हल्द्वानी शहर में विभिन्न सांस्कृतिक टोलियों के साथ बागेश्वर, सालम, जागेश्वर आदि स्थानों से पारम्परिक वाद्ययन्त्रों के साथ कलाकारों को आमंत्रित किया गया. एक बात यहां ध्यान देने की यह भी है कि पर्वतीय क्षेत्र के इन उपेक्षित पारम्परिक लोक कलाकारों को तब तक न सरकारी कार्यक्रमों में आमंत्रित किया जाता था और न किसी अन्य आयोजन में. इसके बाद इन्हें एक पहचान मिली और उनका संस्कृति विभाग द्वारा भी पंजीकरण किया जाने लगा. उन दिनों चांदी खेत चैखुटिया में जन्में सौंग एंड ड्रामा डिवीजन नैनीताल में कार्यरत गोपाल बाबू गोस्वामी के गीत भी लोगों को प्रभावित कर रहे थे इसलिए उन्हें भी आमंत्रित किया गया था. इतने बड़े जनसम्पर्क के बाद भी बैठकों में हमेशा यह आशंका जताई जाती थी कि पहाड़ के लोग एकत्रित नहीं हो सकते है. लेकिन तैयारियां बहुत की गई थी. (Parvatiy Sanskratik Utthan Manch)
आखिर 14 जनवरी 1982 का वह दिन भी आ गया, जब भगवान भाष्कर उत्तरायण में प्रवेश करने वाले थे. तब संस्था के पास अपना ऐसा कोई स्थान भी नहीं था जहां कार्यक्रम का आयोजन हो सके. हल्द्वानी रामलीला मैदान से आयोजन तय किया गया. मैं प्रातः ही एक सन्दूक में आवश्यक सामग्री लेकर रामलीला मैदान पहुंच गया. उधर से गुजरने वालों ने जब मुझे वहां देखा तो आपस में बातें करते हुए कहने लगे कि आज पहाड़ियों का कोई मेला है, यह आदमी कुछ सामान लेकर बेचने आया होगा. मैं बहुत देर तक अकेला खड़ा रहा और सोचने लगा कि यदि लोग नहीं जुट पाए तो क्या होगा.
इतने में ही एक-दो लोग और आ गए. बातें चल रही रही थी कि धीरे-धीरे दस-बीस पचास और पूरा मैदान खचाखच भर गया. नगर की परिक्रमा करती लगभग 2-3 किमी लम्बी भीड़ जब सड़कों पर नाचती-कूदती निकल आयी तो सहज ही विश्वास नहीं हुआ. इस रैली में आगे-आगे मस्ती से चल रहा हाथी, केसरिया पाग पहने सात घुड़सवार और उनके पीछे कुमाऊनी लोकगीत-नृत्य के साथ महिला-पुरूष, ग्रामीण अंचलों से शामिल हुई सांस्कृतिक झांकियां, अपनी धुन में थिरकते युवक-युवतियां और भूली-बिसरी यादों को ताजा करते वृद्ध इस रैली में शामिल हो गए. मार्ग के दोनों ओर स्वागत के लिए उमड़ आया जनसैलाब आश्चर्य में डालने वाला था.
लगता था कि एक मुद्दत से अपने अन्दर दबी भावनाओं को लोग रोक नहीं पा रहे हैं. इस विशाल रैली ने जहां राजनैतिक क्षेत्रों में हलचल पैदा कर दी वहीं प्रशासन के कान भी चौकन्ने हो उठे. जब कि इस रैली का किसी प्रकार की राजनीति से कोई सम्बंध नहीं था. प्रशासनिक क्षेत्र में हलचल होना स्वाभाविक भी लगता है, क्योंकि अधिकारियों को लगा कि इतना भारी जनसमूह जिस सांस्कृतिक उद्देश्य की बात को लेकर एकत्रित हुआ है, कहीं उसका दूसरा उद्देश्य तो नहीं है. गुप्तचर विभाग के हाथ भी इसके अलावा कुछ नहीं लग पाया कि पूरी रैली मात्र एक सांस्कृतिक आयोजन था.
ग्राम्यांचलों से आए लोग सांस्कृतिक पुनर्जागरण के इस प्रयोग में बडे हर्षोल्लास के साथ सम्मिलित हुए. हल्द्वानी के इतिहास में इस तरह का यह पहला आयोजन था. रैली को कुमाउंनी भाषा में सम्बोधित करते हुए कार्यक्रम संयोजक बलवन्त सिंह चुफाल ने कहा कि ‘हमें इस सांस्कृतिक प्रदर्शन की जरूरत मनोवैज्ञानिक दबाव के कारण पड़ी है. उन्हेांने कहा कि इस क्षेत्र में विभिन्न धर्मावलम्बी व क्षेत्रों से आये हुए लोग निवास करते हैं. उनमें राष्ट्रीय एकता, भाईचारा, प्रेम,सौहार्द की भावना होनी चाहिए थी. हम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के निवासी है. हमारा अधिकार है कि हम अपनी धार्मिक भावनाओं केा अपनी हद के अन्दर मानते हुए कौमी एकता को आम जीवन में लायें और एक सशक्त राष्ट्र के निर्माण की दिशा निर्धारित करें.
विपरीत इसके शक्ति परीक्षण के तहत जब अन्य कौमों ने हद से बाहर आकर अपनी धार्मिक व क्षेत्रीय भावनाओं को सड़कों पर ला दिया तो हमें मजबूर होकर अपनी सांस्कृतिक एकता को सड़कों पर लाना पड़ा. उन्होंने चेतावनी देते हुए यह भी कहा कि राजनेताओं और समाज के ठेकेदारों का यही प्रयास रहा है कि आपस में बिखराव बना रहे. उनका कौमी एकता का नारा एकदम खोखला है. उनके द्वारा इस नारे का प्रयोग मात्र अपनी बरकरारी के लिए किया जाता है.”
इसी दौरान संस्था को पंजीकृत करने की भी कार्यवाही शुरू हुई किन्तु इसका नाम ‘पर्वतीय सांस्कृतिक एकता मंच’ के स्थान पर ‘पर्वतीय सांस्कृतिक उत्थान मंच’ रखना पड़ा. संस्था की प्रथम कार्यकारिणी में संरक्षक ललित मोहन भट्ट एडवोकेट, अध्यक्ष बलवन्त सिंह चुफाल, उपाध्यक्ष केडी ब्लयूटिया व शेर सिंह नौलिया, महासचिव आनन्द बल्लभ उप्रेती, संगठन सचिव प्रदीप साह, कोषाध्यक्ष शेर सिंह बोरा, आय-व्यय निरीक्षक किरन चन्द्र पांडे तथा प्रेम सिंह अधिकारी, भुवन चन्द्र जोशी सहित 21 कार्यकारिणी सदस्य रहे. संगठन को मजबूत व प्रभावशाली बनाए रखने के लिए आपस में रोज ही मिलने का सिलसिला शुरू हो गया. समाज की अनेक समस्याओं को सुलझाने में सहयोग दिया जाने लगा.
तब यह भी सोचा जाने लगा कि शहर में संस्था का अपना कोई स्थायी कार्यालय और कार्यक्रमों को संचालित करने के लिए एक निश्चित स्थान हो. प्रशासन से कई बार आग्रह किया गया कि कोई ऐसा स्थान उपलब्ध कराये जहां से यहां की सांस्कृतिक गतिविधियां संचालित की जा सकें, जनप्रतिनिधियों से भी कई बार आग्रह किया. किन्तु किसी ने गम्भीरता से इस बात पर ध्यान नहीं दिया.
संस्था के साथ जुड़े नैनीताल के कुछ सदस्यों ने चाहा कि इस वर्ष नन्दादेवी का मेला भी यादगार बनाया जाए और उन लोगों ने पर्वतीय सांस्कृतिक उत्थान मंच के बैनर तले प्रचार शुरू किया. उस मेले में हल्द्वानी से भी हजारों महिला पुरूषों ने भागीदारी कर नैनीताल वासियों को चौंका दिया. लगातार दो वर्ष तक इस तरह का आयोजन होता रहा किन्तु युवा पीढ़ी की उच्छृंखला के भय से बाद में भागीदारी खत्म कर दी गयी.
इसी बीच संस्था की कार्यकारिणी के सदस्य व भूतपूर्व सैनिक संगठन के सचिव आनन्द बाग निवासी खीम सिंह बिष्ट ने तहसील क्वार्टरों के पीछे की खाली भूमि अपनी बताते हुए संस्था के नाम पांच रुपये के स्टाम्प पेपर पर कार्यालय बनाने के लिए लिख कर दे दी. दरअसल आनन्द बाग सहित तमाम थाना परिसर, तहसील क्वार्टर और आसपास की भूमि चामूसिुह नाम के एक व्यक्ति के नाम अवार्डेड भूमि थी. चामू सिंह तो रहे नहीं लेकिन उनके रिश्तेदारों ने आपसी बटवारे व समझौते आदि से वह बंटती चली गई.
पुलिस व प्रशासन का कब्जा भी उस भूमि पर होता रहा और कालान्तर में मालिकाना हक तय कर पाना भी कठिन हो गया. खीम सिंह बिष्ट उस भूमि को अपना बताते थे और प्रशासन उसे अपना बताता था. दरअसल हल्द्वानी की भूमि इस तरह के कई विवादों से घिरी पड़ी है. इस पर अन्यत्र भी चर्चा की जा चुकी है.
बहरहाल संस्था ने उक्त भूमि पर अपना कार्यालय बनाने की कार्यवाही शुरू कर दी. निर्माण सामग्री एकत्रित होने लगी और मध्य में नीम के पेड़ के नीचे गोल्ज्यू के थान की स्थापना की गई और शिवपुराण का आयोजन शुरू कर दिया गया ताकि श्रद्धालु लोग आकर अपनी सहभागिता कर सकें. इस अप्रत्याशित घटना से प्रशासन में खलबली मच गई तीन-चार दिन तक प्रशासनिक अधिकारियों और मंच के पदाधिकारियों के बीच संवाद चलता रहा. किन्तु पांचवें दिन भारी पुलिस बल की घेराबन्दी के साथ वहां उपस्थित 12 लोगों से कहा गया कि वे गिरफ्तार किए जाते हैं.
गिरफ्तार लोगों के बीच आपसी मंत्रणा में तय हुआ कि अब तो आन्दोलन ही करना पड़ेगा इस लिए बलवन्त सिंह चुफाल को गिरफ्तारी से बच कर निकल जाना चाहिए और मेरे पास कई प्रकार का हिसाब-किताब रखा हुआ था. इसलिए मुझे भी पुलिस के घेरे से बाहर चला जाना चाहिए. इस तरह बचे 10 लोगों को धारा 144 के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया, सारा सामान जब्त कर लिया गया और धार्मिक कार्यक्रम भी खंडित होकर रह गया.
पुलिस जिस दंगे की आशंका से लाठी-बंदूक सभाले नगर में घूमती रही, वह नहीं हुआ. किन्तु शांतिपूर्ण विरोध इतना प्रबल हो उठा कि संस्था के आह्वान पर हल्द्वानी नगर तो पूर्ण बन्द रहा ही साथ ही नैनीताल, अल्मोड़ा, रामनगर, कालाढूंगी, भवाली आदि छोटे-छोटे कस्बे तक विरोध में पूर्ण बन्द रहे और गिरफ्तारी देने वालों के जत्थे के जत्थे गाँव-गाँव, शहर-शहर से हल्द्वानी थाने में पहुंचने लगे.
पुलिस ने 195 लोगों को तो गिरफ्तार कर लिया किन्तु बाद में उसने गिरफ्तार करना ही बन्द कर दिया. खुफियातंत्र इस आंदालन के संचालन के मूल को तलाशता रहा किन्तु उसे निराशा ही हाथ लगी. उसने तो यहां तक अपनी मंशा जाहिर कर दी कि आन्दोलनकारी उग्र हो सकते हैं, किन्तु एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की लड़ाई उग्र नहीं हो सकती यह वे नहीं सोच सकते थे. इस शान्तिपूर्ण विरोध के समक्ष अन्ततः प्रशासन को झुकना पड़ा. जिले के उच्च प्रशासनिक व पुलिस अधिकारी लोक निर्माण विभाग के विश्रामगृह में एकत्रित हुए और विचार विमर्श के बाद उन्हेांने संस्था के अध्यक्ष बलवंत सिंह चुफाल को वार्ता के लिए बुलवाया.
कई ऐसे सवाल जवाब प्रशासन व बलवन्त सिंह चुफाल के बीच होते रहे और प्रशासन को उनके सवालों के सामने झुकना पड़ा. यह 2 दिसम्बर 1982 की रात्रि का समय था, तकरीबन रात्रि 2 बजे संस्था की कार्यकारिणी के सदस्य प्रेम सिंह अधिकारी मुझे तलाशते हुए मेरे आवास पर पहुंचे और मुझे संस्था के सम्बंध में आवश्यक पत्रों आदि को लेकर वार्ता स्थल पर पहुंचने को कहा. प्रशासनिक अधिकारियों ने आन्दोलन वापिस लेने की अपील की. आन्दोलन इस शर्त के साथ वापिस लेने पर सहमति हुई कि प्रशासन प्रदेश सरकार से प्रस्ताव व वार्ता करके मंच के विरुद्ध लगाये गये मुकदमे वापस लेगा. प्रशासन ने मंच का स्वामित्व भी स्वीकार लिया.
इसके अलावा कहा गया कि हीरानगर में दो एकड़ भूमि मंच को देने का प्रस्ताव भी शासन को भेजा जाएगा. इस तरह आन्दोलन भी समाप्त हो गया और उक्त् भूमि पर बने गोल्ज्यू थान में सुबह-शाम दिया जलाने के लिए प्रेमसिंह नामक एक लड़के को रखा गया और हीरानगर में कब्जा करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई.
हीरानगर जिसे पहले शीशमबाग के नाम से जाना जाता था, को डिफौरेस्टेशन कर गवर्नमेंट कोआपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी को आवासीय भवनों के लिए आवंटित किया गया था. बाद में पालिका से जनसुविधा की अपेक्षा रखते हुए तत्कालीन बोर्ड के अध्यक्ष हीराबल्लभ बेलवाल के नाम पर इस स्थान का नाम हीरानगर कर दिया गया. इस आवासीय कालोनी के मध्य बेकार सा पड़ा एक टीला था, जहां कंटीली झाड़ियां उगी हुई थी. खरगोश, सियार, नेवले और सांपों का निर्द्वंद राज था इसी टीले की भूमि को प्रशासन ने देने का प्रस्ताव शासन का भेजने का वायदा किया था. संस्था के लोग अपनी सफलता पर बहुत खुश थे किन्तु इस टीले को चैरस बना कर काबिज होना आसान नहीं था.
तब आज की जैसी आधुनिक मशीनें भी नहीं थी. जमरानी बांध परियोजना के अन्तर्गत एक बुलडोजर यहां कैनाल विभाग में रखा था. उसे 300 रुपया प्रति घंटा के हिसाब से लिया गया. नगर के बहुत से लोगों को इस बात पर विश्वास नहीं था कि इतनी बड़ी जमीन यों ही संस्था के कब्जे में कैसे आ सकती है. बहरहाल अध्यक्ष बलवन्त सिंह चुफाल सहित कुई पदाधिकारी और सदस्यगण उस टीले के पास खड़े हो गए और मैं बुलडोजन लेकर टीले को मैदान करवाने लगा.
यह प्रक्रिया दो बार दोहराई गई. किन्तु पूरी तरह चौरस नहीं किया जा सका. लोगों के मन में इतनी बड़ी सफलता के बाद भी एक भय था और हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे थे कि इसे चैरस करने में मदद करें. होमगार्ड कप्तान दिलीप सिंह ने कई दिन तक अपना ट्रैक्टर लगवा कर मैदान को चौरस करवाया और होमगार्ड के जवानों को उसमें बिखरे पत्थरों को समेटने में लगा दिया.
संस्थान को स्थान तो मिल गया किन्तु समस्या वहां भवन निर्माण की थी. बहरहाल बलवंत सिंह चुफाल के नेतृत्व कें जहां मेला आयोजन के लिए बाजार से चन्दा किया जाता था वहीं कुछ समर्थवान लोगों से आग्रह किया गया कि वे सहयोग करें. पहाड़वासियों से और पहाड़वासियों के नाम पर धन एकत्रित करना इतना आसान काम नहीं था. लोगों के पास मुफ्त के सुझाव और सवाल-जवाब अनगिनत थे, समस्याओं का अम्बार था किन्तु आर्थिक सहायता के नाम पर अपनी मजबूरियों का रोना था.
इस प्रक्रिया पर बहुत अच्छे-बुरे अनुभवों से संस्था को गुजरना पड़ा. ऐसी बात भी नहीं है बहुत से लोगों ने अच्छा सहयोग दिया लेकिन इस संस्था के भवन निर्माण में पहाड़वासियों से अधिक धन अन्य लोगों का लगा. पहाड़वासियसों की संस्था के नाम पर इतना धन एकत्रित कर पाना बलवन्त सिंह चुफाल के नेतृत्व का ही कमाल था.
कहते हैं ‘मुड़े-तुड़े मतिर्भिन्ना’ लोग संस्था के साथ जुड़ते रहे, अलग होते रहे. कुछ लोग सोचते थे कि यह कुछ दबंगों का एक गिरोह है जो उनके गलत-सही में साथ दे सकता है. जिन्होंने मंच को मात्र पर्वतीय लोगों के गलत या सही किसी भी कार्य के लिए अपना मोहरा बनाने का प्रयास किया उन्हें स्वतः ही आभास हो गया कि यह एक विशुद्ध गैर राजनैतिक व सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था है. समाज में हर वर्ग, जाति, धर्म के लोगों में प्रेम, सद्भावना बनी रहे ओर सभी तरक्की करें यही उद्देश्य संस्था का रहा किसी प्रकार की राजनीति से इसका कोई संबंध नहीं था.
किसी वर्ग या व्यक्ति को मात्र उसके स्वार्थों की पूर्ति के लिए खुश रखना मंच का उद्देश्य इसलिए नहीं रहा, क्योंकि उसने वोटों की राजनीति नहीं करनी थी. सस्था के संविधान में यह साफ तौर पर कहा गया था कि मंच का कोई भी पदाधिकारी किसी भी सामाजिक व राजनैतिक संगठन में पद ग्रहण नहीं कर सकता है. बहरहाल संस्था ने कई ऐसे मामलों को सुलझाने का प्रयास जरूर किया. जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि लोगों के अपने-अपने मत होते हैं. कोई कहता कि हमें नारायण दत्त तिवारी से मिलना चाहिए था, कोई कहता केसी पन्त से मिलना चाहिए था. लोगों के अपने-अपने राजनैतिक अराध्य होते हैं वे संस्था से अधिक उन्हें महत्व देते हैं और यहीं से मामला गड़बड़ा जाता है.
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जब कि इस गैर राजनैतिक संस्था मे बड़े से बड़े नेता को भी समाज का एक साधारण सदस्य मानकर भागीदारी करनी चाहिए थी और अपनी हैसियत के मुताबिक सहयोग दिया जाना चाहिए था. किन्तु राजनेता हमेशा अपने राजनैतिक लाभ केा अधिक महत्व देते हैं. दरअसल राजनैतिक क्षेत्र में भी इस रैली का प्रभाव पड़ा था. यह जानते हुए भी कि संस्था गैर राजनीतिक है उन्हें घबराहट होने लगी और तोड़-फोड़ के हथकंडे भी अपनाए जाने लगे. जब भी दूसरों के कहे पर संस्था के पदाधिकारी इन राजनेताओं से मिलने जाते तब वे समझने लगते कि ‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे.’
यही ना समझी संस्था को उसके मूल उद्देश्यों से भटकाती रही. सामाजिक संस्था में सबको अपने विचार रखने का हक होता है किन्तु वर्तमान में यही हक राजनीति से अधिक प्रभावित होने लगा है और हर व्यक्ति चाहता है कि दूसरे भी उसी की राजनीति का अनुसरण करें. संस्था द्वारा एक बहुआयामी कलात्मक प्रदर्शन के लिए जिस तरह का रंगमंच बनाया गया उसका सही उपयोग इसी लिएि नहीं हो पाया, न पुस्तकालय की योजना को मूर्त रूप दिया जा सका न कोई स्थायी आमदनी का जरिया बन पाया.
समाज की दरियादिली का हाल यह था कि एक बार उत्तरायणी के जलूस में एक दानपात्र रखा गया शाम को खोले जाने पर उसमें मात्र 3 रुपये 15 पैसे मिले. लिहाजा नए निर्माणों और संस्था के खर्च के लिए बिवाह-शादियों में किराए पर इस रंगशाला को दिया जाने लगा. संस्था को अपना समझे जाने का हाल यह था कि जिसकी मर्जी जहां से चाहे बिजली के तार काट कर अपना काम चला ले, जहां चाहे तोड़-फोड़ कर दे.
इस तरह की बेदर्दी से बहुत कष्ट पहुंचता था. ब्याह-शादियों के लिए प्रारम्भ में मात्र सौ रुपये रोज पर इस स्थान को दिया जाने लगा किन्तु बारात के बाद यहां सफाई करने में ही सौ रुपये से अधिक खर्च आने लगा. बारात के लिए बर्तन मात्र ढाई सौ रुपये में उपलब्ध कराये जाते थे, किन्तु बर्तनों की सलामती के साथ वापसी कभी नहीं हो सकी. थाली, गिलास, डेग आदि आकार में छोटे होने लगे.
यहां तक कि एक बात तो पीतल की एक बड़ी बाल्टी कमण्डल के रूप में वापस मिली. संस्था के पदाधिकारियों विशेषतः अध्यक्ष को विचलित करने के लिए तमाम कारक ऐसे थे जो स्वयं अध्यक्ष को विरोधाभासी निर्णय लेने के लिए मजबूर कर देते थे. इसका परिणाम यह हुआ कि एक गैर राजनैतिक संस्था, जिसने अपने ही संरक्षक ललित मोहन भट्ट को इस लिए संस्था से अलग कर दिया कि उन्होंने विधानसभा चुनावों में नामांकन पत्र दाखिल करने की भूल कर दी. संस्था का अध्यक्ष राजनीति में भटक गया. संस्था के अध्यक्ष बलवंत सिंह चुफाल कभी नारायण दत्त तिवारी को संस्था का संरक्षक घोषित कर देते, कभी इन्दिरा हृदयेश को, कभी हरीश रावत को कभी नारायण पाल को.
वे कभी उत्तराखण्ड क्रांति दल का संरक्षक बन जाते, कभी कांग्रेस पार्टी के जिलाध्यक्ष की कुर्सी सभाल लेते, कभी मुलायम सिंह यादव से हाथ मिला लेते, कभी चुनाव मैदान में उतर जाते, कभी बसपा के साथ चले जाते और कभी इन सबको दुत्कार देते. सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित करने वाले लोग ही कहने लगे कि उन्हें राजनीति से अलग रहना चाहिए था. गैर राजनैतिक संस्था को राजनीति में घसीट दिया, वगैरह-वगैरह.
एक बार निर्णय लिया गया कि लोग स्वेच्छा से संस्था की सदस्यता ग्रहण करने नहीं आ पाते हैं, लिहाजा शहर के आस-पास के गांवों-मोहल्लों में जाकर सदस्य बनाया जाए. 29 दिन तक प्रातः 10 बजे से शाम तक यह अभियान चलाया गया. संस्था के अध्यक्ष सहित तमाम पदाधिकारी अपना कारोबार छोड़ कर इस कार्य में जुट गए. इस अभियान में दो बातें सामने आयीं. दिन में अधिकांश घरों के लोग अपने काम पर चले जाते कुछ वृद्ध, महिलायें ओर बच्चे ही घरों में मिलते. मात्र दो रुपये सदस्यता शुल्क रखा गया था.
बहुत से लोगों को समझाने के लिए जब यह कहा जाता कि हम सब अपना कारोबार छोड़ कर दो रुपये सदस्यता के नाम पर इस लिए मांगने आए हैं ताकि संस्था के साथ जुड़ाव हो, किन्तु इस पर कुछ लोग शंका जाहिर करते हुए कह देते कि तुम खाली क्या लगे हो, कुछ तो लेते ही होगे. दूसरी बात यह कि सदस्यता भरते समय हम घर के मुखिया का नाम और उसके पिता का नाम पूछते. ताज्जुब तो तब लगा कि अधिकांश महिलायें अपने ससुर और बच्चे अपने दादा के नाम से परिचित नहीं थे. हमारा समाज कहां जा रहा है इससे साफ जाहिर होता है.
20 वर्ष तक मैं संस्था के महामंत्री पद पर रहा. इस बीच संस्था के लिए समर्पित रूप से काम करने वाले लोगों से भी परिचय हुआ और निजी स्वार्थों के लिए आने वाले लोगों से भी. बहरहाल हल्द्वानी के इतिहास में इस संस्था का अपना एक महत्व रहा है.
बियावान जंगलों के बीच छुट पुट बसासतों के बाद बाग-बगीचों से भरपूर नैसर्गिक छटाओं को बिखेरती कल-कल, छल-छल करती नहरों के साथ एक गांव के रूप में बसी हल्द्वानी जहां सभी धर्मों, सम्प्रदायों, विभिन्न भाषा-भाषियों को अपने में समेटती कसबे के रूप में विकसित हुई, वहीं अब बदलती वैश्विक हवा के साथ महानगर के रूप में तब्दील होती जा रही है. संक्षिप्त में कहा जाए तो अब यहां का सब कुछ हाईटेक हो गया है. शिक्षा, चिकित्सा, विकास के मापदंड, आचार-विचार और व्यवहार यहां तक कि धार्मिक व सांस्कृतिक परम्परायें, आपराधिक प्रवृत्तियां और राजनैतिक सोच भी.
तेज रफ्तार से बही जा रही इस हाइटेक आंधी में ठहर कर सोचना आसान नहीं रहा गया है ठहर कर सोचने का अर्थ है दब कर समाप्त हो जाना. हर युग की पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी द्वारा अपनाए जा रहे किसी भी बदलाव को सहज से हजम नहीं कर पाती है. इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता है. लेकिन आंधी की यह तेज रफ्तार बहुत कुछ ऐसा मिटाती जा रही है जो हमारे अस्तित्व के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. इस लिए जरूरत इस बात की है कि इस तेज रफ्तार आंधी के बीच भी ठहर कर विचार किया जाए.
(स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर)
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