ललित मोहन रयाल

दिलचस्प है गढ़वाल मंडल में यातायात व्यवस्था का इतिहास

चारधाम यात्रा का मुख्य द्वार होने के चलते ऋषिकेश को ट्रांसपोर्ट नगरी भी कहा जाता है. आज के सूचना प्रौद्योगिकी के युग में कैब सहज ही उपलब्ध हो जाती है. ये उबेर, ओला का युग है. ट्रैवल एजेंसियों की भरमार है. बस फोन भर करना होता है, परिवहन सुविधा आपके द्वार पर उपलब्ध हो जाती है.
(History of Rishikesh)

चार-पांच दशक पहले की बात करें तो सीधी बस सेवा को बड़ी तवज्जो दी जाती थी. दूरदराज के क्षेत्रों के लिए विंडस्क्रीन पर बाकायदा वाया फलां रूट की तख्ती लगी रहती थी. किफायती कंडक्टर विंडस्क्रीन के अंदर से चौक से उल्टे अक्षरों में रूट लिखने में दक्ष होते थे. यात्री इस बात का खासा खयाल रखते कि कहीं बस न बदलनी पड़े. उनकी चिंता वाजिब ही होती थी. परिवहन सेवाएं गिनती की चलती थीं. अब किसी मध्यवर्ती स्टेशन में उतार दिया तो आगे कैसे जाएंगे. रूट्स निर्धारित होते थे जिन पर  गिनती की ही बसें संचालित होती थीं. आमजन के लिए आवागमन का एकमात्र साधन बस सेवा ही होता था. जालीवाले बुकिंग दफ्तर पर बाकायदा लाइन लगती थी. बुकिंग क्लर्क से पहचान बड़ी बात होती थी.

तब आज की तरह प्राइवेट व्हेकिल्स की भरमार नहीं थी. मौजूदा दौर में एक ही घर में कई-कई गाड़ियां देखने को मिल जाती हैं. तब निजी वाहनों के नाम पर इक्का-दुक्का वाहन ही देखने को मिलते थे. मोटर मालिक खानदानी रईस समझे जाते. डॉक्टर्स के पास प्रीमियर पद्मिनी होती थी या फिर नामी वकीलों, बड़े घराने के रईसों के पास उनकी निजी पसंद की महंगी गाड़ियां. मध्यमवर्ग से आम जनता तक की निर्भरता बस सेवाओं पर ही होती थी. ऋषिकेश से आगे गूलर तक सन् 1933 में मोटर मार्ग बना और 1936 में यह कीर्तिनगर तक पहुंच सका.

आजादी के बाद सड़कों का विस्तार हुआ तो 1953 में टीजीएमओसी की स्थापना हुई. जब किसी नई सड़क पर सेवा चालू होती तो चालक-परिचालक से लेकर सवारियों तक का फूल मालाओं से स्वागत किया जाता था.  विंडस्क्रीन पर स्वास्तिक का चिह्न बनाया जाता. नारियल फोड़कर बस स्टार्ट होती. जी एम ओ का मुख्यालय कोटद्वार गढ़वाल में है लेकिन यात्रा मार्ग में सेवाएं देने के कारण इस कंपनी के उप कार्यालय अन्य जगहों पर भी हैं. इसकी बसें यात्रा मार्ग के अलावा दैनिक यात्रा मार्गों पर भी चलती चलती हैं.

सहकारी भावना से संचालित यातायात कंपनी की गाड़ियां यात्रा मार्ग के साथ-साथ दैनिक यात्रियों के आवागमन को भी सुलभ बनाती आ रही हैं. गढ़वाल मंडल बहुद्देशीय सहकारी समिति, रूपकुंड, सीमांत सहकारी संघ, यात्रा पर्यटन एवं विकास समिति, गढ़वाल मंडल कांट्रेक्ट कैरेज, रामनगर यूजर्स, दून वैली जैसी कई कंपनियां वर्षों से यात्रा मार्ग पर सेवाएं उपलब्ध करा रही हैं.
(History of Rishikesh)

कंपनी के अध्यक्ष मालचंद रांगड़, भोला सिंह खरोला, नत्था सिंह पोखरियाल, अमरदेव भट्ट एवं अन्य कई व्यवसायियों का इस दिशा में सराहनीय योगदान रहा. यात्रा सीजन में यातायात व्यवस्था को सुचारू बनाए रखने के लिए नौ कंपनियां संयुक्त रूप से संयुक्त रोटेशन व्यवस्था के अंतर्गत सेवाएं देती है. 1971-72 में धनेश शास्त्री जी इसके पहले अध्यक्ष निर्वाचित हुए. संचालक मंडल और बस मालिकों की आम सहमति से फेरे तय किए जाते थे. गढ़वाल कमिश्नर सिंहा साहब नियमित तौर पर यात्रा व्यवस्थाओं का जायजा लेते. सामूहिक जिम्मेदारी लेते हुए उन्हें पर्यटन व्यवसायियों का भरपूर सहयोग मिला. यह व्यवस्था हिस्सेदारी के बजाय सहकारी भावनाओं पर आधारित थी. आर्थिक स्थितियों में उतार-चढ़ाव आने के बावजूद सात-साढे सात हजार बसों के बेड़े के साथ ये कंपनियां मालिक, ड्राइवर-क्लीनर, अन्य कर्मचारियों की रोजी-रोटी का जरिया बनने से बढ़कर निरंतर जनसेवा में लगी हुई हैं. (एससी सिंहा गढ़वाल के पहले कमिश्नर हुए. वे मशहूर अभिनेता देवानंद की पत्नी कल्पना कार्तिक उर्फ मोना सिंहा के भाई थे.)

शुरू में लारियां, बसें चलती थीं. सड़कें संकरी थी, जिसके चलते गेट सिस्टम, और झंडी सिस्टम चलता रहा. अधिकांश सड़कें सिंगल ट्रैक रोड होती थीं. मुनि की रेती में बाकायदा गेट लगता था. कुछ चौड़ी जगहें थी, जहां पर गाड़ियां आपस में क्रॉस कर सकती थीं. नीचे से ट्रैफिक छूटने तक क्रॉस पॉइंट्स पर गाड़ियां रुकी रहती थीं. लारियां, बसें कॉनवाय में चलतीं. पहला क्रॉस व्यासी में होता था, दूसरा देवप्रयाग में. उससे अगला श्रीनगर में. यात्री समयानुसार वहां पर रुककर नाश्ता, दिन का भोजन कर लेते. धीरे-धीरे इन्हीं स्थानों पर बाजार फलने-फूलने शुरू हुए. वह परिपाटी आज तक बदस्तूर जारी है.

बसों में लोअर, मिडिल, अपर तीन श्रेणियां चलती थीं. अपर क्लास की एक सीट ड्राइवर केबिन में ड्राइवर के बगल में लगी रहती थी. उसके पीछे की पूरी रो फर्स्ट क्लास कही जाती थी. उसमें बाकायदा जाली-वाली लगी रहती थी. उसके पीछे वाली पंक्ति मिडिल क्लास कही जाती थी. लोअर क्लास में यात्री बेतरतीब ढंग से बैठते थे और वहां पैसेंजर और गुड्स दोनों के समाने में कोई मनाही नहीं रहती थी. सीमेंट से लेकर शादी-ब्याह की खरीददारी, बरसात से पहले गुड़-नमक, कपड़े-लत्ते की छमाही खरीददारी, छुट्टी से लौटते फौजियों के बक्से इसी श्रेणी में समाते थे.

सेवारत शिक्षक-सरकारी कर्मी अखबार, अंडा, ब्रेड के लिए दूरदराज के कस्बों में इन सेवाओं की व्यग्रता से बाट जोहते. सारिका, धर्मयुग, रीडर्स डाइजेस्ट जैसी प्रतीक्षा किए जाने योग्य पत्रिकाएं इन्हीं लारियों-बसों के जरिए दूरदराज के इलाकों में पहुंचतीं. तब तक गढ़वाल के दूरदराज के इलाकों में इन्हीं कंपनियों की सेवाएं दौड़ा करती थीं. व्यवस्था को सुचारू बनाए रखने के लिए उन्होंने जगह-जगह चेकपोस्ट्स और स्टेशन बनाए. जोशीमठ, गौरीकुंड, श्रीनगर जैसे मुख्य-मुख्य स्थलों पर कार्यालयों की स्थापना की. ये सेवाएं अलग-थलग पड़े कस्बों को जोड़ती थीं और गढ़वाल के दूरदराज के इलाकों में धमनियों की तरह काम करती थीं.
(History of Rishikesh)

टाइमिंग, सुरक्षित यात्रा, यात्रियों के साथ बर्ताव इन कंपनियों की सबसे बड़ी कसौटी थी. जो सेवा लेटलतीफी, कैजुअल व्यवहार दिखाती, यात्रियों में उसके प्रति वह उत्साह न रहता. वह युद्धकाल रहा हो या आपदा, चाहे निर्वाचन की सेवाएं देश को जब-जब जरूरत पड़ी, ये कंपनियां सेवाएं देने में कभी पीछे नहीं रहीं.

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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