कला साहित्य

दहलीज: निर्मल वर्मा की कहानी

पिछली रात रूनी को लगा कि इतने बरसों बाद कोई पुराना सपना धीमे क़दमों से उसके पास चला आया है, वही बंगला था, अलग कोने में पत्तों से घिरा हुआ… वह धीरे-धीरे फाटक के भीतर घुसी है… मौन की अथाह गहराई में लॉन डूबा है… शुरू मार्च की बसंती हवा घास को सिहरा-सहला जाती है… बहुत बरसों पहले के एक रिकार्ड की धुन छतरी के नीचे से आ रही है… ताश के पत्ते घास पर बिखरे हैं… लगता है, जैसे शम्मी भाई अभी खिलखिलाकर हंस देंगे और आपा (बरसों पहले, जिनका नाम जेली था) बंगले के पिछवाड़े क्यारियों को खोदती हुई पूछेगी-रूनी, ज़रा मेरे हाथों को तो देख, कितने लाल हो गए हैं! (Story by Nirmal Verma)

इतने बरसों बाद रूनी को लगा कि वह बंगले के सामने खड़ी है और सबकुछ वैसा ही है, जैसा कभी बरसों पहले, मार्च के एक दिन की तरह था… कुछ भी नहीं बदला, वही बंगला है, मार्च की खुश्क, गरम हवा सायं-सायं करती चली आ रही है, सूनी-सी दुपहर को परदे के रिंग धीमे-धीमे खनखना जाते हैं… और वह घास पर लेटी है… बस, अब अगर मैं मर जाऊं, उसने उस घड़ी सोचा था.

लेकिन वह दुपहर ऐसी न थी कि केवल चाहने-भर से कोई मर जाता. लॉन के कोने में तीन पेड़ों का झुरमुट था, ऊपर की फुनगियां एक-दूसरे से बार-बार उलझ जाती थीं. हवा चलने से उनके बीच आकाश की नीली फांक कभी मुंद जाती थी, कभी खुल जाती थी. बंगले की छत पर लगे एरियल-पोल के तार को देखो, (देखो तो घास पर लेटकर अधमुंदी आंखों से रूनी ऐसे ही देखती है) तो लगता है, कैसे वह हिल रहा है हौले-हौले… अनझिप आंखों से देखो, (पलक बिलकुल न मूंदो, चाहे आंखों में आंसू भर जाएं तो भी… रूनी ऐसे ही देखती है) तो लगता है, जैसे तार बीच में से कटता जा रहा है और दो कटे हुए तारों के बीच आकाश की नीली फांक आंसू की सतह पर हल्के-हल्के तैरने लगती है…

हर शनिवार की प्रतीक्षा हफ़्ते-भर की जाती है. …वह जेली को अपने स्टांप-एल्बम के पन्ने खोलकर दिखलाती है और जेली अपनी किताब से आंखें उठाकर पूछती है-अर्जेन्टाइना कहां है? सुमात्रा कहां है? …वह जेली के प्रश्नों के पीछे फैली हुई असीम दूरियों के धूमिल छोर पर आ खड़ी होती है. …हर रोज़ नए-नए देशों के टिकटों से एल्बम के पन्ने भरते जाते हैं, और जब शनिवार की दुपहर को शम्मी भाई होस्टल से आते हैं, तो जेली कुर्सी से उठ खड़ी होती है, उसकी आंखों में एक घुली-घुली-सी ज्योति निखर आती है और वह रूनी के कंधे झिंझोड़कर कहती है-जा, ज़रा भीतर से ग्रामोफ़ोन तो ले आ.

रूनी क्षण-भर रुकती है, वह जाए या वहीं खड़ी रहे? जेली उसकी बड़ी बहन है, उसके और जेली के बीच बहुत-से वर्षों का सूना, लंबा फ़ासला है. उस फ़ासले के दूसरे छोर पर जेली है, शम्मी भाई हैं, वह उन दोनों में से किसी को नहीं छू सकती. वे दोनों उससे अलग जीते हैं. …ग्रामोफ़ोन महज़ एक बहाना है, उसे भेजकर जेली शम्मी भाई के संग अकेली रह जाएगी और तब… रूनी घास पर भाग रही है बंगले की तरफ़… पीली रोशनी में भीगी घास के तिनकों पर रेंगती हरी, गुलाबी धूप और दिल की धड़कन, हवा, दूर की हवा के मटियाले पंख एरियल-पोल को सहला जाते हैं सर्र-सर्र, और गिरती हुई लहरों की तरह झाड़ियां झुक जाती हैं. आंखों से फिसलकर वह बूंद पलकों की छांह में कांपती है, जैसे वह दिल की धड़कन है, जो पानी में उतर आई है.

शम्मी भाई जब होस्टल से आते हैं, तो वे सब उस शाम लॉन के बीचोंबीच कैनवास की पैराशूटनुमा छतरी के नीचे बैठते हैं. ग्रामोफ़ोन पुराने ज़माने का है. शम्मी भाई हर रिकार्ड के बाद चाभी देते हैं, जेली सुई बदलती है और वह, रूनी चुपचाप चाय पीती रहती है. जब कभी हवा का कोई तेज़ झोंका आता है, तो छतरी धीरे-धीरे डोलने लगती है, उसकी छाया चाय के बर्तनों, टीकोजी और जेली के सुनहरी बालों को हल्के-से बुहार जाती है और रूनी को लगता है कि किसी दिन हवा का इतना ज़बरदस्त झोंका आएगा कि छतरी धड़ाम से नीचे आ गिरेगी और वे तीनों उसके नीचे दब मरेंगे.

शम्मी भाई जब अपने होस्टल की बातें बताते हैं, तो वह और जेली विस्मय और कौतूहल से टुकुर-टुकुर उनके चेहरे, उनके हिलते हुए होंठों को निहारती हैं. रिश्ते में शम्मी भाई चाहे उनके कोई न लगते हों किंतु उनसे जान-पहचान इतनी पुरानी है कि अपने-पराए का अंतर कभी उनके बीच आया हो, याद नहीं पड़ता. होस्टल में जाने से पहले जब वह इस शहर में आए थे, तो अब्बा के कहने पर कुछ दिन उन्हीं के घर रहे थे. अब कभी वह शनिवार को उनके घर आते हैं, तो अपने संग जेली के लिए यूनिवर्सिटी लायब्रेरी से अंग्रेज़ी के उपन्यास और अपने मित्रों से मांगकर कुछ रिकार्ड लाना नहीं भूलते.

आज इतने बरसों बाद भी जब उसे शम्मी भाई के दिए हुए अजीब-ग़रीब नाम याद आते हैं, तो हंसी आए बिना नहीं रहती. उनकी नौकरानी मेहरू के नाम को चार चांद लगाकर शम्मी भाई ने उसे कब सदियों पहले की सुकुमार शहजादी मेहरुन्निसा बना दिया, कोई नहीं जानता. वह रेहाना से रूनी हो गई और आपा पहले बेबी बनी, उसके बाद जेली आइसक्रीम और आख़िर में बेचारी सिर्फ़ जेली बनकर रह गई. शम्मी भाई के नाम इतने बरसों बाद भी, लॉन की घास और बंगले की दीवारों से लिपटी बेल-लताओं की तरह, चिरंतन और अमर हैं.

ग्रामोफ़ोन के घूमते हुए तवे पर फूल-पत्तियां उग आती हैं, एक आवाज़ उन्हें अपने नरम, नंगे हाथों से पकड़कर हवा में बिखेर देती है, संगीत के सुर झाड़ियों में हवा से खेलते हैं, घास के नीचे सोई हुई भूरी मिट्टी पर तितली का नन्हा-सा दिल धड़कता है… मिट्टी और घास के बीच हवा का घोंसला कांपता है… कांपता है… और ताश के पत्तों पर जेली और शम्मी भाई के सिर झुकते हैं, उठते हैं, मानो वे दोनों चार आंखों से घिरी सांवली झील में एक-दूसरे की छायाएं देख रहे हों.

और शम्मी भाई जो बात कहते हैं, उस पर विश्वास करना, न करना कोई माने नहीं रखता. उनके सामने जैसे सबकुछ छूट जाता है, सबकुछ खो जाता है… और कुछ ऐसी चीजें हैं, जो चुप रहती हैं और जिन्हें जब रूनी रात को सोने से पहले सोचती है, तो लगता है कि कहीं एक गहरा, धुंधला-सा गड्ढा है, जिसके भीतर वह फिसलते-फिसलते बच जाती है, और नहीं गिरती है तो मोह रह जाता है न गिरने का. …और जेली पर रोना आता है, ग़ुस्सा आता है. जेली में क्या-कुछ है कि शम्मी भाई जो उसमें देखते हैं, वह रूनी में नहीं देखते? और जब शम्मी भाई जेली के संग रिकार्ड बजाते हैं, ताश खेलते हैं, (मेज के नीचे अपना पांव उसके पांव पर रख देते हैं) तो वह अपने कमरे की खिड़की के परदे के परे चुपचाप उन्हें देखती रहती है, जहां एक अजीब-सी मायावी रहस्यमयता में डूबा, झिलमिल-सा सपना है और परदे को खोलकर पीछे देखना, यह क्या कभी नहीं हो पाएगा?

मेरा भी एक रहस्य है जो ये नहीं जानते, कोई नहीं जानता. रूनी ने आंखें मूंदकर सोचा, मैं चाहूं तो कभी भी मर सकती हूं, उन तीन पेड़ों के झुरमुट के पीछे, ठंडी गीली घास पर, जहां से हवा में डोलता हुआ एरियल-पोल दिखाई देता है.

हवा में उड़ती हुई शम्मी भाई की टाई… उनका हाथ, जिसकी हर अंगुली के नीचे कोमल-सफ़ेद खाल पर लाल-लाल-से गड्ढे उभर आए थे, छोटे-छोटे चांद-से गड्ढे, जिन्हें अगर छुओ, मुट्ठी में भींचो, हल्के-हल्के से सहलाओ, तो कैसा लगेगा? सच कैसा लगेगा? किंतु शम्मी भाई को नहीं मालूम कि वह उनके हाथ को देख रही है, हवा में उड़ती हुई उनकी टाई, उनकी झिपझिपाती आंखों को देख रही है.

ऐसा क्यों लगता है कि एक अपरिचित डर की खट्टी-खट्टी-सी ख़ुशबू उसे अपने में धीरे-धीरे घेर रही है, उसके शरीर के एक-एक अंग की गांठ खुलती जा रही है, मन रुक जाता है और लगता है कि लॉन से बाहर निकलकर वह धरती के अंतिम छोर तक आ गई है और उसके परे केवल दिल की धड़कन है, जिसे सुनकर उसका सिर चकराने लगता है (क्या उसके संग ही यह होता है, या जेली के संग भी?)

-तुम्हारी एल्बम कहां है? शम्मी भाई धीरे-से उसके सामने आकर खड़े हो गए. उसने घबराकर शम्मी भाई की ओर देखा. वह मुस्करा रहे थे.

-जानती हो, इसमें क्या है? शम्मी भाई ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया. रूनी का दिल धौंकनी की तरह धड़कने लगा. शायद शम्मी भाई वही बात कहनेवाले हैं, जिसे वह अकेले में, रात को सोने से पहले कई बार मन-ही-मन सोच चुकी है. शायद इस लिफाफे के भीतर एक पत्र है, जो शम्मी भाई ने चुपके से उसके लिए, केवल उसके लिए लिखा है. उसकी गर्दन के नीचे फ्राक के भीतर से ऊपर उठती हुई कच्ची-सी गोलाइयों में मीठी-मीठी-सी सुइयां चुभ रही हैं, मानो शम्मी भाई की आवाज़ ने उसकी नंगी पसलियों को हौले-से उमेठ दिया हो. उसे लगा, चाय की केतली की टीकोजी पर जो लाल-नीली मछलियां काढ़ी गई हैं, वे अभी उछलकर हवा में तैरने लगेंगी और शम्मी भाई सबकुछ समझ जाएंगे… उनसे कुछ भी न छिपा रहेगा.

शम्मी भाई ने वह नीला लिफाफा मेज पर रख दिया और उसमें से टिकट निकालकर मेज पर बिखेर दिए.

-ये तुम्हारी एल्बम के लिए हैं…

वह एकाएक कुछ समझ नहीं सकी. उसे लगा, जैसे उसके गले में कुछ फंस गया है और उसकी पहली और दूसरी सांस के बीच एक ख़ाली अंधेरी खाई खुलती जा रही है…

जेली, जो माली के फावड़े से क्यारी खोदने में जुटी थी, उनके पास आकर खड़ी हो गई और अपनी हथेली हवा में फैलाकर बोली-देख, रूनी, मेरे हाथ कितने लाल हो गए हैं!

रूनी ने अपना मुंह फेर लिया. …वह रोएगी, बिलकुल रोएगी, चाहे जो कुछ हो जाए…

चाय ख़त्म हो गई थी. मेहरुन्निसा ताश और ग्रामोफ़ोन भीतर ले गई और जाते-जाते कह गई कि अब्बा उन सबको भीतर आने के लिए कह रहे हैं. किंतु रात होने में अभी देर थी, और शनिवार को इतनी जल्दी भीतर जाने के लिए किसी के मन में कोई उत्साह नहीं था. शम्मी भाई ने सुझाव दिया कि वे कुछ देर के लिए वाटर रिज़र्वायर तक घूमने चलें. उस प्रस्ताव पर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी. और वे कुछ ही मिनटों में बंगले की सीमा पार करके मैदान की ऊबड़खाबड़ जमीन पर चलने लगे.

चारों ओर दूर-दूर तक भूरी-सूखी मिट्टी के ऊंचे-नीचे टीलों और ढूहों के बीच बेरों की झाड़ियां थीं, छोटी-छोटी चट्टानों के बीच सूखी घास उग आई थी, सड़ते हुए पीले पत्तों से एक अजीब, नशीली-सी, बोझिल, कसैली गंध आ रही थी, धूप की मैली तहों पर बिखरी-बिखरी-सी हवा थी.

शम्मी भाई सहसा चलते-चलते ठिठक गए.

-रूनी कहां है?

-अभी तो हमारे आगे-आगे चल रही थी. जेली ने कहा. उसकी सांस ऊपर चढ़ती है और बीच में ही टूट जाती है.

दोनों की आंखें मैदान के चारों ओर घूमती हैं… मिट्टी के ढूहों पर पीली धूल उड़ती है. …लेकिन रूनी वहां नहीं है, बेर की सूखी, मटियाली झाड़ियां हवा में सरसराती हैं, लेकिन रूनी वहां नहीं है. …पीछे मुड़कर देखो, तो पगडंडियों के पीछे पेड़ों के झुरमुट में बंगला छिप गया है, लॉन की छतरी छिप गई है …केवल उनके शिखरों के पत्ते दिखाई देते हैं, और दूर ऊपर फुनगियों का हरापन सफ़ेद चांदी में पिघलने लगा है. धूप की सफेदी पत्तों से चांदी की बूंदों-सी टपक रही है.

वे दोनों चुप हैं… शम्मी भाई पेड़ की टहनी से पत्थरों के इर्द-गिर्द टेढ़ी-मेढ़ी आकृतियां खींच रहे हैं. जेली एक बड़े-से चौकोर पत्थर पर रूमाल बिछाकर बैठ गई है. दूर मैदान के किसी छोर से स्टोन-कटर मशीन का घरघराता स्वर सफ़ेद हवा में तिरता आता है, मुलायम रूई में ढकी हुई आवाज़ की तरह, जिसके नुकीले कोने झर गए हैं.

-तुम्हें यहां आना बुरा तो नहीं लगता?  शम्मी भाई ने धरती पर सिर झुकाए धीमे स्वर में पूछा.

-तुम झूठ बोले थे. जेली ने कहा.

-कैसा झूठ, जेली?

-तुमने बेचारी रूनी को बहकाया था, अब वह न जाने कहां हमें ढूंढ़ रही होगी!

-वह वाटर रिज़र्वायर की ओर गई होगी, कुछ ही देर में वापस आ जाएगी. शम्मी भाई उसकी ओर पीठ मोड़े टहनी से धरती पर कुछ लिख रहे हैं.

जेली की आंखों पर एक छोटा-सा बादल उमड़ आया है. क्या आज शाम कुछ नहीं होगा, क्या ज़िंदगी में कभी कुछ नहीं होगा? उसका दिल रबर के छल्ले की मानिंद खिंचता जा रहा है… खिंचता जा रहा है.

-शम्मी! …तुम यहां मेरे संग क्यों आए? और वह बीच में ही रुक गई. उसकी पलकों पर रह-रहकर एक नरम-सी आहट होती है और वे मुंद जाती हैं, अंगुलियां स्वयं-चालित-सी मुट्ठी में भिंच जाती हैं, फिर अवश-सी आप-ही-आप खुल जाती हैं.

-जेली, सुनो…

शम्मी भाई जिस टहनी से ज़मीन को कुरेद रहे थे, वह टहनी कांप रही है. शम्मी भाई के इन दो शब्दों के बीच कितने पत्थर हैं, बरसों, सदियों के पुराने, खामोश पत्थर, कितनी उदास हवा है और मार्च की धूप है, जो इतने बरसों बाद इस शाम को उनके पास आई है और फिर कभी नहीं लौटेगी. …शम्मी भाई! प्लीज़! …प्लीज़! …जो कुछ कहना है, अभी कह डालो, इसी क्षण कह डालो! क्या आज शाम कुछ नहीं होगा, क्या जि़ंदगी में कभी कुछ नहीं होगा?

वे बंगले की तरफ़ चलने लगे-ऊबड़खाबड़ धरती पर उनकी खामोश छायाएं ढलती हुई धूप में सिमटने लगीं. …ठहरो! बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी हुई रूनी के होंठ फड़क उठे, ठहरो… एक क्षण! लाल-भुरभुरे पत्तों की ओट में भूला हुआ सपना झांकता है, गुनगुनी-सी सफ़ेद हवा, मार्च की पीली धूप, बहुत दिन पहले सुने हुए रिकार्ड की जानी-पहचानी ट्यून, जो चारों ओर फैली घास के तिनकों पर बिछल गई है… सबकुछ इन दो शब्दों पर थिर हो गया है, जिन्हें शम्मी भाई ने टहनी से धूल कुरेदते हुए धरती पर लिख दिया था, ‘जेली…लव’.

जेली ने उन शब्दों को नहीं देखा. इतने बरसों बाद आज भी जेली को नहीं मालूम कि उस शाम शम्मी भाई ने कांपती टहनी से जेली के पैरों के पास क्या लिख दिया था. आज इतने लंबे अर्से बाद समय की धूल इन शब्दों पर जम गई है. …शम्मी भाई, वह और जेली तीनों एक-दूसरे से दूर दुनिया के अलग-अलग कोनों में चले गए हैं, किंतु आज भी रूनी को लगता है कि मार्च की उस शाम की तरह वह बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी खड़ी है, (शम्मी भाई समझे थे कि वह वाटर-रिज़र्वायर की ओर चली गई थी) किंतु वह सारे समय झाड़ियों के पीछे सांस रोके, निस्पंद आंखों से उन्हें देखती रही थी, उस पत्थर को देखती रही थी, जिस पर कुछ देर पहले तक शम्मी भाई और जेली बैठे थे. …आंसुओं के पीछे से सबकुछ धुंधला-धुंधला-सा हो जाता है… शम्मी भाई का कांपता हाथ, जेली की अधमुंदी-सी आंखें, क्या वह उन दोनों की दुनिया में कभी प्रवेश नहीं कर पाएगी?

कहीं सहमा-सा जल है और उसकी छाया है, उसने अपने को देखा है, और आंखें मूंद ली हैं. उस शाम की धूप के परे एक हल्का-सा दर्द है, आकाश के उस नीले टुकड़े की तरह, जो आंसू के एक कतरे में ढरक आया था. इस शाम से परे बरसों तक स्मृति का उद्भ्रांत पाखी किसी सूनी घड़ी में ढकी हुई उस धूल पर मंडराता रहेगा, जहां केवल इतना-भर लिखा है, ‘जेली…लव’.

उस रात जब उनकी नौकरानी मेहरुन्निसा छोटी बीवी के कमरे में गई तो स्तंभित-सी खड़ी रह गई. उसने रूनी को पहले कभी ऐसा न देखा था.

-छोटी बीबी, आज अभी से सो गईं? मेहरू ने बिस्तर के पास आकर कहा.

रूनी चुपचाप आंखें मूंदे लेटी है. मेहरू और पास खिसक आई. धीरे-से उसके माथे को सहलाया-छोटी बीबी, क्या बात है?

और तब रूनी ने अपनी पलकें उठा लीं, छत की ओर एक लंबे क्षण तक देखती रही, उसके पीले चेहरे पर एक रेखा खिंच आई… मानो वह एक दहलीज हो, जिसके पीछे बचपन सदा के लिए छूट गया हो…

-मेहरू, …बत्ती बुझा दे… उसने संयत, निर्विकार स्वर में कहा-देखती नहीं, मैं मर गई हूं! (Story by Nirmal Verma)

लोक कथा : ब्यौला मर जायेगा पर गांठा नहीं टूटेगा

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Sudhir Kumar

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