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दिलों को जोड़ने के लिए बहुत कुछ भूलना होगा

दिलीप मंडल

 

इंडिया टुडे के पूर्व एडिटर, दिलीप देश के प्रमुख पत्रकार हैं.  वह कुछ मीडिया घरानों का नेतृत्व कर चुके हैं और दलितों के मुद्दों के जानकार रहे हैं.  मीडिया से सम्बंधित विषयों पर उनके द्वारा कुछ पुस्तकें भी लिखी गयी हैं. वह एक दशक से rejectmaal.blogspot.com ब्लॉग का संचालन भी कर रहे हैं.

याद रखना आमतौर पर अच्छी बात है. जिनकी मेमरी अच्छी है, वे काबिल माने जाते हैं. वैज्ञानिकों की याददाश्त के जाने कितने किस्से हैं. क्लास में जो बच्ची या बच्चा पाठ याद कर लेता है, उसे टीचर की सराहना मिलती है. इतिहासबोध को भी अच्छी बात समझा जाता है. जो लोग जड़ों को भूल जाते हैं, उन्हें एहसान फरामोश, अपनी मिट्टी से कटा हुआ और जाने क्या-क्या कहा जाता है. शहर आने वालों के पास अपने गांव के किस्से होते हैं. लोग अपनी दस-दस पीढ़ियों की वंशावली बनाते हैं और उसे गर्व से बताते हैं.

बहरहाल, यहां बात निजी जीवन से जुड़े अतीत को लेकर गर्व करने की नहीं है. बात सिर्फ गर्व करने की भी नहीं है. जरूरी नहीं कि इतिहास आपको सिर्फ गर्व ही करने का मौका दे. यह भी मुमकिन है कि इतिहास में याद करने के लिए आपके पास अपमान और जख्म हों. आपका ऐतिहासिक गर्व किसी का ऐतिहासिक अपमान भी हो सकता है. जब तक बात निजी है, तब तक उसे लेकर किसी और को परवाह करने की कोई जरूरत नहीं है. लेकिन क्या यही बात राष्ट्र या समाज के लिए भी कही जा सकती है?

बदलती हुई सीमाएं

भारत की बात करने से पहले कुछ और देशों के इतिहास के जरिये इसे समझने की कोशिश करें. दक्षिण इटली के लोगों को कितने समय तक इस बात को याद रखना चाहिए कि उत्तरी इटली ने कभी उनको जबरन अपने में मिलाकर इटली का निर्माण किया था और इस क्रम में उनपर कितने जुल्म हुए थे? या उत्तरी इटली को इतिहास के इस प्रसंग पर गर्व करना चाहिए कि उसने दक्षिण इटली के विद्रोह को कुचलकर एक महान इटली राष्ट्र का निर्माण किया?

इटली ने तय किया कि वह उस इतिहास को किताब में पढ़ेगा जरूर लेकिन उसे दिल में नहीं बसाएगा. इटली में आज कोई यह नहीं कहता कि वह पराजित लोगों का वंशज है और उसे विजेताओं के वंशजों से बदला लेना है. उसी तरह ऐसे लोग भी नहीं हैं, जो कहते हों कि वे इटली के विजेताओं की संतान हैं और उन्हें इसका गर्व है. वहां इतिहास के इस हिस्से को लोक-विमर्श से गायब कर दिया गया है. भूल जाने की वजह से ही इटली एक राष्ट्र है.

फ्रांस का इतिहास भी कुछ ऐसा ही है. यूरोप के लगभग हर देश की तरह कई छोटे-छोटे बर्बर कबीलों से राष्ट्र बनने की प्रक्रिया से इस देश को भी गुजरना पड़ा है लेकिन जब शोधकर्ताओं ने फ्रांस में यह जानने की कोशिश की कि क्या वहां ऐसे परिवार हैं, जिनकी कोई शुद्ध फ्रांसीसी वंशावली है तो ऐसी संख्या न के बराबर पाई गई. वहां के कबीले एक-दूसरे से खूब लड़े, जमकर एक दूसरों की हत्याएं कीं लेकिन उस इतिहास को वे अब भूल चुके हैं.

अब कोई फ्रांसीसी किसी और फ्रांसीसी से इस बात का बदला नहीं लेना चाहता कि उसके परदादा के परदादा को इतिहास में किसी के परदादा के परदादा ने मारा था. यानी फ्रांस भी भूलने की वजह से ही एक राष्ट्र है. यह कहानी लगभग हर देश की है. वैसे भी इतिहास में देश बनते और बिगड़ते रहे हैं.

आज भी हर साल की शुरुआत में जब जनरल नॉलेज की किताब छपती है तो देशों की संख्या बदल जाती है. संसार का नक्शा किसी भी दौर में स्थिर नहीं रहा. देशों के बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया अक्सर गौरवशाली होने के साथ-साथ निर्मम और कई बार हिंसक भी होती है. उसे अगर लंबे समय तक याद रखने की कोशिश हुई तो राष्ट्रीय भावना कमजोर हो सकती है. इसीलिए कहा गया है कि स्मृति यानी मेमरी राष्ट्र निर्माण में बाधक है.

भारत के नागरिक होने के नाते हमें भी सोचना होगा कि हम भारत के लोग यानी ‘वी द पीपुल’ कब तक ऐसे इतिहास को याद करेंगे, जो कुछ लोगों के अंदर गर्व और कुछ लोगों के लिए अपमान का बोध जगाए? हम कब तक यह याद रखना चाहेंगे कि कुछ लोगों के पूर्वजों ने अतीत में हमारे साथ क्या किया था? या फिर, हम कब तक याद रखना चाहेंगे कि हमने अपने ही देश में किन लोगों से जीत हासिल की थी? बाबर ने पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोधी को हराया था लेकिन भारत का इतिहास 1526 में नहीं शुरू होता. इतिहास की सबकी अपनी व्याख्याएं हो सकती हैं. बाबर से पहले भी कोई आया था और उससे पहले भी कोई आया था. आर्य भी आए थे और हो सकता है कि उनसे पहले भी कोई आया हो.

पद्मावती नाम की कोई रानी अगर कभी थी भी तो उसके साथ क्या हुआ, उसका हिसाब लेने का समय यह नहीं है. पद्मावती के साथ अगर कोई जुल्म हुआ भी तो उसका दोष आज किसी के माथे पर नहीं है. कौन अंग्रेजों से मिल गए और कौन मुसलमान शासकों से, इसका हिसाब-किताब करने से कुछ नहीं मिलेगा.

सबसे बड़ी पहचान

इतिहास को बरतते समय सावधानी की जरूरत है. उसे ज्यादा कुरेदने से पुराने जख्म हरे होंगे. उनसे रिसते हुए खून से राष्ट्र की बुनियाद मजबूत नहीं होगी, बल्कि इसका नुकसान ही होगा. संविधान निर्माताओं ने भारत को एक ‘बनता हुआ राष्ट्र’ कहा. संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर इसीलिए अपनी पहली और आखिरी पहचान भारतीय के रूप में करते हैं. हर नागरिक को बाबा साहेब की यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि वह सबसे पहले और आखिर तक भारतीय है.

सही तरीका यह है कि मुसलमान भूल जाएं कि उन्होंने यहां हजार साल राज किया. सवर्ण हिंदू भूल जाएं कि उन्होंने दलितों को कैसे दबाकर रखा. आर्य अपना विजय अभियान भूल जाएं और जो हार गए या तकलीफ में रहे, वे भी अपनी तकलीफ भूलने की कोशिश करें. क्या देश को मजबूत बनाने के लिए आप यह कर पाएंगे? राष्ट्र निर्माण के लिए यह जरूरी है. राष्ट्रभक्त होने की यह बुनियादी शर्त है.

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