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नैनीताल के तीन नौजवानों की फाकामस्त विश्वयात्रा – 5

जोर्डन

अकबा में बहुत से भारतीय एवं पाकिस्तानी कार्य करते हैं. इन सभी का काम बंदरगाह में पानी के जहाजों में सामान उतारना व चढ़ाना होता है. सभी इसी आशा के साथ कार्य करते हैं किसी मालवाही जहाज में नौकरी लग गई तो जिंदगी सार्थक हो जायेगी. मालवाही जहाज में लगभग ढाई हजार रूपया प्रतिमाह वेतन मिल जाता है. यह सभी वेतन प्रायः बच जाता है. इसीलिए इतना श्रमसाध्य काम लोग बड़े इत्मीनान से करते हैं और साथ-साथ मालवाही जहाजों में नौकरी की खोज में लगे रहते हैं. हमारा साथ शिमला के एक नवयुवक से हुआ. यह युवक अर्थशास्त्र में एमए था. शिमला के वातावरण में रहते-रहते पाश्चात्य सभ्यता और व्यवहार के आकर्षण ने उसे अपने शिकंजे में इस तरह कसा कि उसे पाश्चात्य सभ्यता, संगीत और चिलम का नशा लग गया. चिलम के नशे ने ही उसे रेगिस्तान में लाकर पटक दिया. हर पढ़े लिखे की तरह शारीरिक मेहनत उसके वश की बात नहीं थी. लिखने-पढ़ने का कोई काम न मिल सकने के कारण वह काफी परेशान था. शरीर सूख गया था. उसके साथी कहते थे कि रात को नींद में चीखता है. कुछ दिन यही स्थिति और रहती तो शायद उसे कोई खतरनाक बीमारी लग जाती. पर भाग्य अच्छा था कि एक दिन एक ग्रीक जहाज में उसकी नौकरी लग गई. उसे असीम विश्वास था कि उसकी नौकरी जहाज में जरूर लगेगी और ऐसा ही हुआ. आज भी जब कभी मैं सोचता हूं तो उसके विश्वास से मुझे भी बल मिलता है. ऐसे कई अन्य लोग हमें इस यात्रा में मिले, जिनकी ऐसी ही कहानियां थीं.

ढाई महीने तक लगातार अकबा में काम करने के बाद एक दिन हमने अपना वेतन लिया और एक बार फिर से ‘हाई-वे’ पर जाकर अंगूठा दिखाने लगे. हालांकि अब हमारी स्थिति इतनी कष्टपूर्ण नहीं थी पर जेब में पैसा आ जाने के बाद वह साहस और उत्साह मर सा गया था, जो हमें स्फूर्ति दिया करता था. अब हमारे सामने कोई परेशानियां नहीं थी. किसी चीज की आवश्यकता होती तो हम पैसा निकालकर उसे खरीद लेते. लोगों से हमारा मिलना जुलना भी धीरे-धीरे कम होने लगा. दुनिया में पैसा इन्सान में एक अजीब सी कमजोरी भर देता है. हम पैसा खर्च करके सिगरेट पीते, भोजन करते और यदि कभी लिफ्ट न मिली तो टैक्सी कर आगे बढ़ जाते. पहले हम अपने अन्दर की शक्ति से यात्रा करते थे और एक अनिर्वचनीय सुख का आनन्द लेते थे. अब हम पैसे के बल पर यात्रा कर रहे थे. दोनों का स्वाद अलग-अलग था.

दो दिन के सफर के बाद हम तीनों अमान पहुंचे. सबसे पहले हमने मिश्र के लिए हवाई जहाज का टिकट लिया. मिश्र की राजधानी काहिरा के लिए हमारी यह उड़ान दस दिन बाद निश्चित थी. इस अंतराल का फायदा उठाने के लिए हमने जोर्डन के ऐतिहासिक स्थलों, की यात्रा करने का निश्चय किया. पीठ का सारा सामान यूथ हॉस्टल में छोड़कर, सिर्फ स्लीपिंग बैग लेकर हम निकल पड़े. जिस दिशा में कोई लिफ्ट देता, हम चल देते. जहां पहुंच कर रात हो जाती, वहीं स्लीपिंग बैग खोलकर सो जाते. इस फ्री-स्टाइल यात्रा में हमने पेट्रा, मृत सरोवर, अजलून एवं अन्य कई दर्शनीय स्थलों को देखा. सबसे पहले हम पेट्रा गये. यह एक प्राचीन नगरी है, जो एक पहाड़ को खोद-खोद कर बड़े विचित्र ढंग से बनाई गई. यहां रहने वाली एक आदिवासी जाति बाहर से आने वाले पर्यटकों की मार्गदर्शक के रूप में सहायता करती और इसी तरह अपनी आजीविका चलाती है. ये लोग एक खास किस्म के तंबाकू का सेवन करते हैं, जिससे थोड़ा-थोड़ा गांजे का सा नशा होता है. पेट्रा में दो दिन रहते हुए हमने भी यही तम्बाकू पिया.

जब हम मृत सरोवर में तैरे

पेट्रा के बाद हम लोग मृत सरोवर गये. मृत सरोवर समुद्र सतह से 1280 फीट के नीचे स्थित हैं इस सरोवर का आधा हिस्सा इजराइल में तथा आधा जोर्डन में है. इस सरोवर में कोई भी प्राणी डूबता नहीं. इसके जल में मछलियां भी नहीं पायी जातीं. हम लोग रात को करीब 11 बजे मृत सरोवर पहॅुंचे. उस वक्त वहां काफी रौनक थी. बहुत से लोग चांदनी रात में तैराकी का आनन्द ले रहे थे. हम लोग पैदल चलकर आने के कारण काफी थके हुए थे, अतः बिना तैरे ही जल्दी सो गये. सुबह जल्दी आंख खुली तो चारों और सुनसान था. यकायक माजरा समझ में नहीं आया कि इतने लोग गये तो कहां? काफी देर बाद एक चौकीदार ने हमें बताया कि यहां जोर्डन के विभिन्न नगरों से लोग रात को आकर रात ही हो लौट जाते हैं. मृत सरोवर में जब हम तैरने को उतरे तो जलन के मारे शरीर की हालत खराब हो गई. यह जांचकर कि इसमें आदमी सचमुच नहीं डूब सकता हम तुरन्त बाहर निकल आये. जलन तब समाप्त हुई, जब हमने मीठे पानी में स्नान किया. मेरी समझ में आज भी नहीं आता कि जो लोग रात देर तक पानी में लेटे सिगरेट पी रहे थे, उनको क्या जलन नहीं लग रही थी?

दिन के समय मृत सरोवर से वापस आना भी एक समस्या रही, क्योंकि गाड़ी न होने के कारण लिफ्ट नहीं मिल सकी. दिन की धूप में रेगिस्तान में पांव घसीटने की यातना भुगत कर हम लोग एक गांव के पास पहुंचे. यहां जोर्डन के एक सैनिक ने हमें अपने घर खाने के लिए आमंत्रित किया. इस समय हम जोर्डन के पश्चिमी क्षेत्र से गुजर रहे थे. सन् 1667 के अरब-इजराइल युद्ध में इजराइल ने इस क्षेत्र का काफी बड़ा हिस्सा छीन लिया था. यह क्षेत्र कभी काफी उपजाऊ हुआ करता होगा, मगर आज नहीं है. रात जब हम इसी क्षेत्र से होकर मृत सरोवर को जा रहे थे तो यहां जेरूशलम की रोशनियां दिखाई दे रही थीं. उन रोशनियों तक पहुंचना आज यहां के लोगों के लिए असंभव हो गया है, क्योंकि 1667 के बाद से जेरूशलम भी इनके पास नहीं रह गया है.

पिरामिडों के देश में

दो घंटे से कम समय में अमाने से काहिरा! बार-बार यही सोच रहा था कि कैसा होगा यह देश? कैसे होंगे यहां के लोग?

ध्यान भंग हुआ, विमान परिचारिका कह रही थी, ‘‘काहिरा आ रहा है और हम नीचे उतरेंगे.” नीचे काहिरा की टिम-टिमाती रोशनियां साफ दिखाई दे रही थी.

विमान ने मिश्र की धरती का स्पर्श किया, उस समय रात के आठ बजे हुए थे. चुंगी अफसरों के घेरे से बाहर निकलना मुश्किल हो गया. क्योंकि मिश्र में प्रवेश पाने के लिए 150 अमेरिकन डालन के स्थान पर स्थानीय मुद्रा देना आवश्यक है. हमारा हमेशा प्रयत्न काला बाजार में मुद्रा बदल कर अधिक लाभ प्राप्त करना था, अतः हम भला क्यों इतने कम विनिमय दर पर डालर बदलते (जैसे हमारे पास पर्याप्त पैसा था) . काफी मिन्नत के बाद उन्होंने हमारे पासपोर्ट पर अपनी मुहर लगाकर हमें छोड़ दिया.

काहिरा एयर-पोर्ट का दृश्य भी मुझे खास आकर्षक नहीं लगा. एक रेलवे स्टेशन के समान ही सब कुछ दिखाई दे रहा था. हम लोग एयरपोर्ट से बाहर आकर पैदल ही शहर की ओर चल पड़े. रास्ते में एक स्थान को रहने लायक देखकर वहीं सो गये.

सुबह उठे तो, दिन चढ़ आया था. आठ बजे थे. गरमी ने बता दिया कि यह अफ्रीका है और सहारा का रेगिस्तान भी यहां से दूर नहीं. नित्यकर्म से निपट कर शहर की ओर बस में निकल पड़े.

रास्ते और बाजार बहुत कुछ लखनऊ की तरह थे. रोमन और अरबी लिपि में लिखे साइन बोर्ड दिखाई दे रहे थे. लोग ताम्र वर्ण तथा लंबे-चौड़े थे. उन्हें देखकर लगा कि मिश्र सदियों से अरब और अफ्रीका का संगम स्थल रहा होगा. उनकी ऊंची लाल टोपी, बातचीत के तौर, तरीके भी बहुत कुछ अपने यहां की तरह थे. बुरके में औरतें, मस्जिद, मुल्ले मौलवी और शेख — वातावरण अपरिचित नहीं लगता था. शायद इसलिए करीब नौ सौ वर्ष तक भारत पर भी इस्लाम का प्रभाव रहा है.

शहर पहुंच कर हम तीनों अपना सामान एयर-इण्डिया के कार्यालय छोड़कर, अमान एयरपोर्ट की ड्यूटी फ्री दुकान से खरीदी गई, स्काच एवं सिगरेटें बेचने निकल पड़े. सामान बेचने एवं अच्छा लाभ प्राप्त करने में समय नहीं लगा.

गरमी सता रही थी. नील थोड़ी दूरी पर थी. हम तीनों नदी की ओर चल पड़े .हम तीनों नदी की ओर चल पड़े. हम तीनों एशियनों की पीठ पर पिट्ठू देखकर लोगों को कुछ आश्चर्य होता प्रतीत हो रहा था. क्योंकि अतीत से एशियन एवं अफ्रीकन लोगों का गोरों द्वारा शोषण होता रहा है. अतः आज भी पिट्ठू लेकर देश-विदेश घूमना ये लोग योरोपियन एवं अमेरिकन गोरों का ही धर्मसिद्ध अधिकार समझते हैं.

शाम को हम लोग ठहरने यूथ हॉस्टल चले गये. काहिरा के यूथ हॉस्टल में भी खूब रौनक रहती है. दुनिया भर के युवक-युवतियां यहां आकर ठहरते हैं. यानी युवतियों से यहां पर साथ मिलना बड़ा आसान रहता है. इस कारण यूथ हॉस्टल का वातावरण और अधिक रोमांचक लगता है.

काहिरा से सात मील दक्षिण में गिजे नामक स्थान है जहां विश्वविद्यालय पिरामिड है. बस में बैठकर उधर चल पड़े. शहर से निकलते ही गरम रेत और सूखी हवा के थपेड़े लगने लगे.

बस से उतरते ही गधे और ऊॅंटवालों ने घेर लिया. गरमी के कारण यात्री बहुत कम थे. इसलिए सभी अपनी और खींचातानी कर रहे थे. अंग्रेजी, फ्रेंच और इतालियन के टूटे-फूटे शब्दों में वे अपनी सवारी की प्रशंसा कर रहे थे. उन वाक्यों के बीच ‘बहुत अश्चा’ सुनकर हम तीनों को बड़ी खुशी हुई. पर हमें गधों की जरूरत नहीं थी, इसलिए पैदल ही पिरामिड देखने निकल पड़े.

एक तो दिन की धूप, दूसरे हवा के साथ धूल और जानवरों की गंदगी से हम परेशान थे, ऊपर से पिरामिड के अन्दर जाने के टिकट का मूल्य 15 रुपये सुनकर काफी कष्ट हुआ. पर पिरामिड के पास पहुंचने पर शान्ति मिली. ऐसी समाधियां संसार में अन्यत्र कहीं नहीं है. इनका निर्माण छः हजार वर्ष पूर्व हुआ था. कितने विशाल हैं ये पिरामिड, इसका अनुमान इस तरह लगाया जा सकता है कि खफू के पिरामिड में जो सबसे बड़ा पिरामिड है, उसमें लगभग 30 लाख बड़ी-बडी शिलाएं लगी हैं. इसका कुल वजन 17 करोड़ मन आंका गया है.

मिश्र के महाराजा इन पिरामिडों को इसलिए बनवाते थे, कि मृत्यु के बाद वे इसमें सामधिस्थ कर दिए जाएं. शव के साथ उनकी प्रिय वस्तुऐं अलंकार, स्वर्ण पात्र, राज्य चिन्ह, वस्त्रादि इसमें रखे जाते थे. इनमें से जो ठोस स्वर्ण के बने वजनी किस्म के अलंकार पात्र एवं राज्य चिन्ह हैं, उनको अब मिश्र के राज्य संग्रहालय में रख दिया गया है.

इनकी दीवारों पर राजाओं के जीवन की प्रमुख घटनाओं और कीर्ति के चित्र उत्कीर्ण किए जाते थे और उनका वर्णन भी रहता था. पत्थरों पर खोदे हुए चित्रों के साथ कहीं-कहीं रंग का प्रयोग भी किया गया है. राजाओं का शव रासायनिक लेप लगाकर एक विशेष प्रकार के ताबूत में बंद कर दिया है. इस शवाधार को ‘ममी’ कहते हैं, इस ताबूत की पत्थर को एक बड़े कक्ष में रख दिया जाता था. ‘ममी’ के रखे शव सड़ते गलते न थे. लेप का रासायनिक नुस्खा क्या था, इसका पता आज तक नहीं चल पाया है.

पिरामिड़ों का निर्माण अत्यन्त कष्टकर तथा व्ययसाध्य था. हजारों गुलाम सैकड़ों मील की दूरी से, लम्बी रस्सियों सें खींचकर पत्थर लाते थे. दहकती बालू की आंधी में, जहां पानी का नाम नहीं, कितनी जानें गई होंगी, यह कल्पनातीत है.

पिरामिड के पास ही ‘स्फिक्स’ की विशाल मूर्ति है, जिसकी ऊॅंचाई 186 फीट है. इसका सारा शरीर सिंह का परन्तु सिर मनुष्य जैसा है. इस ढंग की मूर्ति के बनवाने में राजा की शक्ति और पराक्रम के प्रदर्शन की भावना रहती थी. अपनी कीर्ति और यश की अमिट रखने की आकांक्षा मनुष्य में कितनी अधिक रहती है? पिरामिड, कुतुबमीनार और ताजमहल इसी के तो प्रत्यक्ष प्रमाण और प्रयत्न है.

पिरामिड से वापस बस-स्टैंड पर आकर बस से शहर लौट आये. मन में विचार आ रहा था कि मनुष्य ने कितना श्रम, धन और समय लगाया है इनमें! सदियां गुजर गई, जमाना कहां से कहां आ गया है. ये संसार भी कितना विचित्र है!

काहिरा बाजार से कण्ट्रोल रेट की रोटी, तथा टमाटर और मक्खन लेकर यूथ हास्टल के किचन में हमने अपना लंच तैयार किया. आधुनिक मिश्र में वहां की सरकार अपनी अकर्मण्यता को छिपाने के लिए, गरीबों को सस्ते दरों पर रोटी दिलाकर उनका मुंह बन्द कर, सत्ता का आनन्द ले रही है. सच्चाई यह है कि मिश्र आज भी आर्थिक क्षेत्र में हमारे देश से भी पिछड़ा प्रतीत होता है. इस पिछड़ेपन का आभास किसी भी भारतीय को आसानी से हो सकता है.

एक दिन संग्राहालय देखने गये. टिकट यहां पर भी काफी अधिक था, पर काहिरा का यह संग्रहालय देखना नील नदी की सभ्यता का परिचय प्राप्त करने के लिए आवश्यक है. दरवाजों पर गाइडों ने घेर लिया पर हमने कोई गाइड नहीं किया. मिश्र के प्रागैतिहासिक और प्राचीन-काल की बहुत सी वस्तुएं देंखी, पर उनकी बारीकियां समझना मिश्र के पुरातत्व की विद्या का थोड़ा ज्ञान हुए बिना संभव नही है.

15अगस्त की सुबहः काहिरा

यहीं ममी में रखा हुआ तुतेनखामन का शव देखा. उसकी बहुमूल्य वस्तुएं भी यहां सुरक्षित हैं. यह सम्राट आज से 3300 वर्ष पहले के सोने-चांदी के कुछ बरतन भी देखे, जो खिले हुए कमल के आकार के थे. इन वस्तुओं को देखकर पता चलता है कि भारत की तरह यहां भी सूर्य, अग्नि, सर्प और गरूड़ की पूजा देवी-देवताओं के रूप में होती है. रामशेष नामक सम्राट भी यहां हुए थे. ऐसा प्रतीत होता है कि अतीत में हमारे देश का मिश्र से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा होगा.

काहिरा में भारतीय दूतावास नील नदी के किनारे, एक पुराने भवन में स्थित है. इसके अन्दर के वातावरण से ऐसा लगता है जैसे कि भारत में ही किसी कार्यालय में हों.

15अगस्त 1676 को हम लोग काहिरा में थे, अतः सुबह ही दूतावास के लिए चल पड़े. विदेशों में हमारे दूतावास राष्ट्रीय पर्व कैसे मनाते हैं? दूतावास पहुंच कर देखा कि करीब तीन सौ भारतीय हैं, जिनमें से अधिकांश परम्परागत भारतीय पोशाकों में है. तेज घ्वनि में लाउडस्पीकर से गाना आ रहा है-

ऐ मेरे वतन के लोगों,
जरा आंख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी,
जरा याद करो कुर्बानी.

ठीक नौ बजे भारतीय राजदूत आकर झण्डा-रोहण करते हैं, राष्ट्रीय गान होता है तथा उसके पश्चात राष्ट्रपति एवं विदेश मंत्री के संदेश पढ़े जाते हैं. अंत में चाय एवं जलेबी का नाश्ता दिया जाता है. यह भारतीय ‘टी बोर्ड’ एवं विदेश सेवा के अधिकारियों की पत्नियों के सौजन्य से सम्पन्न हुआ. हम तीनों के लिए यह एक विचित्र अनुभव था.

काहिरा में हमें, काफी दौड़-धूप तथा हमारे दूतावास के काफी प्रयत्नों के बावजूद भी ग्रीस एवं लीबिया का वीसा नहीं मिल पाया. अब हमारे योरोप में प्रवेश करने का एक ही मार्ग था कि इटली के रास्ते योरोप जाया जाये. दक्षिणी अफ्रीका के राष्ट्रों के भ्रमण का विचार हमने छोड़ दिया, क्योंकि योरोप का ग्लैमर अधिक तीव्र था. स्वाभाविक रूप से मनुष्य ग्लैमर से अधिक आकर्षित होता है. शायद हम तीनों इतने वर्षों से भारत में रहकर भारतीयता से कुछ बोर हो गये थे. सच है कि स्वछन्द वातावरण सभी को अच्छा लगता है.

योरोप के लिए हमने एलेक्जेंड्रिया से एक मिश्री समुद्री जहाज का टिकट लिया, यह जहाज एक सप्ताह बाद यूनान होता हुआ, इटली से फ्रांस जाने वाला था. हमारा विचार था कि ग्रीस में प्रवेश करने का प्रयास करेंगे और यदि संभव हुआ तो इटली का वीसा हमारे पास था ही. समुद्री यात्रा प्रारम्भ होने के अभी काफी दिन थे. अतः हमने इस बीच मिश्र के एक ऐतिहासिक शहर लक्सर का भ्रमण किया.

एलेक्जेंड्रिया से लक्सर जा रहे थे. ट्रेन का सुफर था, नये-नये अनुभव हो रहे थे. ट्रेन धीरे-धीरे नील नदी के किनारे चल रही थी. मैं देख रहा था कि चप्पा-चप्पा जमीन खेती के काम लाई गई है, क्षण भर के लिए खेत, गाँव और लोग सामने आते और ओझल हो जाते थे. कृषि के क्षेत्र में प्रगति दिखाई दे रही थी, पर भारत के सामन हरित क्रान्ति होने मिश्र में अभी समय लगेगा.

(जारी)

पिछली क़िस्त का लिंक: नैनीताल के तीन नौजवानों की फाकामस्त विश्वयात्रा – 4

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Sudhir Kumar

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