मेरे नगपति मेरे विशाल… रामधारी सिंह दिनकर की यह कविता सभी ने पढ़ी होगी. इसके शब्दों, भाव में भी बहे होंगे. और पाठ्य पुस्तक में पढ़ी इस कविता की सुंदर व्याख्या भी की होगी अपनी-अपनी उत्तर पुस्तिका में और परीक्षा उत्तीर्ण कर अगली क्लास में चले आए होंगे.
(Himank aur Kvathnank Ke Beech Book)
मगर शेखर पाठक को संभवत इस कविता ने इस हद तक अनुप्राणित किया, इस हद तक संवेदित किया कि वह सारे जोखिम उठाकर हिमालय के प्रबल आकर्षण में बंधे, बिंधे हुए से बार-बार गए उसके पास,
‘तू महाशून्य में खोज रहा किस जटिल समस्या का निदान
उलझन का कैसा विषम जाल मेरे नगपति मेरे विशाल’
और हर बार ही हिमालय के उस महाशून्य से, उसके ‘निर्मम और निर्मोही एकांत’ से साहस की कथाएं, गाथाएं लेकर लौटे. हर बार की उनकी साहसिक यात्राओं ने यह सत्यापित किया कि ‘यात्राओं ने हमें अधिक संवेदनशील बनाया और हमारी आंख को ज्यादा देखने वाला’ कि यात्राएं हमेशा हमें अधिक संवेदनशील और अधिक मनुष्य बनाती हैं.
शेखर पाठक के परिचय में उन्हें शिक्षक, घुमक्कड़ और संपादक बताया गया है. मैं उन्हें इसके साथ ही एक संवेदनशील मनुष्य, एक भाषाविद, एक इतिहासकार और एक कवि कहती हूँ.
यह पुस्तक ‘हिमांक से क्वथनांक के बीच’ उनके प्रकृति प्रेम, हिमालय के दुस्साहसिक यात्रा वृतांत ही नहीं है केवल. बल्कि यह किसी दीवाने प्रेमी की गाथा है जो अपने महबूब को सिर्फ आंखभर देख आने के लिए जानते, बूझते अपनी जान जोखिम में डालता है. दीवानावार बर्फ, हिमालय के दर्रों, और गलों के बीच जा खड़ा होता है. जब मृत्यु सामने से आती दिख रही है तब शैलेंद्र के गीत गाता है –
‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर.’
अपनी भाषा ,शैली और भाव संवेदन में यह विशुद्ध प्रेम कविता है. यह एक जादुई किताब है. इसका हिमालय राग अपने सम्मोहन में आपको आकंठ डुबो लेता है और इस कदर के आप बिना किसी पूर्व प्रशिक्षण के हिमालय से मिलने को आतुर, उद्यत हो जाएं.
(Himank aur Kvathnank Ke Beech Book)
शेपा (शेखर पाठक) की यह किताब गंगोत्री-कालिंदी, खाल-बद्रीनाथ की यात्रा का, यात्रा वृतांत है. जिसमें वह सिर्फ जगहों, उनके नाम, उनके दृश्य ही नहीं बताते बल्कि वहां के जनजीवन, वनस्पतियों, चिड़ियों के बारे में भी बताते हैं. वह पहले की गई यात्राओं, तब के यात्रियों के नाम के साथ उनकी साहसिक यात्राओं के ऐतिहासिक दस्तावेज भी थमाते चलते हैं. किसी भी स्थान के भौगोलिक सांस्कृतिक इतिहास को भी खंगालते, बताते चलते हैं.
इसी क्रम में स्वामी सुंदरानंद का नाम आता है. जिन्होंने सबसे ज्यादा 10 बार इस कठिन मार्ग से गंगोत्री-कालिंदी खाल-बद्रीनाथ की यात्रा की. स्वामी सुंदरानंद इसे देव मार्ग कहते हैं. स्वामी के दुर्लभ फोटोग्राफी (हिमालय की) की आर्ट गैलरी गंगोत्री में है. यह हम जैसे पर्वतारोही साहित्य के रसिकों को इसी किताब से पता चलता है.
विल्सन एक जुनून पर्वतारोही थे. उनकी यात्राओं और उनके बारे में बताते हुए पहाड़ की कन्या संग्रामी से प्रेम विवाह और उसके बाद के कई सांस्कृतिक परिवर्तनों की कथा भी कहती चलती है यह किताब.
अपनी इस हिमालय यात्रा में ‘शेपा’ अपने पूर्वज और दुर्दम्य में पर्वतारोही, पथारोहियों को (नामी ,बेनामी सभी को) अपना प्रणाम निवेदित करते चलते हैं. शेखर पाठक की इस हिमालय यात्रा में जो कुछ भी आता है- गाद, साद, हिमोड़, वनस्पति, चिड़िया, कौवे, हिमशिखर, आसमान, बादल चांद और चाकू जैसा बहता पानी या कि मौत के परियों के जैसे बेतरह नाचती बर्फ या दिग् दिगन्त तक फैली बर्फ की सफेद चादर हो, या होश गंवाता सन्नाटा हो या आसन्न मृत्यु की आखिरी कंपन हो… या के साथ चल रहे किसी पर्वतारोही की मृत्यु से उपजा क्रमशः भय, विस्मय, उसे ना बचा पाने की असहाय कातरता हो या कि उसके मृत्यु के कारणों से उपजा दूसरों की असंवेदनशीलता का क्षोभ हो ,सरकार की लापरवाही हो कि किसी अपरिचित को खुद की जान जोखिम में डाल कर बचा लेने का देवोपम मानुष संघर्ष हो– जब जो, जैसा और जिस तरह से आया है उसे आप हिमालय के पास गए बिना ही बिल्कुल उसी तरह महसूस करते हैं जैसा शेपा किया होगा.
(Himank aur Kvathnank Ke Beech Book)
मैं यूं ही नहीं इसे एक जादुई किताब कह रही हूँ . शेपा का जादू इस किताब के मुख्य पृष्ठ पलटने के बाद पहले पन्ने से ही शुरू हो जाता है जहां लिखा है-
‘गंगोत्री-कालिंदी खाल-बद्रीनाथ यात्रा में निर्जन सौन्दर्य और मौत से मुलाकात’
शेपा का लेखन और कहन का अंदाज इस हद तक आत्मीय है कि बिना देखे, बिना मिले इस किताब के अंत तक पहुंचने से पहले ही वह पाठकों के लिए शेखर पाठक से शेखर दा हो जाते हैं.
मेरी बात की सत्यता जानने के लिए तो इस किताब को पढ़ना ही होगा. तब तक शेखर दा की कलम से महबूब हिमालय यात्रा के कुछ झलकियां :
खूबसूरत जगहें हमारे मन-मस्तिष्क पर अपना नाम लिख देती हैं और वे एक कविता, गीत, धुन या चित्र की तरह हमारे साथ सदैव रहती हैं. ऐसी जगहें शायद हममें अधिक मानवीय गुण भरती हैं और प्रकृति के आगे विनम्र होने की समझ देती हैं. ये जगहें आदमी की रचनायें नहीं हैं...
इस अत्यन्त निर्मम और निर्मोही एकान्त में प्रकृति के कितने सारे रूपों को देखा और सुना जा सकता था और हम मनुष्य लोग यहाँ अपने वास्तविक मिजाज में प्रकट होने लगते थे. विनायक पर पहुँचे तो लाखों में एक दृश्य था. यह सिर्फ़ जादुई नहीं डबल जादुई दृश्य था. बादलों से भरे पूर्वी आकाश में नन्दादेवी-त्रिशूल शिखरों की एक कभी न देखी हुई रौशनी पड़ रही थी. ये शिखर अलौकिक लग पश्चिमी आकाश काला, डरावने बादलों भरा था और उस तरफ लगातार बर्फ़ थी. अनेक मिनटों तक हम सब कुछ भूलकर दोनों ओर टक-टक निहार रहे थे. इस विरोधाभास में कायनात की क्षमता प्रकट होती थी. डराने की और मनुष्य को रिझाने की भी...
बर्फ बिना धूप के भी चमक मारती थी. चश्मा लगाने की सोचते तो कोहरे के कारण कम दिखने लगता…
ऐसी जगहों पर मन का विज्ञान काम करता था. वह आपको उदास ही नहीं, असहाय और असम्बद्ध भी कर देता था. यात्री अपने पर केन्द्रित हो जाते थे और अपनी चिन्ता ही दुनिया की चिन्ता बन जाती थी. यह पथारोहण या पर्वतारोहण जैसे सामूहिक कार्यकलाप के खिलाफ था. यह उस सामूहिकता के भी खिलाफ था ,जिसे मनुष्य उंचाईयों में सहजता से रच देता है...
रुकना राहत देता था पर यह भय तथा रहस्य को बढ़ा देता था...
मौत हमारे आसपास मँडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी. यहाँ आज उसी का राज था. हमारे शरीर लगातार हिमाँक के पास थे और हमारे मन-मस्तिष्कों में भावनाओं का उबाल क्वथनांक से ऊपर पहुँच रहा था. नीतेश के जीवन का हिमाँक लगातार हमारे चेतन-अवचेतन के क्वथनांक को बढ़ा रहा था. जैसे थर्मामीटर का पारा 105, 106, 109 पार कर काँच को फोड़कर बाहर निकल गया हो. मैंने इतना बदहवास, पराजित और हतप्रभ अपने को जीवन में कभी नहीं पाया था...
शब्द गले तक आते थे और लार में मिलकर नीचे उतर जाते थे...
यह लाटा हो जाने की निरीहता थी...
ब्रह्मांड के नियम सुबह को स्थगित नही कर पाते...
अभी-अभी तक मैं हिमांक की ओर ले जाती मृत्यु और क्वथनांक की ओर ले जाते जीवन का द्वंद महसूस कर रहा था. अब दोनों का पारा स्थिर होने लगा था.
अब हम टिक जायेंगे.
फिर गीत गाने का आग्रह हुआ. हमने गाना शुरू किया –
‘हज़ार वेश धर के आई मौत तेरे द्वार पर मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हारकर.’
गीत घाटी में गूंजने लगा. शैलेन्द्र को हमने हर बार अपने जीवन में स्पर्श की गई हिमालय की सर्वोच्च जगह पर गाया था. क्षण भर को लगा कि जैसे नदी ने बहना बंद कर दिया हो. गीत पूरा हुआ तो नदी की आवाज सुनाई दी. मुझे लगा कि मैं गा सकता हूँ. सभी को लगा कि वे गा सकते हैं. कभी प्रदीप या अनूप टॉर्च जलाते तो हमें एक-दूसरे के चेहरे भी दिख जाते. विजय का चेहरा कुछ सहज है शायद मेरा भी, ऐसा मैं महसूस कर रहा था.
अगले ढाई-तीन घंटे शायद हम गाते रहे. तरह तरह के जन गीत नेगी, मोहन उप्रेती-नईमा खान, केशव अनुरागी, गिर्दा, नरेन्द्र नेगी के गीत फैज़, अदम गोंडवी, कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, नीरज, वीरेन गीत. नये पुराने फ़िल्मी गीत. कुमाउंनी-गढ़वाली-नेपाली गीत. हनुमान चालीसा की तरफ भी आये.
जीवन और मृत्यु के बीच की अनिश्चितता को गीत गा कर जीत जाने वाले जीवट को सलाम. इस यात्रा को जीवंतता के साथ हमारे लिये लिखने वाले शेखर दा को प्रणाम. नवारुण प्रकाशन को बधाई.
(Himank aur Kvathnank Ke Beech Book)
बिहार के प.चम्पारन में जन्मी स्मिता वाजपेयी उत्तराखंड को अपना मायका बतलाती हैं. देहरादून से शिक्षा ग्रहण करने वाली स्मिता वाजपेयी का ‘तुम भी तो पुरुष ही हो ईश्वर!’ नाम से काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है. स्मिता वाजपेयी से उनकी ईमेल आईडी (smitanke1@gmail.com) पर सम्पर्क किया जा सकता है.
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