दशहरे के बाद घर में कई-कई दिन चलने वाली सालाना सफाई बताती है कि मनुष्य मूलतः डिब्बाप्रेमी प्रजाति है. गोपन-अगोपन अलमारियों, दराजों, दुछत्तियों और खाने-तहखानों से डिब्बों का निकलना शुरू होता है और देखते-देखते उनकी संख्या पांच-छह अंकों को छूने लगती है.
लकड़ी के मंदिर की दराज के भीतर से निकले जंग लगे, लोहे के नन्हे से डिब्बे के भीतर से पच्चीस साल पुराना सिन्दूर निकलता है जिसे भगवती बुआ हरिद्वार से लेकर आई थी. इसी दराज से अब दिवंगत हो चुके रज्जू मामा की जम्मू-श्रीनगर से लाई गई कश्मीरी पेपरमैशी से बनी एक डिबिया भी निकलती है जिसके रंग धुंधले पड़ चुके हैं और उसके ऊपर महीन ब्रश से बनाए गए चित्र को देखकर यह तो समझ में आता है कि वह किसी चौपाये की तस्वीर है लेकिन यह नहीं कि वह बिल्ली-कुत्ता है या ऊँट-डायनासोर. उसके भीतर अलबत्ता कभी कुछ नहीं रखा गया. गंगाजल से भरे हुए कोई सौ अलग-अलग प्रकार के डिब्बों-बाल्टियों-बोतलों के लिए मंदिर के कमरे में एक बड़े रैक के दो खाने आरक्षित है.
एक डिब्बे में पिछली शताब्दी में तैयार किया गया लाल मिर्च का काला पड़ गया अचार पाया जाता है और गत्ते के एक दूसरे बड़े डिब्बे के भीतर पिछली पंद्रह दीवालियों में खरीदे गए गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों के तमाम जोड़े धरे मिलते हैं. उन्हें इस साल भी खरीदा जाना है. कुछ डिब्बों के भीतर से ऐसी गंधें निकल रही हैं जिन्हें मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार सूंघा जा रहा होता है. संसार की किसी भी भाषा में अभी उनके लिए शब्द गढ़े जाने बाकी हैं.
दुनिया का कोई ऐसा मसाला न होगा जो रसोई की एक अलमारी में न पाया जा सके. आयु के साथ परिपक्व हो चले इन अनुभवी मसालों को एक ही शेल्फ में धरे-धरे इतना समय हो चुका है कि वे एक दूसरे को अच्छी तरह पहचानने लगे हैं. मैं तो कहूंगा उनमें आपस में ऐसी मोहब्बत हो गयी है कि ‘प्रेम की माला जपते-जपते आप बनी मैं श्याम’ की तर्ज पर वे सारे के सारे एक जैसे हो गए हैं. उनकी रंगत देख कर या उन्हें सूंघ कर पहचानना मुश्किल हो जाता है कि मामी का बनाया गरम मसाला कौन सा है और गरमपानी से खरीदा गया पिसा नमक कौन सा. एक डिब्बे के भीतर रखे मसाले ने विद्रोह कर दिया है और अपने ऊपर फफूंद लगा ली है. वह इस जीवन से मुक्ति पाकर परमात्मा में विलीन हो जाना चाहता है.
चालीस साल पुराना, विविध आकारों वाले चार डिब्बों का एक सेट है. लाल ढक्कन वाले ये मजबूत डिब्बे एक के भीतर एक समा जाते हैं. लखनऊ में रहने वाला एक चचेरा भाई हेमंत इसे बतौर उपहार तब लाया था जब दवाइयों की एक कम्पनी में बतौर एमार उसकी पहली नौकरी लगी थी. पिछले साल उसकी छोटी बेटी का ब्याह हुआ है. वह ऐसे अनेकानेक सेट अनेकानेक अवसरों पर लाता रहा है और उनके प्लास्टिक, ढक्कनों के रंगों और डिजायन भर देख कर ही इस कजिन के जीवन का पूरा इतिहास लिखा जा सकता है. दिल के आकार के पारदर्शी डिब्बों का सेट, जिसके ढक्कनों पर नीले गुलाब बने हुए हैं, उस साल आया था जब ऐन होली के दिन गुड्डी का पैर फ्रेक्चर हुआ था और हेमंत दिल्ली से आये अपने जोनल मैनेजर के साथ बनारस गया हुआ था. उनकी होली बर्बाद हो गयी थी.
हमारे यहाँ डालडा के पीली छटा वाले प्लास्टिक और टीन के कोई बीस डिब्बे हैं – एक से पांच किलो तक के. रथ वनस्पति के भी इतनी ही संख्या में होंगे. उनका रंग नीला है. इन पर छपी तारीखें पेरेस्त्रोइका, ग्लास्नोस्त और लाल निशान वाली खोपड़ी के स्वामी गोर्बू उस्ताद के गौरवशाली युग की याद दिला जाती हैं और आप कह सकते हैं – “वो भी साले क्या दिन थे यार!”
सरसों-लाही के तेल के ढक्कन लगे कनस्तर हैं जो दुछत्ती के एक कोने में स्थापित उस विशाल पेटी के भीतर से उरियां होना शुरू करते हैं जिसमें तीन साल पहले खरीदा गया बड़ा फ्रिज पैक होकर आया था.
एलुमिनियम, लोहे, पीतल, प्लास्टिक, गत्ते, प्लाई, तांबे, लकड़ी, स्टील, लुगदी और अनेक तत्वों से निर्मित इन कोई एक लाख डिब्बों को साफ़ किया जाना है, उनके भीतर सतत कायान्तरण कर रहे भौतिक-रासायनिक तत्वों को चीन्हा जाना है, वैज्ञानिक तरीके से उनका वर्गीकरण होना है और मुझ जैसी नालायक संततियों की निगाह पड़ने से पहले ही उन्हें पिछली बार से भी अधिक गोपनीय ठिकानों पर ठिकाने लगा दिया जाना है.
तीन साल पहले हुए एक हादसे के बाद माँ भाभी को दिशानिर्देश जारी करती हुई कहती है -“उस के घर आने से पहले सारा निबटा ले. याद है पराड़के साल दो-दो टीन के बक्से कबाड़ी को फ्री में दे दिए थे नालायक ने. पच्चीस-पच्चीस, तीत्तीस डिब्बे तो आराम से आ जाते थे एक एक के अन्दर.”
–अशोक पाण्डे
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