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कितना जायज़ है भर्ती के नाम पर पहाड़ के युवा पर इल्जाम लगाना

आप उत्तराखण्ड के किसी भी इलाके में सैलानी बन कर भ्रमण के लिए निकले हों तो तय है कि आपको कई जगहों पर सड़कों के किनारे-किनारे दौड़ने का अभ्यास करते, पसीने में सराबोर किशोरों के छोटे-बड़े समूह  नज़र आएँगे. फ़ौज की भर्ती की हर घोषणा पर निगाह रखने वाले ये किशोर अधिकतर समाज के सबसे निचले तबकों से आते हैं जिसके लिए कैसी भी सरकारी नौकरी मिल जाना आज भी सबसे बड़ा सपना है. बारहवीं के बाद डाक्टरी-इंजीनियरिंग जैसे कोर्स करवा सकने की इनके माँ-बाप की औकात नहीं होती. अमूमन गाँव के स्कूलों में पढ़े-लिखे ये बच्चे शहरों के पब्लिक स्कूल वाले बच्चों से भी किसी तरह की प्रतिस्पर्धा करने से खुद को लाचार पाते हैं. सो फ़ौज की नौकरी ही उनके लिए एक ऐसा आकर्षण बचती है, जिसके लिए केवल शारीरिक क्षमता के सहारे भर से काम चल सकता है. हो सकता है इनमें से कोई बच्चा सैनिक बन कर, मोर्चे पर डटा हुआ देश की सेवा भी करना चाहता हो पर उस बारे में तयशुदा कोई बात नहीं कही जा सकती.

कुछ वर्षों से देखने में आ रहा है कि पहाड़ों में जब कभी सेना की भर्ती होती है तो उसके अगले दिन अखबार ऐसी हेडलाइंस देखने को मिलती हैं –  ‘भर्ती में हांफती पहाड़ की जवानी’ ‘कमजोर होते पहाड़ी युवा’ या ऐसा कुछ भी जिसका अर्थ यह निकलता हो कि पहाड़ का युवा अब मेहनती नहीं रहा. इन हेडलाइंस के नीचे सेना की किसी बड़े स्थानीय अधिकारी  बयान होता है – “पहले पहाड़ का युवा मेहनती होता था. हम भी आर्श्चयचकित हैं कि कैसे पहाड़ का युवा दौड़ नहीं पाता है.” इसके बाद किसी  स्थानीय स्वास्थ्य विशेषज्ञ की बाईट होती है जो कहता है कि ‘पहाड़ में लड़कों का खान-पान की आदत बदल चुकी है. मेहनत का काम कम हो गया है इसलिये स्वास्थ्य में भी इसका कुप्रभाव देखा जा रहा है.’ इसके बाद नंबर आता है किसी समाजसेवी का जिसका कहना होता है कि ‘समाज में बढ़ रही नशे की प्रवृत्ति के कारण युवा खोखला हो रहा है. पहाड़ का युवा नशे की चपेट में है इसलिये भाग नहीं पा रहा है. ख़बर के उपर धूल में भागते युवा  की फोटो होती है और अगर अखबार के पास छपने की जगह होती है तो इस फोटो के साथ चाय के साथ धुँआ उड़ाते या मोमो-चाउमीन के ठेले पर युवाओं की भीड़ की एक और फोटो.

ऐसे समाचारों को पढ़कर समाज में एक विमर्श चलने लगता है जिसकी सरगर्मियां फेसबुक से लेकर वाट्सएप तक कुछ दिन चलती रहती हैं. सभी प्रकट तथ्यों और सबूतों के आधार पर पहाड़ के युवा को नशेड़ी, कामचोर बेकार और निठल्ला घोषित कर दिया जाता है. यह क्रम पिछले कुछ सालों से पहाड़ के हर उस जिले में चलता दिख रहा है जहां-जहां सेना की भर्ती होती है. हालिया उदाहरण देखना चाहें तो आप कल-परसों पिथौरागढ़ में हुई भर्ती की ख़बरें अखबारों में पढ़ सकते हैं.

हम यहां पूरी जिम्मेदारी और सेना के सम्मान के साथ आपके साथ कुछ तथ्य साझा करना चाहते हैं. पहला यह कि सेना की भर्ती अधिकतर जिलों के मुख्यालय में होती है. एक सेना भर्ती में एक या दो जिलों के बच्चों को बुलाया जाता है. इसमें न्यूनतम तीन से चार हजार बच्चे भाग लेते हैं. जिन्हें दो सौ से चार सौ तक के ग्रुप में दौड़ाया जाता है. हर ग्रुप से चार या आठ बच्चे सलेक्ट होते हैं. यहाँ बच्चे किसी रेस में भाग नहीं लेते हैं. उन्हें एक भीड़ में भाग लेना होता है. सेना न किसी के लिए स्थान तय करती है न ही आगे पीछे खड़े बच्चों के लिये अलग-अलग फिनिशिंग पाइंट डिसाइड करती है. प्रत्येक ग्रुप में पहले आठ छंट जाते हैं और बचे हुए बाकियों को पहाड़ की हांफती जवानी की श्रेणी में रख दिया जाता है.

ध्यान में रखा जाना चाहिये कि भर्ती जिला मुख्यालय में होती है. यह कितनी महत्वपूर्ण बात है इसे हाल ही में पिथौरागढ़ में हुई भर्ती से समझा जा सकता है. इस भर्ती में चम्पावत और पिथौरागढ़ जिले के युवाओं ने शामिल होना था. इसका मतलब है कि मुनस्यारी से लेकर टनकपुर तक का युवा इसमें शामिल होगा. सेना में जाने वाले अधिकाँश बच्चे आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से होते हैं. इनके पास इतना पैसा नहीं होता कि कोई होटल करके जिला मुख्यालय में रह सकें. जितने पैसे होते हैं उसमें आने-जाने का किराया ही बमुश्किल निकल सकता है क्योंकि हर भर्ती के दौरान जिला मुख्यालय की ओर चलने वाली टैक्सी का किराया तीन से चार गुना बढ़ा दिया जाता है. पिथौरागढ़ में ही एकाध महीने पहले हुई ओपन भर्ती का एक किस्सा हल्द्वानी में बहुत चर्चा में रहा. उत्तराखंड-उत्तर प्रदेश की सीमा से लगने वाले एक गाँव से तीन युवा पिथौरागढ़ में होने वाली इसी भर्ती में शामिल होने हल्द्वानी पहुंचे. हल्द्वानी से पिथौरागढ़ जाने वाली सभी बसें जा चुकी थीं. टैक्सी स्टैंड जाने पर उनसे जीप वाले ने सामान्य से पांच गुना रकम माँगी. जाहिर है उनके पास उतने पैसे नहीं थे. उन्हें इस बात का कतई गुमान नहीं था कि हल्द्वानी से पिथौरागढ़  कितनी दूर है. सो उन्होंने पैदल ही पिथौरागढ़ की राह पकड़ी. रानीबाग पहुचने तक अंधेरा हो चुका था और  तीनों थककर चूर चुके थे. तब उन्होंने एक ऑटो वाले को रोककर पूछा कि “भईया पिथौरागढ़ जाने के कितने पैसे लोगे?” न जाने बच्चे  पिथौरागढ़ पहुंचे हों या न पहुंचे हों.

भर्ती वाले नगर में जिस-जिस के परिचित-रिश्तेदार रह रहे होते हैं वह तो रिश्तेदार के घर में रात काट लेता है बाकी जिसको जहाँ सिर छुपाने की जगह मिलती है वह वैसा करने को विवश होता है. दौड़ में सबसे आगे लगने के लिये भर्ती स्थल के आसपास ही कई लड़के मिल जाते हैं. जितने पैसे इन बच्चों के पास होते हैं उतने में जिला मुख्यालयों में चाऊमीन या मोमो ही खाये जा सकते हैं.

एक बच्चा जिसने पूरी रात ठण्ड में बिताई हो, जिसके पास रात के खाने का ठिकाना न हो, जिसके भोजन-पानी की व्यवस्था की किसी को कोई फ़िक्र न हो, उससे यह उम्मीद करना कि वह  दो सौ की भीड़ में भागेगा और आठवें नंबर तक आ जायेगा कितना तर्कसंगत है, इसे समझने के लिए आपको बहुत बड़ा ज्ञानी होने की आवश्यकता नहीं है .

अनुशासन के नाम पर सेना के अधिकारियों की लाठियों और बूट की ठोकरों का जिक्र करना बेहद जरुरी है. भर्ती के समय अनुशासन के नाम पर लड़के बाकायदा पीटे जाते हैं. इसकी न तो कोई शिकायत होती है न कहीं कोई रिपोर्ट बनती है. दो सौ बच्चों की भीड़ को एक संकरे से मैदान में दौड़ाया जाएगा तो धक्कामुक्की होना सामान्य बात मानी जाएगी. इस धक्कामुक्की का इलाज भद्दी गालियों और लाठी-जूते के बल पर किया जाता है.

जाहिर है अगर दो सौ की भर्ती होनी है तो दो सौ को ही चुना जाएगा. फिर उसमें भाग लेने वाले एक हज़ार हों या दो या चार हजार. ऐसे में क्या यह उचित है कि अखबारों में पहाड़ के युवा के ‘हांफ जाने’ और ‘नशाखोर हो जाने’ जैसी सुर्खियाँ  छापी जाएं? शासन और सेना की साझा गलतियों को छिपाने के लिये मीडिया युवा बच्चों को निशाना बनाती है क्योंकि उनका कहीं कोई प्रतिनिधित्व नहीं करता है. बारहवीं के बाद सीधा भर्ती में दौड़ने वाले इन बच्चों की कोई अपनी पार्टी नहीं है जो इन खबरों का विरोध कर सके.

यह बात सच है कि पहाड़ में नशे की भी समस्या बहुत बड़ी है. यह भी सच है कि पहाड़ में खान-पान भी बदला है. लेकिन क्या दो-चार अखबारी समाचारों के आधार ऐसा निष्कर्ष निकाल देना सही है? यदि पहाड़ का युवा नशे की चपेट में है तो मीडिया को सरकार से भी पूछना चाहिये कि सरकार उस दिशा में क्या कर रही है और क्यों हर साल शराब से मिलने वाले अपने राजस्व के लक्ष्य को 10% बढ़ा रही है.

एक पूरे समाज के युवा को बदनाम करने के ऐसे प्रयास कितने सही या गलत हैं, विचारणीय है.

– काफल ट्री डेस्क

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Girish Lohani

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