जब प्रकृति वैभव की बात होती है तो तुरंत मानस पटल पर सुखी समृद्ध जीवन का बिम्ब उभरता है और दिखता है उस जहाँ में हँसते गाते कलरव करते जीवों का संसार और जीवन के लिए प्रकृति की साझेदारी. प्रकृति की यह साझेदारी अनुपम अतुल्यनीय अकल्पनीय होती है, जिसका निर्माता सृष्ठीकर्ता है. और वह किस रूप में विद्यमान है यह पृथ्वी के सबसे बुद्धिमान प्राणी मनुष्य के लिए पृथ्वी पर मनुष्य जीवन के उतरार्ध से शोध का विषय रहा है. मनुष्यों का यह शोध दो धारणाओं पर रहा. पहला वैज्ञानिक शोध और दूसरा धार्मिक मान्यताएं, वैज्ञानिक शोध इसे ब्रह्मांड में विस्फोट से उत्पन्न गैसीय घर्षण जनित मानते हैं जिससे सौरमंडल के सभी ग्रहों की स्थिति निर्धारण की और इसमें पृथ्वी को सबसे सुन्दर उपहार मिला जिसमें सजीव जीवन बसा. जबकि मानव सभ्यताएं और धार्मिक मान्यताएं एक मालिक के रूप में मानती हैं जो मनुष्य आकृति का पुरुष है, इसे ही मनुष्य पारब्रह्म परमेश्वर, भगवान, ईश्वर, अल्ला गॉड आदि ईश्वरीय संवोधन से पुकारते हैं. लेकिन मान्यताएं कुछ भी हो पृथ्वी का यह वैभव मनुष्य जनित तो नहीं है यह निर्धारित है. धरती के इस वैभव में अकल्पनीय आकृतियाँ हैं जिनका सजीव जीवन के लिए कुछ न कुछ अहम् योगदान है बिना इनके वर्चस्व के जीवन की कल्पना संभव नहीं है. इन कुदरत की कृतियों के इस आपसी सामंजस्य और संतुलन को ही पृथ्वी पर जिवोपार्जन की धुरी माना गया है. प्रकृति की इन अतुल्य कृतियों में प्रमुख है वनस्पति, वनस्पति है तो हवा पानी है. Indr Singh Bisht Garhwal
पानी वर्षा से जलवायु का संतुलन है जिससे पृथ्वी के उस हिस्से का तापमान बना रहता है जिससे हिमखण्ड अस्तित्व में रहते हैं यही हिमप्रदेश तमाम जलस्रोतों का मूल है इन्हीं से सदानीरा नदियाँ निकलती हैं. ये नदियों न हो तो पृथ्वी के सारे जलस्रोत एक दिन में ख़त्म हो जायंगे. सारांश में कहा जाय तो वनस्पति ही पर्यवारण की सेंटर ऑफ़ ग्रेवटी है जिससे जलवायु संतुलन और परिवर्तन संभव हो पाता है और जिससे जीवन के लिए सर्वोपरि चीज अन्न जल उपलब्घ होता है. हाँ प्रकृति की ये कृतियाँ मानव जनित तो नहीं है लेकिन मनुष्य अपने आविर्भावकाल से इनका क्षरण व विध्वंस जरुर करता आया है. पर्यावरण दोहन का यह क्रम आधुनिक वैज्ञानिक युग में अपने चरम पर पहुँच गया है इसका एक कारण गलफहमी भी हो सकता है क्योंकि विज्ञान ने आज लगभग सभी चीजें कृतिम दे दी. लेकिन हम भूल रहे है कि ये सब क्षणिक हैं बिना प्राकृतिक हवा पानी भोजन के जीवन संभव नहीं है. यही सिलसिला रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पूरी पृथ्वी जीवशून्य हो जाएगी और यह जीवरहित अन्य ग्रहों की तरह उसर भूखंड रह जायेगा. प्रकृति पुत्र इंद्र सिंह बिष्ट का कहना है ‘बुबा विज्ञान कति भी नकली चीजें बणे दे पर आखिर पुटुगे आग अन्नाऽळ ही बुझोंण और तीस पणिल, भूख तीस यूं मशीनोन थोड़ी बुझोंण.’
ऐसा नहीं कि मनुष्य अपने इस कृत्य से अनभिज्ञ है लेकिन जानने-सुनने के बाद पेड़ पौधों और वनस्पतियों का दोहन करता है. विश्व के तमाम पर्यावरण विद,वैज्ञानिक व बुद्धिजीवी चिरकाल से पृथ्वी को बचाने की मुहीम पर लगे हैं और साथ ही साथ आम जनमानस को भी आगाह करते आये हैं. धरती पर मानव समझ की विडम्बना ही कहेंगे कि सारे लोग आलेख के मुख्य सार प्रकृति संवर्धन पर क्षणिक ही विचार करते हैं और ज्यादा विचार केवल और केवल अपने अन्धाधुनिकरण के लिए होता है, लेकिन कतिपय पुरुष ऐसे भी हैं जो हर क्षण हर घड़ी पर्यावरण संवर्धन के लिए जीते हैं खपते हैं, इन्हीं पुरुषों में एक गुमनाम व्यक्तित्व हैं ग्राम बैरासकुण्ड जिला चमोली उत्तराखंड के श्री इंद्रसिंह बिष्ट जी.
बिष्ट जी का कृतित्व वैसे कुछ नहीं जो एक आम किसान अपने हित के लिए करता है ऐसा ही मान सकते हैं लेकिन पर्यावरण संरक्षण हेतु उनका ये कार्य किसी प्रेरणा से कम नहीं है . इंद्र सिंह बिष्ट की उम्र 82 साल है और ये ग्राम बैरासकुण्ड जिला चमोली के वासिंदे हैं, बचपन से आज तक उनका लगाव पेड़ों पोधों और जानवरों से ऐसा रहा कि जब इनकी सेवा में लग जाय तो खाना खाने तक भूल जाते हैं, उनका यह वृक्ष और जीव प्रेम तब और प्रगाड़ होता गया जब वे 1997 में पी. डब्लू. डी. की सरकारी सेवा से निवृत होकर घर आये. मात भूमि प्रेम की पराकाष्ठा यह रही कि ठीक ठाक आमदनी और परिवार की मंशा के विपरीत पलायनवादी विचार को फटकने नहीं दिया और अपनी मिटटी अपने घर में अपने पैत्रिक कार्य खेती किसानी में जुट गए. इस आलेख का मूल श्री बिष्ट का कार्य और एक गुमनाम व्यक्ति को जीवन के रहते उनकी करनी का प्रतिफल प्रेरणा के रुप में आमजन तक पहुँचाना है.
बात करते हैं इंद्र सिंह बिष्ट के कार्य की, तो बताते जाएँ कि उनकी काफी पैतृक खेती बैरासकुण्ड गाँव से सटे फराणखिला मोहल्ले के साथ थनाकटे नामक तोक में है और खेती के साथ उनकी काफी जमीन उस समय बंजर थी जिसे गाँव वाले चारागाह के तौर पर इस्तेमाल करते थे, साथ में एक बात मुख्य थी की उस जमीन पर उस समय चीड़ ने अपना साम्राज्य करना शुरू कर दिया था बिष्ट ने अपने स्व श्रम से उस जमीन पर पत्थरों की घेरबाड़ की और पूरे चीड के छोटे पोंधों को उखाड़कर वहां बांज, बुरांस और कुछ काफल के पेड़ लगाने शुरू किया और हर दिन अपने खेती के दैनिक कार्यों के चलते कभी दिन भर तो कभी घड़ी दो घड़ी उन पोधों के लिए देते गए और आज 21 साल बाद देखते देखते थानाकटे में लगभग तीन एकड़ से ज्यादा भूमि पर बांज बुंरास मिश्रित बड़ा सघन जंगल बन गया, हर किसी व्यक्ति को देखने के लिए आमंत्रित करते हैं और पेड़ों के साथ ऐसी बतियाते हैं जैसे अपने बच्चों से, हर पेड़ की जीवनी बताते हैं कब यह सूख रहा था कब इसकी जड़ों पर पग्वोर (मिटटी) लगाया, छंटनी की कब इसकी फांगे झपन्याली होनी शुरू हुई इतना अप्रितम प्रेम आम मनुष्य नहीं किसी पर्यावरण पुत्र में ही देखने को मिलता है. कितना सकून मिलता होगा पर्यावरण पुत्र को जब उसके सींचे पौधे एक दिन फल देने वाले बड़े छायादार बृक्ष बन जाते हैं.
वैसे उत्तराखण्ड की धरती पूरे विश्व में एक मात्र ऐसी धरती है जहाँ के भूमि पुत्रों ने चिपको और मैती जैसे पर्यावरण संरक्षण मुहिमों के तहत विश्व विरादरी को पर्यावरण संरक्षण की सीख दी.आज जहाँ उत्तराखण्ड में गोरा देवी, सुन्दरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, कल्याण सिंह रावत मैती, विद्यादत्त शर्मा, गणेश सिंह गरीब जी आदि जैसे पर्यावरण हितेषी नामचीन नाम हैं वहीं इंद्रसिंह बिष्ट जी जैसे गुमनाम व्यक्ति हैं जो बिना किसी स्वार्थ के पर्यावरण रक्षा के लिए अपने जीवन को खपा रहे हैं . बताते चलें कि श्री बिष्ट के इस जंगल में आज पूरे बैरासकुण्ड ग्रामवासी यदा कदा जरुरत पर अपने मवेशियों के लिए चारा व उनके बिछाने के लिए सूखी पत्तियोँ (सुतर) का इस्तेमाल करते रहते हैं और एक और चमत्कार की बात है कि उस तोक में सूख गया पानी का स्रोत बांज के चलते फिर से उभर गया है, ये बांज की की महिमा है कि जिस धरती पर बांज होगा वहां पानी का सोता और जमीन नमी वाली होती है इसी बांज के परिणीत बाजं के साथ अन्य पेड़ और पादपों का खाना जंगल होता है. लेकिन आज बिडम्बना है कि क्या आम कास्तकार, क्या सरकार बांज के ऊपर ध्यान नहीं दे रही है और प्रकृति के साथ इस रूखेपन से विनाशकारी चीड़ का साम्राज्य चौड़े पत्तों वाले सघन जंगलों में अनवरत होने लग गया है.
इन्द्रसिंह बिष्ट के कार्य के परिणीत कुछ बातें पहाड़ का हरा सोना बांज वृक्ष पर भी की जाय, पर्यावरण, खेती- बाड़ी, समाज व संस्कृति से गहरा ताल्लुक रखने वाला बांज आजीविका का उत्तम साधन तो है ही वहीं पहाड़ी जल स्रोत को बचाने अच्छी वर्षा व भूस्खलन रोकने में सक्षम है. इन बांज के जड़ के पानी का महत्व वहीं जान सकता जिसने पिया हो. इस लेख के माध्यम से नयीं पीड़ी को संदेश देना चाहूंगा कि आगे पहाड़ और गंगा को बचाना है तो बांज का बचना अनिवार्य है चाहे इसके लिए कुछ भी जतन करो. इसी अथाह पर्यावरण प्रेम और अपने स्व सुख के लिए इंद्रसिंह बिष्ट ने अपनी पैतृक खेती में यह बांज का जंगल उगाया आज वे स्थानीय युवाओं के लिए प्रेणास्रोत हैं और गाँव के कई युवा इस प्रेरणा से बांज का संरक्षण कर रहे हैं.
कहते हैं भावनात्मक लगाव भी एक अंतराल तक होता है बढ़ते वैश्विक परिदृश्य के चलते आज वर्तमान पीढ़ी के लिए ये जंगल ज्यादा लगाव वाले नहीं हैं क्योंकि उनकी आजीविका का वास्ता इन से नही है लेकिन पहाड़ और गंगा के अस्तित्व को बचाने के लिए आपको बांज का संरक्षण करना ही होगा. मध्य हिमालय में 1200 से 3500 मीटर ऊंचाई में समशीतोष्ण वनों की श्रेणी में मध्य हिमालयी क्षेत्र है और यहाँ की जलवायु बांज-बुरांस के मिश्रित जंगल अनुकूल होती है. बांज (ओक) की यहां तीन प्रजातियां है (बांज, तिलोंज/तेलिंग,और खरसू/खैरु) इन प्रजातियों की श्रेणी पहले बांज फिर खैरु फिर तेलिंग खैरु मिक्स जंगल हैं. बात करते हैं पर्यावरण रक्षा और आजीविका की तो मेरा क्षेत्र बैरासकुण्ड मटई और आस पास के सभी गाँव पुश्तेनी से बांज की रक्षा करते आये हैं गांव की खेती के साथ लगे हमारे बांज के जंगल जो हमारे पुरखों द्वारा रोपित और संरक्षित हैं आज भी अपने पूर्ण स्वरूप में झपन्याले (सघन) हैं यह पुश्तेनी धरोहर जहां हमारी आजीविका से जुड़ा है वहीं हमारी आध्यत्मिक श्रद्धा और भावनात्मक लगाव इन पेड़ों से है.
स्याहीदेवी शीतलाखेत के वन क्षेत्र में एएनआर से विकसित जंगल का माडल
क्या मजाल नियम विरुद्ध एक भी बाशिंदा एक सोँली (टहनी) काट दे, इसी दृढ़ संकल्प से हम लोग बिना चौकीदारी के भी अपने इन बांज के पेड़ों को बचाते आये, हमारे इन गावों को पहाड़ के इस हरे सोने का लाभ निरंतर मिलता आया है, हमारी ग्राम पंचायत के नियम के अनुसार इस जंगल को तीन से चार खंडो में बांटा गया है एक या दो साल में एक खण्ड की छंटाई होती है उसमें भी कितने फीट की टहनी कटेगी और कितने सुगयटे (बांज के पत्तों का गट्ठा) व कितने भारे (कच्ची लकड़ी के गठ्ठे) एक परिवार द्वारा लाया जाएगा इसे पंचायत सुनिश्चित करती है विरुद्ध कार्य करने वाले व्यक्ति को दंडित किया जाता है इससे साल में दो से तीन महीने सम्पूर्ण गांव के मवेशियों के लिए पूर्ण चारा और वर्ष भर के लिए ईंधन (लकड़ी) मिल जाती है साथ ही हर वर्ष पतझड़ में बांज की सुखी पत्तियों (सुतर) के लिए भी यहीं नियम होता है व पर्याप्त मात्रा में मवेशियों के नीचे बिछाने के लिए सुतर मिल जाता है जिससे उत्तम कम्पोस्ट खाद बनती है.
अपने इस लेख के माध्यम से पर्यावरण सम्बंधित उत्तराखंड और भारत सरकार के सभी विभागों के आला अधिकारियों और राजनीतिक नेताओं से अपील करता हूँ कि हिमालय अस्तित्व की जड़ बांज संरक्षण के लिए हुए कामों को देखने के लिए हमारे बैरासकुण्ड क्षेत्र में जाएँ और क्षेत्र के साथ उस अकेले 82 वर्षीय प्रकृति पुत्र इन्द्रसिंह बिष्ट द्वारा निर्मित बांज के जंगल को देखें फिर आपके विवेक में जो उचित सम्मान लगे उन्हें दिया जाय ताकि आने वाली पीड़ी को प्रेणा मिल सके और चीड़ के विनाशकारी परिणामों के चलते बांज के साथ पर्यावरण को बचाया जा सके.
-बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’
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‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’ को जीवन सूत्र मानने वाले बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’ ग्राम-मटई (ग्वाड़) चमोली, गढ़वाल के रहने वाले हैं. गढ़वाल राइफल्स के सैनिक के तौर पर अपने सैन्यकर्म का कर्मठता से निर्वाह करते हुए अडिग सतत स्वाध्याय व लेखन भी करते हैं. हिंदी, गढ़वाली में लेखन करने वाले अडिग की कुछ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं.
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