आठवीं शताब्दी में गुजरात में मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा सत्ता हथिया ली गई थी. यह संभव है कि उस समय कोई जन समुदाय अथवा कोई गुजरात के राज्य परिवार का व्यक्ति मथुरा, कन्नौज से होता हुआ चंपावत तक पहुंचा हो. इस काल में ईरान पर मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा अधिकार किए जाने पर पारसी लोग भी बहुत बड़ी संख्या में गुजरात और बम्बई के निकट आकर बसे थे.
(History of Pant in Kumaon)
अन्यत्र यह दर्शाया गया है कि मिस्र देश के लोग ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी में पूर्व की ओर के किसी हरे-भरे पुंट देश से आकर नील नदी घाटी में बसे थे. पुंट नाम का वह देश भारत का पाण्ड्य देश था या अफ्रीका का सुमाली लैण्ड इसमें विद्वानों में मतभेद है. वैसे पश्चिमी एशिया में ईसा के जन्म के समय पौंट्स नाम का एक रोमन साम्राज्य का सूबा अवश्य था. इस प्रान्त के लोग अग्निपूजक जरथुस्त्र (पारसी) धर्म के अनुयायी थे.
ईरान में मुस्लिम धर्मावलंवियों के अत्याचार से पीड़ित जो पारसी लोग जलमार्ग से गुजरात के नगर संजन में उतरे उनका उल्लेख पारसिक ग्रंथों में हुआ है. सन् 785 ई० में एक ऐसा ही शरणार्थी पारसी दल गुजरात के राजा जाधव राना (जादीराना) के राज्य में पहुँचा. जादीराना ने उन्हें पाँच शर्तों पर बसने की अनुमति दे दी. इन पाँच शर्तों में दो मुख्य थीं- गुजराती भाषा को अपनाया जायेगा और हिन्दू वेश-भूषा को धारण किया जायेगा. बम्बई गजेटियर में इन शरणार्थियों को पंतक समुदाय के लोग कहा गया है.
इस निष्क्रमण का वर्णन ‘किस्सा संज्जन’ नामक पारसी धर्मग्रंथ में दिया गया है. बम्बई गजेटियर के अनुसार शरणार्थी पारसियों ने गुजरात में आकर खेती, छोटी-मोटी दुकानदारी, बढ़ई गिरी तथा कपड़ा बुनने का धंधा अपना लिया. प्रतिवर्ष पारसी पर्व नवरोज (मार्च तृतीय सप्ताह) के अवसर पत्र-पत्रिकाओं में पारसियों के उक्त निष्क्रमण के संबंध में लेख प्रकाशित होते रहते हैं. एक ऐसे लेख के अनुसार –
सन 785 ईसवी के बाद पारसी लोगों की छोटी-छोटी बस्तियाँ भारत के समूचे पश्चिमी समुद्र तट तक फैल गई. उन्होंने हिन्दू पंचायत प्रणाली को ग्रहण किया किंतु अपनी धार्मिक बिरादरी को अक्षुण्ण रखा. छोटी पारसी बिरादरी कोल और बड़ी पंतक (पंथक) कहलाई. अपनी नई अपनाई जन्म भूमि में पारसी स्थानीय लोगों ऐसे घुलमिल गए कि सन् 1200 ईस्वी में पारसी पुरोहित नेरियोसंग धवल ने समूचे पारसी धर्मग्रंथों का, जो अवेस्ता कहलाते हैं, अपने समय के हिन्दू पंडितों के लाभार्थ संस्कृत में अनुवाद किया. नेरियोसंग का यह संस्कृत अनुवाद आज भी उपलब्ध है.
(पी० नानावती-“हिन्दुस्तान टाइम्स” 22 मार्च सन् 76 का लेख)
(History of Pant in Kumaon)
गजेटियर ऑफ बम्बे प्रेसीडेंसी के अनुसार, खम्बात की खाड़ी में माही नदी के मुहाने पर कुमारिका क्षेत्र में बसे पारसी कालान्तर में ऐसे धनवान और ऐसे प्रबल हो गए कि उन्होंने वहाँ के हिन्दुओं को भगा दिया. पारसियों के इस अत्याचार का बदला लेने के लिए मोतियों के व्यापारियों कल्याणराय ने उन पर आक्रमण किया और उनकी बस्ती को आग लगा दी. कई पारसी मौत के घाट उतार दिये गए. इसी गजेटियर के अनुसार रतनपुर के राजा ने भी पारसियों पर अत्याचार किए और उन्हें भागने को विवश किया तथा पारसियों पर तीसरा बड़ा आक्रमण महमूद बेगदा (1459-1511) के सेनापति द्वारा किया गया.
पुर्तगाल के व्यापारियों के समुद्र तट पर शासन जमा लेने पर पुर्तगालियों ने पारसियों को रोमन कैथोलिक धर्म ग्रहण करने के लिए विवश किया. उक्त गजेटियर के अनुसार पारसियों ने अपनी स्वीकृति दे दी किंतु अपने धर्म के अंतिम बार अनुष्ठान करने के लिए चार दिन का समय मांगा. इस चार दिन के समय में वे अपनी पवित्र अग्नि लेकर चुपचाप अपनी बस्तियों से भाग निकले.
(History of Pant in Kumaon)
कुमु के राजा सोमचन्द गुजरात से आये बताए जाते हैं. कुमाऊँ में कोनकन से आए हुए पंत कुछ अभिलेखों में पाण्डे लिखे गए हैं और कुछ में हाटवाल. हाटवाल शब्द व्यापारी का बोधक है. पंतों के पाराशर गोत्र से भी उनके मूलतः पारस (फारस) या ईरान से आने का आभास होता है.
तथ्य जो भी हो मूलतः पंत शब्द जाति बोधक नहीं था. पंतों के मूल स्थान की खोज हमें पश्चिमी एशिया की ओर ले जाती है. महाराष्ट्र में भी पंत, सावरकर, रानाडे आदि जातियाँ चितपावन ब्राह्मण कहलाती हैं जो मूलतः पश्चिमी एशिया से आई ब्राह्मण जातियाँ मानी जाती हैं. कभी इन्हें पंच द्रविड़ ब्राह्मण भी कहा जाता है. द्रविड़ जैसा अन्यत्र दर्शाया गया है, सुमेरी सभ्यता के समकक्ष अति प्राचीन सभ्यता है. आर्यों से भी अधिक संस्कृत सम्पन्न सभ्यता को कालान्तर में दिया गया नया नाम द्राविड़ सभ्यता था जिसके अवशेष प्राचीन नदी घाटियों के ध्वंसावशेषों में पाए जाते हैं.
(History of Pant in Kumaon)
यमुनादत्त वैष्णव ‘अशोक’ की पुस्तक ‘कुमाऊँ का इतिहास’ से साभार
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नेहरू ने भी एक किताब लिखी थी- भारत एक खोज । क्या नेहरू इतिहास की समझ रखता था ? क्या वह पुरातत्वविद था ? पुरातत्व के क्षेत्र में क्या उसने काम किया था ? नहीं न, पर उसने इतिहास से संबंधित किताब लिखी वह भी जेल में रह कर ! गजेटियर ऑफ बम्बे प्रेसीडेंसी का लेखक क्या इतिहासकार था ? इतिहास की उसे कितनी समझ थी , कोई बतायेगा ? किस ब्रिटिश विश्वविद्यालय से उसने इतिहास की शिक्षा ली थी ? उस समय क्या ब्रिटेन में विश्वविद्यालय थे ? बड़े आये बम्बे गजेटियर का शान से संदर्भ देने ?
बहुत ही खराब वर्णन, आप के द्वारा दिये गए संदर्भों की सत्यता ही संदिग्ध है। और ऐसे संदिग्ध साहित्य के आधार पर लिखा गया आपका लेख भी संदेहास्पद होने के साथ ही हास्यास्पद भी है।
अगर कुछ विशेष संदर्भों को अल्प रूप में उचित मान भी लिया जाए तो इसे बिल्कुल सही कैसे माना जा सकता है। क्योंकि कुमाऊं की उपजातियां ऋषि कुल के गोत्रों का इस्तेमाल करती है। जो कि पश्चिम से आने वाले समूह नहीं कर सकते क्योंकि हिन्दू जाति समूहों की मान्यता के अनुसार वे ऋषि कुलों के वंशज है। अपने तात्कालिक लाभ के लिए समाज के किसी वर्ग द्वारा इस प्रकार गोत्रो के नाम के इस्तेमाल को मान्यता दी गयी हो तो वह एक अलग स्थिति होगी। जैसा कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भी दृष्टिगोचर होता है।