटक-बटक होने की विनती.
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कांसे की थाली की टन-टन व डमरू की डिम-डिम के साथ उभरती जगरिया द्वारा भुम्याल, भूमि व कुरम के संग देवी-देवताओं की स्तुति की धाल लगती है –

जै जस दे धरती माता, जै जस दे कुरम देवता.
जै जस दे भूमि को भूम्याल, जै जस दे गंगा की निर्मल धार.
जै जस दे पंच नाम देवा.

अब क्षेत्रपाल से संकट काटने, विघ्न टालने की प्रार्थना होती है –

देव खितरपाल घड़ी- घड़ी का विघ्न टाल,
माता महाकाली का जाया, चंडभैरों खितरपाल,
प्रचंड भैरों खितरपाल, काल भैरों खितरपाल,
माता महाकाली को जायो, बूढ़ा महारूद्र को जायो.
तुम्हरो ध्यान जाग!तुम्हरो ध्यान जाग!

अब पंचतत्वों से बने लोकों व उनमें जड़ चेतन स्वरूपी उसकी माया जो जगत रूप में दिखाई देती है को जगाया जाता है –

परभात का परब जाग, गौ सुरूप पृथ्वी जाग,
धर्म स्वरूप आकाश जाग, उदयंकारी कांठा जाग.
ह्यूँ हिमाल जाग, पयालू पाणि जाग.
गोवर्धन पर्वत जाग, राधा कुंड जाग.
काला बैजनाथ जाग, धौली दिप्रयाग जाग.
हरि हरिद्वार जाग, काशी विश्वनाथ जाग.
बूढ़ा केदार जाग, भोला तू शम्भू जाग.
काली कुमाऊँ जाग, चोपड़ा चौथान जाग.
फटिंगा कलिंगा जाग, सोवन की गादी जाग.

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देव शक्तियों को जागृत करते उनको पुकार लगती है. जगरिया गणेश व नारायण की स्तुति करता है कि वह जागें, इस काज में सिद्धि दें –

बीजी जावा बीजी हे खोली का गणेश, हे मोरी का नारैण, हे खतरी का खैड़ो, हे कूँती का पंड़ोऊँ,हे कॉठयो उदँकारो, हे नौखंडी नरसिंह, हे शम्भु भोलेनाथ, हे रात की चांदनी, हे दिन का सूरज, हे ऐँच का आगास, हे नीस की धरती, बीजी जावा बीजी हे नौ खोली का नागो. जगरिया की धाल, नगर्जा की स्तुति के बोल, डंगरिया के तन में कम्प,करछी में जलते अँगारे के ऊपर डाले घी की सुवास.इस धुपाना सुंघाना से देवता प्रसन्न, तब डंगरिया अपने पूरे जोर, पूरे वेग से काँपते लय गति ताल से –

भूमि का भूम्याल!
माटि का मटयाल!
दर्शनी देवता, मुल्की ठाकुर!
सहियों का रौतेला, वृषणिवंशी यादव!
दुधाधारी कृष्णावतारी!
दैणु ह्वेजा दैणु विष्णु.
कलु का कल्पवृक्ष!
बोध रूपी नारैण!
भक्तों का घर मा तेरु कार्य उबर्यु छ!
गायन का गोठ जाग!
भैसियोँ का खर्क जाग!
जीतू की बगोड़ी जाग!
पाताल की नागणियों जाग!
स्वर्ग की आछरियों जाग!
हरि हरिद्वार में हरि जी का ध्यान जाग!
सेला ऋषिकेश में सर्तरी-भर्तरी मुनि का ध्यान जाग!
लक्ष्मण झूला में राजा लक्ष्मण जी का ध्यान जाग.
भोला तो क्षेत्रपाल का ध्यान जाग, बालगोविन्द का ध्यान जाग!
धौली दिप्रयाग में राजा रघुनाथ का ध्यान जाग!
सैणा तो श्रीनगर में कमलेश्वर महादेव का ध्यान जाग!
रुद्रप्रयाग में रुद्रेश्वर महादेव का ध्यान जाग!
कर्णप्रयाग में करणेश्वर महादेव का ध्यान जाग!
नन्द प्रयाग में नंदेश्वर महाराज का ध्यान जाग!
विष्णु प्रयाग में विष्णु भगीवान का ध्यान जाग!
जोशीमठ में नरसिंह देवता का ध्यान जाग!
गौरीकुण्ड में गौरजा माता का ध्यान जाग!
त्रिजुगीनारायण में त्रिजुगीवभूत का ध्यान जाग!
तुंगनाथ में तुंगेश्वर महादेव का ध्यान जाग!
पाण्डुकेश्वर में पांच भाई पांडवोँ का ध्यान जाग!
धर्मवंती कुंन्ति का ध्यान जाग!
अहिल्या – मंदोदरी -सीता -द्रौपदी -तारा का ध्यान जाग!
केदार की कांण्यो जाग!केदारी कंकड़ का ध्यान जाग!
बूढ़ा केदार में बूढ़ा महादेव का ध्यान जाग!
ताता तो तप्तकुंड जाग, नारदकुण्ड जाग, ब्रह्मकुण्ड जाग!
सेला तो वसुधारा का ध्यान जाग!
ब्रह्मकपाली में अर्यमा पितरेँश्वर महाराज का ध्यान जाग!
ऊँचा तो कैलास में शिवशक्ति महेश का ध्यान जाग!
गोमुख में गंगा मैया का ध्यान जाग!
यमुनोत्री में यमुना मैया का ध्यान जाग!
पश्चिमी नेगला, पूर्वी घंडियाल का ध्यान जाग!
बारमैना रै गएं विष्णु सेम गाद्योँ पर!
सात तो सेम का ध्यान कर!
आरुणी सेम का ध्यान जाग!
वारुणी सेम का ध्यान जाग!
अलबेला सेम का ध्यान जाग!
तलबला सेम का ध्यान जाग!
लुकासेम का ध्यान जाग!
भुखा सेम का ध्यान जाग
गुप्त सेम का ध्यान जाग!
जख छन भगीवान तेरा दूधाधारी नाग!
नौकरोड़ी नाग, ऐरा-भैरा नाग, अणि-फणि नाग!
सूता नागों जगौँलू, रूठा नागों मनौलू!
जख छन कंचन कोठी माणिक बल्या छन!
झूलदा कलश छन शतमुखा शंख छन,
ताम्बा की भकोरी छन,
जख छन भगीवान तेरा ड्यूटी दीवान,
घुँडी -पिंडी बजीर.

सभी देव देवताओं का ध्यान जगाया जाता है ज्ञान रमोला का, ध्यान रमोला का, फारसी रमोला का, गंगू रमोला का. रानी मैनावती का!सिदुआ रमोला का, बिदुआ रमोला का, जैनू रमोला का, विरमू रमोला का, कृपा रमोला का, पिरतू रमोला का, शक्तु रमोला का, भक्तु रमोला का, आशा रमोला का, मूसा रमोला का, जगदेव रमोला का, भागदेव रमोला का, ऐला रमोला का, जैला रमोला का, जोगा रमोला का, घोंगा रमोला का ध्यान जाग!

जिस घड़ी से तेरे नमन-वंदना की टेर लगे, शंख घंट बाजे बजें धरती झूमेगी वायु विशम्बर! चाँद-सूरज-पवन-प्राणी सब गतिमान. बर्फ से ढकी चोटियां जागेंगी, पयालु पाणी जागेगा. बाला बैजनाथ, धौली दिप्रयाग, हरि-हरिद्वार, काशी -विश्वनाथ, बूढ़ा केदार, भोला शम्भूनाथ, काली कुमाऊँ, चौपड़ा चौथान, फटिंग का लिंग, सोवन की गद्दी सब जाग्रत हो उठते हैं.

“सूतू छेँ भगीवान बीजी जा यादव! दर्शनी देवता हुआ तू, मुलुकी ठाकुर. हे कृष्ण!तुझे नवलाख भंडारा अर्पित!अतोला भंडारा, रोट भेंट की पूजा! खीर का खाण्ड, दूध का स्नान, नौणी का नैवेद्य, माखन का भोग अर्पित.तेरी माया मोहिनी रे मोहन, अपनी मुखड़ी दिखे जा हे मोहन, मोहन मुरली बजै जा हे मोहन..

जागर के अनुष्ठान व पूजा पद्धति पर पंडित विशाल मणि शर्मा की पूजा भास्कर, पंडित शिवस्वरुप प्रसाद यागयिक की सम्पूर्ण पूजन रहस्यम व पंडित ज्वाला प्रसाद शास्त्री की नित्य कर्म पद्धति पुस्तकें विस्तार से व्याख्या करतीं हैं. साथ ही डॉ गोविन्द चातक, पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी, डॉ हरिदत्त भट्ट शैलेश, डॉ शिवानंद नौटियाल, डॉ कृष्णानंद जोशी, हरिराम जसटा, विमल जुयाल, सीता राम ममगाई, डॉ जे पी बिजलवाण व डॉ पीतांबर अवस्थी, जुगल किशोर पेटसाली, डॉ प्रयाग जोशी, डॉ नंदकिशोर ढोंढियाल, उर्वा दत्त उपाध्याय व डॉ डी. डी. शर्मा द्वारा उत्तराखंड में लोक प्रचलित जागर कथाओं का संपादन किया गया है. हिमालय के लोक नाट्य और लोकानु रंजन पर ऍम आर ठाकुर की किताब व कुमाऊंनी लोक साहित्य पर बंशीधर पाठक व गढ़वाली लोक साहित्य पर पीताम्बर दत्त देवरानी के सन्दर्भ महत्वपूर्ण है.
(Jagar in Uttarakhand)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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