यदि हिंदी सिनेमा में अभिनय की विभिन्न पाठशालाओं पर एक मोटी-मोटी नजर दौड़ाई जाये तो दो स्कूल सबसे पहले दिखलाई देंगे. एक नाटकीय अभिनय का और दूसरा स्वाभाविक अभिनय का. सर्वश्रेष्ठ नाटकीय अभिनेता का ताज दिलीप कुमार को पहनाया जाता है जिन्हें चुनौती देने सबसे पहले राजकुमार आए, जिन्होंने अपनी विशिष्ट संवाद अदायगी के बूते दर्शकों के बीच एक ख़ास मुकाम हासिल किया. राजकुमार के बाद दिलीप से मुकाबला करने संजीव कुमार आये. इस श्रेणी में संघर्ष और विधाता में गगनभेदी अभिनय से. मिडिया द्वारा जबरिया घोषित दो अन्य दावेदारों अमिताभ बच्चन (शक्ति) और नसीरुद्दीन शाह (कर्मा) की कलई तो जल्द ही खुल गई.
नाटकीय अभिनय की इस पाठशाला के समानांतर स्वाभाविक एक्टिंग का स्कूल भी है, जिसके झंडाबरदार मोतीलाल रहे हैं. इसी दल की दूसरी पायदान पर अशोक कुमार को, तीसरे स्थान पर पंकज कपूर को और चौथे नंबर पर ओमपुरी को काबिज किया जा सकता है. अकादमिक बहस के लिए ओम, पंकज और अशोक के क्रम बदले भी जा सकते हैं, लेकिन तमाम बहसों से दर-गुजरने के बावजूद मोतीलाल का स्थान पक्का रहेगा.
मोतीलाल एक ऐसे अभिनेता थे जिन्हें फिल्म में उनके चरित्र की लंबाई के लिए नहीं, बल्कि उस चरित्र में प्राण फूंकने वाली गहराई के कारण याद किया जाता है. जागते रहो और देवदास जैसी कालजयी कृतयों में फुटेज के मान से उनकी भूमिका बित्ते भर थी, लेकिन जागते रहो में मुम्बई की वीरान सड़कों पर हाथ में शराब की बोतल थामकर ‘जिंदगी ख़्वाब है, ख़्वाब में झूठ है क्या और भला सच है क्या’ गाने पर लहराते हुए और देवदास की महफिलों में बलखाते हुए उन्होंने अपने पात्र को हाशिए से खींचकर केंद्र पर लाकर खड़ा कर दिया. वे मेरा मुन्ना, एक थी लड़की, लीडर और ये रास्ते हैं प्यार के में भी फबे, लेकिन उन्हें याद किया जाता है तीन फिल्मों के लिए – एक बिमल दा की परख, जिसमें आखिर तक उनका चरित्र एक रहस्य बना रहता है. दूसरी छोटी-छोटी बातें, जो उनकी आखिर फिल्म थी और तीसरी मिस्टर संपत.
अपनी श्वेत-श्याम ठंडी-मीठी फिल्मों के जरिए स्वस्थ फिल्मों का बिगुल बजाने वाले जेमिनी की मिस्टर संपत आजादी के बाद ताजा-ताजा उभर कर आए तिकड़मी लोगों पर करारा व्यंग है. आर.के. नारायण की कृति पर आधारित मिस्टर संपत एक पढ़े-लिखे कामचोर, तेज दिमाग, हाजिरजवाब, मौकापरस्त, झूठे, मक्कार और दूरदर्शी प्रौढ़ मिस्टर संपत की कहानी है.
रेल में बिना टिकट सफ़र करना और होटल में बिना पेमेंट किए माल गटक लेना उसकी फितरत है. सफ़र करते समय भोले-भोले मुसाफिरों से केले झटकर खुद सटक जाना और फिर खाते-खाते उन्हें समाजवाद पर लेक्चर देना, रेड़ी से अखबार छीनकर ताबड़तोड़ पढ़ लेना और फिर यह कहकर बिना खरीदे लौटा देना कि इसमें तो एक भी ढंग की खबर नहीं हैं, उसकी प्रवृत्ति है. फिल्म में मिस्टर संपत एक रेस्तरां के मालिक-कम-मैनेजर आगा मशहूर, एक अभिनेत्री मिस मालिनी और मिलावटी सेठ मक्खनलाल झवेरीलाल घीवाला का ऐसा हाल करता है कि फिल्म के अंत में मालिक-कम-मैनेजर आगा मशहूर तांगा चलाते दिखते हैं, मिलावटी सेठ मक्खनलाल झवेरीलाल घीवाला कुल्फी बेचते दिखते हैं जबकि मिस्टर संपत साधू महाराज के वेष में ट्रेन में सफ़र करते नजर आते हैं. फिल्म के अंत में जब टीसी उनसे टिकट मांगता है तो कहते हैं – “ बच्चा हम साधू हैं. साधू टिकट नहीं देता आशीर्वाद देता है.”
गीत-संगीत और धूम-धड़ाके से सज्जित हमारे हिंदी फ़िल्मजगत में कामेडी का सदैव टोटा रहा है. चलती का नाम गाड़ी, प्यार किये जा, हाफ टिकट, पड़ोसन, अंगूर और गोलमाल जैसी फिल्म हास्य की सेंट-परसेंट गारंटी देने वाली फिल्मों की संख्या दहाई पर भी नहीं पहुंचेगी. ऐसे में मिस्टर संपत हास्य का नया आयाम खोलती है, एक नए तेवर के साथ. इसमें हास्य तो है ही, अपने समय की विद्रूपताओं पर एक कमेंट भी है और यह कमेंट फिल्म में फ्रेम-दर-फ्रेम कायम रहता है. इस प्रकार मिस्टर संपत को हिंदी की पहली ‘ब्लैक कॉमेडी’ कहा जा सकता है.
वसुधा के हिन्दी सिनेमा बीसवीं से इक्कसवीं सदी तक में शशांक दुबे के छपे लेख के आधार पर.
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