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फिरंगियों को नैनीताल का पानी नहीं छूने दिया पहाड़ी कुलियों ने

पीटर बैरन ने बायीं ओर की सलेटी शिला पर कुछ पलों के लिए अपनी पीठ टिकायी और जैकेट की ऊपरी जेब से डायरी निकालकर उसमें आज की तारीख का पन्ना खोला : 27 अप्रेल, 1835. उम्मेद सिंह और दुर्गादत्त पीठ पर लदे अपने सामान के प्रति एकदम लापरवाह-से तेजी से बढ़े चले आ रहे थे. लगता था कि मानो वे छोटी-छोटी पगडंडियों वाले रास्ते के प्रति एकदम लापरवाह पहाड़ी चढ़ायी पर दौड़े चले जा रहे हों. इंग्लैंड में वसन्त आये कम-से-कम एक महीना बीत चुका होगा.

पीटर लगभग आत्मालाप करता हुआ-सा बोला और फिर जेब घड़ी की चेन खींचकर उस पर एक नजर डाली – नौ बज चुके थे. घड़ी को कोट की ऊपरी जेब में डालते हुए ही महसूस हुआ कि धूप का तेज तिकोना टुकड़ा मानो बालों के बीच कुछ तलाशता हुआ-सा सिर पर बैठ गया था. इंग्लैंड की अपेक्षा यहाँ भारत में सारे मौसम बड़े सुस्त तरीके से आते हैं. उसने सोचा तो याद आया कि इंग्लैंड में फरवरी के अंत या मार्च के आरम्भिक दिनों में एक दिन पहले ही पेड़-पौधों की डालों की फुनगियों पर छोटे-छोटे बीजों की तरह अंकुरित हुए गोल आकारवाले नाजुक ठूँठ एकाएक पत्ते बनकर कैसे खुल जाते हैं.

कल सुबह ही पीटर शाहजहाँपुर के अपने शराब के कारखाने में महीने भर की व्यवस्था करके ट्रेल के प्यारे कुमाऊँ को एक बार फिर जीने के लिए रवाना हुआ था. ट्रेल के यात्रा-विवरणों को वह जाने कितनी बार पढ़ चुका था और दरअसल उसकी इस बार की यात्रा हिमालय के उस पार जानेवाले रास्ते से खुद भी गुजरने की इच्छा से उत्पन्न हुई थी. जिसे पहली बार ट्रेल ने ही खोजा था और जिसका नाम ब्रिटिश यायावरों ने ‘ट्रेल पास’ रख दिया था.

अपने बीस सालों के शासन में ही ट्रेल इस इलाके में एक मिथक बन गया था. लोग उसका नाम ऐसे लेते थे मानो वह स्वर्ग से उनका भला करने के लिए भेजा गया देवदूत हो. गवर्नर-जनरल लॉर्ड हेस्टिग्स ही नहीं, जिसके शासनकाल में ट्रेल की नियुक्ति हुई थी.

अगले दो गवर्नर-जनरलों, लॉर्ड एमहर्स्ट और लॉर्ड विलियम बेंटिंग ने भी ट्रेल के कुमाऊँ की बेतहाशा तारीफ की थी. ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बेहद प्रभावशाली बिशप रेजिनल्ड हेबर ने तो 1823-24 के दौरान पूरे भारत का दौरा करने के बाद अपनी टिप्पणी में लिखा थाः ‘‘भारत का व्यापक दौरा करते हुए मुझे कलकत्ता और बनारस के हिन्दुओं के डरे-सहमे व्यवहार और गिड़गिड़ाती भाषा की तुलना में कुमाउँनियों का एकदम अलग तरह का स्वाभिमानी रुख देखने को मिला जो मेरे लिए हिन्दुस्तानियों का एक नया ही रूप था.’’

ट्रेल के जमाने में पूरा उत्तराखंड, जो उन दिनों कुमाऊँ के नाम से जाना जाता था. रुहेलखंड के कमिश्नर के अधीन था और इस रूप में ट्रेल समूचे उत्तर-पश्चिमी उत्तर प्रदेश का शासक था.

अपनी डायरी में ही ट्रेल ने मध्य-हिमालय की पहाड़ियों के बीच देवदार, बाँज और बुरूँश के घने पेड़ों के बीच अनेक बड़े-बड़े झीलोंवाले इलाकों का उल्लेख किया था. इन झीलों के हीरे की तरह के पारदर्शी जल और उनमें तैरते सफेद हंसों की तारीफ करते ट्रेल थकता नहीं था.

शेरवुड स्कूल का अमिताभ बच्चन और नैनीताल के छोकरे

स्थानीय लोक-विश्वासों का हवाला देते हुए उसने लिखा था कि इन झीलों में से एक झील के किनारे, जो कि चारों ओर बड़ी-बड़ी पहाड़ियों से घिरी हुई थी, बहुत प्राचीन काल में अत्रि, पुलस्त्य और पुलह नाम के तीन ब्राह्मण संत रहते थे, जिन्हें यहाँ के लोग ऋषि कहते हैं.

समुद्र सतह से 6410 फीट की ऊँचाई पर स्थित 4703 फीट लंबे और 1518 फीट चौड़े आँख के आकार के इस तालाब के किनारे नयनादेवी का एक मंदिर है जिसे कुछ लोग नंदादेवी कहते हैं और वहाँ के स्थानीय निवासी अपनी कुल-देवी के रूप में पूजते हैं. कुछ लोगों में ऐसा विश्वास है कि देवी दुर्गा के नेत्र की परछाई से इस तालाब की रचना हुई थी.

कुछ और लोग इस मंदिर को हिमालय पर्वत पर स्थित नंदादेवी शिखर का धरती पर स्थित घर मानते हैं. जिसने उनके राजा की बहिन के रूप में धरती पर जन्म लिया था और इस पवित्र जल के किनारे चौबीसों धंटे साधना में लीन वह सारे इलाके के लोगों की रक्षा करती है. देवी के चरणों को छूते हुए दूर तक जो तालाब फैला हुआ था, लोग उसे ‘नैनीताल’ या ‘नयनताल’ कहते थे.

पिछले दो-तीन सालों से पीटर लगातार इसी कोशिश में लगा रहा था कि एक हजार फीट की ऊँचाई और घने जंगलोंवाली पहाड़ियों से घिरे उस खूबसूरत तालाब तक वह किसी तरह पहुँच सके लेकिन एक विशाल पहाड़ी गुफा की तरह के इस स्थान तक पहुँचने का रास्ता कोई नहीं बताता था.

पीटर को इतना पता लग चुका था कि तालाब और उसके चारों ओर के जंगल में नर सिंह बोरा नाम के एक पहाड़ी थोकदार की मिल्कियत थी जो खुद भी तालाब किनारे के उस क्षेत्र में नहीं रहता था. सारे इलाके के लोग मानते थे कि देवी के इस निवास के चारों ओर जहाँ तक नजर जाती है.

आदमी के रहने से धरती अपवित्र हो जायगी इसलिए यह नियम बनाया गया था कि जो भी वहाँ जायगा, उसे नंगे पाँव जाना होगा और उसी दिन रात तक वापस लौटना पड़ेगा. पीटर बैरन पिछले तीन सालों से लगातार भटक रहा था.

पूरब और उत्तर की ओर की सारी दिशाएँ उसने छान मारी थीं मगर उसे ऐसा कोई भी तालाब नहीं मिला था. इसलिए पिछले साल वह अपना सामान ढोने के लिए उम्मेद सिंह और दुर्गादत्त को कुमाऊँ के जंगलों के एक गाँव से ले आया था. ये लोग हर बार घने जंगलों के बीच जाकर पीटर को इधर-उधर घुमाते थे.

आपस में अपनी स्थानीय भाषा में कुछ बड़बड़ाते और फिर माथा खुजलाते हुए इधर-उधर भटकने लगते. कभी वे आपस में झगड़ने भी लगते, अविश्वास के साथ एक-दूसरे की ओर देखते मगर तुरंत ही ऐसा व्यवहार करने लगते कि मानो खुद ही रास्ता भटक गये हों.

कल रात पीटर बैरन ने अपना दूसरा पड़ाव बहेड़ी में रखा था और वह अपने दोनों कुलियों के साथ एकदम भोर को वहाँ से चलकर आठ बजे के करीब तराई के घने जंगलों में प्रवेश कर चुका था. दोपहर के बाद वे तीनों एक अपेक्षाकृत अधिक घने जंगल के बीच पहुँचे थे तो ऐसा लगा कि जैसे जंगल में कोई भाग रहा है. उम्मेद सिंह और दुर्गादत्त कुछ सहमे, आक्रामक मुद्रा में तन भी गये.

थोड़ी देर के लिए पीटर को भी लगा कि कोई भूखा चीता या शेर न हो. मगर पदचाप को दुबारा सुनकर यकीन हो गया कि कोई आदमी है जो दौड़ रहा है. वे लोग तेजी से उसी दिशा की ओर बढ़ने लगे तो थोड़ी ही देर में झोपड़ियों की एक कतार के पास पहुँच गए.

‘‘हम लोग तो खाली-खाली डर रहे थे. ये तो बुक्शों का गाँव है-बुक्शाड़.’’ उम्मेद सिंह ने मानो राहत की साँस ली. फिर पीटर को मानो नयी सूचना देने के अन्दाज़ में उत्साह के साथ बोला, ‘‘हजूर, बड़े सीधे होते हैं ये बुक्शे. कहते हैं इनके पुरखे राणा परताप के सिपाहियों की औरतों को लेकर यहाँ आये थे. बाद में उन औरतों के आदमी तो वहीं लड़ाई में मर-खप गए. औरतों ने यहाँ अपने इन नौकर-चाकरों को ही अपना घरवाला बना लिया.’’

‘‘ये औरतें बड़ी बहादुर होती हैं हजूर!’’. दुर्गादत्त को लगा कि जैसे वह टिप्पणी करने के अधिकार से चूक गया है. और अधिक उत्साह के साथ बोला, ‘‘मगर इनके मरद बड़े डरपोक होते हैं, हजूर. आखिर हुए तो ये नौकर ही ना. हमने सुना है, इनकी औरतें थाली पर ठोकर मारकर इनको खाना देती हैं. कहीं भी जाते हैं तो औरतें अपनी खुली हुई छातियाँ ताने आगे-आगे चलती हैं और उनके मरद सारा सामान सिर पर लादे कम-से-कम इनसे बीस कदम पीछे चलते हैं.’’

‘‘इंटेरेस्टिग.” पीटर बोला, ‘‘लेकिन उम्मेद सिंह, ये लोग यहीं इन घने जंगलों में क्यों ठहर गये ? तुम्हारे गाँवों में जाकर क्यों नहीं बसे ? तुम्हारे गाँवों में तो बहुत तरह की सुविधाएँ हैं. वहाँ खेती होती है. कुछ लोग पढ़े-लिखे भी हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि ये लोग तुम्हारे इलाके के ही आदिवासी हों और आबादी बढ़ने के साथ ही इन जंगलों में सिमटते चले गये हों !’’

‘‘ये तो हमको नहीं मालूम साब, हमने तो अपने पुरखों से ऐसा ही सुना ठैरा,’’ उम्मेद सिंह ने अपने अज्ञान को बढ़ा-चढ़ाकर कहना शुरू किया, ‘‘अब ये तो हुई पुराने जमाने की बातें. हजूर, हमने तो ये भी सुना है कि वो पार गढ़वाल के मुलुक में जौनसार भाबर में इनके भाई बिरादर रहते हैं. वहाँ एक-एक औरत के पास पाँच-पाँच घरवाले होते हैं. वहाँ मरद एक से ज्यादा औरत नहीं रख सकता मगर औरतें जितने चाहे मरद रख सकती है.’’

पीटर के लिए ये सारी सूचनाएँ रोचक और कौतूहलवर्द्धक थीं मगर इस वक्त दिमाग में सिर्फ नैनीताल का भूत सवार था. किसी भी तरह वह इस बार तो वहाँ पहुँच ही जाना चाहता था. कभी-कभी उसे उम्मेद सिंह और दुर्गादत्त की नीयत पर सन्देह भी होने लगता था कि वे लोग कुछ छिपा रहे हैं.

खासकर, जब भी तालाब की बात आती, वे सकपका जाते और एक-दूसरे का मुँह ताकने लगते. मानो आँखों-ही-आँखों में एक-दूसरे से बातें करते हैं. हो सकता है कि उसका शक ठीक हो. पीटर ने सोचा. मगर उसकी समझ में नहीं आ पा रहा था कि वे लोग उससे रास्ते की पहचान छिपा क्यों रहे हैं?

नैनीताल के चिलम सौज्यू की दास्तान
उम्मेदसिंह-दुर्गादत्त भी पीटर के मन का असमंजस समझ रहे थे, मगर इस बात को वे जानते थे कि पीटर के प्रति लाख सहानुभूति के बावजूद वे उसे उस जगह को नहीं दिखा सकते थे. एक अपरिचित और सफेद चमड़ीवाले, सात समुंदर पार रहनेवाले आदमी को, चाहे वह कितना ही भला क्यों न हो, वे अपनी कुलदेवी के पास कैसे ले जा सकते थे ? यही विश्वास उन्हें अपने पुरखों से मिला था. उनके पूर्वजों ने पूरे इलाके की हर ऊँची चोटी पर देवी का एक मंदिर बनाया हुआ था.

देवी दुर्गा के असंख्य नामोंवाले मन्दिर, हर पर्वत शिखर पर एक अलग नामवाली देवी! वे सारी चोटियाँ इतनी दुर्गम थीं कि किसी के लिए भी वहाँ पहुँचना मुश्किल था! कहीं कोई रास्ता नहीं, नब्बे डिग्री की सीधी उठी हुई पहाड़ियाँ जिनमें कहीं, किसी तरह की कोई रेलिंग या सीढ़ियाँ नहीं. ये मन्दिर जितनी ही दुर्गम चोटियों में होते, उतनी ही अधिक इनकी मान्यता होती.

औरतें और मर्द, जिनमें अधिकतर बूढे़, बीमार और हताश लोग होते थे, पहाड़ी पर उगी हुई गहरे जड़ोंवाली घास या झाड़ियों को पकड़कर चढ़ते थे और उनकी आस्थाएँ अधिकतर उन्हें मंदिर की चोटी तक सुरक्षित पहुँचा देती थी. फिर भी जोखिम कम नहीं होते थे. कई-कई बार पहाड़ी की जड़ पर तेज गर्जना के साथ बहती पहाड़ी नदी.

जरा-सा असावधानीवश फिसल गए तो कोई भी तीर्थयात्री पल भर में ही नदी के आगोश में समा सकता था. इन दुर्घटनाओं को भी वे लोग देवी का वरदान मानते क्योंकि उन्हें लगता कि मौत के ये अवसर उन्हें अपने सांसारिक दुःख-कष्टों से मुक्ति दिलाने के लिए प्राप्त हुए हैं.

इन सारे खतरों को जानते हुए भी, अलग-अलग मौसमों में, जब प्रकृति अपने रंग बदलती थी, वे लोग उत्सव मनाते हुए इन आकाश-छूते मंदिरों पर चढ़ते. लोगों में अटल विश्वास था कि देवी के कारण ही काली-सलेटी रंगवाली इन नंगी शिलाओं पर उगे हुए, गहरी जड़ोंवाले छोटे-छोटे झाड़ी-पौधों में इतनी ताकत आ जाती है कि समुद्र सतह से दो-ढाई हजार मीटर की ऊँचाइयों पर बसे हुए इन मंदिरों का आशीर्वाद उन्हें सहज ही मिल जाता है. अनिवार्य रुप से क्षितिज पर बनाए जानेवाले इन मंदिरों में कोई मूर्ति या भारी-भरकम स्थापत्य नहीं होता था.

पत्थरों का एक गोल घेरा बनाकर उसमें आस-पास पैदा होनेवाली वनस्पतियों की पत्तियाँ ही देवी की प्रतीक रुप में मौजूद रहती थीं और जो लोग वहाँ जाते थे, उसी जाति की पत्तियों को आसपास के पौधों-झाड़ियों से तोड़कर उसमें अर्पित कर अपनी निःशब्द पूजा करते थे.

अनपढ़ और समृद्ध भाषा-ज्ञान से अनभिज्ञ ये पहाड़ी लोग वनों और वनस्पतियों की देवी को उसी का हिस्सा समर्पित करते हुए अपनी अस्पष्ट भाषा में प्रार्थना करते थे कि हे प्रकृति-देवी, जिस प्रकार तू वसंत ऋतु में जन्म लेकर पूरे साल भर तक हमारा भरण-पोषण करती है और शिशिर तक आते-आते जब तू पूरी तरह हमारी देहों के अन्दर समाकर हमें अपार शक्ति दे चुकी होती है.

फिर दो-तीन महीनों के लिए अपने मायके हिमालय में जाकर पल भर के लिए भी विश्राम किये बिना वसंत के आगमन तक अपनी जड़ों में हमारे लिए जीवन-तत्व संचित करती रहती है.. ऐसी हे देवी, हमेशा हमारी सुरक्षा करना क्योंकि हम लोग तेरे बिना एक पल भी जीवित नहीं रह सकते.

अपनी अनगढ़ और अस्पष्ट भाषा में, जिसका वे लोग खुद भी अर्थ नहीं जानते थे, सिर्फ आशय समझते थे. शायद इसलिए कि वह भाषा नहीं, एक पागल-सी अनुभूति होती थी, वे उन भावनाओं को नव-अंकुरित पल्लवों के साथ क्षितिज पर चढ़ाते थे और उस निपट एकांत में देर तक अपने आँसुओं की धारा बहाकर सीधी उठी हुई पहाड़ियों पर उगे हुए उन्हीं झाड़-झंखाड़ों को पकड़कर उतर आते थे.

अमित साह के कैमरे से नैनीताल

वे जानते थे कि उनका थोड़ा-सा असंतुलन उन्हें पल भर में ही तेज बहती सर्पाकार पहाड़ी नदी की गोद में झौंक देगा. मगर उनके अन्दर इतना विकट विश्वास रहता था कि वे यह भी जानते थे कि वन-देवी ऐसा कभी नहीं होने देगी और हम कंगाल देहातियों को वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी नया जीवन देती रहेगी.

इतिहास इस बात की गवाही देता है कि पीटर बैरन ने 1838 में एक दिन नैना देवी और उसके चरणों से लगे तालाब को खोज ही निकाला और उसका नाम रखा ‘नयनीताल’. अपनी पुस्तक ‘वांडरिंग इन हिम्माला’ में कैप्टन पीटर बैरन ‘पिलग्रिम’ ने लिखा है कि जब उसे पूरी तरह यकीन हो गया कि सामान ढोनेवाले कुली उसे खामखाह इधर-उधर भटका रहे हैं, उसने अंततः एक चाल चली.

उसे लगा कि एक खास जगह पर जाकर वे दोनों लोग कुछ सकपकाते हैं और फिर इधर-उधर भटकने लगते हैं. जब उसे यकीन हो गया कि नैनीताल इसी जगह के कहीं आस-पास होना चाहिए, उसने उस जगह पर रंगीन पत्थरों से एक निशान छोड़ा और दोनों कुलियों के साथ वापस आ गया.

रास्ते भर वह थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सफेद पत्थर के टुकड़े डालता चला गया ताकि बाद में रास्ता खोजने में सुविधा हो. कुलियों को हल्द्वानी में छोड़कर तीसरे दिन पीटर अकेला उस जगह पर पहुँचा जहाँ उसने रंगीन पत्थरों से निशाना बनाया था और काफी देर तक इधर-उधर भटकने के बाद उत्तर की ओर के ऊँचे शिखर पर पहुँचने के बाद उसने नीचे घाटी की ओर देखा तो देखता ही रह गया.

लगभग डेढ़ हजार फीट की ऊँचाईवाले, चारों ओर फैले हरे-भरे शिखरों से घिरी मील भर से भी बड़ी एक विराट झील और उसके किनारे माथे पर बिखरी हुई लट की तरह छोटा-सा मन्दिर. अपनी पुस्तक में अपनी इस हैरानी का विवरण देते हुए पीटर ने लिखा है कि उस तालाब का पानी हीरे की तरह इतना साफ और पारदर्शी था कि नब्बे फीट गहरे तालाब की सतह पर बिछे पत्थरों और वनस्पतियों को ऊपर पहाड़ी के शिखर पर से साफ देखा जा सकता था.

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

 

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं.

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  • बटरोही जी की लेखनी से निकलीं नैनीताल की दास्ताने मन को छू जातीं हैं,कमाल के किस्से कहानियां काफल ट्री के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाने के लिए साधुवाद।

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