कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्र में मुख्य रूप से अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, रानीखेत और नैनीताल में ताज़िया बनाने की बहुत पुरानी परम्परा है. गमी का यह पर्व हिन्दू-मुस्लिम एकता और आपसी सहयोग और भाई-चारे का प्रतीक भी रहा है जिसे श्रद्धापूर्वक हर वर्ष मनाया जाता है. कोरोना काल के कारण पहली बार ऐसा हुआ कि ताज़िये नहीं नकाले गए हैं.
(History of Muharram in Kumaon)
अल्मोड़ा नगर में ताज़िये बनाने और ताज़िये के जुलूस को नगर के विभिन्न मार्गों,मोहल्लों से होते हुए अंत में करबला में दफ़न किये जाने की परम्परा दो सौ वर्ष से भी अधिक पुरानी है. इसका प्रमाण है नगर के दक्षिणी छोर पर स्थित करबला नामक स्थान जो वर्तमान में धारानौला और आकाशवाणी की ओर से आने वाली सड़कों का मिलन स्थल है और यहां पर चाय-पानी की दुकानें है इन दुकानों के पीछे नीचे की ओर उतरने पर वास्तविक करबला, अर्थात वह स्थान जहां हर साल ताज़िये दफनाए जात हैं, स्थित है.
चंद-शासन काल में जब यह स्थान करबला के लिये आबंटित किया गया था उस समय यहां कोई मकान दुकान नहीं थे. हल्द्वानी-अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ पैदल/अश्व मार्ग जो घुराड़ी-लोधिया-बशिर्मी होते हुए करबला पहुंचता था वह यहां पर दो मार्गों में बंट जाता था. सीधा चढ़ाई वाला मार्ग वर्तमान छावनी होते हुए लाल मंडी किले पहुंचता था. दुसरा मार्ग जिसे पिथौरागढ़ जाने वाले यात्री प्रयोग करते थे वह दुगालखोला,नरसिहबाड़ी, राजपुर, नियाज़गंज होते हुए चीनाखान, बल्ढौटी की ओर जाता था.
दो शताब्दियों से अधिक समय से यह सम्पूर्ण क्षेत्र राजस्व भूअभिलेखों में करबला के नाम से दर्ज है और इसी नाम से जाना पहचाना जाता है. बिना ताज़ियों के करबला नहीं होती इसलिए तब भी ताज़िये बनाये जाते थे और दफ़नाने के लिए यहां लाये जाते थे.
कमिश्नर ट्रेल ने लिखा है कि पहले अर्थात 1815 में अंग्रेजों के आने से पहले ताज़िये को पब्लिक में लाने की मनाही थी. कुमाऊं का इतिहास पुस्तक तक के पृष्ठ सo 646 में बद्रीदत्त पाण्डेय ने लिखा है – ट्रेल साहब कहते है की तब आम में ताज़िये ले जाने की मनाही थी. जबकि हकीकत में ऐसा नहीं था क्योंकि बिना सार्वजनिक प्रदर्शन के या आम रास्ते का उपयोग किय बिना नगर से दो किलोमीटर दूर ताज़िये करबला तक नही पहुंच सकते थे. ऐसा ट्रेल ने अंग्रेजी शासन को न्यायप्रिय व लोकप्रिय साबित करने और पूर्ववर्ती शासक को बदनाम करने के लिए लिखा है. ट्रेल के इस झूठ से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि ताज़िए की परम्परा ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा कुमाऊं में शासन करने से पूर्व की है.
(History of Muharram in Kumaon)
1861 में जब ताज़िये का जुलूस नियाज़गंज, लाला बाजार होते हुए खजांची मोहल्ला पहुंचा तो एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी जिसमें अखाड़े की तलवार से एक व्यक्ति का हाथ कट गया था. यह घटना क्यों और कैसे घटी इसका कोई स्पष्ट विवरण नहीं मिलता बस इतना पता है कि इस घटना को तूल देकर तब तत्कालीन कमिश्नर रमेंज तक इस मामले को ले जाया गया.
1857 क्रांति और हिन्दू-मुस्लिम एकता से अंग्रेज इतने घबराये हुए थे कि हर घटना को हिन्दू-मुस्लिम का झगड़ा बनाने की फ़िराक में रहते थे. इस मामले को भी एक विवाद का रुप देने के उद्देश्य से कमिश्नर रैमजे ने भविष्य में ताज़िया-जुलूस को खजांची मोहल्ले से होते हुए आगे ले जाने पर रोक लगा दी.
अल्मोड़ा के मुसलमान रैमजे की चाल को समझ गए और न केवल उसके इस फैसले को स्वीकार किया बल्कि डेढ़ शताब्दी पूर्व निर्धारित मार्ग पर ही आज भी ताज़िये घुमाते हैं. इस घटना से पूर्व जुलूस कचहरी बाजार से पल्टन बाजार तक बाजार होकर गुज़रता था. 1861 के समय के स्टाम्प पेपर में जिसका चित्र संलग्न है. मुसलमान कलानी, धारानौला स्थित अपनी भूमि पर ताज़िया बनाये जाने की अनुमति मांग रहे हैं. इन ऐतिहासिक घटनाओ और तथ्यों का उल्लेख करने का उद्देश्य यह बताना है कि अल्मोड़ा की ताज़ियेदारी दो सौ वर्ष से अधिक पुरानी है.
अल्मोड़ा में चार इमामबाड़े (जहा ताज़िये बनाये व रखे जाते हैं ) हैं – नियाज़गंज, लाला बाजार, कचहरी बाजार तथा पल्टन बाजार. सभी ताज़िये पहले ननियाज़गज लाये जाते हैं जहां से ढोल-ताशा व अखाड़े के साथ जुलूस लाला बाजार,चौक बाजार,कारखाना बाजार होते हुए कचहरी बाजार पहुंचता है किन्तु यहां से आगे जुलूस का जाना वर्जित है यहां से यह जुलूस पुनः वापस लौट कर लोहे के शेर के पास पहुंचता है. फिर नगर पालिका की सीढ़ियों से मॉल रोड में चौघानपाटा होते हुए हैड पोस्ट ऑफिस और वहां से पुलिस-लाइन, सवॉय होटल, होते हुए सुबह-सवेरे थाना मोहल्ला पहुंचता है.
(History of Muharram in Kumaon)
आज से पचास वर्ष पहले खड़क सिंह जी चाय तैयार कर जुलूस के पहुचंने का इतज़ार करते थे पूरी रात जागने के कारण इस चाय से एक नई ऊर्जा पैदा होती थी. इसी प्रकार लोहे के शेर के पास स्थित प्रभात होटल के स्वामी भट्ट जी चाय की व्यवस्था करते थे ऐसे कई उदाहरण हैं जो सिद्ध करते है कि गमी का यह पर्व हिन्दू-मुस्लिम एकता और भाईचार का प्रतीक रहा है.
अपन हिन्दू भाइयों के आर्थिक, सामजिक सहयोग के बना इस लोक-आयोजन की कल्पना भी नहीं की जा सकती. इस समय बंसल गली के ठीक सामने लाला बाजार का इमामबाड़ा अपने अस्तित्व को बचाये हुए है, साल क 355 दिन नगर पालिका द्वारा इस पर अस्थाई दुकानें लगा कर किराया वसूल की जाती है केवल मुहर्रम में दस दिन के लिए इस खाली किया जाता है.
कुमाऊं का दूसरा प्रमुख नगर पिथौरागढ़ है जहां 1880 से ताज़ियेदारी की जा रही है. इमामबाड़ा पुरानी बाज़ार से जुलूस गाधी चौक,धरमशाला लाइन, सिल्थाम,तिलढुकरी पहुंचता है वहां से लौट कर सिमलगैर, नगर-पालिका तिराहे, पुरानी बाज़ार, के. एम. ओ. यू स्टेशन और वहा से खल्ले के डाने होते हुए इमामबाड़े पहुंचता है. यहां भी इस गमी के पर्व में हिन्दू मुस्लिम एकता और हिन्दू भाइयों द्वारा दिए जाने वाला सहयोग उल्लेखनीय और सराहनीय है. यहां भी सुंदर और कलात्मक ताज़ियों का निर्माण किया जाता है.
(History of Muharram in Kumaon)
इसके अतिरक्त नैनीताल और रानीखेत में अंग्रेजों द्वारा इन नगरों को बसाये जाने के कुछ वर्षों बाद से ताज़ियादारी शुरु हुई. रानीखेत का सदर बाजार स्थित इमामबाड़ा ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है. इन दो स्थानों में मुहर्रम के चालीस दिन बाद चेहल्लुम का पर्व मनाने की भी परम्परा है.
मुहर्रम इस्लामी नव-वर्ष का पहला महिना है. जिसक दसवीं तारीख को निरंकुश व आतताई राजा यजीद ने इमाम हुसैन को उनके सभी रिश्तेदारों (कल 72 लोग ) के साथ अपनी फ़ौज के बल पर करबला की एकतरफा जंग में शहीद कर दिया सिर्फ इसलिए कि उन्होंने यजीद को इस्लाम धर्म का नियंत्रक मानने से इंकार कर दिया था. इंसाफ और सच्चाई के लिए लड़ी गई इस जंग और करबला के शहीदों की याद में ताज़िये बनाये जाते हैं. नववर्ष के प्रथम दस दिन में इन दुखद घटनाओं के कारण इस्लामी नववर्ष में न किसी तरह का जश्न मनाया जाता है और न ही बधाइयां प्रेषित की जाती है.
ताज़िये बांस, रंगीन कागज़, चमकीली डाक पन्नी से बनाये जाते थे. उस समय इनकी ऊंचाई इतनी होती थी कि शामियाना (ताज़िये के बुर्ज के ऊपर की छत) मकानों की तीसरी मंजिल की छत पर चढ़ कर लगाया जाता था. उस समय बिजली ,टलीफोन या अन्य किसी प्रकार के तारों के टकराने की कोई समस्या नहीं थी.
एक बार पल्टन बाजार के ताज़िये का तखत (आधार) इतना चौड़ा बना दिया गया की लोहे के शेर से आगे टेढ़ी बाजार में यह फंस गया और आगे नहीं बढ़ पाया. चूँकि उस समय नगर पालिका की माल रोड में उतरने वाली सीढ़ियां बहुत चौड़ी थी जिला अस्पताल की ओर नाला था अस्पताल एकमंजिला था बोरा-भवन नहीं बना था इसलिए यहां से तो ताज़िया निकल गया किन्तु टेढ़ बाजार से आगे नहीं जा पाया.
इस बार से अगले दस वर्षों तक ताज़िये बरसात के मौसम में पड़ेंगे. उस समय ताज़ियों को बारिश से बचाने के लिए रैमजे स्कूल के बारामदे में रखा जाता था. तब रैमजे के पिलर्स की ऊंचाई आज से दोगनी थी और इसे दोमंजिला नहीं बनाया गया था तभी इतने ऊंचे ताज़िये को छत के नीच रखा जाना सभव होता था, स्कूल के वर्तमान आंगन में कोई चारदीवार या गेट नहीं था. ये सभी संस्मरण उन लोगों हैं जिन्हें गुज़र हुए पचास-साठ से अधिक वर्ष बीत चुके हैं.
दुर्भाग्य सेइस ऐतिहासिक पर्व को मिडिया द्वारा लम्बे समय से उपेक्षित किया जाता रहा है. यहां तक की कुछ नामचीन समाचार-पत्रों में लखा जाता है कि अल्मोड़े में पिछल कुछ दशकों से मुस्लिम समुदाय के लोग ताज़िये नकालते आ रह हैं… जिन पत्रकारों को दशक और शताब्दी का अंतर पता न हो उनसे इतिहास की समझ की उम्मीद नहीं की जा सकती.
(History of Muharram in Kumaon)
मोहम्मद नाज़िम अंसारी
पूर्व बैंक अधिकारी मोहम्मद नाज़िम अंसारी इतिहास की गहरी समझ रखते हैं. पिथौरागढ़ के रहने वाले मोहम्मद नाज़िम अंसारी से उनकी ईमेल आईडी mnansari@ymail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online
अल्मोड़ा में मोहर्रम के ताजिये – जयमित्र सिंह बिष्ट के फोटो
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…
View Comments
कमेंट से डरते हो । चाहते हो लोग तुम्हारी बात सुने, पर खुद लोगों की बात सुनने का साहस नहीं ? इसी को कहते हैं वामपंथी और कांग्रेसिया सोच ।