पिछले दिनों सिलक्यारा टनल रेस्क्यू ऑपरेशन के बाद दिल्ली मीडिया घरानों ने जैसी असंवेदनशील हैडलाइन के साथ रिपोर्टिंग की वह किसी भी पहाड़ी को असहज कर सकती है. दिल्ली मीडिया घरानों के इस बर्ताव पर वरिष्ठ पत्रकार महिपाल नेगी ने अपने फेसबुक पेज पर एक टीप लिखी थी. काफल ट्री वरिष्ठ पत्रकार महिपाल नेगी की यह पोस्ट जस की तस प्रकाशित कर रहा है ताकी सनद रहे – हिमालय टूट सकता है लेकिन झुक नहीं सकता – सम्पादक
(Insensitivity of Delhi media houses)
ये, हैलो…!
हिमालय टूट सकता है लेकिन झुक नहीं सकता…
कल शाम चैनल बदल-बदल कर उत्तरकाशी की सिल्क्यारा सुरंग में चल रहे बचाव व राहत कार्यों की खबरें देख रहा था. अरे, यह क्या… कई पगला गए क्या?
दरअसल एक हेडलाइन पर कुछ आश्चर्य हुआ तो चैनल बदलकर और चैनल की हेडलाइन देखने की सोची. और फिर, कुछ न्यूज़ चैनलों की हैडलाइंस देखिए –
“ये पहाड़ पर दहाड़ है” – इंडिया टीवी
“हिम्मत के आगे हारा पहाड़” – इंडिया डेली
“जीती कर्मवीरों ने जंग हार गई सुरंग” – इंडिया डेली
“चट्टानों का गुरूर योद्धाओं ने किया चूर” – न्यूज़ 24
“पहाड़ तोड़ ऑपरेशन” – न्यूज़ 18 इंडिया
“ध्वस्त हुआ मुसीबत का पहाड़” – न्यूज़ 18 इंडिया
“हारा संकट का पहाड़” – न्यूज नेशन
“टनल विजय” – न्यूज नेशन
“तोड़कर सुरंग का गुरूर बाहर आए मजदूर” – जीन्यूज
दरअसल हो तो इसका उल्टा रहा था. तुम्हारी मशीनी ताकत के दंभ को पहाड़ ने चकनाचूर कर दिया. देशी- विदेशी मशीनें हांफने लगी और ठंडी पड़ गई. तब घुटनों के बल चल कर चार छह मजदूरों ने नतमस्तक होकर जब हाथों से, कुदाल-खुरपी से आगे बढ़ना चाहा तो पहाड़ ने सहज ही रास्ता दे दिया.
(Insensitivity of Delhi media houses)
तुम इतनी जल्दी कैसे भूल गए कि 2 साल पहले ही चमोली के ऋषिगंगा तपोवन में ऐसी ही सुरंग में फंसे करीब 200 मजदूर काल के ग्रास बन गए थे. दर्जनों के शव आज तक नहीं मिले. तब किसने किसका गुरूर तोड़ा था. 2013 में केदारनाथ में एक छोटी सी बर्फानी नदी ने जरा सी अंगड़ाई क्या ली, तो 4000 लोग रात खुलने से पहले ही काल के ग्रास बन चुके थे. सैकड़ों के शव आज भी नहीं मिले.
1998 में कैलाश मानसरोवर जा रहे 200 यात्री मालपा में पहाड़ का एक छोटा सा हिस्सा टूटा और सामूहिक कब्र में दफन हो गए. साल भर पहले ही उत्तरकाशी के द्रोपती डांडा में हिमालय की बर्फ पर टहल रहे 36 प्रशिक्षणार्थियों में से 29 वहीं दफन हो गए. इनमें कितनों को बचा सके थे? दो साल पहले हिमाचल में पहाड़ की हल्की सी अंगड़ाई देखी नहीं थी क्या? ऊपर पहाड़ी से कुछ पत्थर लुढ़क कर आए और नीचे घाटियों में चीख पुकार मच गई.
जब भी किसी ने पहाड़ की ताकत को चुनौती दी, चुनौती देने वाला ध्वस्त हुआ. पहाड़ ध्वस्त नहीं होता, कुछ पत्थर लुढ़कते हैं बस. दिल्ली-नोएडा के न्यूजरूम में बैठकर भी नासमझ बनते हो. अरे सुनो, जब मात्र तीन-चार रिक्टर स्केल का पांच-सात सेकेंड का एक हल्का सा भूकंप पहाड़ पर जन्म लेता है तो दिल्ली तक को हिलाता है. तुम्हारे न्यूज़ रूम डोलने लगते हैं और भाग खड़े होते हो बाहर की तरफ…
(Insensitivity of Delhi media houses)
हिमालय पर चढ़ना होता है ना, तो सर झुका कर चढ़ना होता है. सीधे खड़े होकर चढने की कोशिश करने वाले तो लुढ़क जातो हैं. कभी चढे हो पहाड़ पर…
हिमालय अजेय है. तुम्हारे अहम् और बहम का नाश हो !
“जय हिमालय”
महिपाल नेगी
महिपाल नेगी टिहरी में रहते हैं. वर्षों से जमीनी पत्रकारिता कर रहे महिपाल नेगी की उत्तराखंड से जुड़े राजनीतिक, सामाजिक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक मुद्दों पर मजबूत पकड़ रखते हैं. टिहरी राजशाही के समय टिहरी नगर बसाए जाने से शुरू होकर टिहरी की डूब जाने तक की कथा कहती उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘टिहरी की जलसमाधि एक दस्तावेज‘ है. घसियारियों के गीत बाजूबन्द महिपाल नेगी द्वारा संपादित पुस्तक है.
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