रामलीला पर्वतीय प्रदेश उत्तराखण्ड के विभिन्न स्थानों में आयोजित की जाती रही है, जिनमें सर्वप्रथम अल्मोड़ा कुमांउनी रामलीला की जन्मस्थली रही है. अल्मोड़ा में 1860 में दन्या के बद्रीदत्त जोशी ने नगर के बद्रेश्वर मैदान में पहली रामलीला आयोजित की. गढ़वाल मण्डल में सांस्कृतिक नगरी पौड़ी में 1897 में कांडई गांव पौड़ी में इसका मंचन स्थानीय लोगों द्वारा आरम्भ हुआ एवं 1906 में भोलादत्त गैरोला, कोतवाल सिंह नेगी, तारादत्त गैरोला, बी.सी. त्रिपाठी आदि के प्रयासों से इसे वृहद् स्वरूप प्रदान किया गया.
(History of Ramlila in Garhwal)
इसी क्रम में पौड़ी गढ़वाल क्षेत्र के अन्तर्गत लैंसडाउन, सुमाड़ी, कोटद्वार, देवप्रयाग, श्रीनगर, धारी गांव, जयहरीखाल आदि की रामलीला भी प्राचीन एवं लोकप्रिय है. लैंसडाउन में रामलीला का आयोजन 1903 से आरम्भ हुआ. तत्कालीन ब्रिटिश शासन में अंग्रेजों के साथ आये कुछ कुमांउनी परिवारों ने इसे आरम्भ किया, जिसका श्रेय जीवनलाल शाह, शीशराम जोशी, कैलाश जोशी, राजू पधान, गंगादत्त शाह, मनीलाल शाह आदि को जाता है, जो अनवरत् जारी है.
1940-42 में नगर में प्लेग फैलने के कारण तथा स्वतंत्रता आन्दोलन के कारण रामलीला स्थगित हई, किन्तु 1950 से पुनः यह जीवनलाल शाह, रायबहादुर, मनोहर सिंह रावत आदि के प्रयासों से चल निकली. लैंसडाउन के ही समीप स्थित छोटे से कस्बे जयहरीखाल में रामलीला का प्रारम्भ 1959 में हुआ, यहाँ रामलीला का प्रारम्भ देवकी नंदन चंदोला, कुंदन सिंह रावत, सरदार सिंह, जगदंबा प्रसाद, कीरत सिंह नेगी, दीनदयाल जोशी, जीत सिंह नेगी आदि ने किया. जयहरीखाल में रामलीला का मंचन हिन्दू स्कूल के पास के खेत में प्रारंभ किया जाता था.
कुछ वर्षों के पश्चात कस्बे में नवनिर्मित पंचायत घर में इसका मंचन किया जाने लगा. 1992 से 2005 तक यहाँ रामलीला 10 बाधित रही, जिसका कारण समिति का आपसी मनमुटाव रहा. वर्ष 2006 से कस्बे के जागरूक नवयुवकों द्वारा पुनः इसे जीवित किया गया. समिति के पास पर्याप्त संसाधनों की कमी के कारण यहां रामलीला मंचन दशहरा के बाद लैंसडाउन रामलीला के सहयोग से किया जाता है.
भगवान राम की तपस्थली देवप्रयाग में रामलीला का प्रारम्भ का कोई लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है. 1949 से स्वतंत्र भारत में टिहरी 11 रियासत के विलय के पश्चात ही देवप्रयाग में रामलीला की शुरूआत मानी जाती है एवं निरंतर आयोजित होती है. यहां मशालों के उजाले में होने 12 वाली रामलीला का स्थान 1966 से बिजली ने ले लिया. देवप्रयाग में रामलीला नवम्बर-दिसम्बर में आयोजित की जाती है जब तीर्थ पुरोहित भगवान बद्री विशाल के कपाट बंद होने के पश्चात देवप्रयाग पहुंचते हैं.
देवप्रयाग में रामलीला के पात्रों की भूमिका उन गांवों के लोग निभाते हैं जहां के तीर्थ पुरोहित होते हैं, इन गांवों में टिहरी एवं पौड़ी जिले के राणाकोट, पाली, सिराला, कोठी, चर्यू, धुरी, पोखरी, सौड़, वैद्यगढ़ आदि शामिल 13 हैं. गढ़वाल के प्रसिद्ध रामलीला मंचन में शामिल पौड़ी गढ़वाल जनपद की कल्जीखाल विकासखंड की मनियारस्यूं पट्टी के धारी गांव की रामलीला भी एक है. 1935 में मनोरंजन के लिये धारी गांव के कुछ युवकों ने रामलीला करने की योजना बनाई, सभी ग्रामीणों ने इस योजना को 14 समर्थन एवं सहयोग दिया.
(History of Ramlila in Garhwal)
सर्वप्रथम यहाँ रामलीला का आयोजन गांव के पंचायती खेत में एक अस्थाई मंच पर किया गया. गांव के जितार सिंह 15 मनिहारी, कुंवर सिंह चैहान, माधव सिंह मनिहारी, सुबुद्धि लाल आदि के द्वारा इसे आरम्भ कर प्रतिवर्ष आयोजित किया गया. मशालों के उजाले में होने वाली रामलीला 1940 में लालटेनों में होने लगी, 1970 में हाथ से चलने वाले जनरेटर का प्रयोग किया गया, इसी दौरान यहां एक स्थायी मंच 16 का निर्माण किया गया. 1976 में रामलीला का विद्युतीकरण हुआ तथा 2001 से यहां एक बंद प्रेक्षाग्रह के अन्दर रामलीला होती है. यहाँ रामलीला का मंचन दिन में किया जाता है.
गढ़वाल के श्रीक्षेत्र श्रीनगर में रामलीला प्रारंभ करने का श्रेय प्रसिद्ध कवि, गाायक, देवीभक्त अम्बाशायर को जाता है. अम्बाशायर की 17 कविताओं में कई रामलीला की धुनों का समावेश किया जाता रहा. श्रीनगर में रामलीला का प्रारम्भ 1896 से माना जाता है. भाष्करानंद मैठाणी, मुंशीराम थपलियाल, नत्थी केसवान, टीकेश्वरानंद, कामेश्वरानंद पाण्डेय आदि वे नाम हैं जिन्होंने 1920 के दशक से लेकर पीढ़ियों तक विभिन्न 18 चरित्रों को जीवंत किया. भाष्करानंद मैठाणी 50 वर्षों तक रामलीला कमेटी के अध्यक्ष पद पर रहे. यहां 1896 से 1907 तक रामलीला प्राचीन हनुमान मन्दिर के पास नागेश्वर गली में होती थी, 1907 से 1910 तक रामलीला कंसमर्दिनी मंदिर में हुई, 1910 से लगातार वर्तमान समय तक 19 20 रामलीला, रामलीला मैदान में आयोजित की जाती रही. यहां रामलीला का विद्युतीकरण 1971 में हुआ. श्रीनगर के समीप स्थित सुमाड़ी गांव में भी रामलीला एक शताब्दी को पूर्ण कर चुकी है.
उत्तराखंड में मंचित होने वाली विभिन्न रामलीलाओं में कई पटकथायें प्रयोग में लाई जाती हैं. जैसे- तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस‘, वाल्मीकि कृत ‘रामायण‘, बी.डी.जोशी कृत ‘आदर्श रामलीला नाटक‘, अनुसूया प्रसाद काला संग्रहकृत ‘रामलीला रामायण‘, यशवंत सिंह कृत ‘आर्य संगीत रामायण‘, राधेश्याम का ‘रामलीला नाटक‘, छम्मीलाल ढौंडियाल कृत ‘श्री सम्पूर्ण रामलीला अभिनय‘, शिवचरण पाण्डे सम्पादित ‘कुंमाउनी रामलीला गीत नाटिका‘, सरदार यशवंत सिंह वर्मा लिखित 21 ‘आर्य संगीत रामायण‘, और गुणानन्द पथिक रचित ‘गढ़भाषा लीला रामायण‘ प्रमुख हैं.
उत्तराखंड में रामलीला की समृद्ध परंपरा होने के कारण रामचरितमानस के कथानक पर आधारित रामलीला के सभी चरित्र दर्शकों के मन के साथ जुड़े हैं. रामचरितमानस की अवधी भाषा सबकी समझ में आ जाती है. इसके साथ-साथ कुछ पद अलग से बनाकर भी रामलीला में प्रयुक्त किये जाते हैं. इसमें दोहा, चैपाई, प्रमुख हैं. गद्य संवाद बहुत ही कम होते हैं.
(History of Ramlila in Garhwal)
कुमाऊं में मुनस्यारी के क्षेत्र में कुंमाउनी भाषा में तथा गढ़वाल में टिहरी एवं उत्तरकाशी के क्षेत्रों में गढ़वाली भाषा में रामलीला होती है, जिसका श्रेय ब्रजेन्द्र लाल शाह को जाता है. पचास के दशक में इन्होंने पूरे क्षेत्र में घूमकर लोकगीतों व लोकधुनों का संकलन करके लोकभाषा में 22 रामलीला तैयार की. रामचरितमानस के आधार पर इन्होंने 480 कुमांउनी तथा 480 गढ़वाली गीतों में राम जन्म से लेकर राज्याभिषेक तक की पूरी रामलीला लिख डाली जो मुनस्यारी, थल, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, बागेश्वर, रानीखेत, उत्तरकाशी, जोशीमठ, गौचर आदि स्थानों की रामलीला का 23 आधार है.
पौड़ी गढ़वाल में पौड़ी, लैंसडाउन, कोट्द्वार, सुमाड़ी, देवप्रयाग जैसे स्थानों में रामचरितमानस के साथ ही छम्मीलाल ढौंडियाल द्वारा रचित सम्पूर्ण रामलीला भी बहुप्रचलित है. यह पुस्तक गेय शैली की रामलीला को भी समृद्ध करती है. यह गढ़वाल से बाहर भी लोकप्रिय है. समय-समय पर स्थान विशेष में संगीतज्ञों द्वारा स्क्रिप्ट में परिवर्तन भी परिलक्षित होता है.
गुणानन्द पथिक की गढ़वाली लीला रामायण पूर्णतः गढ़वाली में रचित है. इन्होंने अपने सहयोगियों के साथ 1977 में पहली बार गढ़वाली में रामलीला का सफल मंचन किया. समय के साथ यह गढ़वाल के अनेक गांवों में लोकप्रिय हुई. गढ़वाली, कुंमाउनी, ब्रज, पंजाबी, उर्दू, अवधी इत्यादि भाषा तथा बोलियों के शब्द भी स्क्रिप्ट में समय समय पर संगीतज्ञों द्वारा जोड़ दिये गये. 1947 में देश के आजाद होने पर पौड़ी रामलीला में मथुरा प्रसाद जी ने राम पर आधारित गीत को स्क्रिप्ट 24 में जोड़ा जो स्वतंत्रता प्राप्ति की याद दिलाता है तथा आज भी रामलीला में गाया जाता है. स्क्रिप्ट में स्थानीय जनता की समझ के अनुसार परिवर्तन किये जाते हैं, जिसे प्रत्येक वर्ग आसानी से आत्मसात कर सके.
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डी. पी. सकलानी
गढ़वाल में रामलीला के मंचन से जुड़ा यह लेख डी. पी. सकलानी द्वारा लिखा गया है. डी. पी. सकलानी हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर में इतिहास और पुरातत्व विभाग में प्रोफेसर हैं.
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