ग़ाज़ियाबाद की निम्न मध्यवर्गीय बस्ती प्रताप विहार में पली-बढ़ी पुष्पा रावत के लिए वह दिन बहुत निर्णयात्मक साबित हुआ जब उनके हाथ में कैमरा चलाने का हुनर आया. साल 2000 के आसपास उन्हें दिल्ली के बालभवन में कैमरा सीखने का मौका मिला. एक बार कैमरे से दोस्ती होने के बाद वे लगातार इससे सहज होती गई और कुछ समय बाद कैमरा उनके व्यक्तित्व का जरूरी हिस्सा बन गया. पुणे के फ़िल्म संस्थान से प्रशिक्षित अनुपमा श्रीनिवासन उनकी गुरु बनीं और उन्होंने पुष्पा को कैमरे की भाषा के गूढ़तम अर्थों से परिचित करवाया.
कैमरे का कौशल हाथ में आने की वजह से 2012 में पुष्पा अपनी पहली फ़िल्म ‘निर्णय’ निर्मित कर सकने में सक्षम हुई. इस फ़िल्म के बहाने पांच लड़कियों की जो कहानियाँ हमें देखने को मिलती हैं वो एक तरह से तकनीक के सर्वसुलभ हो जाने के कारण नए सिनेमा की अभिव्यक्ति ही है.
निर्णय में जैसी कहानियां हमें दिखाई पड़ती है वैसा हमारे सिनेमा में शायद पहली बार संभव होता दिख रहा है. निर्णय की कहानी की शुरुआत पुष्पा की अपनी कहानी से शुरू होती है. वह अपने पड़ोस में रहने वाले अपने ही समुदाय के लड़के सुनील से प्रेम करती है और उन दोनों के माँ–पिता इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं होते. पुष्पा का कैमरा पहले उसके भाई अंकुर, पिता और मां से सवाल करता है कि आपका मेरे निर्णय के बारे में क्या मत है. भाई के लिए यह सवाल ही नहीं बनता और वह कितना भी पूछने पर इसका जवाब नहीं देता. मां गुस्से में है और प्रतिरोध स्वररूप बात ही नहीं करती. पिता थोड़ी देर बाद बोलना शुरू करते हैं और उनकी बात से साफ़ जाहिर होता है कि उनकी लडकी के अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय में उनकी राय ही अंतिम है. पुष्पा अपने कैमरे से अपने प्रेमी सुनील को भी सवालों की जद में लेने की कोशिश करती है. सुनील के लिए माँ–पिता के निर्णय को तरजीह देना ज्यादा खास है और उसे अभी भी लगता है कि सब कुछ ठीक हो जायेगा. कैमरे से लोगों को जवाबदेह बनाने के मकसद से पुष्पा का कैमरा पहाड़ में सुनील के घर भी पहुँच जाता है जहां यह स्पष्ट होता है कि जातीय ऊंच-नीच के चलते यह रिश्ता संभव नहीं.
फ़िल्म इसलिए ख़ास बन पड़ती है क्योंकि पुष्पा अपनी कहानी के साथ–साथ अपनी जैसी दूसरी लड़कियों की कहानियों को भी इसमें शामिल कर उन्हें फ़िल्म का जररूरी हिस्सा बनाने में सफल हो पाती है.
सुनील के अलावा वो सुनील की होने वाली पत्नी विनीता, उसकी दोस्त मिथिलेश, लता, गीता, गायित्री और पूजा की कहानियों को भी बहुत अन्तरंग तरीके से अपने कैमरे में पकड़ पाती है. सभी अपनी–अपनी जिंदगियों में अपने निर्णय खुद न ले पाने के अफ़सोस से कसमसाती दिखती हैं.
इस दस्तावेज़ी फ़िल्म का अंत इसी फ़िल्म के एक पात्र द्वारा गाये ‘परिणिता’ के गाने ‘कैसी पहेली है ये कैसी पहेली, जिंदगानी …’ से होता है. शायद यह फ़िल्म भी अपने दर्शकों के मन में निर्णय न लिए जा सकने की कसमसाहट को एक पहेली की तरह रख पाने में सफल हो पाती है.
(काफल ट्री पर पुष्पा रावत के बारे में इन्हें भी पढ़ें : पुष्पा रावत का इंटरव्यू, एक मिसाल है पहाड़ की यह बेटी)
संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.
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