उत्तराखण्ड में चाय की खेती का इतिहास 150 वर्ष पुराना है. उत्तराखण्ड में भी चाय की खेती यूरोपियनों के आने के बाद ही शुरू हुई. सन् 1824 में ब्रिटिश लेखक बिशप हेबर ने कुमाऊं क्षेत्र में चाय की सम्भावना व्यक्त करते हुए कहा था कि यहां की जमीन पर चाय के पौधे जंगली रूप में उगते थे लेकिन काम में नहीं लाए जाते थे. (History of Tea Cultivation in Uttarakhand)
हेबर ने अपनी पत्रिका में लिखा था कि कुमाऊं की मिट्टी का तापमान तथा अन्य मौसमी दशाएं चीन के चाय बागानों से काफी मेल रखती हैं. (History of Tea Cultivation in Uttarakhand)
वानस्पतिक उद्यान सहारनपुर के अधीक्षक डॉ. रोयले उत्तराखण्ड में चाय की खेती हो सकने से पूर्णतः सहमत थे. सन् 1827 में उन्होंने एक रिपोर्ट ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भेजी. 1831 में जब लार्ड विलियम बैंटिक, सहारनपुर आया तो उसने भी इस क्षेत्र में चाय उद्योग के विकास हेतु सुझाव दिया. बैंटिक ने सन् 1834 में एक चाय कमेटी का गठन किया.
कुमाऊं को चाय की खेती के लिए उपयुक्त पाए जाने पर कमिश्नर जार्ज विलियम ट्रेल ने चाय कमेटी को हर सम्भव मदद देने का आश्वासन दिया. ट्रेल ने सर कॉलहन, कुमाऊॅँ प्रांतीय बटालियन के पूर्व सेनानायक, को पत्र द्वारा इसके बारे लिखा कि हवालबाग और भीमताल से लगे क्षेत्रों को नर्सरी की स्थापना के लिये उपयुक्त हैं. उसी समय डॉ. वालिक ने इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ़ कॉमन में चाय की खेती से जुड़ा एक लेख प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने भारत में कुमाऊं और गढ़वाल के क्षेत्रों को चाय की खेतीके लिये उपयुक्त बताया.
बॉटनिकल गार्डन सहारनपुर के सुपरइन्टेन्डेंट डॉ. फॉकनर और बिल्किंवार्थ इन जगहों का सर्वेक्षण किया गया. सन् 1835 में दिसम्बर के अन्तिम माह में कलकत्ता से दो हजार पौधों की पहली खेप कुमाऊँ पहुंची थी. जिससे अल्मोड़ा के पास लक्ष्मेश्वर तथा भीमताल के पास भरतपुर में चाय की नर्सरी स्थापित की गईं. सन् 1835 में ही टिहरी गढ़वाल के कोठ नामक स्थान पर भी चाय की खेती प्रारम्भ की गई.
टी कल्टीवेशन इन उत्तराखण्ड, वाल्यूम 1 के आधार पर.
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