“अब सुनो, ये जोहार के व्यापारी तिब्बत से व्यापार करने सतरह हजार पांच सौ फिट ऊँची घाटी पार करते थे जिसका नाम उंटाधुरा घाटी था, इसके आगे आती थी जैँतीधुरा घाटी और फिर किंगरी -विंगरी जो और ऊंचाई पर थी. इन तीनों चोटियों के बीच कोई पड़ाव नहीं इसलिए दिनरात एक कर इन्हें पार किया जाता.रस्ते में ईंधन की कोई व्यवस्था नहीं. इतना शीत कि रात को रुकने पर कई भारवाही पशु ठंड से अकड़ कर मर जाएं. जब ये तीनों दर्रे पार हों तब जा कर आता टोपीढुंगा पड़ाव और फिर कुंगराघाट. तब जा कर जो तिब्बत की अलग -अलग मंडियों के अलग अलग रास्ते खुलते”.
(Indo Tibetan Trade Mrigesh Pande)
“उधर मल्ला दारमा के जो व्यापारी थे वो अठारह हजार से ऊँचे दारमा दर्रे को पार कर तिब्बत पहुँचते तो व्यास और चौंदास पट्टी के व्यापारी इतने ही ऊँचे लमप्यालेख और लिपुलेख दर्रे को पार करते. लमप्यालेख से ज्ञानीमा मंडी को और लिपुलेख से तकलाकोट को रास्ता जाता. व्यापारी कभी कभार नेपाल की तिंकर घाटी से भी हो कर जाते.अपने इस सीमांत से तिब्बत जाने वाले रास्तों में सबसे सरल और सुविधा जनक रास्ता लिपुलेख वाला था.”
‘कैलास-मानसरोवर की यात्रा और तिब्बत से होने वाला व्यापार 1962 में चीन द्वारा किये भितरघात से एक बारगी ही छिन्न भिन्न हो गया. युद्ध के आर्थिक राजनीतिक दुष्परिणाम तो पड़े ही, कूटनीतिक विफलता भी पंचशील की सोच को खतम कर गई. इन सबसे बढ़ कर इस बोर्डर के इलाके में वास करने वाली कौम जिसने इस इलाके को सदियों से आबाद रखा था इस झटके से सहम गई. हमला हुआ और तिब्बत से होने वाली सारी गतिविधि,सारे लेनदेन बंद हो गये. सीमांत वासियों की परंपराओं और अर्थतंत्र से जुड़े व्यापार की परम्परा ही समाप्त हो गई”.
“वो किस्सा सुनाया है इनको पंत जी, जब किसी जमाने में इस इलाके में हल्दुआ, पिंगलुआ के रहने की बात होती थी?”
विभाग में कुर्सी पर बैठे, एक टांग के ऊपर दूसरी की टेक लगाए डॉ. राम सिंह आंखे मूंदे हुए ही बोले. हम तो समझे थे कि डाक्टर साब सो गये हैं बस खर्राटों की कसर है.
रामपुर वाली पान छाप सुरती की पुड़िया से तमाखू निकाल पंत जी उसे चूना मिला रगड़- रगड़ काली से हरी रंगत दे चुके थे. राम सिंह जी का अनुरोध सुन उन्होंने एक बड़ी डोज़ लगाई और आँखे मूंद कहीं खो गये, अब बच्चों के मन में कौतुहल जगाने के लिए घर के सयाने लोक कथा सुना उन्हें जैसे मतका-देते हैं, वही भाव मुद्रा बना पंत जी के बोल सुनाई दिए .
“समझना यह है कि दारमा और जोहार की घाटी में वो पशु चारक कैसे आबाद हुए जो भेड़ पालते थे, काले कम्बल की गाती से अपना बदन ढकते थे, जंगली जानवरों का शिकार करते थे और पहाड़ के ढलानों में उगी झाड़ियां काट, उन्हें जला ‘कटी’ प्रथा से खेती भी करने लगे थे’.
कहते हैं कि जोहार में दो दलों के लोग थे. एक दल का मुखिया ‘हल्दुआ’ था तो दूसरे का ‘पिंगलुआ’. ये खूब ताकतवर थे, उनके सारे बदन में बाल उगे थे, कहने वालों ने तो यह भी कह डाला कि उनके व उनके बच्चों की जीभ तक में बाल थे. अब जो वो मल्ला जोहार हुआ वह हल्दुआ और पिंगलुआ के बीच बंटा हुआ था. हल्दुआ के पास मापा गांव का ऊपरी इलाका था और मापा से नीचे लस्पा तक का इलाका पिंगलुआ के पास.
उसी बखत की बात है कि गोरी नदी के उदगम वाले पहाड़ से एक विशाल नरभक्षी ने जनम लिया. उसके डैने इतने बड़े थे, इतने लम्बे थे कि जब वह गोरी नदी के ऊपर उड़ता और लस्पा से आगे मापा की तंग घाटी में उछाल मारता तो उसके पर यहाँ -वहां अटक जाते. उस नरभक्षी ने हल्दुआ और पिंगलुआ के बच्चे उनका कुनबा चट करना शुरू किया और फिर इन दोनों को भी खा गया.
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जोहार के पार हूण देश यानी तिब्बत में एक गुफा हुई जो लपथिल गुफा कही जाती थी. उसमें एक शौकिया लामा रहता था. उसकी सेवा में एक चेला भी खास हुआ.अपने गुरु की सेवा में हर हमेशा तैयार. लामा अपने चेले की भक्ति से बहुत खुश रहता. इस इलाके के डरावने पक्षी से मची त्राहि- त्राहि को समाप्त करने के लिए उसने अपने चेले को आदेश दिया कि वह दक्षिण दिशा में जोहार के इलाके की तरफ जाये और उस पक्षी को मार दे जो सारे मवासों को रोज एक एक कर चट किये जा रहा है.
“मैं तुझे एक खोजी और तीर-कमान दूंगा. ये खोजी रूप बदलने में माहिर है पर तू उससे मत घबराना. बस उसके साथ रहना और ऐसे मौके की तलाश में रहना जब तीर चला उस पक्षी का वध कर सके”.
चेले ने गुरु का आदेश मान खोजी के साथ यात्रा शुरू की.दोनों जोहार की तरफ बढ़ते गये. अब एक जगह खोजी ने रूप बदला और वह कुत्ता बन गया. तब से इस जगह का नाम ‘खिंगरू’ पड़ गया और आगे चल कर वह बारासिंगा बन गया तो यह स्थान ‘दोलथांग’ कहा गया. आगे फिर अपनी माया से खोजी ने ऊंट का रूप बदला सो इस जगह को ‘ऊँटाधूरा’ कहने लगे. दोनों की यात्रा जारी रही और एक स्थान पर पहुँचते ही वह बाघ यानी ‘दुंग’ बन गया. वहां कोई गुफा रही होगी जिससे इस जगह का नाम ‘दुंग -उडियार’पड़ गया.ऐसे ही चलते रुकते भेस बदलते कौतुक रचते आखिरकार वो जगह आ गई जहां ‘हल्दुआ -पिंगलुआ’रहते थे. चेले के साथी खोजी ने अब खट्ट से ‘समगाऊ ‘यानी खरगोश का रूप धरा और इधर उधर कूद फांद कर गायब हो गया. तब से उस जगह का नाम समगाऊ पड़ गया.
चेले ने सोचा कि थोड़ा कूद फांद के उसका साथी आ टपकेगा सो वह इस नये गांव की ओर धीरे धीरे चलता रहा. पर वह आया नहीं. चेला अब तक एक गोठ के आगे पहुँच चुका था. गोठ में झांका तो वहां उसे एक डरी-सहमी बुढ़िया दिखी. भय से उसका झुर्री दार मुख पीला पड़ गया था एकदम हल्दी चुपड़ा जैसा. सो चेले ने आगे बढ़ बुढ़िया को प्रणाम किया और उसके हाल चाल पूछे. अब तो बुढ़िया रोने लगी. उसकी पीठ मलासी और कारण पूछा कि ऐसी डाढ़ क्यों जो आ रही. इतना डर जो क्या लग रहा कि आंग कंपकपा रहा.सुबकते -सिसकते बुढ़िया ने बताया कि यहाँ जो नरभक्षी राक्षस रहता है भेसूण जैसा डरावना, बड़ा सा पक्षी जिसके पँख वार पार पहाड़ छूते हैं वो ही आ बारी -बारी से सबको चट कर गया.अब इस गोठ में वही अकेली बची है. अब वो अपनी काली छाया मंडराते आएगा और उसे खा जायेगा. यह कह वह फिर रो-रो बिडोव हो गई.
चेला गुस्से से भर गया. उससे बुढ़िया का दुख देखा न गया. अपना तीर कमान दिखा उसने बुढ़िया से कहा कि आमा अब उस दुष्ट का आखिरी दिन आ गया है. गुरूजी ने उसे यहाँ भेजा ही इसीलिए है कि उसका अंत हो. यह सुन और तीर -कमान देख बुढ़िया माई को धीरज बंधा. उसने कहा कि वह उसके खाने के लिए चुवा और फाफर लाती है. अब जो भी हो, कसर ये रह गई कि उसके पास लूण यानी नमक नहीं. सो उसे बिना नमक के रोटी खानी होगी. फीकी रोटी-बासी रोटी.
तभी अंधेरा जैसा छाने लगा. चेले ने देखा काले बादल की तरह आसमान को ढक उस विशाल दानवकार पक्षी ने बुढ़िया के गोठ पर आँख लगा रखी है. अब चेले ने गुरु के दिए मन्त्रसिद्ध तीर को कमान में लगा ऐसा निशाना साधा कि वह सीधे पक्षी के मर्म स्थान पर लगा. चीत्कार के साथ उसकी काया सिमट गई.
चेले ने रोटी खाई और फिर सोचा कि बुढ़िया आमा के पास तो लूण निमड़ी गया है बिचारी कब तक फीका खाना खायेगी. सो उसने आमा से कहा कि वह उसके लिए लूण लेने अपने गुरु जी के पास जा रहा है. जाते हुए वह गोठ के आगे आग जला गया और बोला कि वह जा के तुरंत फरकेगा. अब दानव पक्षी तो मर गया सो कोई चिंता की बात नहीं.जब तक ये आग जलेगी उसे कुछ नहीं होगा.
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चेला पवन वेग से अपने गुरु जी के पास पहुंचा और सारी खबर बात बता बुढ़िया के लिए लूण का प्रबंध करने की बात कही. अपने चेले के काम से खुश गुरु ने यह बात सुन कहा कि वैसे तो लूण की खानें तो यहाँ से बड़ी दूर हैं पर वो उसके लिए यहीं लपथिल में नमक पैदा कर देगा. गुरु लामा ने अपना तंतर-मंतर कर उसी जगह लपथिल में लूण बोया. तब से वहां सफेद शोरे की तरह लूण बराबर मिलने लगा. जानवर भी आ आ कर उसे चाटने लगे.
अब गुरु लामा अपनी गुफा में गया और समाधि ले ली. चेला अब ऊंटाधूरा होते आमा की कुड़ी के पास आया जहां उसकी जलाई आग अभी भी जल रही थी. बुढ़िया भी खुश थी और लोगों को बता रही थी कि कैसे उस दानव पंछी के प्राण छितिर -बितिर उड़ाए इस बहादुर ने. चेले ने कहा कि अब उन्हें डरने परेशान होने की कोई जरुरत नहीं. बस वह उसके गुरु शौकिया लामा की कृपा मानें और उसकी पूजा-अर्चना करें.
तब से उस पूरे इलाके में शौकिया लामा प्रतिष्ठित हुआ और वहां रहने वाले शौका कहे गये. अब वहां तेजी से कार -बार बढ़े. एक से एक वीर साहसी सामने आए जिनमें सुनपति शौका ने तिब्बत की ओर जाने और व्यापार करने के लिए वहां कई घाटों की खोजबीन की. सुनपति शौका का जमाना खुशहाली से भरा रहा. पर जैसे धूप के बाद छाँव आती है वैसे ही सुनपति के वंशजों के सिमट जाने के बाद जोहार का इलाका उजाड़ सा रहने लगा. ऐसी लगन और आवत-जावत की कमी-बेसी पड़ गई जिन पर चल व्यापार होता और हूण देश की ओर चहल -पहल बनी रहे.
कहते हैं कि दिन फिरते देर नहीं लगती. बड़े-बूढ़े बताते रहे कि पश्चिम दिशा से एक राजपूत आ कर गढ़वाल के राजा के यहाँ सेवा करने लगा. वह रावत कौम का था. खूब मेहनती, बोल -वचन का पक्का. राजा ने उसके काम से खुश हो उसे बघान के परगने में जौला गाँव जागीर में दे दिया. वहीं उसकी संतान बढ़ी. आवत-जावत बढ़ी तो उसकी संतानों में कुछ जौला गाँव से चलते हुए चमोली जिले में नीति घाटी की तरफ आ बसे.
गढ़ तोक के सूर्यवंशी राजा की सेवा में संलग्न रावत जब एक बार जानवर का आखेट करते उसका पीछा करने लगा तो पीछा करते ख्यात करते, दौड़ते-भागते वह ऊंटा धूरा पहुँच गया जहां गोरी और खूंगा नदी के संगम घाट के पास वह जानवर न जाने कहाँ छुप गया. पीछा करते पसीना चुआते रावत भी थक कर सुस्ताने को वहां बैठ गया. कहते हैं तभी से उस जगह का नाम “मीडुम” पड़ गया. “मी” का मतलब हुआ आदमी और “डुम” हुआ ढीला पस्त पड़ना या थक जाना. यही स्थल अब मिलम कहलाता है और जो यहाँ बसे उन्हें “मिलम्बाल”कहा गया. रावत लोग तो रहते ही हैं.
गढ़तोक के राजा के पास पहुँच रावत ने मिलम की बदहाली की बात कही. राजा ने उसे तुरंत आदेश दिया कि वह जाए और उस धरती को आबाद करने में अपनी पूरी दम लगाए. व्यापार के रास्ते भी खुलवाए. तभी तिब्बत से लेन देन करने वाले व्यापारियों से ‘छोँकल, जगात कर कि वसूली होगी और राजकोष बढ़ेगा. इस काम के लिए उसे रियासत से खाने -पीने, आने-जाने की सवारी व डाक की सारी सुविधा मिलेगी.उपक्रमी रावत ने व्यापार की चहल-पहल बढ़ाने को तिब्बत को जाने वाले रास्ते-दुर्गम दर्रे ठीक करने पर खूब ध्यान दिया. व्यापारियों के साथ आम जनों व जानवरों की आवत-जावत बढ़ती गई.
धीरे-धीरे मिलम के मवासे बुरफाल, जंगपागी, बिजवाल व मपाल आदि अन्य समीप के गाँवों में बसने शुरू हुए. इस कौम का मुख्य व्यवसाय व्यापार रहा, कृषि के लायक की जलवायु भी न थी. बताया जाता है कि ईसा की तीसरी सदी तक शौकाओं द्वारा किया गया व्यापार काफी फैल चुका था. महाभारत कालीन ग्रन्थ बताते हैं कि भोटान्तिक तिब्बत से सोना, चंवर, मधु, रत्न व भेषज के मुख्य व्यापारी बन चुके थे. तदन्तर कत्युरी शासन में व्यापार और फलाफूला.
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1670 में चंद शासन काल में कुमाऊं के राजा बाजबहादुर चंद ने तिब्बत अभियान किया. वापसी में अपनी राजधानी अल्मोड़ा लौट उन्होंने जोहार को अपने राज्य में मिला लिया और फिर 1674 में दारमा भी उनके अधीन हुआ. अब भोट प्रदेश से तिब्बत जाने वाले सभी पथों व व्यापारिक महत्ता के स्थानों में चंद राजाओं का नियंत्रण हुआ. भोटान्तिकों द्वारा संपन्न व्यापार खूब फला फूला.
चंदो के हाथ से सत्ता की बागडोर जब गोर्खाओं ने संभाली तो उन्होंने राजकोष के लगातार बढ़ाने के लिए संसाधनों का बेहतर उपयोग न कर उनका लूटपाट की सीमा तक विदोहन किया. कर, शुल्क, चुंगी की दर बेतहाशा बढ़ा दी. गोरखा सीमांत के निवासियों द्वारा तिब्बत से होने वाले व्यापार से पूरी तरह परिचित थे. 1790 से गोरखा राज शुरू होने के साथ ही पहाड़ की अर्थ व्यवस्था के चौपट होने व जनता पर भारी कर लादे जाने से भोटान्तिकों का व्यापार भी चौपट होने लगा.
1815 से ब्रिटिश राज में पहाड़ पर अंग्रेज अफसर नियुक्त किया गया जिससे बंदोबस्त की प्रक्रिया शुरू हुई. साथ ही गोर्खाओ द्वारा तय अविवेक पूर्ण कर, प्रशुल्क, चुंगी व पार गमन की दरों को न केवल घटाया बल्कि युक्ति संगत भी बनाया जो व्यापारियों की कर देय क्षमता के अनुकूल हो. अंग्रेजो के लिए तिब्बत रहस्यमय प्रदेश था उसे जाने बिना वहां के संसाधनों का विदोहन संभव न था.
मशीन व यँत्र-उपकरणों के द्वारा पहली औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हो चुका था. इसके लिए प्रचुर कच्चे माल की जरुरत थी. भारत के साथ अब तिब्बत के गहन संसाधनों पर उनकी नजर थी. इसलिए तिब्बत के बारे में गहराई से जानना जरुरी हो गया था. सीमांत के भोटान्तिकों की मदद से अंग्रेजों ने तिब्बत की खोज का बड़ा अभियान चलाया. जिसके लिए छद्म वेश में नैन सिंह, किशन सिंह व मानी कंपासी को तिब्बत भेजा गया. इनके सर्वेक्षण से मिली जानकारियों से ही तिब्बत में उपलब्ध प्राकृतिक साधनों, दुर्गम पथों, दर्रो व घाटों की जानकारी मिली. देखते देखते व्यापार पुनः व्यवस्थित हो गया.ब्रिटिश सरकार ने इस इलाके के उकाव -हुलार के अड़गल यानी सही अंदाज वाले भोटान्तिकों को ट्रेड एजेंट बनाया. तिब्बत में भारत के ऐसे ही आखिरी ट्रेड एजेंट श्री लक्ष्मण सिंह पांगती रहे.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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