सालों बाद आज मैसेंजर पर मेरी नरेन से बात हुई. नरेन सुरेखा का छोटा भाई है. अभी कुछ दिनों पहले ही तो उसने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी, मैंने भी उसकी मित्रता सहर्ष स्वीकार कर ली क्योंकि मेरे मन में एक आकुलता थी सुरेखा के बारे में जानने की. (Ek Thi Surekha)
नरेन ने बताया सुरेखा तो यहीं रहती है देहरादून में, दो बेटे हैं उसके पास, आज दोनों जिला स्तर पर क्रिकेट खेलते हैं और बहुत खुश है वह अपनी घर गृहस्थी में.
सुरेखा की दोबारा शादी? और दो बेटे ? जो बुरी तरह बिखर गया था क्या आज उसने वह पुनः समेटकर अपने गृहस्थ जीवन का महल खड़ा कर लिया है? यह सुनकर मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था, क्या इस बीच उसका अपनी नियति से कोई घमासान हुआ या अद्भुत साक्षात्कार हुआ था अपने अन्त:करण से? क्या वर्तमान के उन्हीं प्रश्नों के प्रच्छन्न था उसके भविष्य का उत्तर, अस्तु, मुतमईन हूं मैं कि प्रत्येक नारी के भीतर निहित अदृश्य शक्ति और सुरेखा के स्वयं का उच्च आंकलन करने की क्षमता ने ही उसे प्रवृत्त किया होगा अपनी चुनी हुई राह में चलने के लिए.
क्या यह वही सुरेखा थी? जिसके बेशऊर से मुझे बहुत चिढ थी?
बात उन दिनों की है जब ग्याहरवीं क्लास में मैंने नये स्कूल में दाख़िला लिया था और किसी को जानती तक नहीं थी, तभी एक सांवले रंग की, सामान्य नक़्श, सपाट आचार-व्यवहार और औसत कद-काठी की लड़की हंसते हुए मेरे पास आयी. मेरा नाम पूछते हुए कहने लगी कहां रहती हो? मैंने अपना परिचय दिया. इस दौरान पता चला कि वह हमारे मोहल्ले में ही रहती है. कुछ दिनों में ही मुझे क्लास में उसकी धाक का अंदाज़ा हो गया था, वह इतनी मिलनसार थी कि सारी क्लास की लड़कियां उसके आगे पीछे ही घूमती रहती थीं. क्लास हमारी एक ही थी लेकिन उसके कुछ विषय मुझसे अलग थे जैसे ही वह अपना पीरियड ख़त्म करती, बेवजह अपने छोटे-छोटे, कैवीटी वाले काले से दंत पांत दिखाती मोटी आवाज़ में बेतहाशा हंसती हुई हरदम मेरे पास आ जाती, न जाने क्यों उसके अधरों पर फैली हंसी मुझे कागज़ पर फैली बेतरतीब स्याही सी महसूस होती थी किंतु मेरे प्रति उसका सहयोगी व्यवहार उसकी बेतुकी हंसी को मद्धिम कर देता था.
समय बीतता जा रहा था हम दोनों अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गये थे. वक्त की बढ़ती चाल के साथ कब हम दोनों घर से स्कूल और स्कूल से घर हम-कदम हो गये थे पता ही नहीं चला, एक दिन उसने बताया अब मैं तुम्हारे और पास आ गई हूं. तुम्हारे घर के पीछे वाला जो मकान है वह हमने किराये पर ले लिया है मेरी भी प्रसन्नता का पारावार नहीं था कि अब हमारा एक-दूसरे के घर भी आना-जाना रहेगा.
शुरुआती दौर में हम पहले अपनी दीवार पर खड़े होकर बात करते और फिर एक दिन उसने मुझे अपने घर आने को कहा और उसके बुलाते ही अगले दिन मैं सुरेखा के घर पर थी. वह किचन में कुछ बना रही थी, उसके दूसरे भाई-बहन पढ़ाई कर रहे थे. वहां जाकर पता चला उसके पापा सेना से रिटायर हैं.
स्कूल ज़ुदा हुआ हम दोनों का कैशोर्य भी जुदा हो गया हमसे. मैंने रेग्यूलर कालेज ज्वाईन कर लिया था वह प्राइवेट बीए कर रही थी. ऐसा सभी के साथ होता है कि हमारी परिस्थितियां हमें जहां-जहां ले जाती हैं हम उसी आब-ओ-हवा के हो जाते हैं. शायद यही एक कारण था कि सुरेखा से मिलना अब कम हो गया था किंतु उसे जब भी समय मिलता वह मुझसे मिलने मेरे घर पर आ जाती, यह कतई उसे आहत नहीं करता कि मैं उसके घर नहीं जाती थी उससे मिलने.
एक दिन स्त्री सुलभ हया में लिपटी मुस्कान अधरों पर लिये सुरेखा मेरे घर पर आयी और बातों ही बातों में सुरेखा ने इतला दी कि उसके पापा ने उसके लिए लड़का ढूँढ लिया है अभी बस टीका ही हुआ है और जल्द ही शादी है.
अब सिलसिला यह हो गया था कि जब भी लड़का उससे मिलने आता वह मुझे बताने आ जाती. वह ख़ुश थी. उसने मुझे बताया कि मेरे ससुराल वाले बहुत पैसे वाले हैं और उसका पति इकलौता लड़का है. साथ-साथ उसने हर्ष और शंका से मिश्रित स्वर लहज़े में मुझे बताया कि किंतु लड़का बहुत सीधा है, इतना सीधा कि वह शर्ट के बटन और जुराब भी स्वयं नहीं पहन सकता. इतना सीधा कि उसके घर में सारे वाहन हैं किंतु उसे कुछ भी चलाना नहीं आता. उस समय जब वह मुझे बता रही थी उसकी वही बेतरतीब हंसी उसके शिकायती लहज़े को कहीं निगली जाती थी, किंतु फिर भी उसके मन में दबी किसी सुंदर राजकुमार द्वारा उसको ब्याहकर ले जाने की भावनायें उसकी गोल-मटोल आंखों के सूखेपन में कुलांचे मार ही देती थीं. वह कोशिश बहुत करती अपनी बेढंग हंसी के पीछे असलियत छुपाने की किंतु कहीं न कहीं उसके दर्द का महीन सिरा मेरी पकड़ में आ ही जाता था.
सुरेखा की शादी की घड़ी वाला दिन भी आ ही गया, बड़ी रौनक थी हमारे मोहल्ले में. सुरेखा के घर में पहली शादी थी इसलिए मेहमानों का जमावड़ा भी ख़ूब था. दो तीन दिन पहले संगीत शुरु हो गया था मेरा भी अधिकांश समय वहीं कट रहा था. घर में पहली शादी थी लिहाज़ा उसके पिता ने भी कहीं कोई कमी नहीं रख छोड़ी थी. शादी अपने मुक़ाम पर पहुंच गयी थी, क्योंकि दोनों पक्षों की तरफ से कोई कमी नहीं की गयी थी. सुरेखा विदा हो चली थी अपने नये घर की ओर.
अब अगले दिन नव दंपति के लिए सुरेखा के मायके में कथा रखी गयी थी. कुछ रिश्तेदार अभी वहीं थे, पड़ोसी होने के नाते हमें भी बुलाया गया था.
जैसे ही बूढ़ी होती शाम को रात ने अपने आगोश में लिया सुरेखा अपने ससुराल वालों के साथ कार से उतरी. आज सुरेखा देवी सा रूप रख कर आयी थी. सुर्ख़ लाल साड़ी, करीने से जूड़ा उड़सकर. उस पर गजरा, माथे पर मांगटिका, नाक में बड़ी सी पहाड़ी नथ. क्या कहूं. ऊपर से नीचे तक पूरे जेवरों से लदी हुई . कथा समाप्ति के बाद वह अपनी उसी अपपटी हंसी के साथ सबसे मेल-मुलाकात कर रही थी. इतने सारे रिश्तेदारों से वह घिरी हुई थी कि उससे बात करने का मौका ही नहीं मिल पा रहा था. बहुत कोशिश के बाद उससे बात हो पायी. उसके गले लगकर मैंने पूछा कैसी है? कहने लगी बहुत अच्छा है ससुराल मेरा. बहुत ध्यान रखा वहां सबने मेरा. सुरेखा ने कहा मुझसे कि ससुरजी ने पहली बार पैर छूने पर मुंह दिखाई के एवज़ उसे पचहत्तर हज़ार की एफडी भेंट की है. पच्चहत्तर हज़ार वह भी उस ज़माने में सुनकर मेरे तो होश फा़ख़्ता हो गये थे और साथ ही फ़ख्र भी हो रहा था कि सुरेखा बहुत अच्छे घर में गयी है.
सबकी ज़िदगीयों के अपने-अपने पांव होते हैं अतः स्वत: अपनी-अपनी राह चलने लगती हैं सबकी ज़िदगियां. मैं अपने कालेज में व्यस्त हो गयी, सुरेखा भी अपनी वैवाहिक जिंदगी में मशग़ूल हो गयी. ऐसा ही तो होता है शादी के बाद?
जैसे बरसात के मौसम में कुनकुनी सी धूप अकस्मात आन पड़ती है, ऐसे ही सुरेखा ठीक एक महीने बाद टपक पड़ी मुझसे मिलने. बेरंग सा उड़ा हुआ चेहरा. न सिर पर सिंदूर, न माथे पर बिंदी, बिल्कुल पहले वाली सुरेखा. फिर उसके अधरों पर वही मुझे चिढ़ाने वाली हंसी, लेकिन आज उसकी हंसी ने मुझे परेशान नहीं किया. बनिस्बत इसके आज मुझे वही ग्याहरवीं क्लास का पुराना मौसम याद आ गया. हम दोनों के बीच बहुत सारी बतकही हुई लेकिन ससुराल के बारे में पूछने पर न जाने एक अतृप्त सा जवाब उसने मुझे दिया, कहने लगी लड़का मानसिक रूप से विकृत है. वैवाहिक जीवन क्या होता है वह तो जानता ही नहीं है. सीधा होने में और मानसिक रूप से क्षीण होने में तो फ़र्क है न? उसने अपनी बातों को आगे विस्तार नहीं दिया और न ही मैंने उसे कुरेदा बात बस यहीं ख़त्म हो गयी. जब भी वह अपने मायके होती तब अक्सर मुझसे मिलने आ जाती. बाद-बाद में मुझे यह देखने को मिला कि दो दिन के लिए वह ससुराल जाती बाकि सारा समय वह मायके में ही बिताती. जो इस बात की ओर इंगित कर रहा था
कि उसका दांपत्य जीवन सुचारू रूप से पटरी पर नहीं दौड़ रहा था. आख़िरकार मेरी शंका पुख़्ता हो गयी जब सुरेखा का दीदार मुझे जब-तब उसके घर में होने लगा. अब प्राय: वह घर आने लगी मेरे पास किंतु अब उसके अधरों से वह हंसी पूर्णतया गायब थी, आंखों के नीचे काले धूसर मेघ से घेरे. .
कुछ नया ही सुन रही थी मैं उसके मुख से कि पिताजी का मेरा मायका आना बिल्कुल पसंद नहीं है. अब हालात यह हैं कि मेरे से वह बिल्कुल बात नहीं करते हैं. मैं कहां जाऊं? कैसे रहूं उस मानसिक रूप से विकृत के साथ? ससुराल वालों का भी मेरे प्रति व्यवहार परिवर्तित हो गया है. सुरेखा अब पहले वाली अल्लहड़ व मस्त मौला नहीं रह गयी थी, गहन चिंता का आवरण उसके चेहरे को मलिन कर गया था. उसका कुम्हलाना वाज़िब ही तो था. कोई ढोर-डंगर तो वह थी नहीं कि मात्र हरी घास और चारा-पानी से पेट भरकर वह ख़ुश रहती, दो देह और उनकी आत्माओं के बीच प्रेम और समन्वयता का प्रवाह होना भी तो ज़रूरी है विवाह जैसी संस्थाओं के अनुबंध में. जहां वह पली-बढ़ी थी वह घोंसला भी तो अब उसका कहां रह गया था? तिनके की तरह वह खटक रही थी पिता की नज़रों में, मां होती तो शायद उसके दिल की गहराई में अटे हुए दुख को समझ पाती. माना ससुराल लड़कियों की जीवन यात्रा का आख़िरी ठौर है किंतु मायके और ससुराल के बीच उनके द्वारा तय की गयी दूरी और बीच के सफ़र के मिजाज़ की क्या अभिभावकों द्वारा जांच-पड़ताल या निग़हबानी ज़रूरी नहीं? यह बात मुझे सुरेखा के लिए बहुत हतप्रभ करती है.
सुरेखा ने मुझसे कहा कि वह बीए के बाद आगे पढ़ना चाहती है और मेरे व अन्य दूसरे लोगों के प्रोत्साहन से वह एमए (इतिहास) का फार्म ले आयी.
किंतु जैसा कि सुरेखा को डर था अपने पिता को समझाने हेतु वह मुझे साथ में ले गयी सुनते ही उसके पिता का गुस्सा सातवें आसमान पर था, मेरे ही सामने उसका फार्म फाड़ते हुए उसके टुकड़े-टुकड़े करते हुए सुरेखा को लताड़ते हुए कहने लगे बहुत पढ़ने चली है तू? इसी पढ़ाई ने दिमाग ख़राब कर दिया है तेरा. ले अब देखता हूं तू कैसे पढ़ती है आगे. मेरी तरफ़ देखकर कहने लगे, समृद्ध ससुराल में मैंने इसकी शादी की है किंतु इसका तो दिमाग ख़राब हो गया है. ससुराल में इसे रहना ही नहीं है. सुरेखा की आंखों के कगारों पर आंसू बस ढुलकने को ही थे.
मेरा मन बहुत व्यथित था. आज भी उसके पिता के कहे तिरस्कृत शब्द और असंयम व्यवहार की छापेदारी मेरे मानस पटल पर मज़बूती से अंकित है आज भी सोचती हूं पितृत्व भाव अपने गाढ़े रक़्त के लिए इतना गाफ़िल कैसे हो सकता है? मैं शंकित थी क्या वह सुरेखा के असली पिता थे?
करीब एक हफ़्ते तक सुरेखा से मिलना नहीं हुआ मैंने सोचा वह पिता के इस अप्रत्याशित व्यवहार से आक्रांत होकर शायद अपनी ससुराल चली गयी होगी ठीक ही किया उसने.
आत्मसम्मान से जीना जीवन जीने की सर्वोच्च कला है शायद सब ठीक हो गया होगा सुरेखा के यहां किंतु मैं नहीं जानती थी सुरेखा आत्मसम्मान से तो जीना चाहती थी किंतु दो प्रतिष्ठाओं के बीच का मोहरा बनकर नहीं अपितु ध्वजवाहक बनना चाहती थी वह अपने स्त्रैण के गौरव का,दो दिन बाद वह पुनः प्रकट हो गयी. मेरे पूछने पर कि कैसी है? उसने बहुत सामान्य ढंग से बताया कि “मैं अपने दहेज का सारा सामान ट्रक में भरकर ससुराल से ले आयी हूं.” पिता के घर में तो मेरे लिए जगह नहीं है इसीलिए एक ख़स्ताहाल सा कमरा किराये पर ले लिया है रिक़्शे वालों के मुहल्ले में, वहीं मैंने सारा सामान लगा दिया है” मैंने पूछा लेकिन तुम किराया कहां से दोगी और अपना खर्चा कैसे उठाओगी? कहने लगी एक डाक्टर के क्लीनिक में नौकरी मिल गयी है वही सब काम सिखायेंगे मुझे. इतनी जल्दी उसने अपने जीवन जीने के लिए साधन जुटा लिए थे. मैं उसकी प्रवीणता पर कुछ भी भावना व्यक़्त नहीं कर पा रही थी तब किंतु आज अनुभवजन्य बात
कह रही हूं कि जब खोने के लिए कुछ नहीं होता तो ज़िदगी बड़ी बेख़ौफ़ हो जाती है.
पच्चीस-छब्बीस साल पहले ज़िंदगी में फिर भी इतनी आपा-धापी, मगज़मारी न थी, प्रतिस्पर्धा थी तो उसका हासिल भी था. सुरेखा किसी स्त्री विशेषज्ञ के यहां क्लिनिक में काम करने लगी थी. धीरे-धीरे उसे वहां नर्स का काम सिखाया जा रहा था. अब बमुश्किल वह मिलने आया करती थी. जब कभी आती भी थी मिलने तो उसके पास बताने के लिए और कुछ न होता. सिवा इसके कि “आज फिर कोई रात में दरवाज़ा खटखटा रहा था, पूछ रहा था कि किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है? अपने आपको अकेला मत समझना हम हैं न” मुझे उसकी यह बातें सुन-सुनकर कोफ़्त होने लगी थी और मैं सोचती थी कितनी बदबख़्त है ये क्या यही सब देखने सुनने के लिए इसने अपना ससुराल छोड़ा? आगे मैं अनभिज्ञ हूं कि ज़िंदगी के तूफानों के साथ उसने कैसे संघर्ष किया? क्या मान-प्रतिष्ठा की कसौटी पर खरा साबित कर पायी थी वह स्वयं को? क्योंकि मेरा भी ब्याह हो चुका था. असंख्य सवाल कहीं न कहीं मेरे ज़ेहन में जज़्ब थे सुरेखा के जीवन की परिणति को जानने हेतु.
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सुरेखा की ज़िद्दत की बानगी तो यही कहती हैं कि स्त्रियां ख़ूबसूरत कलाकृति हैं ईश्वर की. वह हर परिस्थिति में सृजनशील हैं जो अपनी बदनियति से उभर आयी समस्याओं से येन-केन प्रकारेण समाधान ढूंढने में जुटी रहती हैं. किंतु विडंबना ही है कि उसे सहेजकर और हिफ़ाज़त से रखने का हुनर समाज को सीखना अभी बाकि है. न जाने कितना तवील सफ़र तय करना है अभी पुरुष-सत्तात्मक समाज को स्त्रियों को जानने और समझने के लिए?
यदि पूरा नहीं तो कम से कम संभावनाओं का आकाश तो हो उनके हिस्से में.
ज़िंदगी को दांव पर लगाने वाली समाज से विलुप्त हुई स्त्रीयों की भी अपनी ही प्रजाति होती है. यह मेरा व्यक्तिगत आंकलन है कि
बागी स्त्रियां वास्तव में विलुप्त नहीं होती हैं बल्कि किसी अंधेरे कोने में अपने होने का सुबूत जुटा रही होती हैं. रोशनियों के बिंब एकत्रित कर वह रेशा बुन रही होती हैं ऐसे पारदर्शी चमकीले थान का जिसमें आने वाली ज़िदगी के सुखद होने की संभावना आर-पार नज़र आ रही होती है ऐसी स्त्रियों को.
वह स्व से बनी स्त्रियां होती है जिनके लिए कोई कांधा नहीं होता उनके आंसुओं के लिए न, कोई हथेली भाग्य की रेखा को पढ़ने के लिए किंतु परिस्थितीजन्य आत्मविश्वास भर जाता है उनमें जिंदगी की पैनी धार पर हमेशा चलते रहने हेतु.
सलाम मेरा सुरेखा और हर उस स्त्री को जो आत्मसम्मान से जीने की सर्वोच्च कला को पहचानती हैं. (Ek Thi Surekha)
देहरादून की रहने वाली सुनीता भट्ट पैन्यूली रचनाकार हैं. उनकी कविताएं, कहानियाँ और यात्रा वृत्तान्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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