ढोल, दमाऊ, डौर, ढोलक, नगाड़ा, धतिया नगाड़ा, थाली और हुड़का (Hudka) आदि उत्तराखण्ड के प्रमुख ताल वाद्य (Percussion Instrument) हैं. इनमें से जिन वाद्यों में चमड़े का इस्तेमाल किया जाता है उन्हें अवनद्ध वाद्य (Membranophones) भी कहा जाता है. इन वाद्यों का प्रयोग उत्तराखण्ड (Uttarakhand) की विभिन्न संगीतमय सांस्कृतिक गतिविधियों में किया जाता है.
उत्तराखण्ड के लोक वाद्यों में हुड़का सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. हुड़का कुमाऊँ का सर्वाधिक प्रचलित लोक वाद्य भी है. विभिन्न पर्वों, त्यौहारों, उत्सवों, मेलों, लोकगीतों, लोकनृत्यों में हुड़के का खूब इस्तेमाल किया जाता है. कुमाऊँ के जागर तो हुड़के के बिना संपन्न ही नहीं हुआ करते. उत्तराखण्ड के लोकसंगीत में हुड़के का इस्तेमाल कब से होता आ रहा है इस बात के स्पष्ट प्रमाण तो नहीं मिलते, लेकिन यह तय है कि इसका इस्तेमाल आदि काल से ही होता आ रहा है.
आज हुड़का मैदानी क्षेत्रों में भी बढ़इयों द्वारा आधुनिक मशीनों से हुड़का बना दिया जा रहा है. लेकिन पारम्परिक रूप से इसे बनाने का काम चुनेड़े, चुन्याड़, चनेरों द्वारा किया जाता था. चुन्याड़ हुड़का बनाने के साथ ही लकड़ी के बर्तन, खिलौने आदि बनाने में भी पारंगत हुआ करते थे. चुन्याड़ मूल रूप से पिथौरागढ़ के अस्कोट के चुनेड़ा गाँव के रहने वाले थे. लकड़ी से बनी परंपरागत चीजों के प्रचलन से बाहर होने के कारण यह अपने परम्परोक पेशे को त्यागने के लिए बाध्य हुए. हालाँकि आज भी इनमें से कुछ लोग आंशिक तौर पर इस पेशे में लगे हुए हैं. उत्तराखण्ड का लुप्तप्रायः वाद्य बिणाई
चुन्याड़ लोगों द्वारा हुड़के का निर्माण खिमर, खिन की लकड़ी के इस्तेमाल से किया जाता था. यह लकड़ी भी सीधा पेड़ से तोड़कर सुखी जाती थी, पेड़ से गिरकर स्वतः सूख चुकी लकड़ी के इस्तेमाल से हुड़के में वह गमक नहीं आ पाती.
हुड़के की नाली, जो लकड़ी से बनी होती है. नाली को कुमाऊनी भाषा में नाइ कहा जाता है. यह अपनी बनावट में डमरू के ही आकार की होती है और आकार में उससे कहीं बड़ी. यह भीतर से खोखली होती है.
यह बकरे के आमाशय की झिल्ली को सुखाकर बनती है, इसे नाली के दोनों छोरों पर मढ़ा जाता है. इसी पर थाप देकर ताल बजायी जाती है. इसे तैयार करना भी विशेष कौशल की मांग करता है.
हुड़के के दोनों छोरों पर मढ़ी गयी पुड़ियों को डोरियों से आपस में बाँधा जाता है. इन डोरियों को बाहर की तरफ, हुड़के की नाली के बीच की ‘गर्दन’ के पास एक पतले कपडे की पट्टी से लपेट दिया जाता है. इस पट्टी से बंधी डोरी को ही वादक अपने गले में पहनता है. बजाते समय वादक इस डोरी के माध्यम से हुड़का थामे अपने हाथ और कंधे के बीच पर्याप्त दूरी पैदा कर डोरी में अपेक्षित खिंचाव पैदा करता है. इस खिंचाव से ही हुड़के की ध्वनि में बदलाव होता है. डोरियों के इस ताने-बाने का खिंचाव ही हुड़के की ताल में संतुलन भी लाता है. जागर-गाथा और पाँडवों का जन्म
हुड़के के बिना हमारे लोकसंगीत की कल्पना मुश्किल है. ख़ास तौर पर कुमाऊँ के जागर हुड़के के बिना संपन्न नहीं हुआ करते. यहाँ 1 से 7 दिन के ज्यादातर जागर हुड़के की ताल पर ही लगा करते हैं.
लोक संगीत में भी हुड़के की गमक ऐसा प्रभाव पैदा करती है कि हर कोई थिरकने में मजबूर हो जाता है. हुड़के की ध्वनि सभी ताल वाद्यों से अलग अपनी एक विशिष्ट पहचान भी रखती है.
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