मानकीकरण से हिंदी की टांग मत तोड़ो
भाषा, मानकीकरण और व्याकरण का रिश्ता बहुत पुराना है हालाँकि बाहर से देखने पर यह जितना सहज दिखाई देता है, व्यवहार में उतना है नहीं. देखा यह गया है कि कुछ देर के परिचय के बाद व्याकरण भाषा के साथ दादागिरी का व्यवहार करने लगता है. और ज्यों ही व्याकरण के पास मानकीकरण की रास आ जाती है, भाषा का रथ बेकाबू हो जाता है और व्याकरण सब कुछ अपनी मर्जी से संचालित करने लगता है. ऐसा क्यों होता है, इसके पीछे क्या कारण हैं और हिंदी समाज भाषा की शुद्धता के मामले में संस्कृत के नियमों का इतना गुलाम क्यों बन चुका है कि वह अपने अस्तित्व को लेकर सोचना ही नहीं चाहता… हिंदी में क्या अपने नियम गढ़ने की कूबत सचमुच ही नहीं रही; या बार-बार उसके साथ इतना छल किया जाता रहा है कि बेचारी बुढ़िया अपनी रीढ़ के सीधी होने का अहसास ही भूल चुकी है.
हिंदी अलग से कोई नियम-संचालित भाषा न होकर आपसी संपर्क की सुविधा के लिए चुना गया भाषा-समूह है. इसकी अस्मिता परंपरागत शादी में बहू के रूप में सुझाई गई बेटी की है जो दिखाई तो गरिमामय और भव्य है मगर जिसे अपने बारे में निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं है. यह भी एक अजब किस्म का सवाल है कि हिंदी क्या अलग-अलग भाषाओँ का समूह है या एक ऐसा भाषा-स्रोत है जिसमें से अनेक भाषाएँ फूटती हैं. जरा भारत के नक़्शे में इस भाषा के वजूद पर नजर दौडाएँ. यह पूरे महादेश में संपर्क-भाषा के रूप में बोली और समझी जाती है, मगर उसे इस रूप में बोलने और बरतने वाला भी इसे भाषा का सम्मान देने से इंकार करता है. मध्य भारत का एक तबका ऐसा भी है जो इसे राष्ट्रभाषा मानता है मगर वह खुद नहीं जानता कि उसके ‘राष्ट्र’ की सीमा कौन-सी है? उसकी सीमाओं को भारतीय संविधान कितना विधि-सम्मत मानता है.
पिछले तीन-चार दशकों में हिंदी समाज के पढ़े-लिखे मध्य-वर्ग में एक खास बात देखने में आई है कि संसार की तमाम समृद्ध भाषाओँ के साहित्य के प्रति उसकी जितनी रुचि बढ़ी है, अपने समाज और भाषाओँ के प्रति उतनी ही उदासीनता दिखाई देती है. मुझे यह उदासीनता कभी-कभी उसकी जड़ों से कटे होने के कारण महसूस होती है… मगर बार-बार यह हिंदी समाज जिस तरह अपनी स्मृतियों की ओर छलांग लगाने के बाद खाली हाथ उदास चेहरे के साथ अपने वर्तमान में लौट-लौट आता है, उसकी आँखों के आगे मुझे फिर-से वही अनुत्तरित सवाल टंगा दिखाई देता है कि कहाँ हैं हम हिंदी लेखकों की जड़ें?… हमारी स्मृतियाँ और जड़ें क्या एक-दूसरे के सामने टंगे हुए मांस के निर्जीव लोथड़ों की तरह हमारे अतीत के परस्पर विरोधी दो टुकड़े मात्र हैं?…
विचार की भाषा के रूप में औपनिवेशिक भारत और उसके महान अतीत की समृद्ध कलाएँ; हजारों वर्षों की साधना से निर्मित जीवन की अतल गहराइयों में डूबी हुई… जिनकी समझ का संस्कार न होते हुए भी मन करता है कि सारी जिंदगी उसको समर्पित करते हुए उसकी गोद में बैठकर यों ही उम्र बिता दी जाए…
नहीं. मैं उलाहना नहीं दे रहा हूँ, न ईर्ष्या है यह… उलाहना देने या ईर्ष्या करने के लिए जो पात्रता चाहिए, मेरे पास वह है भी नहीं, तब भला मैं किस अधिकार से ऐसी इच्छा पाल सकता हूँ!…
पिछले कुछ वर्षों में हमारे हिंदी समाज में सामने आए दर्जनों कला-रूपों; फिल्मों. शिल्पकारों और चित्रकारों की कलाकृतियों, डिजिटल माध्यमों से उभरी अभिव्यक्तियों के बीच से गुजरते हुए एक अजीब-सी अवसादमय अनुभूति होती रही है; ऐसी अनुभूति जिसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं!… तो क्या अहसास और अनुभूति को व्यक्त करने के लिए शब्द जरूरी नहीं है?… तब स्मृतियों और अनुभूतियों की जो लम्बी शृंखला हमें सुदूर अतीत के साथ जोड़े हुए है, क्या है वह…
क्या है वह अहसास जो स्मृतियों में टंगे हुए समूची मानवता के असंख्य आत्मीय चेहरों के बीच खोया हुआ अपना चेहरा तलाश रहा है और थका-हारा खाली हाथ लौट-लौट आता है; इस अनुत्तरित सवाल के साथ कि कहाँ हैं मेरे स्थानीय परिजनों के चेहरे… जो मानो बार-बार मुझसे सवाल पूछते हैं, कहाँ बिसरा दिया है तुमने हमें?…
कुछ वक़्त पहले तक तो मुझे उन सवालों से जुड़ी आवाजें सुनाई देती थीं, मगर अब आवाज गायब हो गयी है; अब तो उनकी वो भौंचक आँखें भी नहीं दिखाई देतीं, जो सहारे की तलाश में लम्बे समय तक मेरे इर्द-गिर्द मंडराती रहती थी… संभव है, वो आँखें आज भी मुझे खोज रही हों, वो अब भी मेरे इर्द-गिर्द मौजूद हों… या हो सकता है, मैं ही अब बूढ़ा और कुंठित हो गया हूँ, लाचार, क्रूर, स्वार्थी या अवसादग्रस्त…
प्रसिद्ध इतिहासकार रामगोपाल (जन्म 1925) की 1964 में एक किताब प्रकाशित हुई थी, ‘स्वतंत्रता-पूर्व हिंदी के संघर्ष का इतिहास’. हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग द्वारा प्रकाशित इस पुस्तिका की शुरुआत 1882 ईस्वी में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के द्वारा गठित शिक्षा आयोग को सौंपी गई भारतेंदु हरिश्चंद्र की एक लम्बी रिपोर्ट से की गई है. रिपोर्ट में भारत में लागू किये जाने वाले शिक्षा के ढाँचे तथा विद्यार्थियों की माध्यम-भाषा को लेकर सुझाव आमंत्रित किये गए हैं. तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड मेयो ने प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री विलियम हंटर की अध्यक्षता में भारतीयों के लिए शिक्षा से जुड़े इस आयोग का गठन किया था. आयोग ने भारत के हिंदी क्षेत्र से जुड़े अनेक प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों को 66 प्रश्नों की सूची भेजी ताकि उन उत्तरों के जरिये वे अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दे सकें. प्रश्नावली में इस बात पर खास जोर दिया गया था कि उस दौर में नए सरकारी स्कूलों के स्थान पर शिक्षा प्रदान करने के लिए जो देसी स्कूल प्रचलन में थे, वो किस तरह की और किस भाषा में शिक्षा देते थे और भारतीय लोग कैसी और किस भाषा में शिक्षा ग्रहण करना चाहते थे.
लेखक रामगोपाल के अनुसार, ‘प्रस्तुत पुस्तक की कहानी जिस काल से आरंभ होती है, वह भारतेंदु से बहुत पहले का है. 19वीं सदी के तीसरे दशक में भारत की विभिन्न प्रांतीय भाषाओँ ने फारसी का – जो उस समय अदालतों की भाषा थी – स्थान लेना आरंभ कर दिया था; पर उत्तर प्रदेश में फारसी का स्थान हिंदी के बजाय उर्दू को दिया गया. इस घटना से पहले ही हिंदी भाषा और नागरी लिपि की लोकप्रियता तथा उत्तमता का अंगरेज लेखकों तक ने पक्ष लेना आरंभ कर दिया था. उन लेखकों की सम्मतियाँ हिंदी के संघर्ष के प्रथम चरण माने जाते हैं… इन सम्मतियों को पढ़ने के बाद मन में यह विचार पैदा होना स्वाभाविक है कि हिंदी को अदालती भाषा या राजकीय भाषा बनाने की माँग भारत के लोगों द्वारा उठनी चाहिए थी; उन्हें इसके लिए संघर्ष करना चाहिए था. इसका उत्तर कहीं नहीं मिलता. शायद कोई संघर्ष हुआ ही नहीं. वह युग घोर साम्राज्यवाद और घोर सामंतवाद का युग था जिसका प्रभाव चिरकाल तक रहा. परिणाम यह हुआ कि जनता ने भाषा के प्रति हुए अपमान को भी वैसे ही स्वीकार कर लिया जैसे पराधीनता को किया था. सन 1857 के 15-20 वर्ष बाद जब अंगरेजी सत्ता दृढ़ हो गई और शासकगण प्रजा की बात सुनना अपना कर्तव्य समझने लगे, तब हिंदी का प्रश्न कुछ साहस के साथ उठाया जाने लगा. यही साहस-प्रदर्शन हिंदी के संघर्ष का इतिहास है… अदालत की भाषा हिंदी भाषा होनी चाहिए, यह एक ऐसी माँग थी, जिसकी स्वीकृति से अंगरेजी सत्ता को प्रत्यक्षतः कोई हानि नहीं पहुँच सकती थी. तो तर्क यह उठता है कि अंगरेज सरकार ने इसको स्वीकार क्यों नहीं किया, या स्वीकार किया तो अंशतः ही क्यों किया.’
इस पहेली के पीछे छिपे आशय को खुद ही स्पष्ट करते हुए रामगोपाल लिखते हैं, ‘सन 1873 में बिहार सरकार द्वारा यह माँग स्वीकार कर ली गई थी कि उस प्रान्त की अदालतों में फारसी अक्षरों के बजाय नागरी का प्रयोग किया जाय, इस आदेश के कार्यान्वयन में लगभग 8 वर्ष लग गए. इसी प्रकार की माँग का उत्तरप्रदेश में कोई फल क्यों नहीं निकला? इसका स्पष्ट उत्तर कहीं देखने को नहीं मिलता; अतः अप्रत्यक्ष उत्तर का सहारा लेना पड़ता है. 19वी सदी के सातवे दशक के आरम्भ में वर्षों तक भारत के एक भाग में, जिसमें बंगाल और बिहार उल्लेखनीय हैं, बहावी आन्दोलन का जोर था. बहावी फिरके के मुसलमान हिंसात्मक क्रांति द्वारा अंगरेजी शासन का अंत करके मुस्लिम सत्ता पुनः ज़माने के लिए क्रियाशील थे. बिहार के विषय में अंग्रेजों के मन में यह धारणा बन गई थी कि वहाँ का प्रत्येक मुसलमान बागी है. इस तर्क से यह निष्कर्ष निकलना स्वाभाविक लगता है कि वहाँ अंगरेजी सरकार को यह अंदेशा नहीं था कि फारसी अक्षर का स्थान नागरी को दे देने से मुसलमान क्रुद्ध हो जायेंगे; वे तो क्रुद्ध थे ही. यद्यपि उस समय मुसलमानों की ओर सहानुभूतिपूर्ण बर्ताव करने की नीति का आरम्भ हो गया था, परन्तु फिर भी हिन्दुओं के प्रति सरकार अधिक उदारता बरतती थी और हिंदी हिन्दुओं की भाषा मानी जाती थी…
‘उत्तर प्रदेश में स्थिति भिन्न थी. वहाँ बहावी आन्दोलन का प्रभाव बहुत कम था. जब कि बंगाल और बिहार में मुसलमानों को सरकारी नौकरी से यथासंभव दूर रखा जाता था, उत्तर प्रदेश में मुसलमान जहाँ-तहाँ सरकारी पदों पर नियुक्त थे; और वे उर्दू के माध्यम से अपना काम करते थे.’
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1882 ईस्वी में भारतेंदु ने अपनी गवाही में जो आशंकाएं व्यक्त की थी, आजादी के बाद ही नहीं, उनके जीवन काल से ही भारतीय शिक्षा-नियोजक उन्हीं गलतियों को दुहरा रहे हैं. राजनीतिक शक्तियों का हमारे देश में इतना महिमा-मंडन किया जाता रहा है कि आम लोगों के भावनात्मक निर्णय तक इन नेताओं और प्रशासकों के द्वारा मनमाने ढंग से उन पर लादे जाते रहे. आम लोगों के बारे में निर्णय लेते हुए न तो यह देखा गया कि उन समस्याओं की जड़ें कहाँ हैं और जो लोग निर्णय ले रहे होते हैं, समस्या से जुड़े परिवेश की न तो उन्हें जानकारी होती, और न उनके अस्तित्व के साथ समस्या जुड़ी होती! यही कारण है कि भारत जैसे बहु-सांस्कृतिक और बहुभाषी देश के बारे में वे लोग ऐसे निर्णय लेते रहे जैसे राज्यों और रियासतों का बंटवारा कर रहे हों…
कितने और कैसे सांस्कृतिक समन्वय के दबावों की देन थी अनेक अपभ्रंश और प्राकृत भाषाएँ, हिन्दवी, रेख्ता, कैथी, दक्खिनी, उर्दू आदि भाषाएँ, लेकिन कितनी कुटिलता और निजी सनक की वजह से इन भाषाओँ का मजहबीकरण और सरलीकरण कर दिया गया. अगर आप विगत दो शताब्दियों के हिंदी भाषा के संघर्ष पर नजर डालें तो साफ दिखाई देगा कि इस कूटनीतिक समझौतावाद और तुष्टीकरण की परिणति ही ‘हिन्दुस्तानी’ या ‘हिंगरेजी’ जैसी नपुंसक भाषाओँ के रूप में हुई जिसका अगला कदम अपनी जातीय भाषा-अस्मिता की हत्या ही हो सकता था. ‘भाषा समस्या’ को ‘भाषा की राजनीति’ बना दिए जाने के पीछे सिर्फ सियासतदानों का हाथ नहीं था, भारत जैसे धर्म और क्षेत्र को लेकर नाजुक-स्वार्थी नजरिया रखने वाले सामंती सोच वाले बुद्धिजीवियों का भी हाथ था, बल्कि उनका अधिक ही था. शायद यही कारण है कि सुदूर अतीत से आरम्भ हुई भारतीय कला-परम्परा की यह यात्रा आजाद भारत की सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा नहीं बन पाई. ऐसा कहकर मैं नए भारत और नई दुनिया के नियोजकों की मंशा पर कोई सवाल नहीं उठा रहा, सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि अगर वे लोग अपने ही इतिहास से सबक ले सके होते तो निश्चय ही स्थिति फर्क होती. माना कि हमारे तत्काल अतीत के वे लोग शासक के रूप में बाहर से आए थे, मगर उनके रोजमर्रा के सरोकारों का सम्बन्ध तो इसी धरती के साथ था. पहले भी ऐसे लोग थे, मगर अंगरेज प्रशासक तो खुद इतने जानकार थे कि खुद ही नीति तय कर सकते थे, मगर उन्होंने जनता से जुड़ा प्रत्येक निर्णय लेने से पहले संसार की यथासंभव श्रेष्ठ प्रतिभा को आमंत्रित किया. भारतीय शिक्षा और भाषा के मामलों में नीति तैयार करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने अपने वक़्त के आधिकारिक विद्वानों : लार्ड मेकॉले (इंग्लिश एजुकेशन एक्ट, 1835) और विलियम हंटर (कमीशन ऑफ़ इंडियन एजुकेशन, 1882) को विशेष रूप से आमंत्रित किया और भारतीय जनता आज तक उनके योगदान को याद करती है. क्या यह अनायास है कि आजादी से डेढ़ सौ वर्ष पहले भारतीय भाषा और शिक्षा व्यवस्था के बारे में दी गई मेकॉले और हंटर की संस्तुतियाँ लगभग उसी रूप में हमारे देश में आजादी की आधी सदी के बाद भी लागू हैं. हमारी स्थानीय जड़ों की जो व्याख्या वे हमें सौंप गए थे, उनका विस्तार करना तो दूर, हमने अपनी जड़ें उनमें उलझाकर अपना वजूद ही मानो नष्ट कर दिया है. एक आत्महंता का वरण किया है मानो हमने. आम मध्यवर्गीय लोगों के बीच जिस मैकॉले को विगत दो सौ वर्षों में हमने ‘प्राण’ और ‘केएन सिंह’-नुमा बौलीवुडी खलनायकों की तरह अपने दिल में बसाए रखा है (परदे में जिनसे नफरत करते हैं और वास्तविक जिंदगी में प्यार) हममें से ज्यादातर लोगों ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि मेकॉले की वास्तव में मंशा क्या थी.
“सन 1835 में मेकॉले ने, जो उस समय गवर्नर जनरल की शासन समिति के एक प्रमुख सदस्य थे, अंगरेजी शिक्षा का प्रचार करने के प्रश्न को एक नए उदार ढंग से सरकार तथा अंगरेजी जनता के सामने रखा. उन्होंने अपनी स्मृति टिप्पणी में इस प्रकार के उद्गार व्यक्त किये :
“हो सकता है कि योरोपीय शिक्षा-दीक्षा के ग्रहण करने से भारतीय जनता का मस्तिष्क इतना विकसित हो जाए कि वह वर्तमान शासन पद्धति से उकता उठे और वह योरोपीय शासन पद्धति की राजनीतिक संस्थाओं की माँग करने लगे. यह तो मैं नहीं कह सकता कि वह दिन कभी आएगा या नहीं; परन्तु यदि वह आया तो अवश्य ही वह अंगरेजों के इतिहास में अति गर्व का दिन होगा… हो सकता है कि राजदंड हमारे हाथ से निकल जाय… परन्तु क्या ही अच्छी वह विजय है जिसमें दूसरी ओर पराजय होती ही नहीं.” (रामगोपाल : स्वतंत्रता-पूर्व हिंदी के संघर्ष का इतिहास, पृष्ठ 10)
रामगोपाल आगे टिप्पणी करते हैं, ‘एक बार पुनः गवर्नर जनरल की समिति में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को प्रोत्साहन देने के प्रस्ताव का विरोध हुआ. स्वयं गवर्नर जनरल विलियम बेन्टिंग ने कहा – ‘संभव है भारत की देशी शिक्षा पद्धति में हस्तक्षेप करने से लाभ की तुलना में हानि अधिक हो, मैं यह बात अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ; अन्य भारतीय संस्थाओं में हस्तक्षेप करने का फल अच्छा नहीं निकला है.’ महीनों तक मेकॉले की टिप्पणी विवाद का विषय बनी रही, परन्तु अंत में समिति ने बहुमत से मेकॉले के प्रस्ताव को स्वीकार किया कि ‘भारत के लोगों में योरोपीय साहित्य तथा विज्ञान का प्रसार करना अंग्रेजी सरकार का महान ध्येय होना चाहिए; अतः शिक्षा सम्बन्धी अनुदान की सम्पूर्ण धनराशि का उपभोग केवल अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करने के लिए किया जाय.’
हिंदी, जो कि निश्चय ही समूचे उत्तर भारत की सुपरिचित भाषा थी (स्पष्ट ही अपनी उप-भाषाओँ और बोलियों के कारण), की राष्ट्रीय छवि को अवरुद्ध करने में अंग्रेज प्रशासकों की अपेक्षा क्षेत्रीय और मजहबी सोच के लोगों और देसी संगठनों का भी योगदान है. इनमें से कुछ लोग एक दूसरे के विचारों का प्रतिवाद करते हुए भी दिखाई देते हैं किन्तु साफ दिखाई देता है कि इनका उद्देश्य जन-सामान्य की समस्याओं को सुलझाने के बजाय दिमागी कसरत और भाषा सम्बन्धी अपनी जानकारी का प्रदर्शन है. आर्य समाज, धर्म समाज, वगैरह हिन्दू संगठनों के हाशियों और मिशनरियों के प्रयासों पर बातें बाद में करेंगे, पहले हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवी पक्ष पर बातें.
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संभव है कि ब्रिटिश शासकों का भी मामले को मजहबी रूप देने में हाथ रहा हो, मगर हंटर कमीशन के अधिकतर सवाल मामले की गहराई में जाकर वास्तविकता जानने के प्रयास लगते हैं. उदाहरण के लिए कमीशन ने भारतेंदु से पूछा था. ‘जो देशी भाषा मान्यता प्राप्त है और स्कूलों में पढ़ाई जाती है, क्या वही लोगों की बोली है? यदि नहीं, तो क्या इस कमी के कारण वह कम उपयोगी और कम जनप्रिय है?’
भारत के शिक्षा नियोजन के सन्दर्भ में जन-भागीदारी से जुड़े भारतेंदु के इन विचारों को विशेष रूप में ध्यान में रखा जाना चाहिए. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा क्षेत्र में आम आदमी के सरोकारों और उससे जुड़ी भाषा-अभिव्यक्ति की बातें तो खूब की गईं मगर सारा नियोजन औपनिवेशिक मानसिकता के इर्द-गिर्द सिमटा रहकर सामान्य व्यक्ति से लगतार कटता चला गया.
अंत में 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन के इंदौर अधिवेशन में हिंदी को लेकर प्रस्तुत किये गए गाँधी जी के विचारों के सापेक्ष उससे 36 वर्ष पूर्व 1882 में हंटर कमीशन को लिखे गए भारतेंदु के विचार प्रस्तुत करना चाहता हूँ. दोनों ने ही अपने दौर में प्रचलित जन-सामान्य की भाषा के दो रूपों – हिंदी और उर्दू – की तुलना करते हुए अपनी जातीय भाषा का पक्ष रखा है. दोनों का आशय एक ही है. मगर गाँधी जी की तुलना में सहज ही मजहब की तौल निर्णायक बन जाती दिखाई देती है जब कि भारतेंदु की तुला में दोनों पल्लों पर हिंदी क्षेत्र का आम-आदमी बैठा हुआ साफ पहचाना जा सकता है… संस्कारों और संस्कृति से भरा-पूरा, मगर अभावग्रस्त एक भारतीय.
अपने भाषण में गाँधी जी कहते हैं:
“जो मधुरता मुझे ग्राम की हिंदी में मिलती है वह न तो लखनऊ के मुसलमानों की बोली में है, और न प्रयाग के हिन्दुओं की. भाषा की नदी का उद्गम जनता के हिमालय में है. हिमालय से निकली हुई गंगा हमेशा बहती रहेगी, इसी प्रकार ग्राम की हिंदी हमेशा बहती रहेगी जब कि संस्कृतमय तथा फारसीमय हिंदी छोटी नदी की भांति जो छोटी-सी पहाड़ी से निकलती है, सूख जाएगी और लोप हो जाएगी. हिंदी और उर्दू का सद्संगम उतना ही सुन्दर होगा जितना गंगा और यमुना का, और वह सदैव रहेगा.”
और भारतीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में गाँधी जी के आगमन से ठीक 36 वर्ष पूर्व आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रथम पुरुष भारतेंदु हरिश्चंद्र लिखते हैं:
“हिंदी रचना से सम्पूर्ण फारसी शब्दों को निकालने का आग्रह करनी बड़ी भूल है. हम निम्न प्रकार की हिंदी भी नहीं चाहते: “नभोमंडल घनघटाच्छन्न होने लगा. विविध वट बाहुल्य से इस्ततः कुज्झिटिका निपात द्वारा रसातल तपोमय हो गया.” और न निम्न शैली की उर्दू चाहते हैं: “चूँकि दावा-ए-मुद्दई बिल्कुल बईद-अज-अक्ल व गुजिश्ता-अज-हद्दे-समआत व खिलाफ अज-कानून-ए-मुरव्विजा-ए-मुल्क-ए-महरूसा-ए सरकार है.” हम विशुद्ध सरल भाषा चाहते हैं, जिसे जनता समझती है और जो बहुसंख्य लोगों की लिपि में लिखी जाती है. विज्ञान की पुस्तकों में हमें प्राविधिक शब्दों का प्रयोग अवश्य करना पड़ता है क्योंकि उनके लिए हमारी भाषा में समानार्थक शब्द नहीं हैं. परन्तु हम चाहते हैं कि बच्चों की स्कूली पुस्तकों के लिए, अदालती कागजों में, समाचार पत्रों में, सार्वजनिक भाषणों में सरल और सामान्य वार्तालाप की भाषा का प्रयोग हो, उसे ही हम सच्चे और सही अर्थों में अपनी मातृभाषा कह सकते हैं.”
इन दोनों उद्धरणों में गाँधी के वक्तव्य में राजनैतिक कुटिलता साफ दिखाई देती है जब वो भाषा को मजहब के साथ जोड़कर देखते हैं. आजाद भारत की भाषा नीति की विडंबना ही ये रही कि यहाँ भाषा और संस्कृति से जुड़े सवालों को उन राजनेताओं की सनक के हवाले छोड़ दिया गया, जिनका कोई भी सम्बन्ध साहित्य और संस्कृति के साथ नहीं था. उन लोगों का सम्बन्ध किसी भी रूप में न तो व्यवहार की भाषा से था, न मानक भाषा के साथ. वे सिर्फ बहुमत की राय के पैमाने पर भाषा की गुणवत्ता आंकते थे. इन उद्धरणों से यह बात भी सामने आती है कि भाषा के मामले में गाँधी के स्थान पर यदि भारतेंदु की भाषा नीति को महत्व दिया गया होता तो आज भाषानीति को लेकर इतने अप्रिय प्रश्न हमें न झेलने पड़ते.
(जारी)
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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