आज प्रातः समाचार मिला कि एक मित्र की नियुक्ति उप निदेशक के पद पर हो गई है. मित्र की नियुक्ति के इस समाचार से प्रसन्नता होनी चाहिये थी ,पर मुझे आश्चर्य अधिक हुआ. मुझे लगता है कि वो इस पद के अयोग्य है. ऐसा नहीं की वो प्रतिभाशाली नहीं है, पर इन निदेशक, उपनिदेशक, संचालक, सचिव जैसे पदों की कुछ पूर्वापेक्षाएँ है. कुछ अनिवार्य अहर्ताएं, जिन्हें पूरा करना आवश्यक है.
अब न तो उस मित्र के बाल उड़े हैं अभी तक, पूरे लहलहा रहे हैं. फिर उप निदेशक पद के मान से उसकी तोंद भी दो इंच कम है. अभी केवल छत्तीस इंच है. और सबसे बड़ी अनहर्ता ,सबसे बड़ी अयोग्यता ये की उसके पास ओडिसी की नम्बर वाली अटैची नहीं है (कम से कम मैंने तो आज तक नहीं देखी).
मैं चकित हूँ कि आख़िर सरकार किसी ऐसे व्यक्ति को वरिष्ठ पद पर कैसे नियुक्त कर सकती है जिसके पास वो नम्बर वाला ब्रीफ़केस न हो. और ये मेरा नहीं, सम्पूर्ण समाज का दृढ विश्वास है कि नम्बर वाली अटैची के बिना,कोई अधिकारी हो ही नहीं सकता. जब शरद जोशी ने राजधानी में हिरनी की तरह कुलाँचे भरती जीपों के बारे में लिखा था कि मुझे लगता है ये अधिकारी जीप के साथ पैदा हुए थे, तो उसमें – जीप और उसके अंदर रखी वो गहरे भूरे रंग की ,सुनहरे पीतल के नम्बर लॉक वाली ओडिसी कम्पनी की अटैची -भी साथ में पढ़ा जाना चाहिये. (आलोचक इन बारीक चीज़ों पर ध्यान नहीं दे पाते.)
कई मित्र जो वरिष्ठ प्रशासनिक पदों पर है वे छिपे तौर पर ये स्वीकार करते हैं की प्रशासनिक अधिकारी बनने के उनके सपनों में बंगला, गाड़ी, सुंदर पत्नी के साथ-2 नम्बर वाली अटैची भी आती थी. कमाल बात ये है कि उनमें से कुछ के सपनों में मजदूर, गरीब, किसान, सड़कों के गड्ढे कभी नहीं आये. पाठक कह सकते हैं कि एक सामान्य अटैची को इतना महत्व क्यों दिया जा रहा है? यह लेख अटैची के बारे में नहीं है और मित्र की पदोन्नति में इसको अनावश्यक रूप से घुसेड़ने की क्या आवश्यकता है? मैं कहता हूँ आवश्यकता है!
पहले तो मैं पाठकों से ‘ज़बान सम्भाल के’ की तर्ज पर कहूँगा की दिमाग़ सम्भाल कर बात करिये! उसे ‘अटैची’ मत कहिये. उसे ‘ओडिसी की नम्बर वाली अटैची’ कहिये.(इस तरह मैं पाठकों से सीधे पंगा लेने वाला पहला लेखक बन गया हूँ).अब आता हूँ मैं आपके प्रश्न के उत्तर पर.
तो पाठकों ! मित्र की पदोन्नति विशेष घटना है, और ओडिसी की अटैची सामान्य. अब आप कहेंगे कि लो! तुम भी तो सामान्य बोल रहे हो. अतः बताना समीचीन होगा कि यह सामान्य, वह सामान्य नहीं है ,जैसा आप समझ रहे हैं.
यह सामान्य ,प्लेटो के दिव्य जगत का सामान्य है. दुनिया की सभी अटैचियों का आदर्श. वह प्रत्यय या साँचा जिसमें सभी ढलना चाहते हैं. सभी की कामना का केंद्र. मोटे शब्दों में यह अटैची स्वर्ग में बनी है और धरती पर उतारी गई है. और इसको धारण करना इसी तरह से है जैसे इंद्र का वज्र धारण करना. आप कह सकते हैं कि इसको धारण करने वाला ही इंद्र है. इस अटैची की महिमा के बारे में बताने के लिये लेखक आपको दो सत्य घटनाएं बताने जा रहा है.
पहली घटना-
तो हुआ यूँ की हमारे गाँव में दो दोस्त थे -सुत्तन और पुत्तन. दोनों ने तय किया की शहर चल कर कुछ कलेक्टर-फलेक्टर बना जाय. और इस कलेक्टरी की तलाश में दोनों जा पहुंचे दिल्ली विश्वविद्यालय के पास बनी झुग्गी में, जिसका नाम था क्रिश्चियन कॉलोनी. अब उस कॉलोनी का एक नियम था की वहाँ वही रह सकता था जो चपरासी से लेकर यू एन ओ तक ,जितनी भी नौकरी की रिक्तियां निकलें ,सबका फॉर्म भरे और सब की परीक्षाएं भी दे. चाहे परीक्षा का केंद्र लद्दाख में हो अथवा लक्षद्वीप में. तो सुत्तन और पुत्तन ने भी यही किया. और दोनों नौकरी पा गये. फिर जैसा की दस्तूर था, नौकरी लगने के बाद दोनों अपना जलवा दिखाने गाँव वापिस पहुँचे. पर गाँव में कुछ अजीब हुआ.
पुत्तन को सब सलाम करें, उसके आगे-पीछे घूमें. और सुत्तन को कोई घास न डाले. तो एक दिन हमने भूरा को रोक कर पूछा,’क्यों रे ,ये क्या माजरा है?’
तो भूरा ने कहा,’ सुत्तनाए को पुछैगो? ससुर दिल्ली जाय कैं सिग रुपया बार आये,अपयें डोकर-डुकरिया के. पुत्तन असल चिराग है गाँव कौ. नाम रोसन करौ है बाने. नाइब तैसीलदार बनौ है.’
मेरा माथा ठनका. मैंने कहा ,’भूरा तेरी मति मारी गई है? सुत्तन डिप्टी कलेक्टर बना है, और पुत्तन पटवारी, न की नायब तहसीलदार!’
मुझे ध्यान नहीं रहा कि अपने देश में सामान्य रूप से एक-दो पद की पदोन्नति जनता स्वयं दे देती है.असिस्टेन्ट प्रोफेसर, प्रोफेसर हो जाता है और लेफ्टिनेंट कर्नल, कर्नल. इस मान से मेरा मित्र भी निदेशक ही कहलायेगा, न की उपनिदेशक.
मेरी बात सुनकर भूरा भड़क गया,”अच्छा! पुत्तन पै लम्बर वाई सन्दूकची है. जो सुत्तना अफसर बनौ है तो बाकी सन्दूकची कितैं है?’
पाठकों को ये भी बताना आवश्यक होगा कि इस बीच पुत्तन की सगाई हो गई थी. और चूँकि गांव वालों के लिये पटवारी विश्व का सबसे बड़ा पद था; इतना बड़ा की उसके ससुरालवाले नें सोचा कि वह ‘लम्बर वाली सन्दूकची’ के योग्य है. और पुत्तन अपने टीका-लगुन में नम्बर वाली अटैची पा गया, जिसे हाथ में लेकर वो पूरे गाँव में इतराता घूमा. भूरा के इस प्रश्न से एक क्षण को तो मैं निरुत्तर ही हो गया.
फिर मैंने कहा-‘सुत्तन की चाल नहीं देखी ,कैसा इतराता है!इतना तो कोई सरकारी अधिकारी ही इतराता है.’
‘हम्बे!’ भूरा ने प्रतिवाद किया,’ पुत्तन बा कौ जोड़ीदार है ताके मारे. अफसर से जादा बाके सखा इतरात.’
‘अरे सुत्तन अब घर से बाहर नहीं निकलता. तुमने देखा नहीं? और घर पर भी सबसे अंदर के कमरे में रहता है. कोई आये तो बाहर से ही वापस करवा देता है. अब तो तुम्हें मानना ही पड़ेगा वो अधिकारी बना है.’
‘बो तो करैगौ ही. डरप रओ है. काऊ ने सवाल पूछ लओ तौ? घर सें बाहर न निकलै,लोगन से मिलवें से डरै, अपने चारों ओर न देखै तो समझ लियो वो असली नाईं, नकली अफसर है.’
‘अरे लगता है तुम सुत्तन से मिले ही नहीं हो. आजकल वो- देखते हैं, दिखवाते हैं, विचार करूँगा, समझूँगा, हूँ-हूँ , हम्म-हम्म, अच्छा-अच्छा, ओके-ओके, कल आइये, तीन बजे के बाद मत आइये, ढाई बजे के पहले मत आइये – बोलता रहता है. ऐसा तो कोई अधिकारी ही बोल सकता है भाई!’
‘फिर तौ पक्की है कि सुत्तन ससुर कछु नाईं बने’, भूरा का शास्त्रार्थ जारी था,’ कोई बात कौ पक्कौ जवाब नाईं दे, फैसला टालै, काम सैं बचै तो समझ लियो बो असली नाईं, नकली अफसर है.’
मेरे पास तर्क ख़त्म हो रहे थे ,पर सुत्तन की प्रतिष्ठा, अर्थात उसकी डिप्टी कलेक्टरी, बचाना आवश्यक था.
मैंने फिर वाद किया,’ अरे मैंने कल देखा जब वो टीले के ऊपर ,नल्ला पार कर के जा रहा था तो सुअर-सुअरिया को देख कर रुमाल से नाक कर बंद ली थी उसने. इतना कोमल या तो कोई राजा हो सकता है,या अधिकारी.’
‘फिर तो पक्की है गई’, भूरा ने प्रतिवाद किया, ‘ जा जमीन पर पले-बढ़े, जा माहौल में रहे, जिन लोगन-जनावरन के बीच खेले-कूदे अगर बिनई सैं बदबू लगै तो समझ लियो बो असली नाईं….’
‘नकली अफसर है’, मैं ने भूरा की बात पूर्ण की. अब मेरे तरकश में कोई तर्क नहीं बचा था. फिर अचानक मुझे याद आया-
‘अरे सुत्तन पर गाड़ी है, सरकारी गाड़ी.’
‘गाड़ी तो कोउ, काउकी मांग ले. बिधायक जी हमाए बालसखा हैं. कल्ल बिनकी गाड़ी लै आएं तौ हम का बिधायक है गये? सन्दूकची बताओ, लम्बर वाई सन्दूकची!’
भूरा के इस आख़िरी तर्क का मेरे पास कोई जवाब नहीं था. जिरह हार कर मैं सुत्तन के पास आ गया, जो अपने ही गांव में पहचान के संकट (क्राईसिस ऑफ आइडेंटिटी) से अवसाद में चला गया था. मैंने सुत्तन को बताया कि भाई तुम नम्बर वाली ओडिसी की अटैची ले लो, तभी गाँव के लोग तुम्हें अधिकारी मानेंगे और तभी तुम्हारा ब्याह हो सकेगा. सुत्तन ने इस सुझाव का पालन किया, और भूरा के तथाकथित बालसखा विधायक जी की पुत्री से विवाह का अधिकारी बना.
तो इस छोटी सी कहानी से हमे दो शिक्षायें मिलती है. पहली -काम पड़े तो व्यक्ति अपने से पन्द्रह साल बड़े व्यक्ति को भी अपना बालसखा बना सकता है, जैसा भूरा ने किया और अपने बगल के गाँव मे कोटवार बनने का गौरव हासिल किया. दूसरी- अधिकारी होने के लिये ‘लम्बर वाई सन्दूकची’ होना अतिआवश्यक है.
अधिकारी और इस नम्बर वाली अटैची का ये सम्बन्ध कब और कैसे स्थापित हुआ ,इतिहास में इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है.
लोकप्रशासन के प्रसिद्ध विद्वान, चिंतक ,विचारक ‘प्रियोस्की अभिषेखिरोव सन्तोषोविच’ रेखांकित करते हैं कि प्रशासन के अटैची का पर्याय बनने में निम्न कारक महत्वपूर्ण हैं –
पहला, अटैची का अपारदर्शी होना. जिससे इसके अंदर रखी जन महत्व की जानकारी जन तक न पहुँच सके.
दूसरा, अटैची का इस तरह से खोला जाना जिससे सामने बैठे व्यक्ति को पता न चल सके की उसे खोलने वाला, अटैची के भीतर क्या कर रहा है.
तीसरा, जिसे प्रियोस्की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक मानते हैं ,वह है इसमें नम्बर लॉक का होना. इससे अटैची के भीतर रखी जानकारी केवल उसी व्यक्ति की पहुँच में होती है जिसको उसका सही नम्बर पता है. और अधिकारी की इस अटैची को खुलवाने का एक मूल्य होता है, जो अटैची के स्वामी और उसके भीतर रखी फ़ाइल के हितग्राही के परस्पर समझौते से तय होता है. प्रियोस्की ने इसे प्रशासनिक समझौते का सिध्दांत (थ्योरी ऑफ एडमिनिस्ट्रेटिव कॉन्ट्रैक्ट) कहा है. और यहीं पर आती है दूसरी घटना. जो इन पंक्तियों के लेखक के मित्र के साथ घटित हुई.
दूसरी घटना-
ये घटना पम्मा ने स्वयं अपने मुँह से सुनाई. परमजीत सिंह उर्फ़ पम्मा सरदार. पम्मा बचपन से ही अत्यंत प्रतिभाशाली था. इसलिये नहीं वह अत्यंत विद्वान था या कक्षा में प्रथम आता था, इसलिये की उसे शैशवावस्था से ही पता था कि उसे क्या बनना है. वह बड़ा होकर ठेकेदार बनना चाहता था. उसका ‘विज़न’ स्पष्ट था. हम सब से स्पष्ट. तो पम्मा ,पम्मा सरदार से,पम्मा ठेकेदार बन गया. पम्मा ने इस ठेकेदारी से धन तो खूब कमाया परन्तु वह अपनी स्थिति से असंतुष्ट रहता था.
ठेकेदारी के पदसोपान में सबसे ऊपर होते हैं सरकारी ठेकेदार. उसमें भी केंद्र सरकार की ठेकेदारी करने वाले राज्य सरकार वालों से ऊपर स्थान ग्रहण करते हैं. फिर इनमें भी वर्णव्यवस्था की तरह ‘ऐ ग्रेड, बी ग्रेड’ का विभाजन होता है. फिर आते हैं निजी कंपनियों की ठेकेदारी करने वाले. और उसके उपरांत पार्किंग, तहबाज़ारी , मुर्दा मवेसी ठेकेदार. हमारा पम्मा निजी कंपनियों की ठेकेदारी करता था. वर्णव्यवस्था के विपरीत, ठेकरदारों के इस श्रेणी क्रम में ऊपर बढ़ने के अवसर थे और पम्मा ने इसका लाभ उठाते हुए सरकारी ठेका ले लिया, वो भी केंद्र सरकार के एक विभाग में. और तब प्यारे पम्मा को पता चला कि समाज में सरकारी ठेकेदारों का सम्मान इतना अधिक क्यों है.
तो हुआ यूँ कि चूँकि ये पम्मा का पहला ठेका था इसलिये पम्मा ने सारा काम नई बहू की तरह किया. बिल्कुल सही-सही, और समय पर. फिर बारी आई भुगतान की.
पम्मा नियत दिन, नियत समय पर भुगतान लेने कार्यालय पहुँच गया. परन्तु ‘साहब के साहब’ यानी चपरासी ने बताया कि जिस अटैची में पम्मा के भुगतान के कागज़ रखे हैं उसका नम्बर साहब भूल गये हैं. अब याद आने के बाद ही उनकी अटैची खुलेगी और उसका भुगतान हो पायेगा.
अब पम्मा रोज़ कार्यालय जाए और बरामदे में रखी बैंच पर बैठ कर इंतज़ार करे कि पता नहीं कब साहब को अटैची का नम्बर याद आ जाये. वह रोज़ चपरासी से पूछता कि याद आया, याद आया? परन्तु चपरासी मना कर दे. पम्मा ने मुझे बताया , ‘प्रिय मैं तुमको क्या बताऊँ! रोज़ सुबह ठीक साढ़े दस बजे मैं ऑफिस जाकर उस बैंच पर बैठ जाता था. फिर ग्यारह बजे साहब निकलते और उनके पीछे-पीछे चपरासी, वो कम्बख़्त अटैची लिये. उस अटैची को देख कर लगता जैसे उसमें मेरा बच्चा हो, जो डिलेवरी के बाद डॉक्टर और नर्स ने रख लिया है. कभी लगता उसमें मेरी लाश पोस्टमार्टम के लिये ले जाई जा रही है,जिससे खून टपक रहा है, मेरे अरमानों का खून. कभी लगता था कि जैसे उस अटैची को कोई ज़ोर-ज़ोर से अंदर से ठोंक रहा है, खटखटा रहा है कि मुझे बाहर निकालो- मुझे बाहर निकालो!’
फिर एक दिन पम्मा साहब के पास गया और बोला, ‘हुज़ूर तुस्सी हुकुम करो तो मैं ऐसी एक क्या ,दस अटैची ला दूँगा. उस अटैची नू कटवा देत्ते हैं.’
यह सुन कर साहब भड़क गये,’ तेरा दिमाग़ ख़राब है? वो अटैची मुझे अपने टीका-लगुन में ससुराल से मिली थी. साले तेरे पेमेंट के चक्कर में मेरा राशन-पानी भी रुकेगा!’
फिर एक दिन चपरासी से रहा नहीं गया. उसे दया आ गई. वो पम्मा से बोला, ‘मेरी मानो तो साहब से एक दिन शाम को मिल लो. और मिलना क्या, मैं तो कहता हूँ बैठ लो! हंड्रेड पाइपर साहब को बहुत पसंद है. संगीत में गन्स एंड रोज़ेस और लेखकों में ग्राम्शी. मैं सब इंतज़ाम करवा दूँगा.’
चपरासी के कहने पर पम्मा, साहब के साथ बैठा. फिर रोज़ की तरह ऑफिस आ कर बैठने लगा. चपरासी ने खुशखबरी दी, ‘साहब को पहला नम्बर याद आ गया है – चार. दूसरे और तीसरे याद नहीं आ रहे हैं. एक बार और साथ बैठ लो. हो सकता है बाकी दोनों नम्बर भी याद आ जाएं. साहब को ताज होटल बहुत पसंद है. मैं सब इंतज़ाम करवा दूँगा.’
पम्मा,साहब के साथ दुबारा फिर बैठा. साहब अधिकारी थे,तो साहब ने पम्मा के साथ अर्थव्यस्था, अन्तर्राष्ट्रीय राजनय, लिंगभेद , भ्रष्टाचार पर गम्भीर चर्चा की. बचपन से ठेकेदार बनने की तमन्ना रखने वाला अपना पम्मा, साहब के साथ चर्चा में बराबर के भागीदार के रूप में सम्मलित हुआ. उसने जीसार, यस्सार करके चर्चा में गम्भीर विचार रखे.
दो दिन बाद ‘साहब के साहब’ का फोन आया कि साहब को दूसरा नम्बर याद आ गया है- दो. और साहब तुमसे बड़े प्रसन्न है. कह रहे थी कि कोई भी टॉपिक उठा लो पम्मा को सब पता है,रॉक म्यूज़िक हो या राहू काल, पम्मा सब पर ‘यस सर’ कहता है. फिर वो चपरासी बोला- बस अब केवल एक नम्बर और रह गया है. एक बार और बैठ लो. बाकी तो सब तुम्हें पता ही है. बस एक चीज़ और है कि साहब को … भी बहुत पसंद है.
‘प्रिय! साब दे चक्कर विच असी दारू पीन लग्गे,’ पम्मा ने बताया ,’राब दी सौं.’
‘यार दारू कैसे पीने लगा तू साहब के चक्कर में? तूने तो आजतक हाथ नहीं लगाया, तेरे नाम की तो हम कसमें खाते हैं. साब दा की योगदान?’मैंने पम्मा से पूछा.
‘यार प्रिय! पैल्ली बार जब साब के संग पैठ्ठा , तो पाँच हज़ार दी दारू, ते त्तीन हज़ार दा चखने दा बिल बना. फिर जब दुज्जी बार पैठा और साब बोले-आप भी लेंगे? तो मैंने खुद से कहा -पम्मे पैंचो! पैसा तेरा, मजे कोई और ले और तू देखे? तू भी पी जा! होगी सो वेखेंगे.’
‘तू दारू पी गया? कुछ हुआ नहीं?’
‘पैल्ले तो अस्सी भी डर रहे थे. पर कमाल हुआ प्रिय! ग्राम्शी पर पूरा एक्क गंटा बोला!’
‘क्या बोला?’
‘ओ यार इन्ने नशे विच की याद रैन्दा है! पर इन्ना याद है कि असि बोल रहे थे कि पैंचो सब को दारू मिलनी चईये, ग्रीब ओ या अम्मीर.’
‘फिर क्या तूने साब के लिये ‘वो’ भी किया?’
‘ओए हट्ट! मैंने चपरासी से का कि वेक्कख! साब नू जो-जो बी पसान्द है, तू ओ-ओ करवा देइँ. द बिल इज़्ज़ ऑन मी.’
फिर अगले दिन चपरासी ने बताया कि साहब को तीसरा नम्बर भी याद आ गया है- ज़ीरो. यह सुन कर पम्मा बहुत प्रसन्न हुआ कि चलो अब भुगतान होगा. पर तभी चपरासी बोला,’ लेकिन एक समस्या है.’
‘क्या?’ पम्मा ने चौंक कर पूछा.
‘वो उनकी अटैची दोनों साइड लॉक वाली है. उसमें दो लॉक हैं.’
यह सुन कर पम्मा फिर भागा. शाम को साहब से बंगले पर मिला. अगले दिन चपरासी ने बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है. दोनों लॉक का नम्बर एक ही है.
‘तूने तो कान पकड़े होंगे अपने, जो फिर कभी सरकारी ठेका लिया तो?’ मैंने पम्मा से पूछा.
‘ओये प्रिय! अब तो केवल सरकारी ठेक्का ही लेते हैं अस्सी.’ फिर पम्मा मुझे देख कर मुस्कुराया,’अब अपने को अटैची खोलना आ गया है.’
तो दोस्तों सफल ठेकेदार वही है जो अधिकारी की अटैची खोल सके, या खुलवा सके. मित्र को बधाई देना तो एक बहाना था, दरअसल आपको नम्बर वाली अटैची की महिमा के बारे में बताना था.
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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शानदार , भाई अभिषेक !
शानदार , भाई अभिषेक !
बहुत शानदार व्यंग्य । बधाई प्रिय अभिषेक । ???